अपर धातकी में दक्षिण दिश, भरतक्षेत्र शुभ सोहे।
उसके आर्यखंड में नित छह, काल परावृत हो हैं।।
चौथे युग में भूतकाल के, तीर्थंकर चौबीसों।
आह्वानन कर मैं नित पूजूँ, छूटूँ दु:ख वनी सों।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
महापुण्य भंडार हो तीर्थनामी।
जजॅूं नीर से मैं तुम्हें मोक्षगामी।।
चतुर्विशती तीर्थ चक्रेश वंदूँ।
महापंच परिवर्तनों को विखंडूँ।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामिति स्वाहा।
महाशांति सिंधू सभी शील पूरे।
जजूूँ आपको गंध से ताप चूरें।।चतुविंशती.।।२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो ……..चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
सुचििंत्पड आनंदकंदा तुम्हीं हो।
जजॅूं शालि के पुंज से आप ही को।।चतुविंशती.।।३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो …….. अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
रतीनाथ के आप ही तो विजेता।
जजूँ पुष्प से आपको मुक्तिनेता।।चतुविंशती.।।४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो …….. पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
सभी दोष से शून्य हो आप ही तो।
परं तृप्ति हेतू जजूँ मैं तुम्हीं को।।चतुविंशती.।।५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो …….. नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पंर ज्योतिधारी तुम्हें दीप से मैं।
जजॅूं ज्योति अंतर जगे ज्ञान की मे१।।चतुर्विंशती.।।६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो …….. दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
अगनिपात्र में धूप खेऊं रुची से।
सदा सौख्य हेतू भजूँ मन शुची से।।चतुविंशती.।।७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो …….. धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
अनंनास नींबू फलों से जजूँ मैं।
सुसर्वार्थसिद्धी फलों को जजूँ मैं।।चतुविंशती.।।८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो …….. फलं निर्वपामिति स्वाहा।
वसूद्रव्य ले अर्घ्य को नित चढ़ाऊँ।
करो पूर्ण संयम कि मैं मोक्ष पाऊँ।।चतुविंशती.।।९।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो …….. अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तीर्थंकर परमेश, तिहुँजग शांतीकर सदा।
चउसंघ शांतीहेत, शांतीधार मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार प्रसून, सुरभित करते दश दिशा।
तीर्थंकर पद पद्म, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
सब कर्मों में एक ही, मोह कर्म बलवान।
उसके नाशन हेतु मैं, पूजूँ भक्ति प्रधान।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
‘वृषभनाथ’ जिनदेव, तुम पदपद्म जजें जो।
सर्वमनोरथ पूर, शिवपद सद्म भजें सो।।
पूजूँ मन हरषाय, तुम गुण अनुपम गाके।
सप्त परम स्थान, पाऊँ पुण्य बढ़ाके।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘प्रियमित्र’ जिनेश, मुनिगण नित तुम वंदें।
परमसुखास्पद पाय, शाश्वत सुख अभिनंदें।।पूजें.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री प्रियमित्रजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘शांतिनाथ’ भगवान, त्रिभुवन शांति विधाता।
जो जन आश्रय लेय, पावें निज सुखसाता।।पूजें.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री शांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘सुमतिनाथ’ जिनराज, भक्तन कुमति निवारें।
जो पूजें धर ध्यान, आतम काज संभारें।।पूजें.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाथ ‘आदिनजिन’ आप, करते अमृत वर्षा।
सुर किन्नर गुण गान, करते हर्षा हर्षा।।पूजें.।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘अतिव्यक्त’ जिनेश, तुम गुण व्यक्त हुये हैं।
सुरगण भक्ति समेत, गुण अनुरक्त हुए हैं।।पूजें.।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अतिव्यक्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘कलासेन’ जिनदेव, सर्व कला गुण पूरे।
भक्तों के स्वयमेव, मोहअरी को चूरें।।पूजें.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री कलासेनजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाम ‘कर्मजित’ नाथ, सार्थक आप किया है।
कर्म जीतने हेतु, मैंने शरण लिया है।।पूजें.।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री कर्मजित्जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
समवशरण में आप, मध्य विराज रहे हैं।
श्री ‘प्रबुद्ध’ जिनराज, भव्य प्रबोध रहे हैं।।पूजें.।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री प्रबुद्धजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
कमलासन पर आप, अधर विराज रहे हैं।
श्रीमन् ‘प्रव्रजित’ देव, अनुपम विभव लहे हैं।।पूजें.।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री प्रव्रजितजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘सुधर्म’ जिनराज, सत्य धर्म उपदेशें।
दश धर्मों से नित्य, भवि को शिवपथ देशें।।पूजें.।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुधर्मजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘तमोदीप’ जिननाथ, त्रिभुवनध्वांत विनाशें।
मुनिगण मन में धार, निज आतम प्रतिभासें।।पूजें.।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री तमोदीपजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘वङ्कानाथ’ जिनदेव, निज को शुद्ध किया है।
