पूर्व धातकी खंड में, विजयमेरु अभिराम।
तिसमें सोलह जिनभवन, हैं शाश्वत गुणधाम।।१।।
जिनवर प्रतिमा मणिमयी, शिवसुखफल दातार।
आह्वानन विधि से यहाँ, पूजूँ अष्ट प्रकार।।२।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनिंबबसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनिंबबसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनिंबबसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
क्षीरिंसधु नीर लाय स्वर्णभृंग में भरूँ।
श्री जिनेन्द्र पद में चढ़ाय कर्म मल हरूँ।।
मेरुविजय के जिनेन्द्र गेह को यहाँ जजूँ।
स्वात्मसिद्धि हेतु मैं जिनेन्द्र बिंब को भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनिंबबेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
अष्टगंध अतिसुगंध हेमपात्र में लिये।
नाथ पाद अर्च के समस्त दाह नाशिये।।मेरु.।।२।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनिंबबेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
चंद्रकांति के समान श्वेत शालि लाइया।
नाथ पाद के समीप पुंज को चढ़ाइया।।मेरु.।।३।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनिंबबेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
पारिजात मोगरा जुही गुलाब लाइया।
कामनाश हेतु आप पाद में चढ़ाइया।।मेरु.।।४।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनिंबबेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
मालपूप खज्जिकादि शर्करा विमिश्र ले।
भूख व्याधि नाशहेतु आपको समर्पित ले।।मेरु.।।५।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनिंबबेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
स्वर्णपात्र में संजोय दीप आरती करू।
भेदज्ञान को प्रकाश ज्ञान भारती वरूँ।।मेरु.।।६।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनिंबबेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
अग्निपात्र में सदा सुगंध धूप खेवते।
पापपुंज को जलाय स्वात्मसौख्य सेवते।।मेरु.।।७।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनिंबबेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
सेव आम और अनार लाय थाल में भरे।
मोक्षफल निमित्त आज आप अर्चना करें।।मेरु.।।८।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनिंबबेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
नीरगंध अक्षतादि लेय अर्घ्य थाल में।
तीन रत्न प्राप्ति हेतु पूजहूँ त्रिकाल में।।मेरु.।।९।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
परमशांति के हेतु, शांतीधारा मैं करूँ।
सकल विश्व में शांति, सकल संघ में हो सदा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार, पुष्प सुगंधित अर्पते।
होवे सुख अमलान, दुख दारिद्र पलायते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।अथ प्रत्येक अर्घ
शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध, जिनवर प्रतिमा मैं जजूँ।
निज आतम कर शुद्ध, पाऊँ परमानंद मैं।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
विजय मेरु के पृथ्वी तल पर, भद्रशाल वन सोहे।
उसमें पूरबदिशि जिनमंदिर, सुरनरगण मन मोहे।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, अर्चूं जिनगुण गाके।
नरसुर के सुख भोग अंत में, बसूँ मोक्षपुर जाके।।१।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिभद्रशालवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विजयमेरु के भद्रशाल में, दक्षिणदिश जिनधाम।
शाश्वत जिनवर बिंब मनोहर, अतुल अमल अभिरामा।।जल फल.।।२।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिभद्रशालवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
दुतिय मेरु के भद्रशाल में, पश्चिम दिश जिनगेहा।
जिनप्रतिमा को सुरपति नरपति, वंदे भक्ति सनेहा।।जल फल.।।३।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिभद्रशालवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विजय सुराचल भद्रशाल में, उत्तरदिश जिनधामा।
भवविजयी की प्रतिमा उनमें, जजत लहें शिवधामा।।जल फल.।।४।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिभद्रशालवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री विजय मेरुवरशैल, जजतें अघ नाशें।
नंदनवन पूरब जैन, मंदिर अति भासे।।
यतिगण जिन ध्यान लगाय, आतम शुद्ध करें।
मैं जजूँ सर्व जिनबिंब, कर्म कलंक हरें।।१।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिनंदनवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस मेरू दक्षिण माहिं, नंदन वन प्यारा।
जिनभवन अनूपम ताहिं, सब जग में न्यारा।।यतिगण.।।२।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिनंदनवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नंदनवन पश्चिम माँहिं, जिन मंदिर भावे।
इस ही मेरू पर इंद्र, परिकर सह आवें।।यतिगण.।।३।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिनंदनवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
