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बहन श्रीमती का घर से निकलने का प्रयास

July 22, 2017ज्ञानमती माताजीjambudweep

बहन श्रीमती का घर से निकलने का प्रयास



(ज्ञानमती_माताजी_की_आत्मकथा)

 कैलाश ने कहा- माताजी! आपकी दीक्षा के बाद ही पिताजी ने बहुत ही जल्दी करके सोलह वर्ष की वय में ही शांति जीजी का विवाह ‘‘मोहोना’’ के सेठ गुलाबचन्द के सुपुत्र राजकुमार के साथ सम्पन्न करा दिया है। चातुर्मास के अनन्तर कुछ दिन बाद पिताजी ने मेरा भी विवाह वहीं के निवासी लाला शांतिप्रसाद जी की सुपुत्री चन्दा के साथ कर दिया है।
 
अब मैं भी अपनी सोलह वर्ष की वय से ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर व्यापारी बन गया हूँ। आपके दीक्षा ले लेने से इधर इस घर के वातावरण में सतत धर्म की चर्चा ही रहा करती है। वैसे परम्परागत हम सभी भाई-बहन नित्य ही मंदिर जाते हैं, नियमित स्वाध्याय करते हैं और छोटे भाई-बहन धार्मिक पाठशाला में धर्म का अध्ययन करते रहते हैं पुनः कैलाशचन्द ने कहा- एक दिन मुझे आपकी विशेष याद आई और अपने मन में आपके पास जाने, का यहीं रहने का भाव जाग्रत हुआ। यह बात मैंने घर में किसी से नहीं बताई और सहसा बिना कहे घर से निकल पड़ा।
 
चतुराई से टिकैतनगर से रवाना होकर दरियाबाद स्टेशन पर आया, कहीं का टिकट लिया और रेल में बैठ गया। सोचा कहीं दक्षिण में पहुँचकर माताजी का पता लगा लूँगा। इधर मेरे घर न पहुँचने से घर में हलचल मची, चन्दारानी भी घबराई। ‘‘यह क्या हुआ? कहीं मेरे पतिदेव भी माताजी के संघ में पहुँचकर दीक्षा न ले लेवें।’’ बस उसी समय चारों तरफ से खोजबीन चालू हो गई। तभी मेरे ससुर श्री शांतिप्रसाद जल्दी से दरियाबाद स्टेशन पहुँच गये और जो गाड़ी मिली, उसी में बैठ गये। वह गाड़ी आगे जब किसी भी स्टेशन पर रुकती, तब उसी रेल के एक-एक डिब्बे में मुझे ढूँढ़ने लगते।
 
आखिर मैं उन्हें मिल गया और उन्होंने जैसे-तैसे समझा-बुझाकर आग्रह, सत्याग्रह कर मुझे वापस ले आने का पूरा प्रयास किया जिसमें वे सफल हो गये और मुझे घर आना ही पड़ा। तब कहीं पिताजी के जी में जी आया। इसके बाद कैलाशचन्द ने बहन श्रीमती की घटना सुनाई- ‘‘सन् १९५७ की बात है। आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी महाराज ने सुना कि आचार्य श्रीवीरसागर जी महाराज अपने विशाल संघ सहित जयपुर में विराजमान हैं, अब सल्लेखना तक वे जयपुर में ही रहेंगे। जयपुर खानिया के खुले स्थान पर वे अपनी सल्लेखना करना चाहते हैं।
 
उन्हें अपने निमित्त ज्ञान से यह स्पष्ट हो गया है कि इस चातुर्मास में (सन् १९५७ मेंं) उनकी सल्लेखना निश्चित है। आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से महावीरकीर्ति जी महाराज ने प्रारंभ में क्षुल्लक दीक्षा ली थी, इसलिए वे इन्हें अपना गुरु मानते थे। उनके हृदय में अन्त में गुरु की वैयावृत्ति करने की, उनकी सल्लेखना के समय उपस्थित रहने की उत्कृष्ट भावना जागृत हो उठी अतः पूज्य श्री ने अपने संघ को लेकर तीर्थराज सम्मेदशिखर से विहार कर दिया। वे अयोध्या जी क्षेत्र पर आए, तब टिकैतनगर के श्रावकों ने अत्यधिक आग्रह कर उनका विहार टिकैतनगर की तरफ करवा लिया। मेरी माँ ने अयोध्या आकर आचार्य संघ का दर्शन किया और उनके निकट शुद्ध जल का नियम लेकर आहार देने लगीं पुनः टिकैतनगर आने तक वे संघ के साथ ही रहीं, चौका बनाकर आहार देते हुए अपने गांव तक संघ को लाई।
 