मुनिगण भी तुम सेव, कर आनंद लिया है।।पूजें.।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वङ्कानाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘बुद्धनाथ’ तीर्थेश, तुम चरणांबुज ध्याके।
भव्य धरें सद्बुद्धि, आतम अनुभव पाके।।पूजें.।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री बुद्धनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘देव प्रबंध’ जिनेन्द्र, प्रभु तुम सौम्य छवी है।
फिर भी मुनिगण चित्त, पंकज हेतु रवी है।।पूजें.।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री प्रबंधदेवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘अतीत’ जिननाथ, भूत भविष्यत् संप्रति।
तीन काल की सर्व, वस्तू जानो नितप्रति।।पूजें.।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अतीतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘प्रमुख’ देव तीर्थेश, तुम वचनामृत पीके।
जन हरते भव व्याधि, सुख पाते शिव श्री के।।पूजें.।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री प्रमुखजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘पल्योपम’ जिन नाम, अनुपम चिंतामणि हैं।
कंठधरें सुरभक्त, तुम अनुपम गुण मणि हैं।।पूजें.।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पल्योपमजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘अकोप’ जिनदेव, तुम पद आश्रय पाके।
सर्व कषाय विनाश, भव्य बसे शिव जाके।।पूजें.।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अकोपजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर ‘निष्ठित’ आप, पूर्ण कृतार्थ भये हैं
इसीलिये जन आय, तुम पद भक्त भये हैं।।पूजें.।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री निष्ठितजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
आशा पाश विनाश, परमानंद लिया है।
‘मृगनाभी’ जिनराज, परणी मुक्ति तिया है।।पूजें.।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री मृगनाभिजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘देवेन्द्र’ महान्, तीर्थंकर पद पाके।
कर्म कलंक निवार, सुख भोगें निज पाके।।पूजें.।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री देवेन्द्रजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जो अध्यातम निष्ठ, जिन सम आप विलोकें।
वे ‘पदस्थ’ तीर्र्थेश, भक्त बसें शिव लोके।।पूजें.।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पदस्थजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘शिवनाथ’ प्रधान, शिवमय मंगलकर्ता।
जो पूजें धर ध्यान, शीघ्र बने शिवभर्ता।।पूजें.।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री शिवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मैं अतीत जिनदेव को, पूजूूं भक्ति समेत।
पूरण अघ्यं चढ़ाय हूँ, पूर्ण सौख्य के हेत।।२५।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वृषभदेववादिशिवनाथपर्यंतचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
अतिअद्भुत लक्ष्मी धरें, समवसरण प्रभु आप।
तुम धुनि सुन भववृन्द नि, हरें सकल संपताप।।१।।
जय जय त्रिभुवन पति का वैभव, अंतर का नुपम गुणमय है।
जो दर्श ज्ञान सुख वीर्य रूप, आनन्त्य चतुष्टय निधिमय है।
बाहर का वैभव समवसरण, जिसमें असंख्य रचना मानी।
जब गणधर भी वर्णन करते, थक जाते मनपर्यय ज्ञानी।।२।।
यह समवसरण की दिव्य भूमि, इक योजन उपरि पृथ्वी तल से।
द्वादश योजन उत्कृष्ट कही, इस योजन हो घटते क्रम से।।
यह भूमि कमल आकार कही, जो इंद्रनीलमणि निर्मित है।
है गंधकुटी इस मध्य सही, जो कमल कर्णिका सदृश है।।३।।
पंकज के दल सम बाह्य भूमि, जो अनुपम शोभा धारे है।
इस समवसरण का बाह्य भाग, दर्पण तल सम रुचि धारे है।।
सब बीस हजार हाथ ऊँचा, यह समवसरण है अति सोहे।
एकेक हाथ ऊँची सीढ़ी, सब बीस हजार प्रमित शोभे।।४।।
पंगू अंधे रोगी बालक, औ वृद्ध सभी जन चढ़ जाते।
अंतर्मुहूर्त के भीतर ही, यह अतिशय जिन आगम गाते।।
इसमें शुभ चार दिशाओं में, अति विस्तृत महावीथियाँ हैं।
वीथी में मानस्तम्भ कहे, जिनकी कलधौत पीठिका हैं।।५।।
इक योजन के कुछ अधिक तुंग, बारह योजन से दिखते हैं।
इनमें हैं दो हजार पहलू, स्फटिक मणी के चमके हैं।।
उनमें चारों दिश के ऊपर, सिद्धों की प्रतिमायें राजें।
मानस्तंभों की सीढ़ी पर, लक्ष्मी की मूर्ति अतुल राजें।।६।।
ये अस्सी कोशों तक सचमुच, अपना प्रकाश पैâलाते हैं।
जो इनका दर्शन करते हैं, वे निज अभिमान गलाते हैं।।
मानस्तंभों के चारों दिश, जल पूरित स्वच्छ सरोवर हैं।
जिनमें अति सुंदर कमल खिले, हंसादि रवों से मनहर हैं।।७।।
ये प्रभु का सन्निध पा करके, ही मान गलित कर पाते हैं।
अतएव सभी अतिशय भगवन्! तेरी ही गुरुजन गाते हैं।।
मैं भी प्रभु तुम सन्निध पाकर, संपूर्ण कषायों को नाशूँ।
प्रभु ऐसा वह दिन कब आवे, जब निज में निज को परकाशूँ।।८।।
जिननाथ! कामना पूर्ण करो, जिन चरणों में आश्रय देवो।
जब तक नहिं मुक्ति मिले मुझको, तब तक ही शरण मुझे लेवो।।
तब तक तुम चरण कमल मेरे, मन में नित स्थिर हो जावें।
जब तक नहिं केवल ‘ज्ञानमती’, तब तक मम मन तुम पद ध्यावे।।९।।
तीर्थंकर गुणरत्न को, गिनत न पावें पार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।१०।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभूतकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।