Jambudweep - 7599289809
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अयोध्या
03. अत्र विषापहार पूजा
August 28, 2024
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jambudweep
अत्र विषापहार पूजा
-स्थापना-
तर्ज-
गोम्मटेश जय गोम्मटेश मम हृदय विराजो:…
ऋषभदेव जय ऋषभदेव, मम हृदय विराजो-२
हम यही भावना भाते हैं, प्रतिक्षण ऐसी रुचि बनी रहे।
हो रसना पर ऋषभाय नम:, पूजा में प्रीति घनी रहे।।हम.।।
हे ऋषभदेव आवो आवो, आह्वान आपका करते हैं।
युगस्रष्टा प्रभु की भक्तीकर, नित नित नव मंगल भरते हैं।।
प्रभु ऐसी शक्ती दे दीजे, गुण कीर्तन में मति बनी रहे।।हम.।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिन् आदितीर्थंकर श्री ऋषभदेव! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिन् आदितीर्थंकर श्री ऋषभदेव! अत्र तिष्ठ तिष्ठ
ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिन् आदितीर्थंकर श्री ऋषभदेव! अत्र मम सन्निहितो भव
भव वषट् सन्निधीकरणंं।
-अथाष्टकम्-
भक्ति भाव से कर लो पूजा, ऋषभदेव भगवान की।
जिनकी भक्ती विष अपहरती, ज्योति भरती ज्ञान की।।
वन्दे आदिजिनं-४
जिनवर यशसम उज्ज्वल जल ले, प्रभु चरणों त्रयधार करूँ।
जन्म जरा मृत्यू विनाश हो, इसीलिए प्रभु ध्यान धरूँ।।
भव-भव तृषा मिटाने वाली, पूजा जिन भगवान की।।जिनकी.।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं
निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति भाव से कर लो पूजा, ऋषभदेव भगवान की।
जिनकी भक्ती विष अपहरती, ज्योति भरती ज्ञान की।।
वन्दे आदिजिनं-४
जिनवर वच सम शीतल चंदन, केशर संग घिसाया है।
प्रभु के चरण कमल में चर्चत, भव संताप मिटाया है।।
तन मन को शीतल कर देती, अर्चा जिन भगवान की।।जिनकी.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय संसारताप-विनाशनाय चंदनं
निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति भाव से कर लो पूजा, ऋषभदेव भगवान की।
जिनकी भक्ती विष अपहरती, ज्योति भरती ज्ञान की।।
वन्दे आदिजिनं-४
जिनवर गुण सम उज्ज्वल अक्षत, लेकर पुंज चढ़ाऊं मैं।
अमल अखंडित सुख से मंडित, निज आतम पद पाऊँ मैं।।
इंद्र सभी मिल करें वंदना, प्रभु के अक्षय ज्ञान की।।जिनकी.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं
निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति भाव से कर लो पूजा, ऋषभदेव भगवान की।
जिनकी भक्ती विष अपहरती, ज्योति भरती ज्ञान की।।
वन्दे आदिजिनं-४
जिनवर कीर्ति सदृश पुष्पों को, चुन-चुन करके लाऊँ मैं।
जिनवर चरण कमल को जजते, निज गुण यश विकसाऊँ मैं।।
लौकांतिक सुर स्तुति करते, तीर्थंकर भगवान की।।जिनकी.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं
निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति भाव से कर लो पूजा, ऋषभदेव भगवान की।
जिनकी भक्ती विष अपहरती, ज्योति भरती ज्ञान की।।
वन्दे आदिजिनं-४
जिनवच अमृतसम चरु ताजे, घेवर मोदक लाऊँ मैं।
जिनवर आगे अर्पण करते, सब क्षुध व्याधि नशाऊँ मैं।।
गणधर गुरु भी करें वंदना, अतिशय महिमावान की।।जिनकी.।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति भाव से कर लो पूजा, ऋषभदेव भगवान की।
