श्री धरसेनाचार्य- आचार्य परंपरा से सभी अंगों और पूर्वों के एकदेश का ज्ञान आचार्यश्री धरसेन को प्राप्त हुआ। सौराष्ट्र (गुजरात-काठियावाड़) देश के गिरिनगर नाम के नगर की चंद्रगुफा में रहने वाले अष्टांग निमित्त के पारगामी, प्रवचनवत्सल श्रीधरसेनाचार्य के मन में श्रुतविच्छेद का भय उत्पन्न हुआ। तब उन्होंने
महामहिमा-पंचवर्षीय साधु सम्मेलन में सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के आचार्यों के पास एक लेख भेजा। लेख के अर्थ को अच्छी तरह से समझकर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ, विनयी, शीलरूपी माला के धारक, देश-कुल-जाति से शुद्ध, समस्त कला में पारंगत ऐसे दो शिष्यों को भेजने का निर्णय लिया। उन दोनों मुनियों ने भी तीन बार आचार्य से पूछकर विधिवत् आज्ञा लेकर आंध्र देश में बहने वाली वेणानदी के तट से विहार किया।
समय पर पहुँचकर श्री धरसेनाचार्य की तीन प्रदक्षिणा देकर उनकी पादवंदना की। अनंतर तीसरे दिन अपने आने का हेतु निवेदन किया। तब भट्टारक श्री धरसेनाचार्य ने उन्हें दो विद्यायें दीं और कहा-‘‘तुम दोनों इन्हें दो दिन के उपवास से सिद्ध करो।’’ उन दोनों मुनियों ने विद्यायें सिद्ध की, तब उनके समक्ष विद्या की अधिष्ठात्री देवियाँ उपस्थित हुर्इं। उनमें से एक देवी के दांत बाहर निकले हुए थे और दूसरी कानी थी।
‘‘विकृतांग होना देवताओं का स्वभाव नहीं है।’’ ऐसा सोचकर मंत्र संबंधी व्याकरण के जानकार उन दोनों ने अधिक अक्षर वाले मंत्र से एक अक्षर निकाला और हीनाक्षर मंत्र में एक अक्षर जोड़कर पुनः जाप्य किया। तब वे विद्यादेवताएं सुन्दर रूप में उनके सामने दिखलाई पड़ीं।
उन दोनों मुनियों ने वहाँ से आकर यथावत् वृत्तांत गुरु से सुना दिया। गुरु ने प्रसन्न होकर शुभमुहूर्त में उन्हें ग्रन्थ पढ़ाना प्रारंभ किया। आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन ग्रन्थ समाप्त किया। तब शिष्यों की विनय से प्रसन्न हुये भूत जाति के व्यंतर देवों ने उन दोनों में से एक मुनि की पुष्प, बलि, शंख और तूर्य जाति के वाद्य विशेष से बहुत भारी पूजा की, उसे देखकर श्रीगुरुदेव ने उनका ‘भूतबलि’ यह नाम रख दिया तथा दूसरे मुनि की भूत देवों ने पूजा करके उनकी अस्त-व्यस्त दंत पंक्तियों को समान कर दिया, तब गुरु ने उनका नाम ‘पुष्पदंत’ रखा। पुनः गुरु ने उन्हें उसी दिन वहाँ से विहार करा दिया।
तब- ‘‘गुरु की आज्ञा अलंघनीय होती है।’’ ऐसा विचार कर वे दोनों अंकलेश्वर(गुजरात) में आ गये और वहाँ वर्षायोग बिताया। अनन्तर वर्षायोग के बाद अपने भानजे ‘जिनपालित’ को लेकर पुष्पदंत आचार्य तो वनवासी देश को चले गये और भूतबलि भट्टारक तमिल देश को चले गये। अनंतर पुष्पदंत आचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा सूत्र को बनाकर जिनपालित को पढ़ा कर उन्हें भूतबलि आचार्य के पास भेजा।
