पश्चिम सुधातकि खंड में वर पूर्व अपर विदेह हैं।
उनमें सदा विहरें जिनेश्वर चार अनुपमदेह हैं।।
ये सूरिप्रभ व विशालकीर्ती वङ्काधर चंद्रानना।
आह्वानन कर पूजूँ इन्हें होवे निजात्म प्रभावना।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभविशालकीर्ति-वङ्काधरचंद्रानननामचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभविशालकीर्ति-वङ्काधरचंद्रानननामचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभविशालकीर्ति-वङ्काधरचंद्रानननामचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
पवित्र नीर स्वर्ण भृंग में भराय लाइया।
जिनेन्द्र पाद पद्म में त्रिधार को कराइया।।
अनंत ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य हेतु अर्चना।
जिनेन्द्र! आश पूरिये करूँ अनंत वंदना।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभआदिविहरमाण-चतुस्तीrर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
पवित्र गंध लेय नाथ पाद पद्म चर्चिया।
समस्त ताप नाश हेतु आप चर्ण अर्चिया।।अनंत।।२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभआदिविहरमाण-चतुस्तीrर्थंकरेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
अखंड श्वेत शालि पुंज आपको चढ़ायके।
अखंड संपदा मिले प्रभो तुम्हें मनायके।।अनंत।।३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभआदिविहरमाण-चतुस्तीrर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
गुलाब श्वेत लाल पीत वर्ण के लिये।
जिनेंद्र आप चर्ण में चढ़ाय मोद पा लिये।।अनंत।।४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभआदिविहरमाण-चतुस्तीrर्थंकरेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
सुहाल खीर मोदकादि थाल में भराइया।
प्रभो! तुम्हें चढ़ाय भूख व्याधि को नशाइया।।अनंत।।५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभआदिविहरमाण-चतुस्तीrर्थंकरेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
कूपर ज्योति ज्वाल के जिनेन्द्र आरती करूँ।
समस्त चित्त मोह नाश ज्ञान भारती भरूँ।।अनंत।।६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभआदिविहरमाण-चतुस्तीrर्थंकरेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
सुगंध धूप अग्नि पात्र के सुखेयके अबे।
समस्त पाप पुंज को जलाय दो प्रभो अबे।।अनंत।।७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभआदिविहरमाण-चतुस्तीrर्थंकरेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
इलायची बदाम द्राक्ष आपको चढ़ावते।
शिवांगना वरें स्वयं समस्त सौख्य धावते।।अनंत।।८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभआदिविहरमाण-चतुस्तीrर्थंकरेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
जलादि अर्घ में सुवर्ण पुष्प को मिलाय हूँ।
निजात्म तीन रत्न हेतु आपको चढ़ाय हूँ।।अनंत।।९।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभआदिविहरमाण-चतुस्तीrर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाथ! पादपंकेज, जल से त्रयधारा करूँ।
अतिशय शांती हेत, शांतीधारा विश्व में।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
मिले आत्म सुख लाभ, जिनपद पंकज पूजते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
विहरमाण जिनराज, समवसरण में राजते।
पुष्पांजलि कर आज, जजॅूँ जिनेश्वर को यहाँ।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
धातकी खंड में अचलमेरु, पूरब विदेह सीता उत्तर।
विजया नगरी में नागराज, पितु माता भद्रा लोकोत्तर।।
रवि चिन्ह धरे प्रभु ‘सूरिप्रभ’ त्रिभुवन भरमें उद्योत करें।
नित आत्म रसास्वादी साधू, वंदे हम भी जयघोष करें।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीविहरमाण-श्रीसूरिप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पश्चिम धातकी में अचलमेरु, पूरब विदेह नदि के दक्षिण।
परिपुंडरीकिणी पिता विजय, माता विजया उत्तम लक्षण।।
शशि चिन्ह धरें भवतम हरते, तीर्थेश ‘विशालकीर्ति’ मानें।
सुर किन्नरगण स्तुति करते, उन प्रभु की हम पूजा ठानें।।२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीविहरमाणश्रीविशाल-कीर्ति जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री अचलमेरु पश्चिमविदेह, सीतोदा के दक्षिण तट में।
है पुरी सुसीमा पिता पद्मरथ, सरस्वती माँ से जन्में।।
है चिन्ह शंख प्रभु लोकोत्तम, तीर्थेश ‘वङ्काधर’ कहलाते।
परमाल्हादक सुख के भोक्ता, तुम पूजन कर हम गुण गाते।।३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीविहरमाण-श्रीवङ्काधरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री अचलमेरु पश्चिम विदेह, सीतोदा नदि के उत्तर में।
वर पुंडरीकिणी नगरी के, नृप की रानी से प्रभु जन्में।।
तुम वृषभचिन्ह है ‘चंद्रानन’, मेरा मन कुमुद खिला दीजे।
मैं भक्ती से तुम पद पूजूँ, मेरी निज राज्य दिला दीजे।।४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीविहरमाण-श्रीचंद्राननजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तीर्थंकर जग के पिता, विहरमाण सुर वंद्य।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय के, हरूँ सकल जग द्वंद्व।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसूरिप्रभआदिविहरमाण-चतुस्तीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
जयो जयो जिनराज, तुम महिमा मुनि गावें।
जयो जयो जिनराज, गणधर भी शिर नावें।।
जयो जयो जिनराज, गुण अनंत के स्वामी।
जयो जयो जिनराज, त्रिभुवन अंतर्यामी।।१।।
ज्ञानावरण विनाश, ज्ञान अनंत प्रकाशा।
दर्शनावरण विनाश, केवल दर्श प्रकाशा।।
सर्व मोह को चूर, सौख्य अनंत विकासा।
अंतराय कर दूर, वीर्य अनंत विकासा।।२।।
हे प्रभु आप अनंत, चार चतुष्टय धारी।
शत इंद्रों से वंद्य, त्रिभुवन जन मनहारी।।
नाथ! आप की जाप, कर्म कलंक विनाशे।
जपूँ जपूँे दिनरात, अनुपम सौख्य प्रकाशे।।३।।
अहो! जगत के सूर्य, मुनिमन कमल विकासी।
अहो जगत के चंद्र, भविजन कुमुद विकासी।।
अहो भविकजन बंधु, तुम सम नहिं हितकारी।
त्रिभुवन जन अभिवंद्य, नमूँ नमूँ सुखकारी।।४।।
तीनलोक के आप, एक सुमंगल कर्त्ता।
हरो सकल दुख ताप, सब सुख मंगल कर्त्ता।।
तीन लोक में आप, सर्वोत्तम मुनि मानें।
हरो हरो भव ताप, लोकोत्तम जग जाने।।५।।
तीन लोक में आा, सबके लिये शरण हो।
नमूँ नमूँ नत माथ, मेरे आप शरण हो।।
सर्व उपद्रव दूर करके सब सुख दीजे।
‘ज्ञानमती ’ सुख पूर, मिले कृपा अब कीजे।।६।।
जय जय जिनराज, जग सिरताजा, निजहितकाजा तुमहिं जजूँ।
प्रभु निज पद दीजे, ढील न कीजे, अरज सुनीजे नित्य भजूँ।।७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखंडद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रविहरमाणश्रीसूरिप्रभविशाल कीर्तिवङ्काधरचंद्रानननामचतुस्तीर्थंरेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।