जिनकी भक्ती विष अपहरती, ज्योति भरती ज्ञान की।।
वन्दे आदिजिनं-४
तीर्थंकर की ज्योति प्रभा सम, दीप जलाकर लाऊँ मैं।
मोह अंधेरा दूर हटाकर, ज्ञान ज्योति प्रगटाऊँ मैं।।
चक्रवर्ति भी करें वंदना, अतिशय ज्योतिर्मान् की।।जिनकी.।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं
निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति भाव से कर लो पूजा, ऋषभदेव भगवान की।
जिनकी भक्ती विष अपहरती, ज्योति भरती ज्ञान की।।
वन्दे आदिजिनं-४
जिनतनु सम सुरभित वर चंदन, मिश्रित धूप जलाऊँ मैं।
कर्म भस्म हो जाय शीघ्र ही, निज आतम सुख पाऊँ मैं।।
सम्यग्दर्शन क्षायिक होवे, मिले राह उत्थान की।।जिनकी.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अष्टकर्मदहनाय धूपं
निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति भाव से कर लो पूजा, ऋषभदेव भगवान की।
जिनकी भक्ती विष अपहरती, ज्योति भरती ज्ञान की।।
वन्दे आदिजिनं-४
जिनगुण सदृश मधुर ताजे फल, सेव आम्र अंगूर लिये।
जिनवर सन्मुख अर्पण करते, आत्म सौख्य हो प्रगट हिये।।
जिन पूजन से निजगुण प्रगटे, मिले युक्ति शिवधाम की।।जिनकी.।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय मोक्षफलप्राप्ताये फलं
निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति भाव से कर लो पूजा, ऋषभदेव भगवान की।
जिनकी भक्ती विष अपहरती, ज्योति भरती ज्ञान की।।
वन्दे आदिजिनं-४
जल गंधादिक अर्घ्य सजाकर, स्वर्ण पुष्प बहु मिला लिया।
प्रभु चरणों में अर्घ्य चढ़ाकर, अनुपम सुख को प्राप्त किया।।
जिन भक्ती से प्रकटित होती, ज्योती आतम ज्ञान की।।जिनकी.।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-शेरछंद-
हे नाथ! स्वर्ण भृंग में, आकाशगंग जल।
हम शांतिधार कर रहे, तुम पाद में विमल।।
तिहुँ लोक में सुख शांति हो, ये भावना करें।
हो मन पवित्र मेरा, यह याचना करें।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरतरु सुमन समान सुरभि, पुष्प चुन लिये।
प्रभु पाद पंकरूह में, कुसुम अंजली किये।।
धन धान्य सौख्य संपदा, स्वयमेव आ मिले।
भक्ती से निज शक्ती बढ़े, शिवयुक्ति भी मिले।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
विषापहार स्तोत्र के, चालिस काव्य महान्।
पुष्पांजलि से पूजहूँ, जो अनंत गुण खान।।१।।
अथ मंडले चत्वारिंशत्कोष्ठानामुपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
प्रथम वलय में 8 अर्घ्य
-सोरठा-
नित्य निरंजन सिद्ध, परम हंस परमातमा।
अष्टगुणों से सिद्ध, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।२।।
अथ अष्टकाव्यगुणसमन्वित प्रथमवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
स्वात्मस्थित: सर्वगत: समस्त-व्यापारवेदी विनिवृत्तसंग:।
प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्य:, पायादपायात्पुरुष: पुराण:।।१।।
अपने में ही स्थिर रहता है, और सर्वगत कहलाता।
सर्व-संग-त्यागी होकर भी, सब व्यापारों का ज्ञाता।।
काल-मान से वृद्ध बहुत है, फिर भी अजर अमर स्वयमेव।