उत्तर दिश नंदन रम्य, जिनवर आलय है।
इस विजय मेरु के मध्य, धर्म सुधालय है।।यतिगण.।।४।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिनंदनवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विजयमेरु नंदनवन ऊपर, वन सौमनस कहा सुखकार।
अकृत्रिम जिनभवन पूर्वदिश, सुर किन्नर मन हरत अपार।।
मैं पूजूँ जिनबिंब मनोहर, मन वच तन कर अर्घ्य चढ़ाय।
रोग शोक भय आधि उपाधी, सब भव व्याधी शीघ्र पलाय।।१।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितप्ाूर्वदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विजयमेरु सौमनस वनी के, दक्षिण दिश जिन भवन विशाल।
गर्भालय में मणिमय प्रतिमा, भविजन पूजन करत त्रिकाल।।मैं पूजूँ.।।२।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पश्चिम दिश सौमनस वनी में, जिनवर सदन मदन मद हार।
मृत्युंयि१ की प्रतिमा उनमें, मुनिगण वंदत मुद मनधार।।मैं पूजूँ.।।३।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विजयमेरु सौमनस रम्यवन, उसमें उत्तर दिश मंझार।
श्रीजिनमंदिर में जिनप्रतिमा, नितप्रति वंदूं बारम्बार।।मैं पूजूँ.।।४।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विजयमेरु पांडुकवन जानो, पूरब दिश जिनभवन बखानो।
सुरपति खगपति नित्य जजें हैं, हम भी अर्घ्य चढ़ाय भजे हैं।।१।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिपाण्डुकानस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस पांडुकवन दक्षिण जानो, शाश्वत श्री जिनभवन महानो।
सुरललना जिनवर गण्ुा गावें, हम भी पूजें जिनपद ध्यावें।।२।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिपांडुकानस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस वन में पश्चिम दिश माहीं, जिनगृह सम उत्तम कुछ नाहीं।
किन्नरियाँ वीणा स्वर साजें, हम भी पूजें सब अघ भाजें।।३।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिपांडुकानस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विजयमेरु पांडुकवन साहे, जिनवर भवन सबन मन मोहें।
देव देवियाँ जिनपद पूजें, हम भी यहाँ तुम्हें नित पूजें।।४।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिपांडुकानस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सोलह जिनवर भवन हैं, विजयमेरु के नित्य।
अर्चूं पूरण अर्घ्य ले, पूर्ण सौख्य हो नित्य।।१।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसंबंधिषोडशजिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनगृह के जिनबिंब को, नमूँ भक्ति मन लाय।
सत्रह सौ अठबीस हैं, पूूजूँ अर्घ चढ़ाय।।२।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसंबंधिषोडशजिनालयमध्यविजरामानएकसहस्रसप्तशताष्टा-िंवशति-जिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मेरु पांडुकवन विदिक्, पांडुकशिलादि चार।
नमूँ नमूँ जिनवर न्हवन, पूत शिला सुखकार।।३।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसंबंधिपांडुकवनविदिक्पांडुकादिशिलाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
यह विजयमेरु चौरासि सहस, योजन उत्तुुंग कहाता है।
वन भद्रसाल से पंचशतक, योजन पर नंदन आता है।।
योजन साढ़े पचपन हजार, ऊपर सौमनस सुहाता है।
योजन अट्ठाइस सहस जाय, पांडुकवन सबको भाता है।।१।।
इसमें सोलह जिनभवन, त्रिभुवनतिलक महान।
उनमें जिनप्रतिमा विमल, नमूँ नमॅूं गुण खान।।२।।
देवाधिदेव श्री जिनेन्द्रदेव हो तुम्हीं।
अनादि औ अनंत स्वयंसिद्ध हो तुम्हीं।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधि पाय, मैं धनवान हो गया।।३।।
रस गंध फरस रूप से मैं शून्य ही कहा।
इस मोह से ही मेरा संबंध ना रहा।।हे नाथ.।।४।।
ये द्रव्यकर्म आत्मा से बद्ध नहीं है।
ये भावकर्म तो मुझे छूते भी नहीं हैं।।हे नाथ.।।५।।
मैं एकला हूं शुद्ध, ज्ञान दरश स्वरूपी।
चैतन्य चमत्कार, ज्योति पुंज अरूपी।।हे नाथ.।।६।।
मैं नित्य हॅूं, अखंड हूँ, आनंद धाम हूूँ।
शुद्धात्म हूँ परमात्म हूँ, त्रिभुवन ललाम हूँ।।हे नाथ.।।७।।
मैं पूर्ण विमल ज्ञान, दर्श वीर्य स्वभावी।
निज आत्मा से जन्य, परम सौख्य प्रभावी।।हे नाथ.।।८।।
परममार्थ नय से मैं तो सदा शुद्ध कहाता।
ये भावना ही एक सर्वसिद्धि प्रदाता।।हे नाथ.।।९।।
व्यवहारनय से यद्यपी, अशुद्ध हो रहा।
संसार पारावार में ही, डूबता रहा।।हे नाथ.।।१०।।
फिर भी तो मुझे आज मिले आप खिवैया।
निज हाथ का अवलम्ब दे, भव पार करैया।।हे नाथ.।।११।।
मैं आश यही लेके नाथ पास में आया।
अब वेग हरो जन्म व्याधि, खूब सताया।।हे नाथ.।।१२।।
हे दीन बंधू शीघ्र ही निज पास लीजिये।
भव सिंधु से निकाल, मुक्तिवास दीजिये।।हे नाथ.।।१३।।
जय जय सुखकंदा, अमल अखंडा,
त्रिभुवन कंदा तुमहि नमूँ।
जय ‘ज्ञानमतिय’ मम, शिवतिय अनुपम,
तुरत मिलावो नित प्रणमूँ।।१४।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरुसंबंधिषोडशजिनालयसर्वजिनबिंबेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।