ब्यावर में सायंकाल में सामूहिक प्रतिक्रमण शुरू हुआ
(ज्ञानमती_माताजी_की_आत्मकथा)
दैवसिक प्रतिक्रमण- जब से मैंने क्षुल्लिका दीक्षा ली थी बराबर प्रतिदिन दोनों टाइम प्रतिक्रमण करती थी। मेरे निकट रहने वाली आर्यिकायें, क्षुल्लिकायें भी करती थीं। एक दिन आर्यिका चंद्रमती जी ने कहा- ‘‘माताजी! हम लोग सायंकाल में दैवसिक प्रतिक्रमण खुले रूप में एक साथ बैठकर क्यों न करें?’’
मैंने कहा-‘‘बिना कारण संघ में अशांति हो सकती है और विरोध भी हो सकता है…..।’’ पहले संघ में प्रातः सामायिक के बाद प्रतिक्रमण होता था यद्यपि यह रात्रिक प्रतिक्रमण था, फिर भी आचार्य महाराज के पास सभी मुनि, आर्यिका एकत्रित हो जाते थे और सामूहिक प्रतिक्रमण होता था इसमें ‘‘दैवसिकरात्रिकप्रतिक्रमण-क्रियायां’’ ऐसा बोला जाता था किन्तु उन दिनों सायंकालीन दैवसिक प्रतिक्रमण सामूहिकरूप में संघ में नहीं होता था। उन दिनों दक्षिण में कुछ साधु-साध्वियाँ मिलकर प्रातः सामायिक के बाद दशभक्तियों का पाठ करते पुनः कल्याणालोचना पढ़ते।
मध्यान्ह में सामायिक के बाद सभी मिलकर भक्तामर-स्तोत्र, सहस्रनाम और तत्त्वार्थसूत्र का पाठ करते। यद्यपि उनका यह पाठ बहुत ही कर्णप्रिय लगता था, फिर भी दोनों टाइम प्रतिक्रमण अवश्य होना चाहिए, यह अभाव मुझे खटकता था अतः बहुत कुछ सोचकर साहस करके एक बार हमने आर्यिका वीरमती जी से परामर्श कर उन्हें आगे कर एक साथ बैठकर सायंकाल में दैवसिक प्रतिक्रमण करना शुरू कर दिया। कई एक आर्यिकाओं ने पहले हँसी उड़ाई। कहने लगी- ‘‘दिनभर मिच्छा मे दुक्कडं, मिच्छा मे दुक्कडं’’ यह तो ढूँढ़ियाँ साध्वियों जैसा धंधा बना दिया है।’’
मैंने इन बातों पर लक्ष्य नहीं दिया तब यह शिकायत के रूप में आर्यिका सुमतिमती माताजी ने आचार्यश्री के सामने कह दिया। मैंने देखा, मामला बढ़ने वाला है तब पं. पन्नालालजी को कहा कि आप भी इस शास्त्रोक्त क्रिया का समर्थन करना। इसके पूर्व पं. पन्नालालजी सोनी कई बार मुझसे कह चुके थे कि दोनों समय प्रतिक्रमण की पद्धति संघ में होनी चाहिए। इस मौके पर वे तटस्थ हो गये तब मैंने ही साहस बटोर कर आचार्यश्री के सामने मूलाचार ले जाकर प्रकरण दिखाते हुए कहा कि- ‘‘इसी के आधार से मैं दोनों समय प्रतिक्रमण करती हूँ।’’
इसके पूर्व मुनिश्री श्रुतसागरजी तो मेरी क्रियाओं से प्रारंभ से ही प्रभावित थे, वे भी चाहते थे कि- ‘‘मुनियों में भी यह परंपरा सामूहिक रूप से चालू हो जाये।’’ मैंने आचार्यश्री शिवसागर जी का मनोभाव उस समय अच्छा देखा अतः निवेदन भी किया कि- ‘‘महाराज जी! कृपया आप आदेश दे दें तो सभी मुनि, आर्यिकायें सायंकाल में आपके समक्ष ही प्रतिक्रमण किया करें।’’ आचार्यश्री ने कहा- ‘‘अच्छा, सोचकर निर्णय देंगे।’’