विपदाओं से सदा बचावे, वह पुराण पुरुषोत्तम देव।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्वात्मस्थिताय केवलज्ञानकिरणैर्लोकालोकव्याप्ताय केवलिसमुद्घात-
समयसर्वलोकव्यापिने पुराणपुरुषाय सर्वविषापहारिणेआदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
परैरचिन्त्यं युगभारमेक:, स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्य:।
स्तुत्योऽद्य मेऽसौ वृषभो न भानो:, किमप्रवेशे विशति प्रदीप:।।२।।
जिसने पर-कल्पनातीत, युग-भार अकेले ही झेला।
जिसके सुगुन-गान मुनिजन भी, कर नहिं सके एक बेला।।
उसी वृषभ की विशद विरद यह, अल्पबुद्धि जन रचता है।
जहाँ न जाता भानु वहाँ भी, दीप उजेला करता है।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं युगारंभे प्राणिप्राणधारणोपायप्रदर्शिने युगादिब्रह्मणे अचिन्त्यमहिम्ने
वृषभनामप्राप्ताय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकर-श्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।२।।
तत्याज शक्र: शकनाभिमानं, नाहं त्यजामि स्तवनानुबंधम्।
स्वल्पेन बोधेन ततोऽधिकार्थं, वातायनेनेव निरूपयामि।।३।।
शक्र सरीखे शक्तिवान ने, तजा गर्व गुण गाने का।
किन्तु मैं न साहस छोड़ूँगा, विरदावली बनाने का।।
अपने अल्पज्ञान से ही मैं, बहुत विषय प्रकटाऊँगा।
इस छोटे वातायन से ही, सारा नगर दिखाऊँगा।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं वातायनमिव स्वल्पबोधधारकत्वत्स्तुतिकरणोद्यमि-भाक्तिकस्योपरि
कृपादृष्टिधारकाय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकर-श्रीऋषभदेवाय अर्घ्यंनिर्वपामीति
स्वाहा।।३।।
त्वं विश्वदृश्वा सकलैरदृश्यो, विद्वानशेषं निखलैरवेद्य:।
वक्तुं कियान्कीदृश इत्यशक्य:, स्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु।।४।।
तुम सब-दर्शी देव किन्तु, तुमको न देख सकता कोई।
तुम सबके ही ज्ञाता पर, तुमको न जान पाता कोई।।
‘कितने हो’ ‘कैसे हो’ यों कुछ, कहा न जाता हे भगवान्।
इससे निज अशक्ति बतलाना, यही तुम्हारा स्तवन महान्।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं विश्वदृश्वाऽदृश्यसर्वजगदज्ञेय परमस्तुत्यगुणसमन्विताय
सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
व्यापीडितं बालमिवात्मदोषै-रुल्लाघतां लोकमवापिपस्त्वम्।
हिताहितान्वेषणमान्द्यभाज:, सर्वस्यजन्तोरसि बालवैद्य:।।५।।
बालक सम अपने दोषों से, जो जन पीड़ित रहते हैं।
उन सबको हे नाथ! आप, भवताप रहित नित करते हैं।।
यों अपने हित और अहित का, जो न ध्यान धरने वाले।
उन सबको तुम बाल-वैद्य हो, स्वास्थ्य-दान करने वाले।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्वदोषपीड़ितहिताहितविवेकशून्यप्राणिनां बालवैद्याय
सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
दाता न हर्ता दिवसं विवस्वा, नद्यश्व इत्यच्युत! दर्शिताश:।
सव्याजमेवं गमयत्यशक्त:, क्षणेन दत्सेऽभिमतं नताय।।६।।
देने लेने का काम नहीं कुछ, आज कल्य परसों करके।
दिन व्यतीत करता अशक्त रवि, व्यर्थ दिलासा देकर के।।
पर हे अच्युत! जिनपति तुम यों, पल भर भी नहिं खोते हो।
शरणागत नत भक्तजनों को, त्वरित इष्ट फल देते हो।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं विनतजनाभिमतफलप्रदायकाय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकर
