श्री विजयमेरू दक्षिणी दिश, भरतक्षेत्र सुहावना।
चौबीस तीर्थंकर अतीते, काल के गुण गावना।।
सुर असुर मुकुटों को झुकाकर, अर्चते हैं भाव से।
मैं भी यहाँ कर थापना, पूजूँ उन्हें अति चाव से।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सिंधु नदी को नीर, बाहर का मल नाशता।
अंतर्मल क्षयहेतु, जल से जिन पद पूजिये।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
अष्टगंध वर गंध, तन की ताप हरे सदा।
मनस्ताप क्षय हेतु, चंदन से जिन पद जजों।।२।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
मुक्ताफल समधौत, अक्षत पुंज रचाइये।
आतम संपति हेतु, तीर्थंकर पद पूजिये।।३।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
हरसिंगार प्रसून, सुरभित ले अर्पण करूँ।
भव शर नाशन हेतु, तीर्थंकर पद पूजिये।।४।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
लड्डू मोती चूर, नानाविध पकवान ले।
भूख व्याधि हर हेतु, चरु से जिन पद पूजिये।।५।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
घृत भर दीपक ज्योति, बाह्य तिमिर नाशे सही।
अंतर्ज्योती हेतु दीपक से पूजा करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
अगरु तगर वरधूप, अग्नि पात्र में खेइये।
अशुभ कर्म क्षय हेतु, तीर्थंकर पद पूजिये।।७।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
पिस्ता द्राक्ष बदाम, एला केला फल भले।
सरस मोक्ष फल हेतु, फल से जिनवर पूजिये।।८।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
जल चंदन शाल्यादि, अष्टद्रव्य ले थाल में।
फल सर्वोत्तम हेतु, अर्घ्य चढ़ा जिनपद जजों।।९।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तीर्थंकर परमेश, तिहुँजग शांतीकर सदा।
चउसंघ शांतीहेत, शांतीधार मैं करूँ।।१०।।
हरसिंगार प्रसून, सुरभित करते दश दिशा।
तीर्थंकर पद पद्म, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
रागद्वेष मद मोह को, जीत हुये ‘जिन’ ख्यात।
पृथक पृथक तुम नाम ले, जजूं नमाकर माथ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
‘रत्नप्रभ’ तीर्थंकर रत्नत्रय, निधि के हैं भागी।
फिर भी आिंकचन कहलाते, सर्वपरिग्रह त्यागी।।
जलगंधादिक अर्घ्य सजाकर, पूजूं पद मन लाके।
पुनर्जन्म का दु:ख मिटाकार, बसूँ स्वपद में जाके।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री रत्नप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘अमितनाथ’ जिनदेव अमितगुण, रत्नाकर जगनामी।
एक एक गुण का जो पाते, होते शिवपद स्वामी।।जल.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अमितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘संभवनाथ’ भविकजन के सब, भव दुख दूर करे हैं।
जो जन उनको हृदय कमल में, धारें सौख्य भरे हैं।।जल.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री संभवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘अकलंक’ जिनेश्वर भविजन, कर्मकलंक हरे हैं।
जो जन मन वच तन से पूजें, गुण अकलंक भरे हैं।।जल.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अकलंकजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘चंद्रस्वामि’ जिनराज जगत में, मुनिमन कुमुद विकासी।
गणधर मुनिपति नरपति वंदित, चिच्चैतन्यप्रकाशी।।जल.।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्रस्वामीजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाथ ‘शुभंकर’ सकल विश्व में, शुभ मंगल विस्तारें।
भव्य जनों के सकल दोष हर, उनको भवदधि तारें।।जल.।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री शुभंकरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सप्त तत्त्व के सफल प्रणेता, ‘तत्त्वनाथ’ तीर्थंकर।
सुर परिवार शचीदेवी युत, नितप्रति भजें पुरंदर।।जल.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री तत्त्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘सुंदरस्वामी’ तीर्थंकर, अनुपम छवि मनहारी।
इंद्र हजारों नेत्र बनाकर, निरखे अतिसुखकारी।।जल.।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुंदरस्वामीजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाथ ‘पुरंधर’ तीर्थंकर की, सुरपति सेवा करते।
धर्मधुरंधर कर्मकलुषहर, जिन वंदत दुख हरते।।जल.।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पुरन्धरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री ‘स्वामिदेव’ को, जो जन पूजें ध्यावें।
मृत्युमल्ल को जीत शीघ्र ही निजसुख संपत्ति पावें।।जल.।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री स्वामिदेवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर ‘देवदत्त’ सब जन के, अशुभ दोष परिहारें।
भक्तजनों को अमल अखंडित, सुख देकर भव टारें।।जल.।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री देवदत्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर ‘वासवदत्त’ सुरासुर, वंदित गुणमिण भर्ता।
स्वात्म सुधारस अनुभवकारी, जन जन के हितकर्ता।।जल.।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वासवदत्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘श्रेयनाथ’ तीर्थंकर जग में, मोहबली के जेता।
