वर अपर पुष्कर द्वीप में जो पूर्व अपर विदेह हैं।
उनमें जिनेश्वर विहरते भविजन धरें मन नेह हैं।।
उन चार तीर्थंकर जिनेश्वर की करूँ इत थापना।
पूजूँ अतुल भक्ती लिये पाऊँ अचल पद आपना।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्री वीरसेनमहाभद्र-देवयशोऽजितवीर्यनामाचतुस्तीर्थंकर समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्री वीरसेनमहाभद्र-देवयशोऽजितवीर्यनामाचतुस्तीर्थंकर समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्री वीरसेनमहाभद्र-देवयशोऽजितवीर्यनामाचतुस्तीर्थंकर समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
मुनि मन सम पावन नीर, कंचन भृंग भरूँ।
मिट जावे भव भव पीर, जिनपद धार करूँ।।
श्री विहरमाण जिनराज, पूजूँ मन लाके।
मिल जावे निज साम्राज, समरस सुख पाके।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीरसेनादि-चतुस्तीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
काश्मीरी गंध सुगंध, चंदन संग किया।
जिन पादाम्बुज चर्चंत, आतम सौख्य लिया।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीरसेनादि-चतुस्तीर्थंकरेभ्य: चंदनंं निर्वपामिति स्वाहा।
शशि किरणों सम अति श्वेत, तंदुल पुंज धरूँ।
निज अक्षत पद के हेतु, पूजत हर्ष भरूँ।।श्री.।।३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीरसेनादि-चतुस्तीर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
बेला चंपक की माल, चरणों अर्पत हूँ।
मिल जावे निजगुणमाल, तुम पद अर्चत हूूँ।।श्री.।।४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीरसेनादि-चतुस्तीर्थंकरेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
पेड़ा बरफी पकवान, तुम ढिग भेंट करूँ।
हो क्षुधा वेदनी हान, आतम सौख्य भरूँ।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीरसेनादि-चतुस्तीर्थंकरेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
दीपक की ज्योति उद्योत, बाह्य तिमिर नाशे।
तुम आरति से प्रद्योत, ज्ञानमणी भासे।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीरसेनादि-चतुस्तीर्थंकरेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
वर धूप सुगंधित खेय, कर्म जलाऊँ मैं।
तुम चरण कमल को सेय, निजसुख पाऊँ मैं।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीरसेनादि-चतुस्तीर्थंकरेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
अंगूर सेव बादाम, तुम ढिग अर्पत हूँ।
मिल जावे निज विश्राम, तुम पद अर्चत हूूँ।।श्री.।।८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीरसेनादि-चतुस्तीर्थंकरेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
जल गंधादिक वसु अर्घ, आप चढ़ाऊँ मैं।
नवनिधि सुख होय अनर्घ, आप रिझाऊँ मैं।।श्री.।।९।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीरसेनादि-चतुस्तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाथ! पाद पंकेज, जल से त्रयधारा करूँ।
अतिशय शांती हेत, शांतीधारा विश्व में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
मिले आत्मसुख लाभ, जिनपद पंकज पूजते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।अथ प्रत्येक अर्घ्य
पश्चिम पुष्कर द्वीप में, विहरमाण तीर्थेश।
पुष्पांजलि कर पूजते, मिटे सर्व मन क्लेश।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
पश्चिम पुष्कर पूरब विदेह, सीता नदि के उत्तर जानो।
पुरि पुंडरीकिणी भानुमती, माता भूपाल पिता मानो।।
ऐरावत चिन्ह कहा श्रीमन्, जिन ‘वीरसेन’ त्रिभुवन विश्रुत।
मैं पूजूं भक्ति बढ़ा करके, तुम भाक्तिक हो गुणमणि मंडित।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीरसेन जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विद्युन्माली मेरू पूरब, सुविदेह नदी के दक्षिण में।
विजयानगरी पति देवराज, हैं जनक उमा माता सच में।।
शशिचिन्ह सहित हे ‘महाभद्र’, तुम शरणागत के रक्षक हो।
मैं पूजूँ स्वातम निधि हेतु तुम धर्मचक्र के वर्तक हो।।२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीमहाभद्र जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पश्चिम पुष्कर पश्चिम विदेह, सीतोदा के दक्षिण दिश में।
श्रीभूपति पिता गंगादेवी मां नगरि सुसीमा में जन्में।।
तुम स्वस्तिक चिन्ह ‘देवयश’ जिन तुम घाति चतुष्टय के घाती।
मैं पूजूँ श्रद्धा से तुममें, सुअनंत चतुष्टय अविनाशी।।३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीदेवयशो जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विद्युन्माली मेरू पश्चिम, सुविदेह नदी के उत्तर में।
पितु श्री सुबोध हैं प्रसू कनकमाला सु अयोध्या नगरी में।।
प्रभु ‘अजितवीर्य’ तुम कमल चिन्ह’ भविजन भवदाह शमन करते।
मैं पूजूँ भक्ती से नित प्रति, मेरे भवक्लेश न क्यों हरते।।४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीअजितवीर्य जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पश्चिम पुष्कर दीप में, शाश्वत चार जिनेश।
नमूँ नमूूं नित भक्ति से, करो सर्व दुख शेष।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीरसेनमहाभद्रदेव-यशोऽजितवीर्यनामचतुस्तीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
नाथ! त्रैलोक्य में पूर्ण चंदा तुम्हें।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे जिनंदा तुम्हें।।
पूरिये नाथ मेरी यही कामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।१।।
सोलहों भावना भाय जिनपाद में।
तीर्थंकर हो गये आप ही आप में।।
मात के गर्भ में आप जब आ गये।
इंद्र उत्सव किये मातघर आ गये।।२।।
जन्मते आपके इंद्र आसान कंपे।
शंख ध्वनि वाद्य घंटा स्वयं बज उठे।।
इंद्र के मौलि शेखर स्वयं झुक गये।
कल्पतरु भी स्वयं पुष्प वर्षा रहे।।३।।
जै जया जै जया जै जया ध्वनि उठी।
इंद्र आदेश पा इंद्रसेना सजी।।
इंद्र ऐरावतारूढ़ हो चल पड़े।
इंद्र इंद्राणियां देव गण चल पड़े।।४।।
मेरु गिरि पर न्हवन आपका हो रहा।
जन्म कल्याणक उत्सव अनोखा कहा।।
इंद्र हजार भुज कर न्हवन कर रहा।
नेत्र हजार कर रूप निरखे अहा।।५।।
तीर्थंकर देव माहात्म्य त्रैलोक्य में।
ना हुआ अन्य का भी कभी लोक में।।
तीर्थंकर पुण्य माहात्म्य मुनि गावते।
देव गणधर कहें पार ना पावते।।६।।
धन्य मैं धन्य मैं आज गुण गा रहा।
धन्य है ये घड़ी नाथ पूजूँ अहा।।
प्रार्थना नाथ मेरी ये सुन लीजिये।
‘ज्ञानमती’ पूर्ण हो युक्ति ये दीजिये।।७।।
जय जय जिनराजा, शिवतिय राजा, भविहित काजा, तुमहिं नमूँ।
जय जय निज संपति, दीजे मुझ प्रति, अविचल गति हित नित प्रणमूँ।।८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीरसेनामहाभद्रदेव यशोऽजितवीर्यनामचतुस्तीर्थंकरेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।