मैं वापस आ गई और अपना क्रम चालू रखा तथा वयोवृद्धा आर्यिका सुमतिमतीजी आदि से निवेदन किया कि-‘‘आप सब भी प्रतिक्रमण करें तो मैं भी आपके साथ ही करूँगी।’’ वे भी खुश हो गर्इं, कुछ दिन तो हम आर्यिकाओं ने मिलकर प्रतिक्रमण किया पुनः मुनि श्रीश्रुतसागरजी से निर्णय कर आचार्यश्री ने आदेश किया कि- ‘‘सायंकाल में चार से पाँच बजे तक स्वाध्याय चलता है, पं. पन्नालालजी सोनी मूलाचार पढ़ते हैं, सभी साधु सुनते हैं, उसी स्वाध्याय के बाद यहाँ सामूहिक रूप से दैवसिक प्रतिक्रमण होगा, सभी साधु-साध्वियाँ उपस्थित रहेंगे।’’ मुझे इस स्वस्थ परम्परा के चल जाने से बहुत ही प्रसन्नता हुई। आज देखती हूूँ कि सर्वत्र संघों में सायंकाल में ‘दैवसिक प्रतिक्रमण’ की परम्परा चल रही है। इसमें मैंने धीरे-धीरे ‘चत्तारिमंगल, अड्ढाइज्जदीवदोसमुद्देसु’ आदि सामायिक दण्डक और कायोत्सर्ग के बाद ‘थोस्सामि’ पाठ भी शुरू करा दिया। आज यह दंडक और थोस्सामि को पढ़ने की परम्परा भी सर्वत्र चल गई है।
पहले मात्र कायोत्सर्ग कर लेते थे, यह पाठ पुनः-पुनः नहीं पढ़ते थे। इसके बाद अष्टमी के दिन सामूहिक रूप में अष्टमी क्रिया चालू करने के लिए मैंने बहुत प्रयास किया परन्तु सफलता नहीं मिली, तब मैंने आर्यिकाओं में तो चालू कर ही दी थी, उसमें कुछ ही आर्यिकायें नहीं बैठती थीं किन्तु बड़ी आर्यिका वीरमती माताजी और सुमतिमती माताजी अवश्य बैठती थीं। कुछ दिनों पश्चात् मैं पाक्षिक प्रतिक्रमण में सामायिक दंडक और थोस्सामि का पाठ हर कायोत्सर्ग के साथ प्रारंभ कराना चाहती थी किन्तु सफलता नहीं मिल पाई। इस पाठ को मैंने आचार्यधर्मसागर जी महाराज के सानिध्य में चाकसू (जिला-जयपुर राज.) में सन् १९६९ में चालू कराया है। इसमें समय अधिक लग जाता है, फिर भी साधुओं के पास विधिवत् अपनी क्रियाओं को करने के सिवाय और कार्य ही क्या है? अतः प्रमाद को छोड़कर सर्वक्रियाओं को विधिवत् करना चाहिए, ऐसी मेरी भावना रहती है।
पश्चिम रात्रि में प्रतिक्रमण
उन दिनों एक चर्चा यह भी बनी कि मैं पिछली रात्रि में अपररात्रिक स्वाध्याय करके पहले प्रतिक्रमण करती थी पुनः सामायिक करती थी। प्रारंभ से ही मैंने देखा था कि आर्यिकायें प्रातः काल प्रतिक्रमण के लिए आचार्यश्री के स्थान पर नहीं आती थीं प्रत्युत् वहीं अपने स्थान पर सर्व आर्यिकायें मिलकर प्रतिक्रमण करती थीं, बाद में मेरी प्रेरणा विशेष से आर्यिका वीरमती माताजी आदि हम सभी मिलकर एक साथ प्रतिक्रमण कर लिया करते थे। मूलाचार का अध्ययन कराते समय मैंने उसमें ये पंक्तियाँ पढ़ी थी- ‘‘पश्चिमरात्रौ प्रतिक्रमणे क्रियाकर्माणि चत्वारि’’१ पिछली रात्रि में प्रतिक्रमण करने में कृतिकर्म (विधिवत् कायोत्सर्ग) चार होते हैं। अनगारधर्मामृत में भी लिखा है कि-
स्वाध्याय के बारह, वंदना के छह, प्रतिक्रमण के आठ और योगभक्ति के दो, ऐसे अहोरात्र संबंधी अट्ठाईस कायोत्सर्ग होते हैं। मूलाचार की टीका में भी यही खुलासा है। वहाँ इन अट्ठाईस कायोत्सर्ग को अट्ठाईस ‘कृतिकर्म’ नाम दिया है। अतः प्रतिक्रमण के ‘रात्रिक दैवसिक’ दो भेद करके पिछली रात्रि में होने वाले प्रतिक्रमण को रात्रिक और ‘दिवसान्ते भवा’ दैवसिकप्रतिक्रमण’ व्याख्या के अनुसार दिवस के अंत में सायंकाल में अर्थात् होने वाले प्रतिक्रमण को दैवसिक संज्ञा है। उस समय इस विषय पर पं. पन्नालालजी सोनी का भी विशेष समर्थन प्राप्त हुआ और आगम प्रमाण के आगे सभी को संतोष रहा। आर्यिका संघ में तो पिछली रात्रि में पहले प्रतिक्रमण करके सामायिक की परम्परा चल ही गई थी किन्तु अत्यधिक पुरुषार्थ करने के बाद भी आचार्य संघ में (मुनियों में) सामूहिक रूप से यह परम्परा नहीं चल पाई, ये सभी मुनिवर्ग प्रातः सामायिक के बाद ही आचार्यश्री के पास उपस्थित होकर प्रतिक्रमण करते थे।