तब पुष्पदंत आचार्य की अल्प आयु जानकर भगवान्१ भूतबलि ने द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि लेकर ग्रन्थ रचना की। इसलिए इस खंडसिद्धांत (षट्खंडागम) की अपेक्षा भूतबलि और पुष्पदंत आचार्य भी श्रुत के कर्ता कहे जाते हैं।२’’ श्री इन्द्रनंदि आचार्यकृत श्रुतावतार में यही प्रकरण विस्तार से है। यथा-
‘देशे ततः सुराष्ट्रे गिरिनगरपुरान्तिकोर्जयंतगिरौ।
चंद्रगुहाविनिवासी महातपाः परममुनिमुख्यः’।।१०३।।
सौराष्ट्र देश में गिरिनगरपुर के निकट उर्जयंतगिरि-गिरनारपर्वत के निकट चन्द्रगुफा में रहने वाले, महातपस्वी, परममुनियों में प्रधान आचार्य श्री धरसेन थे। एक बार उन्होंने अपनी अल्पायु जानकर और श्रुतविच्छेद न हो जाये, इस चिंता से युक्त होकर एक ब्रह्मचारी को पत्र देकर महामहिमा में एकत्रित हुए मुनियों के पास भेजा। आगे इसी में विद्यासिद्धि के बारे में भी लिखा है कि दोनोें शिष्यों ने-
‘श्रीमन्नेमिजिनेश्वरसिद्धशिलायां विधानतो विद्या।
संसाधनं विदधतोस्तयोश्च पुरतः स्थिते देव्यौ।।११६।।
श्रीमान् भगवान् नेमिनाथ की सिद्धशिला पर बैठकर विधान से विद्या सिद्ध की तब उनके समक्ष दो देवियाँ उपस्थित हुई इन प्रमाणों के उद्धरण से यह समझना चाहिए कि श्रीधरसेनाचार्य गिरनार पर्वत की चन्द्रगुफा में रहते थे। वहीं पर उन्होंने इन पुष्पदंत-भूतबलि मुनियों को महाकर्मप्रकृति प्राभृत पढ़ाया और आगे इन दोनों गुरुओं ने उसे षट्खंडागम रूप से लिपिबद्ध कर शास्त्ररूप में दिया है।
जिस पर आचार्यश्री वीरसेन ने धवला टीका लिखी थी जो कि आज तक सुप्रसिद्ध है। यह ग्रन्थ पूजा श्रुतपंचमी (ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी) को हुई थी अतः आज तक ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को श्रुतपूजा की जाती है।
श्री कुन्दकुन्ददेव की पर्वतवंंदना
ऐसी किंवदंती प्रसिद्ध है कि श्रीकुन्दकुन्दचार्य अपने संघ सहित गिरनार पर्वत की वंदना करने गये, वहाँ श्वेताम्बर आचार्य भी संघ सहित थे। उन्होंने कहा-पहले हम वंदना करेंगे, तब दोनों संघ में आपस में विवाद हो गया। यह निर्णय हुआ कि अंबिकादेवी जिस पंथ को सत्य व प्राचीन कहेंगी, वही संघ पहले वंदना करेगा। उस समय श्रीवुंकुन्दकुन्दव ने पाषाण की अंबिका देवी के मस्तक पर पिच्छिका रख कर कहा- ‘‘देवी! बताओ, सत्यपंथ कौन है?’’ देवी ने कहा- ‘‘सत्य पंथ निर्ग्रन्थ दिगम्बर है।’’ यह मात्र कल्पना नहीं है, प्रत्युत् सत्य घटना है। देखिये, श्रीवृंदावनकवि ने कहा है-
‘‘संघसहित श्री कुन्दकुन्दगुरु, वंदन हेतु गये गिरनार।
बलात्कार गण के अग्रणी श्री पद्मनंदि गुरु हुये हैं। इन्होंने ऊर्जयंत गिरि पर पाषाणनिर्मित सरस्वती की मूर्ति को बुलवा दिया था। उससे ही सारस्वतगच्छ हुआ है, अतः उन पद्मनंदि मुनींद्र को मेरा नमस्कार हो। पांडवपुराण में भी कहा है-
