वरद्वीपधातकीखण्ड में जो पूर्व अपर विदेह हैं।
उनमें सदा विहरें जिनेश्वर चार शिव परमेश हैं।।
उन कर्म भूमी में सदा जिनधर्म अमृत वरसता।
मैं पूजहूँ आह्वानन कर निज आत्म अनुभव छलकता।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकस्वयंप्रभऋषभानन-अनंतवीर्यतीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकस्वयंप्रभऋषभानन-अनंतवीर्यतीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकस्वयंप्रभऋषभानन-अनंतवीर्यतीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
हे नाथ! आप पाद में त्रयधार मैं करूँ।
निज चित्त ताप शांति हेतु आश मैं धरूँ।।
तीर्थंकरों के पादकमल चित्त में धरूँ।
अनिष्ट के संयोग जन्म दु:ख को हरूँ।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादिचतुस्तीर्थंकरेभ्यो जलं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! आप चर्ण में चंदन विलेपते।
संपूर्ण ताप नष्ट हो निजतत्त्व लोकते।।तीर्थं.।।२।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादिचतुस्तीर्थंकरेभ्यो चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! आप अग्र शालि पुंज चढ़ाऊँ।
अक्षय अखंड सौख्य हेतु आश लगाऊँ।।तीर्थं.।।३।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादिचतुस्तीर्थंकरेभ्यो अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! आप चर्ण पुष्पमाल चढ़ाऊँ।
सम्पूर्ण सौख्य पाय देह कांति बढ़ाऊँ।।तीर्थं.।।४।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादिचतुस्तीर्थंकरेभ्यो पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! आप सामने नैवेद्य चढ़ाऊँ।
उदराग्नि को प्रशमित करूँ निज शक्ति बढ़ाऊँ।।तीर्थं.।।५।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादिचतुस्तीर्थंकरेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! दीप लेय आप आरती करूँ।
अज्ञान तिमिर नाश ज्ञान भारती भरूँ।।तीर्थं.।।६।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादिचतुस्तीर्थंकरेभ्यो दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
वर धूपघट में धूप खेउ कर्म जलाऊँ।
हे नाथ! आप भक्ति से सम्यक्त्व को पाऊँ।।तीर्थं.।।७।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादिचतुस्तीर्थंकरेभ्यो धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! श्रेष्ठ फल चढ़ाय अर्चना करूँ।
चारित्र लब्धि पाय दु:ख रंच ना भरूँ।।तीर्थं.।।८।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादिचतुस्तीर्थंकरेभ्यो फलं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! अर्घ लये रजत पुष्प मिलाऊँ।
निजात्म तत्त्व प्राप्ति हेतु अर्घ चढ़ाऊँ।।तीर्थं.।।९।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादिचतुस्तीर्थंकरेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाथ! पाद पंकेज, जल से त्रयधारा करूँ।
अतिशय शांतीहेत, शांतीधारा शं करे।।१०।।
हर सिंगार गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
मिल आत्म सुखलाभ, जिनपद पंकज पूजते।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
समवसरण में राजते, तीर्थंकरा पवरमेश।
पुष्पांजलि कर पूजते, नशें सर्व मन क्लेश।।
धातकी खंड पूरब विदेह, सीतानदि के उत्तर तट पे।
अलकापुरि में पितु देवसेन, प्रभु हुये देवसेना माँ से।।
रविचिन्ह सहित श्री ‘संजातक’, तीर्थंकर विहरण करते हैं।
उनको हम पूजें भक्ती से, वे सबके पातक हरते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थअलकापुरीमध्यसमवसरणस्थित-श्रीसंजातकजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री विजयमेरु पूरब विदेह, सीतानदि के दक्षिण तट में।
विजया नगरी पितु मित्रभूति, जननी सुमंगला से जन्मे।।
शशिचिन्ह धरें जग उद्योती, तीर्थेश ‘स्वयंप्रभ’ शिवभर्ता।
वे गणधर मुनिगण से वंदित, उनका अर्चन भव दुखहर्ता।।२।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थविजयानगरीमध्यसमवसरण-स्थितश्रीस्वयंप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
धातकीद्वीप पश्चिम विदेह, सीातोदा के दक्षिण जानो।
है पुरी सुसीमा नृपकीर्ति पितु, मात वीरसेना मानो।।
है सिंहचिन्ह श्री ‘ऋषभानन’ तीर्थंकर अनुपम सुखधारी।
निज परमानंद सौख्य हेतू, मैं पूजूँ त्रिभुवन गुणधारी।।३।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थसुसीमापुरीrमध्यसमवसरण-स्थितश्रीऋषभाननजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री विजयमेरु पश्चिम विदेह, सीतोदा के उत्तर तट में।
है नगरि अयोध्या पिता मेघरथ, प्रसू सुमंगला से जन्मे।।
तीर्थेश ‘अनंतवीर्य’ भगवन्, गजचिन्ह सहित केवलज्ञानी।
जो पूजें ध्यावें गुण गावें, वे होवें धर्म शुक्लध्यानी।।४।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थअयोध्यानगरीमध्यसमवसरण-स्थितश्रीअनंतवीर्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
संजातक अरु स्वयंप्रभ, ऋषभानन जिनराज।
जिनवर अनंतवीर्य को, जजत सरें सब काज।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसम्बन्धिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादिविहरमाण-चतुस्तीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
जयमाला
दोहा
वैभव अतुल अनंतयुत, समवसरण अभिराम।
रत्नत्रय निधि हेतु मैं, शतश्त करूँ प्रणाम।।१।।
हे नाथ! आप तीन लोक में महान हो।
हे नाथ! आप सर्व सौख्य के निधान हो।।
मैं बार-बार आप चरण वंदना करूँ।
सम्यक्त्व रत्न हेतु नाथ अर्चना करूँ।।२।।
हे नाथ! आप भक्ति से सम्पूर्ण दुख टरें।
हे नाथ! आप भक्ति रोग शोक को हरे।।
हे नाथ! आप भक्ति से सब आपदा टलें।
हे नाथ! आप भक्त को सब संपदा मिलें।।३।।
तुम भक्त को कभी भी इष्ट का वियोग ना।
तुम भक्त को कभी अनिष्ट का संयोज ना।।
तुम भक्त के संपूर्ण अमंगल विनश्यते।
तुम भक्त को सर्पादि जंतु डस नहीं सकें।।४।।
गज सिंह व्याघ्र क्रूर जंतु शांतचित बने।
तुम भक्ति के प्रभाव शत्रु मित्र सम बने।।
तुम भक्ति के प्रभाव ईति भीतियाँ टलें।
तुम भक्ति से व्यंतर पिचाश भूत भी टलें।।५।।
हे नाथ! आप पाय मैं निहाल हो गया।
सम्यक्त्व रत्न से ही मालामाल हो गया।।
मैं आप सदृश सिद्ध हूँ चिन्मूर्ति आतमा।
बस आप भक्ति से ही बना अंतरातमा।।६।।
परमात्मा बन जाऊँ नाथ! शक्ति दीजिये।
चारित्र लब्धि पूर्ण करूँ युक्ति दीजिये।।
अपने ही चरण में प्रभो स्थान दीजिये।
‘सज्ज्ञानमती’ संपदा का दान दीजिये।।७।।
नाथ! आपकी भक्ति से, भक्त बनें भगवान।
पुन: अनंतोंकाल तक, रहें पूर्ण धनवान।।८।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थश्रीसंजातकस्वयंप्रभऋषभानन-अनंतवीर्यनामविहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।