गंधर्व व्यंतर देव के, संख्या बिना आवास हैं।
उनमें असंख्ये जिनभवन शाश्वत मणीमय ख्यात हैं।।
इन सब जिनालय जैन प्रतिमा को नमूँ नित भाव से।
आह्वानन कर पूजूँ यहाँ मन में मुदित को चाव से।।
ॐ ह्रीं गंधर्वव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं गंधर्वव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं गंधर्वव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
हे नाथ! जग में जन्म व्याधी बहुत ही दुख रे रही।
अब मेट दीजे इसलिये त्रय धार दे पूजूँ यहीं।।
गंधर्व सुर के जैन मंदिर मणिमयी जिनमूर्तियाँ।
जो पूजते वे प्राप्त कर लेते स्वयं चिन्मूर्तियाँ।।१।।
ॐ ह्रीं गंधर्वव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! इस यमराज का संताप अब नहिं सहन है।
इस हेतु तुम पादाब्ज में चर्चूं सुगंधित गंध ये।।गंधर्व.।।२।।
ॐ ह्रीं गंधर्वव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! मेरे ज्ञान के बहु खंड खंड हुये यहाँ।
कर दो अखंडित ज्ञान तुंदुल पुंज से पूजूँ यहाँ।।गंधर्व.।।३।।
ॐ ह्रीं गंधर्वव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! भवशर विश्व जेता आपही इसके जयी।
इस हेतु तुम पादाब्ज में बहु पुष्प अर्पूं मैं यहीं।।गंधर्व.।।४।।
ॐ ह्रीं गंधर्वव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! त्रिभुवन अन्न खाया भूख अब तक ना मिटी।
प्रभु भूखव्याधी मेट दो इस हेतु चरु अर्पूं अभी।।गंधर्व.।।५।।
ॐ ह्रीं गंधर्वव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मणिरत्न दीपक से कभी मन का अंधेरा ना भगा।
हे नाथ! तुम आरति करत ही ज्ञान का सूरज उगा।।गंधर्व.।।६।।
ॐ ह्रीं गंधर्वव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! मेरे कर्म वैसे भस्म हों यह युक्ति दो।
मैं धूप खेऊँ अग्नि में ये कर्म वैरी भस्म हों।।गंधर्व.।।७।।
ॐ ह्रीं गंधर्वव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! चाहा बहुत फल बहुते चरण में नत हुआ।
नहिं तृप्ति पायी इसलिये फल सरस तुम अर्पण किया।।गंधर्व.।।८।।
ॐ ह्रीं गंधर्वव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! निजके रत्नत्रय अनमोल श्रेष्ठ अनर्घ हैं।
मुझको दिलावो शीघ्र ही इस हेतु अर्घ समर्प्य है।।गंधर्व.।।९।।
ॐ ह्रीं गंधर्वव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री जिनवर पदपद्म, शांतीधार मैं करूँ।
मिले शांतिसुखसद्म, त्रिभुवन में सुख शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला कमल गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
परमामृत सुखलाभ, मिले सर्वसुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।अथ प्रत्येक अर्घ्य
गंधर्वों के निलय में, जिनमंदिर अभिराम।
पुष्पांजलि कर पूजहूँ, मिले स्वात्म विश्राम।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
मन: शिलक द्वीपमें दक्षिण, दिश में पाँच नगर हैं।
इंद्र गीतरित रहें वहाँ पे, गावें गीत मधुर हैं।।
बहुत द्वीप सागर सरवर में, इनके बने निलय हैं।
उनमें जिनमंदिर बहुतेरे, पूजत पाप विलय हैं।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके मन:शिलकद्वीपदक्षिणदिक्स्थितगीतरतिइन्द्रस्यसंख्यातीत जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इसी द्वीप के उत्तर दिश में, गीतयशा अधिपति हैं।
इनके बहुत भवनपुर हैं आवास बहुत सब जग हैं।।
सबमें जिनगृह उनमें जिनवर, प्रतिमा शाश्वत राजें।
हम पूूजें नित अर्घ चढ़ाकर, कर्म अरी डर भाजें।।२।।
गंधर्वों के इंद्र प्रतीन्द्रा, सामानिक परिवारा।
इनके निलय द्वीप सागर में, पैले बहुत प्रकारा।।
सबमें जिनगृह उनमें प्रतिमा, इकसौ आठ विराजें।
जो पूजें नित भक्ति भाव से, निजआतम सुख साजें।।१।।
ॐ ह्रीं मन:शिलकद्वीपस्थितगंधर्वजातिव्यंतरदेवतत्परिवारदेवनिलयस्थितसंख्यातीत जिनालयजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
तुंबरु तरुवर चैत्यतरु, सुरगंधर्व निकेत।