कुन्दकुन्दगणी येनोधर्जयंतगिरिमस्तके।
सोऽवदात् वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिता कलौ।
।जिन्होंने कलिकाल में ऊर्जयंत गिरि के मस्तक पर पाषाण से निर्मित ब्राह्मी की मूर्ति को बुलवा दिया था। मूलनंदिसंघ की पट्टावली में श्रीकुन्दकुन्ददेव के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं-
आचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो, वक्रग्रीवो महामतिः।
एलाचार्यो गृद्धपिच्छः, पद्मनन्दीति तन्नुतिः।।
कुन्दकुन्द वक्रग्रीव, एलाचार्य, गृद्धपिच्छ और पद्मनंदि ये पाँच नाम श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के हैं, उन्हें मेरा नमस्कार हो। गिरनार क्षेत्र की पूज्यता तो यहाँ से बहत्तर करोड़, सात सौ महामुनियों के निर्वाण पधारने से और भी बढ़ी हुई है।
गिरनार क्षेत्र परिचय
‘‘णेमिसामी पज्जुण्णो, संबुकुमारो तहेव अणिरुद्धो।
बाहत्तरि कोडीओ, उज्जंते सत्तसया सिद्धा।।५।।’’
भगवान् नेमिनाथ, प्रद्युम्नकुमार, शंबुकुमार, अनिरुद्धकुमार आदि बहत्तर करोड़, सात सौ मुनियों ने ऊर्जयंत गिरि से निर्वाण प्राप्त किया है, उन सबको मेरा नमस्कार हो। श्री पूज्यपादस्वामी ने भी निर्वाणभक्ति में कहा है-
अर्थात् जो शिवमय स्थान इन्द्र आदि के द्वारा प्रार्थित किया जाता है, परमार्थ की खोज में लगे हुये पाखंडी साधु भी जिसकी प्रार्थना करते हैं, उस मोक्षपद को श्रीनेमिनाथ भगवान् ने विशाल ऊर्जयंत पर्वत पर से आठों कर्मों का नाश करके प्राप्त कर लिया है।
इस ऊर्जयंत-गिरनार पर्वत पर बाईसवें तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथ के तीन कल्याणक हुए हैं- दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण। यहाँ जो आज सहसावन या सिरसावन के नाम से जाना जाता है वह सहकारवन या सहस्राम्रवन नाम से शास्त्रों में वर्णित है। वहीं पर भगवान् ने दीक्षा ली थी। हरिवंशपुराण में ऐसा लिखा है-
ऊर्जयंतगिरौ वङ्को, वङ्कोणालिख्य पाविनीम्।
लोके सिद्धशिलां चव्रे, जिनलक्षणपंक्तिभिः१।।१४।।
भगवान् नेमिनाथ जिस स्थान से मुक्त हुए थे, वह स्थान अत्यंत पवित्र और लोकपूज्य था। उस स्थान के गौरव को सदा काल के लिए अक्षुण्ण बनाने हेतु इन्द्र ने अपने वङ्का से सिद्धशिला का निर्माण किया, उस पर भगवान् के चरण चिन्ह उत्कीर्ण किये। आचार्यदामनंदी ने भी यही बात कही है-
‘‘कुलिशेन सहस्राक्षो लक्षणपंत्तिं लिलेख तत्रेशः।
भव्यहिताय शिलायामद्यापि च शोभते पूता।।५।।’’
इस प्रकार यह शिला, जिस पर इन्द्र ने अपने वज्र से चरण चिन्ह उत्कीर्ण किये थे, वह आज भी मौजूद है। शासन चतुस्त्रिंशतिका में यतिपति मदनकीर्ति ने गिरनार पर्वत पर इन्द्र द्वारा विराजमान की गई दिगंबर जिनमूर्ति का उल्लेख किया है-
