अथ स्थापन-अडिल्ल छंद
पूरब पुष्कर में ऐरावत जानिये।
आगामी तीर्थंकर को सरधानिये।।
आह्वानन कर उनको नितप्रति पूजिये।
परमानंदस्वरूप सिद्धिपति हूजिये।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
कर्मपंक प्रक्षालन काज, जल से पूजूँ जिन चरणाब्ज।
चौबीसों जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुख सद्म।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो जलं निर्वपामिति स्वाहा।
चंदन घसूँ कपूर मिलाय, पूजूँ आप चरण सुखदाय।
चौबीसों जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुख सद्म।।२।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
चंद्रकिरणसम तंदुल श्वेत, पुंज चढ़ाऊँ निजपद हेत।
चौबीसों जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुख सद्म।।३।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
वकुलकमल सुम हरसिंगार, चरण चढ़ाऊँ हर्ष अपार।
चौबीसों जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुख सद्म।।४।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
कलाकंद गुझिया पकवान, तुम्हें चढ़ाउँ भवदुखहान।
चौबीसों जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुख सद्म।।५।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
दीपक ज्योति करे उद्योत, पूजत ही हो निज प्रद्योत।
चौबीसों जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुख सद्म।।६।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
धूप दशांग अग्नि में ज्वाल, दुरित कर्म जलते तत्काल।
चौबीसों जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुख सद्म।।७।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
एला केला द्राक्ष बदाम, पूजत हो निज में विश्राम।
चौबीसों जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुख सद्म।।८।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो फलं निर्वपामिति स्वाहा।
अर्घ्य चढ़ाय जजूँ जिनराज, तुम प्रभु तारण तरण जिहाज।
चौबीसों जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुख सद्म।।९।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तीर्थंकर परमेश, तिहुँजग शांतीकर सदा।
चउसंघ शांतीहेत, शांतीधार मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार प्रसून, सुरभित करते दश दिशा।
तीर्थंकर पद पद्म, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।अथ प्रत्येक अर्घ्य
अतुल ऋद्धि के नाथ, अतुल रूप के तुम धनी।
अगणित गुण भंडार, मेरे सब संकट हरो।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
जिनराज ‘यशोधर’ जगतवंद्य। तुम गुणगण गावें इंद्रवृंद।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री यशोधरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘सुकृतनाथ’ जो नमें आप। उनके मिट जाते सकल ताप।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुकृतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘अभयघोष’ दें अभयदान। सब प्राणी गण का करें त्राण।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अभयघोषजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘निवार्ण’ जिनेश्वर आपनाम। जपकर भवि पाते सुखद धाम।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री निवार्णजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘व्रतवास’ जिनेश्वर व्रतिकबंध। तुम ही हो भगवन जगतबंधु।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री व्रतवासजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘अतिराज’ अखिल गुण के निधान। तुम भक्त लहें निरुपम सुनाथ।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अतिराजजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘अश्वदेव’ तुम चरण सेव। जो करते सुख लभते स्वमेव।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अश्वदेवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘अर्जुन’ जिनेंद्र तुम पापहीन। मुनिगण तुम ध्यावें ध्यानलीन।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अर्जुनजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘तपश्चंद्र’ तप में प्रवीण। तुम शिष्य तपें तप स्वात्मलीन।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री तपश्चंद्रजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘शारीरिक’ जिन तनु तापहीन। तुम ध्याकर जन हों देह हीन।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री शारीरिकजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर ‘महेश’ तुम देवदेव। सुरपति भी करते चरणसेव।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय्ा आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री महेशजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘सुग्रीव’ जिनेश्वर नाममंत्र। मुनिजन को पूर्ण करे स्वतंत्र।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुग्रीवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
