अचलमेरु के दक्षिण में शुभ भरत है।
उसके चौथे युग में जिन वृष करत हैं।।
भाविकाल के चौबिस जिनवर जानिये।
आज यहीं थापन कर पूजन ठानिये।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
परिपूर्ण विशुद्ध गुणांबुधि हो, जल से तुम पाद जजूँ खुश हो।
चउवीस जिनेश्वर सौख्य प्रदा, शतइंद्र जजें तुम पाद मुदा।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशति-तीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामिति स्वाहा।
तुम जीत स्वदोष भये जिनजी। हम गंध लिये तुम पूजत जी।
चउवीस जिनेश्वर सौख्य प्रदा। शतइंद्र जजें तुम पाद मुदा।।२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशति-तीर्थंकरेभ्यो ……. चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
सित तंदुल के इत पुंज धरूँ। निज अक्षय सौख्य तुरंत भरूँ।
चउवीस जिनेश्वर सौख्य प्रदा। शतइंद्र जजें तुम पाद मुदा।।३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशति-तीर्थंकरेभ्यो ……. अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
सुरद्रुम के पुष्प लिये कर में। पदपद्म जजूूं भक्ती भर मैं।
चउवीस जिनेश्वर सौख्य प्रदा। शतइंद्र जजें तुम पाद मुदा।।४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशति-तीर्थंकरेभ्यो ……. पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
बरफी गुझिया पकवान भरें। तुम पूजत ही भव रोग हरें।
चउवास जिनेश्वर सौख्य प्रदा। शतइंद्र जजें तुम पाद मुदा।।५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशति-तीर्थंकरेभ्यो ……. नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
घृत दीपक ज्योति अंधेर हरे। तुम पाद जजॅूं भ्रम दूर करे।
चउवीस जिनेश्वर सौख्य प्रदा। शतइंद्र जजें तुम पाद मुदा।।६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशति-तीर्थंकरेभ्यो ……. दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभुध्यान अगनि में शुद्ध हुये। हम खेवत धूप विशुद्ध हुये।
चउवीस जिनेश्वर सौख्य प्रदा। शतइंद्र जजें तुम पाद मुदा।।७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशति-तीर्थंकरेभ्यो ……. धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
अखरोट बदाम अनार भले। तुम पूजत ही फल मोक्ष फले।
चउवीस जिनेश्वर सौख्य प्रदा। शतइंद्र जजें तुम पाद मुदा।।८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशति-तीर्थंकरेभ्यो ……. फलं निर्वपामिति स्वाहा।
वसुद्रव्य मिलाकर अर्घ्य किया। तुम अर्पत सौख्य अनर्घ्य लिया।
चउवीस जिनेश्वर सौख्य प्रदा। शतइंद्र जजें तुम पाद मुदा।।९।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशति-तीर्थंकरेभ्यो ……. अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तीर्थंकर परमेश, तिहुँजग शांतीकर सदा।
चउसंघ शांतीहेत, शांतीधार मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार प्रसून, सुरभित करते दश दिशा।
तीर्थंकर पद पद्म, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
स्थिति औ अनुभाग, बंध कषायों से कहा।
इनके नाशन हेतु, पुष्पांजलि करा पूजहूँ।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
‘रक्तकेश’ जिननाथ, भव भय व्याधी विनाशी।
मैं पूजूँ नित आप, चिन्मय ज्योति विकाशी।।
सात भयों से दूर, पूर्ण अभय पद दाता।
जो पूजें तुम नित्य, पावें अनुपम साता।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री रक्तकेशजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘चक्रहस्त’ जिनदेव, धर्म चक्र के धारी।
समरस अमृत हेतु, मैं पूजूँ भवतारी।।सात.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चक्रहस्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘कृतनाथ’ जिनेंद्र, जो नित मन तुम धारें।
आप तरें भवसिंधु, औरन को भी तारें।।सात.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री कृतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘परमेश्वर’ आप, ब्रह्मा विष्णु महेशा।
शुद्ध बुद्ध जिननाथ, परमानंद हमेशा।।सात.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री परमेश्वरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाम सुमूर्ति स्वरूप, चिन्मय मूर्ति तुम्हीं हो।
ज्ञानमूर्ति अनमूर्ति, अनुपम ज्योति तुम्हीं हो।।सात.।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुमूर्तिजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘मुक्तिकांत’ भगवान्, त्रिभुवन के गुरु माने।
अगुरुलघू गुण पूर्ण, लोक शिखर स्थाने।।सात.।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री मुक्तिकांतजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देव ‘निकेशि’ महान्, तुम पद हृदय कमल में।
जो धारें धर प्रीति, होते पूर्ण विमल वे।।सात.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री निकेशिजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘प्रशस्त’ जिनराज, कर्म कुलाचल चूरे।
जो तुम भक्ति करंत, समरसमय सुख पूरें।।सात.।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री प्रशस्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘निराहार’ जिन तृप्त, कवलाहार न करते।
