श्री वासुपूज्य भगवान के तीर्थ में द्विपृष्ठ नारायण, अचल बलभद्र एवं तारक नाम के प्रतिनारायण हुए हैं। नारायण का प्रतिनारायण प्रतिद्वन्दी-शत्रु होता है। ये नारायण आदि अद्र्धचक्री कहलाते हैं क्योंकि ये तीन खण्ड-एक आर्यखण्ड और दो म्लेच्छखण्ड पर विजय प्राप्त करने वाले होते हैं। प्रतिनारायण की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न होता है। शत्रुता के निमित्त से प्रतिनारायण नारायण पर चक्र चला देते हैं, वही चक्र नारायण की तीन प्रदक्षिणा देकर उनके पास स्थित हो जाता है, तभी नारायण प्रतिनारायण को उसी चक्ररत्न से मार देते हैं, ऐसा कुछ प्राकृतिक नियम ही है। यहाँ अब इनके पूर्वभवों को कहते हैं- इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कनकपुर नगर के राजा सुषेण थे। इनके यहाँ एक गुणमंजरी नृत्यकारिणी थी, जो कि रूप, गुण और कला में अनूठी थी। इसी भरतक्षेत्र में मलयदेश के विंध्यपुर में विंध्यशक्ति नाम का राजा रहता था। इस राजा ने गुणमंजरी नर्तकी को प्राप्त करने के लिए राजा सुषेण के पास रत्न आदि उपहार देकर एक दूत भेजा और उसने आकर राजा का यथायोग्य सम्मान करके नर्तकी के लिए याचना की और कहा- राजन् ! आप नर्तकी को एक बार भेज दीजिए, राजा देखना चाहते हैं पुन: मैं उसे वापस लाकर आपको सौंप दूँगा। दूत के समाचार को सुनकर राजा सुषेण ने उसे तर्जित कर वापस कर दिया। फलस्वरूप विंध्य शक्ति राजा ने युद्ध शुरू कर दिया तथा युद्ध में सुषेण को पराजित कर नृत्यकारिणी प्राप्त कर ली । इस अपमान से सुषेण ने बहुत ही दु:खी हो विरक्त होकर सुव्रत जिनेन्द्र से धर्मोपदेश सुनकर निर्मलचित्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। अनंतर शत्रु के प्रति विद्वेष भावना से उसके मारने का निदान करके अंत में संन्यास विधि से मरण कर प्राणत स्वर्ग में देव हो गया। वहाँ इसकी आयु बीस सागर की थी।