निसर्गतः माँ साधुओं को अपना परिवार ही समझती थीं। संघ टिकैतनगर में ठहरा हुआ था, माँ ने भी चौका लगाया हुआ था। एक-दो दिन तक आचार्य महाराज का आहार न होने से उन्हें बड़ी बेचैनी-सी हुई। यद्यपि प्रतिदिन अन्य कई एक मुनि, आर्यिका आदि के आहार का लाभ मिल रहा था। तभी उन्हें पता चला कि आचार्य महाराज प्रायः जोड़े का नियम लेकर आहार को निकलते हैं।
 
फिर क्या था, माँ ने पिताजी से अनुरोध किया कि- ‘‘आप भी शुद्ध वस्त्र पहनकर पड़गाहन के लिए खड़े हो जावें।’’ यद्यपि पिताजी जब भी कानपुर आदि जाते थे, घर से पूड़ियाँ ले जाते थे, वे ही खाते थे, कभी भी बाजार का या होटल का नहीं खाते थे अथवा कभी-कभी तो वे दाल-चावल ले जाते थे जिससे खिचड़ी बनाकर खा लेते थे फिर भी शुद्धजल का नियम एक हौआ सा प्रतीत होता था अतः पहले तो वे कुछ हिचकिचाये किन्तु आचार्यश्री को उधर आते देख वे भी स्नान कर शुद्धवस्त्र पहनकर कलश और नारियल लेकर जोड़े से खड़े हो गये।
 
भाग्य से आचार्यश्री का नियम वहीं पर मिल गया और पिता ने भी शुद्धजल का नियम कर बड़े ही भावपूर्वक जोड़े से नवधाभक्ति करके आचार्यश्री को आहारदान दिया। उस समय उनको इतना हर्ष हुआ कि कहने में भी नहीं आ सकता था। आहार के बाद जब ये लोग गुरुदेव की आरती करने लगे तब माँ की आँखों में आँसू आ गये। आचार्यश्री को मालूम था कि इनकी पुत्री मैना ने आचार्य देशभूषण जी के पास में क्षुल्लिका दीक्षा ले ली थी अब वे आचार्य श्रीवीरसागर जी के संघ में आर्यिका हैं। उसी की याद आ जाने से यह माता विह्वल हो रही है, तब उन्होंने उस समय मेरे मां-पिता को बहुत कुछ समझाया और कहा- ‘‘देखो! तुम्हारी कन्या ने दीक्षा लेकर अपने कुल का उद्धार कर दिया है।’’
 
उस समय ब्र. चांदमल जी (गुरुजी) ने भी धर्मवात्सल्य से माँ और पिता की प्रशंसा की और उनके पुण्य की बहुत कुछ सराहना की। इस तरह जब तक संघ टिकैतनगर में रहा, माँ आहारदान देती रहीं और उपदेश का, आर्यिकाओं की वैयावृत्ति का लाभ लेती रहीं। बहन श्रीमती का निकलने का प्रयास- जब संघ वहाँ से विहार कर दरियाबाद पहुँचा, तब टिकैतनगर के कुछ श्रावक-श्राविका और बालिक-बालिकाएं भी संघ के साथ पैदल चल रहे थे। उनमें एक बालिका भी नंगे पैर बेभान चली आ रही थी।
 
ब्र. चांदमल गुरुजी को यह मालूम हो गया था कि यह कन्या पिता छोटेलाल जी की तृतीय पुत्री है और आर्यिका ज्ञानमती जी की बहन है। इसका नाम श्रीमती है, यह शादी नहीं करना चाहती है, संघ में रहना चाहती है इसलिए घर वालों की दृष्टि बचाकर यह पैदल चली आ रही है। इसी बीच जब घर में श्रीमती के जाने की बात विदित हुई तब हो-हल्ला शुरू हो गया। यह सुनते ही मेरे ताऊ श्री बब्बूमल जी वहाँ से इक्के पर बैठकर जल्दी से दरियाबाद आ गये। उस कन्या को समझाने लगे किन्तु जब वह कथमपि जाने को तैयार नहीं हुई तब मामला महाराज जी के पास आ गया। ब्र. चांदमल जी ने ताऊ को बहुत कुछ समझाने का प्रयास किया किन्तु सब निष्फल गया। वह कन्या श्रीमती बहुत ही रो रही थी।
 