पुष्पांजलि कर पूजते, मिले भवोदधि सेतु।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
गंधर्वों के वेश्म, ‘तुंबरु’ चैत्यतरु है।
पूजूँ धर अतिप्रेम, जिन प्रतिमा सुखतरु हैं।।
चार चार जिनबिंब, प्रातिहार्य संयुत हैं।
नमूँ नमूँ सुखकंद, देवें निज संपति हैं।।१।।
ॐ ह्रीं गंधर्वदेवनिलयस्थिततुम्बरुचैत्यवृक्षमूलभागपूर्वदिग्विराजमानचतुर्जिन-प्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तुंबरु तरु जिनबिंब, पद्मासन से राजें।
नमें मुनीश्वर वृंद, पाप शत्रु डर भागें।।चार.।।२।।
ॐ ह्रीं गंधर्वदेवनिलयस्थिततुम्बरुचैत्यवृक्षमूलभागदक्षिणदिग्विराजमानचतुर्जिन-प्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मरकत मणिमय वृक्ष, पृथ्वी कायिक सोहे।
कोंपर पत्ते पुष्प, शाखा से मन मोहे।।चार.।।३।।
ॐ ह्रीं गंधर्वदेवनिलयस्थिततुम्बरुचैत्यवृक्षमूलभागपश्चिमदिग्विराजमानचतुर्जिन-प्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
चैत्य वृक्ष जिनबिंब, गणधर मुनिगण वंदे।
करें कर्म शत खंड, निज सुख में आनंदे।।चार.।।४।।
ॐ ह्रीं गंधर्वदेवनिलयस्थिततुम्बरुचैत्यवृक्षमूलभागउत्तरदिग्विराजमानचतुर्जिन-प्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मानस्तंभ उतुंग, एक एक जिन आगे।
रत्नन किरण अमंद, दर्शन से अघ भागे।।
सिद्धों के प्रतिबिंब, जजूूँ भक्ति से नित ही।
हरूँ सकल दुखद्वंद, मिले सर्वसुख इत ही।।५।।
ॐ ह्रीं गंधर्वदेवनिलयस्थिततुम्बरुचैत्यवृक्षचतुर्दिग्स्थितषोडशजिनप्रतिमासन्मुख-षोडशमनास्तम्भेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
चैत्यवृक्ष जिनबिंब, सोलह रत्नमयी हैं।
सोलह मानस्तंभ, उनमें बिंब सही हैं।।
पूजूँ मन वच काय, जिनपद शीश झुकाऊँ।
पुनर्जन्म नश जाय, फेर न भव में आऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं गंधर्वदेवनिलयस्थिततुम्बरुचैत्यवृक्षस्थितषोडशजिनप्रतिमातत्सन्मुख-षोडशमानस्तम्भसंबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
हे नाथ! आप तीन लोक में महान् हो।
हे नाथ! आप सर्व सौख्य के निधान हो।।
हे नाथ आप नाम सर्व मंत्र रूप है।
हे नाथ! आप जाप सकल पुण्य रूप है।।१।।
हे नाथ! आप मूर्तियाँ चिंतामणी कहीं।
ये भक्त के समस्त अर्थ पूर्ण कर रहीं।।हे नाथ.।।२।।
हे नाथ! आप मूर्तियाँ पारसमणी कहीं।
ये भक्त को कंचन नहीं पारस बना रहीं।।हे नाथ.।।३।।
हे नाथ! आप मूर्तियाँ ही कल्पवृक्ष हैं।
ये भक्त के संपूर्ण मनोरथ पदार्थ हैं।।हे नाथ.।।४।।
गंधर्व के दश भेद में हा हा प्रथम कहें।
हूहू तथा नारद व तुंबरु कदंब हैं।।हे नाथ.।।५।।
वासव व महास्वर तथैव गीतरति हैं।
ये गीतयशा इनमें दोय इंद्र प्रमुख हैं।।हे नाथ.।।६।।
गंधर्व देव आप कीर्ति गावते सदा।
निजधाम के जिनधाम को नित ध्यावते मुदा।।हे नाथ.।।७।।
गंधर्व देव देह तपे स्वर्ण सम दिपे।
इक पल्य आयु दश धनुष उत्तुंग तनु दिपे।।हे नाथ.।।८।।
इन देव के नगर के चारों ओर बनी हैं।
अशोक सप्तपर्ण चंप आम्र बनी हैं।।हे नाथ.।।९।।
प्रत्येक वन के मध्य चैत्य वृक्ष शोभते।
अर्हंत बिंब से ये वृक्ष चित्त मोहते।।हे नाथ.।।१०।।
चारों दिशामें एक एक बिंब विराजें।
ये आठ प्रतिहार्य से शशिसूर्य को लाजें।।हे नाथ.।।११।।
गंधर्व देव नित्य भक्ति भाव करे हैं।
संगीत गीत नृत्य से गुणगान करें हैं।।हे नाथ.।।१२।।
वीणा मृदंग बांसुरी बहु वाद्य बजाते।
ये सातस्वरों में प्रभू की कीर्ति को गाते।।हे नाथ.।।१३।।
सम्यक्त्व रत्न पायके निज आत्म सजाते।
मिथ्यात्व विष वमन करें अध्यात्मको भाते।।हे नाथ.।।१४।।
हे नाथ! आप पाय मैं निहाल हो गया।
सम्यक्त्वरत्न से ही मालामाल हो गया।।हे नाथ.।।१५।।
हे नाथ! आप पाद कमल चित्त में राजें।
जब तक ना मुक्ति होय चित्त में हि विराजें।।हे नाथ.।।१६।।
जिनमंदिर जिनबिंब को, नमूँ नमूूँ नत शीश।
‘ज्ञानमती’ सुख संपदा, दीजे हे जगदीश।।१७।।
ॐ ह्रीं गंधर्वदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालय-जिनबिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।