लोक अलोक निहारें युगपत्, सकल तत्त्व के वेत्ता।।जल.।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री श्रेयनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘विश्वरूप’ जिनदेवदेव को, पूजें सुरगण आके।
अहिपति नरपति सुरपति नितप्रति, वंदे पाप नशाके।।जल.।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री विश्वरूपजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘तपस्तेज’ तीर्थंकर निजका, तेज अपूरब धारें।
नाममंत्र जपने वालों का, मोह तिमिर परिहारें।।जल.।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री तपस्तजेजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘प्रतिबोधदेव’ तीर्थंकर, अखिल जीव प्रतिबोध।
श्रीजिन की वाणी सुनसुनकर, भव्य निजातम शोधें।।जल.।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री प्रतिबोधदेवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘सिद्धार्थदेव’ जिनवर के, चरण कमल को ध्यावें।
सकल मनोरथ सिद्ध करें फिर, सिद्धिप्रिया को पावें।।जल.।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सिद्धार्थदेवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तीर्थंकर ‘संयमजिन’ अठरा दोष रहित गुणशाली।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर पूजित, पूर्णज्ञान द्युतिशाली।।जल.।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री संयमजिनजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘विमलनाथ’ जिनवर को पाकर, संयम पूर्ण करें हैं।
अतीचार मल दोष टालकर, पंचम चरित धरे हैं।।जल.।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘देवेंद्र’ जिनेश्वर चिन्मय, ज्योति स्वरूप अनूपा।
जो भवि पूजें तत्क्षण पावें, निजपरमात्म स्वरूपा।।जल.।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री देवेन्द्रजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘प्रवरनाथ’ जिननाथ अतींद्रय, ज्ञानी अमल अरूपी।
चिन्मूरति आकार विवर्जित चिच्चैतन्य स्वरूपी।।जल.।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री प्रवरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘विश्वसेन’ जिनदेव त्रिजगपति, गुण अनंत के धारी।
भक्ति भाव से जो जन वंदे, सुख पावें अविकारी।।जल.।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री विश्वसेनजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर ‘मेघनंदि’ आनंदित, करते भव जनों को।
तृप्त करें परमानंदामृत, प्यासे योगिजनों को।।जल.।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री मेघनंदिजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री सर्वज्ञ ‘त्रिजेतृक’ भगवन्! केवल ज्ञान दिवाकर।
करते भक्त जनों के मन में, अंतरज्योति उजागर।।जल.।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री त्रिजेतृकजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
भूतकाल के चौबीसों जिन, मुक्ति मार्ग के नेता।
कर्मकुलाचल के भेत्ता हैं, सकल तत्त्व के वेत्ता।।जल.।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री रत्नप्रभादित्रिजेतृकनाथपर्यंतचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
तीनलोक के श्रेष्ठतम, जिनवर विभव प्रधान।
प्रातिहार्य की संपदा तीर्थंकर पहिचान।।१।।
अशोक वृक्ष रत्नकाय चित्रवर्ण का धरे।
हरितमणी की पत्तियाँ हवा लगे हि थरहरे।।
नवीन कोपलों समेत राग को स्वयं धरे।
तथापि भक्त के समस्त राग भाव को हरे।।२।।
सुपूर्णचंद के सामन तीन छत्र शोभते।
अनेक मोतियों समेत भव्य चित्त मोहते।।
जिनेन्द्र के त्रिलोक ऐश्वर्य को बतावते।
भवानिग्नताप भव्य जीव का सभी नाशावते।।३।।
अनेक रत्न के समूह युक्त सिंहपीठ है।
सफेद सुस्फटीकरत्न से बना प्रसिद्ध है।।
अपूर्व पद्म पे अधर जिनेन्द्रदेव राजते।
नमो नमो पदारविंद सर्व पाप नाशते।।४।।
प्रगाढ़ भक्ति से समस्त भव्य मोद से भरे।
स्वहस्त जोड़ आपके सभी तरफ रहे घिरे।।
सुधा झरी ध्वनी सुने स्वकर्म कालिमा हरें।
शनै: शनै: निजात्म ध्याय सिद्धिकन्यका वरें।।५।।
विषय कषाय शून्य नाथ पाद शर्ण आइये।
अनंत जन्म के समस्त कर्म का नशाइये।।
इतीव सूचना करंत देव दुंदुभी बजे।
सुभव्यजीव कर्ण से सुने प्रमोद को भजें।।६।।
अनेक देव भक्ति से सुपुष्प वृष्टि को करें।
समस्त पुष्प वृंत्त को अधो किये धरा गिरे।।
खिले खिले सुवर्ण पुष्प हर्ष को बढ़ावते।
सुदेख देख भक्तवृंद पुण्य को बढ़ावते।।७।।
प्रभासुकचक्र नाथ आप ज्योतिपुंज रूप हैं।
अनेक सूर्य कोटि की प्रभा हरे अनूप हैं।।
सुभव्य को सदैव सात भव दिखावता रहे।
जिनेन्द्र का अपूर्व तेज नित्य पावता रहे।।८।।
सुकुंदपुष्प के समान श्वेत चामरों लिये।
सुयक्षदेव ढोरते अतुल्य भक्ति को लिये।।
चंवर सदैव ऊर्ध्व जाया भव्य सूचना करें।
जिनेन्द्र भक्त नित्य एक ऊर्ध्व ही मती धरें।।९।।
सुआठ प्रतिहार्य औ अनंत विभव धारते।
स्वभक्त को भवाब्धि से तुरंत आप तारते।
सुनी सुकीर्ति आपकी इसीलिये खड़ा यहाँ।
बस एक आश पूरिये न आवना हो फिर यहाँ।।१०।।
स्वात्मसौख्य पीयूषरस, निर्झरणी वच आप।
‘ज्ञानमती’ सुख पूरिये, मिटे सकल संताप।।११।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।