ब्यावर चातुर्मास की चर्या
पिछली रात्रि में अपरात्रिक स्वाध्याय करके मैं रात्रिक प्रतिक्रमण करती थी, उसमें आर्यिका वीरमती जी (बड़ी माताजी) आर्यिका चंद्रमतीजी, आर्यिका पद्मावती जी क्षुल्लिका जिनमती जी एवं क्षुल्लिका राजुलमतीजी भी बैठती थीं पुनः हम सभी मिलकर विधिवत् सामायिक करते अनंतर गुरु वंदना करके आर्यिका धर्ममतीजी, क्षुल्लिका जिनमती जी, क्षुल्लिका ज्ञानमतीजी, (आर्यिका बुद्धिमतीजी) आर्यिका पद्मावती जी और मैं, ऐसे कई साध्वियाँ मिलकर नशिया से काफी दूर लगभग डेढ़ मील दीर्घशंका के लिए जाती थीं। वहाँ से आकर देवदर्शन करके इधर सरस्वती भवन में संघस्थ चैत्यालय में अभिषेक देखतीं।
इसके बाद चंपालालजी रानीवाला के परिवार की कुछ महिलाएँ एवं बालिकाएँ आ जातीं, उन्हें उमास्वामी श्रावकाचार पढ़ाती, बाद में कुछ विद्यार्थी तत्त्वार्थसूत्र आदि अर्थ सहित पढ़ते पुनः आठ बजे से नव बजे तक तत्त्वार्थराजवार्तिक का अध्ययन कराती। नव से पौने दश तक गोम्मटसार कर्मकांड ग्रंथ को पढ़ाती, अनंतर शुद्धि करके मंदिर में आ जाती। आचार्य श्री के दर्शन कर सब साधु-साध्वियाँ क्रम-क्रम से आचार्यश्री के पीछे-पीछे आहार को निकलते थे। यह दृश्य बहुत ही सुन्दर दिखता था।
लोग उस समय इस दृश्य को देखने के लिए इकट्ठे हो जाते और कहते कि-‘‘अहो! चतुर्थकाल जैसा दृश्य दिख रहा है।’’ इसके बाद मध्यान्ह की सामायिक करके पहले मैं क्षुल्लिका जिनमती को मूलाचार आदि पढ़ाती पुनः दो बजे से चार बजे तक सात-आठ लड़कियाँ आ जाती थीं जिन्हें कातंत्र-व्याकरण, द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र आदि का अध्ययन कराती। संघस्थ ब्रह्मचारिणियाँ-गट्टूबाई, सोनूबाई आदि भी आकर तत्त्वार्थसूत्र का अध्ययन करती थीं। सायं चार बजे से पाँच बजे तक आचार्यश्री के सानिध्य में मूलाचार का स्वाध्याय चलता था, इसमें सभी मुनि, आर्यिकायें उपस्थित रहते थे।
अनंतर दैवसिक प्रतिक्रमण होता था, पुनः सब आर्यिकायें सरस्वती भवन में अपने स्थान पर आ जाती थीं। पं. पन्नालालजी सोनी चरणानुयोग के अच्छे विद्वान् थे उन्होंने क्रियाकलाप, अभिषेक पाठ संग्रह आदि ग्रंथों का संपादन किया था अतः आचार्यश्री पंडितजी को सायंकालीन स्वाध्याय में मूलाचार पढ़ने के लिए बिठाते थे। सायंकालीन सामायिक के बाद में हस्तलिखित ग्रंथों का मैं स्वयं अवलोकन करती थी, जिसमें रात्रि के ग्यारह-बारह भी बज जाते थे, तब मैं थककर चूर हो जाती थी। सारे चातुर्मास क्या, ज्येष्ठ सु. ५ से लेकर मगसिर तक प्रायः यही चर्या रही है। कभी-कभी कुछ परिवर्तन हो जाया करता था। उस समय की इस चर्या से मुझे बहुत ही आत्मसंतोष होता था आज भी वह व्यस्तचर्या याद आती है तो मन प्रसन्न हो जाता है।
अस्वस्थता