कुछ आर्यिकाओं ने भी ताऊ जी को समझाना चाहा, परन्तु भला वे कब मानने वाले थे? अतः उस समय कन्या को सीधे सादे लौटते न देख आगे बढ़े, उसको गोद में उठा लिया और इक्के में बिठाकर जबरदस्ती घर ले आये। तब कहीं घर में शांति हुई और पिताजी का मन ठण्डा हुआ। बहन श्रीमती अपने भाग्य को कोसकर रह गई और अपनी पराधीन स्त्रीपर्याय की निन्दा करती रही। कुछ दिनों तक उनका मन बहुत ही विक्षिप्त रहा अन्त में पूजा और स्वाध्याय में तथा गृहकार्य और हम सभी भाई-बहनों की संभाल में उन बातों को भूल गई। बाद में इनका विवाह बहराइच के सेठ सुखानन्द के पुत्र प्रेमचन्द के साथ हुआ है। (इनकी चतुर्थ पुत्री अनिता-आस्था इस समय ब्रह्मचर्यव्रत लेकर मेरे पास ही रह रही है।) इतना सब सुनकर मैंने प्रेम से कैलाशचन्द को समझाना शुरू किया।
 
कैलाशचन्द! ‘‘देखो, इस अनादि संसार में भ्रमण करते हुए इस जीव ने कौन-कौन से दुःख नहीं उठाये हैं? भला जब यह जीव इस संसार से निकलना चाहता है तब पुनः उसे इस दुःखरूपी सागर में वापस क्यों डालना? कैलाश! तुम मेरी बात मानो और जैसे बने उस मनोवती को संघ में पहुँचा दो। तुम्हारा उस पर बहुत बड़ा उपकार होगा…….’’ और भी बहुत कुछ समझाया किन्तु कैलाशचन्द जी क्या कर सकते थे? उन्होंने अंत में यही कहा कि ‘‘मैं क्या कर सकता हूँ? मेरे वश की बात नहीं है। पिताजी इसी कारण से स्वयं आपके दर्शन करने नहीं आये हैं और न माँ को ही आने दिया हैै।’’
 
पुनः मैं मन ही मन सोचने लगी- ‘‘अहो! सचमुच में मैंने पूर्वजन्म में कितना पुण्य किया होगा जो कि मेरा पुरुषार्थ सफल हो गया और मैं इस गृहवूâप से बाहर निकल आई हूँ, आज मेरा जीवन धन्य है। मैंने क्षुल्लिका दीक्षा के बाद इस स्त्रीपर्याय में सर्वोत्कृष्ट आर्यिका दीक्षा भी प्राप्त कर ली है। आश्चर्य है कि यह संयमनिधि सबको सुलभ नहीं है विरले ही पुण्यवानों को मिलती है।’’ इधर कैलाशचन्द के साथ वार्तालाप कर उपर्युक्त बातों को उनके मुख से सुन कर पं.पन्नालालजी सोनी एवं ब्र. श्रीलाल जी कहने लगे-‘‘यह कोई पूर्वजन्म के संस्कार ही हैं कि जो आपके भाई बहनों के भाव भी घर से निकलकर साधु संघों में रहने के हो रहे हैं।’’ इसके बाद २-३ दिन तक कैलाश, सुभाष वहाँ रहे।
 
मेरे स्वाध्याय और अध्ययन को देखते रहे, सरस्वती भवन में ऊपर मेरे पास संघ की प्रमुख आर्यिका वीरमती माताजी सोती थीं। मेरे पास आर्यिका चन्द्रमती, आर्यिका पद्मावती, क्षुल्लिका जिनमती और क्षुल्लिका राजमती ऐसी चार साध्वियाँ रहती थीं। पास में कोई भी ब्रह्मचारिणी नहीं थी। कैलाशचन्द ने इन आर्यिकाओं से बातचीत की, इनका परिचय लिया, सारे संघ के साधुओं की चर्या देखी, आचार्य महाराज का उपदेश सुना, पश्चात् वहाँ से चलकर वापस घर आ गये।
 
माँ ने आते ही कैलाशचन्द के मुख से अपनी सुपुत्री मैना अर्थात् मेरे सारे समाचार सुने। मन में बहुत प्रसन्नता हुई। मेरे पास दो आर्यिकायें और दो क्षुल्लिकायें हैं, ऐसा जानकर उनका हृदय गद्गद हो गया। मेरे ज्ञान की प्रशंसा पंडित पन्नालालजी सोनी और ब्र. श्रीलालजी शास़्त्री ने जैसी की थी वैसी सुनाई तो पिता का हृदय भी पूâल गया। मनोवती के भी हर्ष का ठिकाना न रहा किन्तु उसे दुःख इस बात का बहुत हो रहा था ‘‘कि मुझे ज्ञानमती माताजी के दर्शन कब होंगे?’’
 
Tags: Meri Smritiyan
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