श्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
उपैति भक्त्या सुमुख: सुखानि, त्वयि स्वभावाद्विमुखश्च दु:खम्।
सदावदातद्युतिरेकरूपस्तयो-स्त्वमादर्श इवावभासि।।७।।
भक्तिभाव से सुमुख आपके, रहने वाले सुख पाते।
और विमुख जन दुख पाते हैं, रागद्वेष नहिं तुम लाते।।
अमल सुदुतिमय चारु आरसी, सदा एकसी रहती ज्यों।
उसमें सुमुख विमुख दोनों ही, देखें छाया ज्यों की त्यों।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं भाक्तिकाभाक्तिकजनराग-द्वेषविरहितैकरूपादर्शवद् वीतरागाय
सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
अगाधताब्धे: स यत: पयोधिर्मेरोश्च, तुङ्गा प्रकृति:स यत्र।
द्यावापृथिव्यो: पृथुता तथैव, व्याप त्वदीया भुवनान्तराणि।।८।।
गहराई निधि की, ऊँचाई गिरि की, नभ-थल की चौड़ाई।
वहीं वहीं तक जहाँ-जहाँ तक, निधि आदिक दें दिखलाई।।
किन्तु नाथ! तेरी अगाधता, और तुंगता, विस्तरता।
तीन भुवन के बाहिर भी है, व्याप रही हे जगत्पिता।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं समुद्रसुमेरूगगनपृथिव्यापेक्षयाधिकगंभीरोत्तुंगविशाल-
गुणविभूषिताय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
-पूर्णार्घ्य-
मिलता है प्रभू भक्ती का, अवसर कभी कभी।
यह पुण्य का कमल तो, खिलता कभी कभी।।
मन वचन काय तीनों, योगों को जीत के।
जिनवर जिनेंद्र तुम हो, पूजूँ अभी अभी।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्वात्मस्थितादिविशालतान्तगुणविशिष्टाय सर्वविषाप
हारिणेआदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
द्वितीय वलय के 16 अर्घ्य
-सोरठा-
धर्मचक्र प्रभु आप, तिहुँजग को उद्योतता।
पुष्पांजलि से आप, पूजत भेद विज्ञान हो।।
अथ षोडशकाव्यसमन्वित द्वितीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
तवानवस्था परमार्थ तत्त्वम्, त्वया न गीत: पुनरागमश्च।
दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमैषी:, विरुद्धवृत्तोऽपि समंजसस्त्वम्।।१।।
अनवस्था को परम तत्त्व, तुमने अपने मत में गाया।
किन्तु बड़ा अचरज यह भगवन्, पुनरागमन न बतलाया।।
त्यों आशा करके अदृष्ट की, तुम सुदृष्ट फल को खोते।
यों तब चरित दिखें उलटे से, किन्तु घटित सब ही होते।।१।।
ॐ ह्रीं अहं अनवस्थास्वरूपपरमाथतत्त्वोपदेशि-पुनरागमनविरहिताय
दृष्टसुखत्यक्तादृष्टसुखोपायदशिने सवविषापहारिणे आदितीथंकर-
श्रीऋषभदेवाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।।१।।
स्मर: सुदग्धो भवतैव तस्मिन्, उध्दूलितात्मा यदि नाम शंभु:।
अशेत वृन्दोपहतोऽपि विष्णु:, किं गृह्यते येन भवानजाग:।।२।।
काम जलाया तुमने स्वामी, इसीलिए यह उसकी धूल।
शंभु रमाई निज शरीर में, होय अधीर मोह में भूल।।
विष्णु परिग्रहयुत सोते हैं, लूटे उन्हें इसी से काम।
तुम निगं जागते रहते, तुमसे क्या छीने वह वाम।।२।।
ॐ ह्रीं अहं जगद्विजयिकामदेवभस्मसात्करणाय सवकालजाग्रते
सवविषापहारिणे आदितीथंकरश्रीऋषभदेवाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।।२।।
स नीरजा: स्यादपरोऽघवान्वा, तद्दोषकीत्यैव न ते गुणित्वम्।