यहाँ पर गर्मी में ही मैं आहार करके आती कि तत्क्षण दीर्घशंका के लिए जाना होता था इससे लगभग आधा घंटे तक मुझे बहुत ही बेचैनी होती थी किन्तु मैं न किसी को कुछ कहती ही थी और न स्वास्थ्य के बारे में चिंता ही करती थी और न कुछ दवा ही लेती थी। शरीर से कसकर काम लेना भर मेरा लक्ष्य था। इस प्रकार वैराग्य भावना का चिंतवन करते हुए अपना समय शुभोपयोग से व्यतीत हो रहा था। जब रात्रि की लाइट में कीट, पतंगे आने लगे, तब मैंने रात्रि में हस्तलिखित ग्रंथों का अवलोकन छोड़ दिया था और बाहर छत पर खड़ी होकर बाहर की दूर की लाइट की रोशनी से कर्मकांड ग्रंथ की तीन-चार गाथायें याद कर लेती और अनुप्रेक्षा तथा आम्नाय नाम के स्वाध्याय को करते हुए सो जाती थी।
आम्नायस्वाध्याय
दशलक्षण पर्व में तत्त्वार्थसूत्र का अर्थसहित वाचन करने के लिए एक विद्वान् शास़्त्री को आमंत्रित किया गया था। नवमीं अध्याय का अर्थ करते हुए पंडितजी जब स्वाध्याय के पाँच भेदोें का वर्णन करने लगे। यथा- ‘वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः’ स्वाध्याय नामक तप के पाँच भेद हैं-वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश।
१. जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से निर्गत और गणधर गुरु आदि मुनियों द्वारा ग्रंथित ग्रंथ को शुद्ध पढ़ना और पढ़ाना वाचना है।
२. जो मन में शंका हो या विशेष जानने की इच्छा हो उसको गुरु से पूछना शंका का समाधान करना पृच्छना है।
३. पढ़े हुए का बार-बार चिंतन करना अनुप्रेक्षा है।
४. पढ़े हुए को घोकना, रटना याद करना आम्नाय है।
५. धर्मकथा आदि को सुनाना धर्मोपदेश है।
इन पाँच प्रकार के स्वाध्यायों का अर्थ करते हुए पंडित जी आम्नाय का अर्थ करते हुए बोले- ‘‘तेरह पंथ और बीस पंथ ये दो आम्नाय प्रचलित हैं किन्तु वास्तव में वीतराग पंथ ही शुद्ध है। फल, पुष्प, दीप आदि सचित्त वस्तुओं से पूजन करना ठीक नहीं है इत्यादि।’’ उनके शब्द क्या थे? मुझे याद नहीं है किन्तु अभिप्राय यही था।
इस प्रकार विवेचन करते हुए वे अधिक बोल गये। उस समय आचार्यश्री शिवसागर जी, मुनि श्रुतसागर जी, पं. पन्नालालजी सोनी आदि आपस में एक-दूसरे का मुख देखने लगे पुनः आचार्यश्री हम सभी की ओर देखकर मुस्कराये- जब उनका उपदेश चल रहा था तभी शायद मुनि श्रुतसागरजी ने टोक दिया कि- ‘‘पंडित जी! आम्नाय का अर्थ आप गलत कर रहे हैं, यहाँ प्रकरण स्वाध्याय का है न कि पंथभेद का।’’
उस समय आचार्यश्री ने मुझे भी बोलने का अवसर दिया और मैंने तत्त्वार्थ- राजवार्तिक के आधार से आम्नाय का अर्थ कर दिया। वास्तव में वहां सब प्रबुद्ध लोग बैठे हुए थे जिसमें विद्वान्, मुनि, आर्यिकाएं और पण्डित लोग भी थे अतः उस समय पंडित जी मौनस्थ हो गये। वहाँ ब्यावर में पंडित पन्नालालजी सोनी सिद्धांत, न्याय, व्याकरण आदि ग्रंथों के तलस्पर्शी विद्वान् थे। लेखन कला में भी प्रवीण थे किन्तु खेद के साथ लिखना पड़ता है कि वक्तृत्वकला उनमें नहीं थी, वे सभा में खड़े होकर पाँच मिनट भी बोलने का साहस नहीं कर पाते थे। यही कारण था कि वहाँ पर अन्य विद्वान् को बुलाया गया था।
यहाँ ब्यावर से चातुर्मास के पूर्व ही श्री धर्मसागर जी मुनि अपने साथ में श्री पद्मसागर जी मुनि को लेकर कालू गाँव की तरफ विहार कर गये थे।