हे ‘दृढ़प्रहार’ यमशत्रु आप। भक्तों के हरते सकल ताप।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री दृढ़प्रहारजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
हे ‘अंबरीक’ अगणित मुनीश। तुम पद पंकज में नमत शीश।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अंबरीकजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
हे ‘दयातीत’ करूणानिधान। करूणा कर दीजे स्वपद थान।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री दयातीतजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘तुंबर’ जिनेश गुणगण निधान। जो पूजें ध्यावें मोक्ष थान।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री तुंबरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
हे ‘सर्वशील’ अठरह हजार। शीलों के स्वामी गुणअपार।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सर्वशीलजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘प्रतिजात’ जिनेश्वर जन्महीन। भविजनको करते कर्महीन।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री प्रतिजातजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनराज ‘जितेंद्रिय’ परमसौख्य। इंद्रियविरहित भोगें मनोज्ञ।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जितेन्द्रियजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
हे ‘तपादिक’ भविकमलसूर्य। शिवपथके नेता परम धूर्य।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री तपादित्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘रत्नाकर’ गुण आकर महान्। अगणित गुणमणिकी आप खान।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री रत्नाकरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘देवेश’ तीर्थंकर देवपूज्य। तुमवाणी भी है जगत्पूज्य।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री देवेशजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘लांछन’ सुनाम शुभचिन्हधार। तनशक्ती भी तुम है अपार।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री लांछनजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘सुप्रदेश’ जिनवर हमेश। भक्तों के हरते सकल क्लेश।
मैं पूजॅूं अर्घ्य चढ़ाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुप्रदेशजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सज्जाति सद्गार्हस्थ, पारिव्राज्य और सुरेन्द्रता।
साम्राज्यपद आर्हन्त्य पद, निर्वाणपद की पूर्णता।।
ये सात परम स्थान हैं, तुम भक्त इनको पावते।
क्रम से परमनिर्वाण पाकर, फिर न भव में आवते।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री यशोधरादिसुप्रदेशपर्यंतचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
जयमाला रोला छंद
जय जय श्री जिनदेव, तुम महिमा अतिभारी।
जय जय तुम पद सेव, करें निकट संसारी।।
जय जय मुनिगण नित्य, तुम गुण महिमा गाते।
हृदय कमल के माहिं, तुमको सहज बिठाते।।१।।
भविजन मन गृह माहिं, जब तुम वास करोगे।
उनके सब संताप, प्रभु तब क्यों न हरोगे।।
तुम तनको संस्पर्श, पवन लगे तन में जब।
अहो कौन सी व्याधि, दूर नहीं होवे तब।।२।।
सीता को जब राम, अग्नि प्रवेश कराया।
लिया आपका नाम, अग्नी नीर बनाया।।
शील माहात्म्य विकास, बहुविध कमल खिले हैं।
नाम मंत्र परसाद, जन जन हृदय मिले हैं।।३।।
वारिषेण के घात, हेतु शस्त्र चलायो।
आप नाम तत्काल, रत्नहार बनायो।।
मनोरमा जप नाम, वङ्का किवाड़े खाले।
विद्युच्चर तुम नाम, जप भव बंधन तोड़े।।४।।
मनोवती ने आप, नाम जपा था जबही।
दर्श मिला तत्काल, देवनिमित में तबही।।
पूज्यपाद तुम नाम, ले निज दृष्टी पाई।
मानतुंग गुणगान, कर निज कीर्ति बढ़ाई।।५।।
बहुत भक्त तुम नाम, लेकर निज दुख चूरे।
कहूँ कहाँ तक नाम, होय कभी ना पूरे।।
मुझको भी हे नाथ! नाम मंत्र का शरणा।
नहीं शक्ति कुछ नाथ! लेश मात्र गुण वरणा।।६।।
मुझ में अगणित दोष, उन पर दृष्टि न डारो।
करो हमें संतोष, अपनो विरद निहारो।।
जब तक मुक्ति न होय, चरणों में रख लीजे।
नशे महारिपु मोह, ऐसी शक्ति दीजे।।७।।
शरणागत के सर्वथा, तुम रक्षक भगवान।
‘ज्ञानमती’ अविचल निधी, दे मुझ करो महान।।८।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थभविष्यत्कालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।