केवलज्ञानी आप, अनंत चतुष्टय धरते।।सात.।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री निराहारजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देव ‘अमूर्त’ स्वरूप, चिन्मूरति गुणराशी।
वर्णादिक से शून्य, चिन्मय ज्योति प्रकाशी।।सात.।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अमूर्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाममंत्र ‘द्विजनाथ’, जो सुमिरे नित मन में।
मोहसर्प विष दूर, करता वह इक क्षण में।।सात.।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री द्विजनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘श्रेयोगत’ तीर्थेश, भविजन को सुखदाता।
जो तुम नमत हमेश, पावें निज सुख साता।।सात.।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री श्रेयोगतजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘अरुजनाथ’ भगवान्, भवरुज वैद्य तुम्हीं हो।
तुम पदकंज प्रणाम, इंद्र करें नत ही हो।।सात.।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अरुजनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘देवनाथ’ महादेव, तुम देवन के देवा।
गणधर मुनिगण नित्य, करते तुम पद सेवा।।सात.।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री देवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाम ‘दयाधिक’ आप, करूणािंसधु जगत में।
जो तुम पद अनुरक्त, होते मगन अपन में।।सात.।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री दयाधिकजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘पुष्पनाथ’ जिनदेव, कुसुमवाण को जीता।
करते देव हमेश, पुष्पवृष्टि मन प्रीता।।सात.।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पुष्पनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभु ‘नरनाथ’ जिनेन्द्र, नरसुर के सुख भोगे।
तीर्थंकर पद धार, मुक्ति रमापति होंगे।।सात.।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘प्रतिभूत’ महान, धर्मधुरंधर मानें।
सुरकिन्नर गण आय, रुचि से पूजा ठानें।।सात.।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री प्रतिभूतजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘नागेंद्र’ जिनेंद्र, तुम अनुराग करे जो।
कर्म अरी को चूर, पूरण सौख्य भरे सो।।सात.।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नागेन्द्रजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाथ ‘तपोधिक’ आप, आराधन के स्वामी।
दर्शन ज्ञान स्वरूप, द्वादश गण के स्वामी।।सात.।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री तपोधिकजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभो ‘दशानन’ देव, दश विध धर्म प्रकाशे।
समवसरण के बीच, भवि मन कमल विकासें।।सात.।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री दशाननजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘आरण्यक’ देव, परम पुरुष जगनामी।
पुण्य महोदधि आप, यश गावें शिवगामी।।सात.।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री आरण्यकजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘दशानीक’ भगवान्, चौंतिस अतिशय पाके।
सुख पावेंगे नित्य, मोक्ष पुरी में जाके।।सात.।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री दशानीकजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘सात्विक’ जिनराज, सब सत्त्वों के पालक।
षट्कायों की नित्य, दया करें अघटालक।।सात.।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सात्विकजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
परमहंस परमेश, श्री चौबीस जिनेशा।
परम पिता भुवनेश, नमत शतेंन्द्र हमेशा।।
सात भयों से दूर, पूर्ण अभय पद दाता।
जो पूजें तुम नित्य, पावें अनुपम साता।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री रक्तकेशादिसात्विकपर्यंतचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
नित्य निरंजन देव, परमहंस परमातमा।
तुम गुणमणि की माल, धारू कंठ विषे सदा।।१।।
चिन्मय ज्योति चिदंबर चेतन, चिच्चैतन्यसुधाकर।
जय जय चिन्मूरत चिंतामणि, चिंतितप्रद रत्नाकर।।
आप अलौकिक कल्पवृक्ष प्रभु, मुंहमांगा फल देते।
आप भक्त चक्री सुरपति, तीर्थंकर पद पा लेते।।२।।
जो तुम चरण-सरोरुह पूजें, जग में पूजा पावें।
जो जन तुमको चित में ध्याते, सब जग उनको ध्यावें।।
जो तुम वचनसुधारस पीते, सब उनके वच पालें।
जो तुम आज्ञा पालें भविजन, उन आज्ञा नहिं टाले।।३।।
जो तुम सन्मुख भक्तिभाव से, नृत्य करें खुश होके।
तांडव नृत्य करें उन आगे, सुरपति भी मुद होके।।
जो तुम सुयश सदा विस्तारें, वे जग में यश पाते।।४।।
मन से भक्ति करें जो भविजन, वे मन निर्मल करते।
वचनों से स्तुति को पढ़कर, वचनसिद्धि को वरते।।
काया से अंजलि आदि कर, तन का रोग नशाते।
त्रिकरण शुचि से वंदन करके, कर्मकलंक नशाते।।५।।
इस विध तुम यश आगम वर्णें, श्रवण किया है जब से।
तुम चरणों में प्रीति लगी है, शरण लिया मैं तब से।।
हे जिनाथ! कृपा ऐसी अब, मुझपर तुरतहि कीजे।
‘सम्यग्ज्ञानमती’ लक्ष्मी को, देकर निजसम कीजे।।६।।
परमश्रेष्ठ चौबीस जिन, पंचकल्याणक ईश।
नमूँ नमूँ तुमको सदा, श्रद्धा से नत शीश।।७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशति-तीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।