सौराष्ट्र देश में गिरनार पर्वत पर यदुवंशभूषण श्रीनेमिनाथ तीर्थंकर की आयुध, वस्त्र और आभरण रहित भव्य, शांत और मोक्ष मार्ग का मूक उपदेश करने वाली जो मूर्ति स्थित है, वह इन्द्र द्वारा स्थापित की गई है। वह संसार के चित्त की भ्रांति को दूर करे और दिगंबर शासन का लोक में प्रसार करे।
इस पर्वत पर पांच टोंक हैंं। लगभग दो मील की चढ़ाई चढ़ने पर दिगंबर मंदिर और धर्मशाला से पहले राजीमती की गुफा मिलती है। इस गुफा से आगे बढ़ने पर दिगंबर जैन धर्मशाला है तथा इसके कुछ आगे एक अहाते में तीन मंदिर और एक छतरी है। दिगंबर मंदिर से थोड़ा आगे बढ़ने पर गोमुखी गंगा है, यहाँ कई कुंड हैं।
चौबीस तीर्थंकर के चरण चिन्ह भी हैं, यह प्रथम टोंक कहलाती है, इस पवित्र स्थान पर हिन्दुओं ने अधिकार कर रखा है। द्वतीय टोंक पर ‘अनिरुद्धकुमार’ के चरण हैं, तृतीय टोंक पर शंबुकुमार के चरण हैं। चौथी टोंक पर प्रद्युम्नकुमार के चरण हैं और पांचवीं टोंक पर भगवान् नेमिनाथ के चरण बने हुए हैं। हिंदू लोग इन्हें दत्तात्रेय के चरण कहते हैं। तलहटी में दिगंबर जैन धर्मशाला में एक जिनमंदिर है। इसके आगे एक मानस्तंभ है। इसी प्रकार जूनागढ़ में भी ऊपर कोट के निकट एक धर्मशाला बनी हुई है। यहाँ से विहार कर संघ आगे बढ़ रहा था।
विहार कर संघ जहाँ रात्रि में पहुँचता, कई बार वृद्धा आर्यिकाएँ सुमतिमतीजी, सिद्धमती जी आदि मुझसे कहतीं- ‘‘ज्ञानमतीजी! आज रात्रि में तीन बजे से उठकर तुम हम सभी को पाठ सुना दो, तुम्हारा पाठ हमें बहुत अच्छा लगता है।’’ मैं कहती- ‘‘माताजी! यथासमय शायद मेरी नींद न खुले तो आप जगा देना, मैं पाठ सुनाऊँगी।’’
उस समय पाठ में सहस्रनाम, तत्त्वार्थसूत्र, भक्तामरस्तोत्र, कल्याणमंदिरस्तोत्र, विषापहारस्तोत्र, एकीभावस्तोत्र, भूपालचतुर्विंशतिकास्तोत्र, सिद्धभक्ति आदि दशभक्तियाँ, सुप्रभातस्तोत्र आदि मुझे कंठाग्र थे। ये आर्यिकायें जो जो पाठ सुनना चाहतीं, मैं उन्हें सुना देती थी।कभी-कभी आर्यिका वीरमती माताजी समाधितंत्र, इष्टोपदेश, गोम्मटसार, परीक्षामुखसूत्र आदि सुनना चाहतीं, तो उन्हें ये पाठ भी सुना देती थी।
मुझे पाठ सुनाकर बड़ी प्रसन्नता होती। एक तो मेरा ‘आम्नाय’ नाम का स्वाध्याय हो जाता, कंठाग्र पाठ को पढ़ते रहने से वे भूलते नहीं हैं सो कंठाग्र पाठों को फैरना बहुत जरूरी समझकर यह दूसरा लाभ प्रतीत होता, तीसरे माताजी मेरे पाठ से प्रसन्न होतीं तो मुझे भी प्रसन्नता होती, अतः गुरुजनों की वैयावृत्ति भी हो जाती। कभी-कभी मार्ग में चलते समय भी आर्यिका वीरमती जी मेरे साथ चलतीं, तब उन्हें कुछ न कुछ उनकी इच्छा के अनुसार पाठ सुनाया करती थी, इसलिए वे मेरे साथ चलना अधिक पसंद करती थीं।