स्वतोम्बुराशेमहिमा न देव! स्तोकापवादेन जलाशयस्य।।३।।
और देव हों चाहे जैसे, पाप सहित अथवा निष्पाप।
उनके दोष दिखाने से ही, गुणी कहे नहिं जाते आप।।
जैसे स्वयं सरितपति की अति, महिमा बढ़ी दिखाती है।
जलाशयों के लघु कहने से, वह न कहीं बढ़ जाती है।।३।।
ॐ ह्रीं अहं सरागदेवदोषकथनानपेक्षिसमुद्रवत्स्वाभाविमहिमोपेताय
सवविषापहारिणे आदितीथंकरश्रीऋषभदेवाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।।३।।
कमस्थितिं जन्तुरनेकभूमिम्, नयत्यमुं सा च परस्परस्य।
त्वं नेतृभावं हि तयोभवाब्धौ, जिनेन्द्र नौनाविकयोरिवाख्य:।।४।।
कमस्थिति को जीव निरन्तर, विविध थलों में पहुँचाता।
और कम इन जग-जीवों को, सब गतियों में ले जाता।।
यों नौका नाविक के जैसे, इस गहरे भव-सागर में।
जीव-कर्म के नेता हो प्रभु, पार करो कर कृपा हमें।।४।।
ॐ ह्रीं अहं जीवकमान्योन्यनेतृभावप्रतिपादकाय संसारसागरतरणोपाय-
प्रदशकाय सवविषापहारिणे आदितीथंकरश्रीऋषभदेवाय अघ्यं निवपामीति
स्वाहा।।४।।
सुखाय दु:खानि गुणाय दोषान्, धमाय पापानि समाचरन्ति।
तैलाय बाला: सिकतासमूहं, निपीडयन्ति स्फुटमत्वदीया:।।५।।
गुण के लिए लोग करते हैं, अस्ति-धारणादिक बहु दोष।
धम हेतु पापों में पड़ते, पशुवधादि को कह निदोष।।
सुखहित निज-तन को देते हैं, गिरिपातादि दु:ख में ठेल।
यों जो तव मतबाह्य मूढ़ वे, बालू पेल निकालें तेल।।५।।
ॐ ह्रीं अहं सुखेच्छुकदु:खकारणोत्पादकमूढजनहितोपदेशिने सवविषापहारिणे
आदितीथंकरश्रीऋषभदेवाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।।५।।
विषापहारं मणिमौषधानि, मन्त्रं समुद्दिश्य रसायनं च।
भ्राम्यन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति, पयायनामानि तवैव तानि।।६।।
विषनाशक मणि मंत्र रसायन, औषध के अन्वेषण में।
देखो तो ये भोले प्राणी, फिरें भटकते वन-वन में।।
समझ तुम्हें ही मणिमंत्रादिक, स्मरण न करते सुखदायी।
क्योंकि तुम्हारे ही हैं ये सब, नाम दूसरे पया&यी।।६।।
ॐ ह्रीं अहं विषापहारमण्यौषध-मंत्र-रसायनस्वरूपपयाय-वाचिनामधारकाय
सवविषापहारिणे आदितीथंकरश्रीऋषभदेवाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।।६।।
चित्ते न किंचित्कृतवानसि त्वम्, देव: कृतश्चेतसि येन सवम्।
हस्ते कृतं तेन जगद्विचित्रम्, सुखेन जीवत्यपि चित्तबाह्य:।।७।।
हे जिनेश! तुम अपने मन में, नहीं किसी को लाते हो।
पर जिस किसी भाग्यशाली के, मन में तुम आ जाते हो।।
वह निज-कर में कर लेता है, सकल जगत को निश्चय से।
तव मन से बाहर रहकर भी, अचरज है रहता सुख से।।७।।
ॐ ह्रीं अहं स्वहृदयकमलधृत्सवजगद्हस्तकृतसामथ्यप्रापकाय
सवविषापहारिणे आदितीथंकरश्रीऋषभदेवाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।।७।।
त्रिकालतत्त्वं त्वमवैस्त्रिलोकी-स्वामीति संख्यानियतेरमीषाम्।
बोधाधिपत्यं प्रति नाभविष्यत्, तेऽन्येऽपि चेद्व्याप्स्यदमूनपीदम्।।८।।
त्रिकालज्ञ त्रिजगत के स्वामी, ऐसा कहने से जिनदेव।
ज्ञान और स्वामीपन की, सीमा निश्चित होती स्वयमेव।।
यदि इससे भी ज्यादा होती, काल जगत की गिनती और।
तो उसको भी स्थापित करते, ये तव गुण दोनों सिरमौर।।८।।
ॐ ह्रीं अहं त्रिकाल-त्रैलोक्यज्ञानस्वामिने असंख्यातलोकप्रमाणकेवलज्ञान
समन्विताय सवविषापहारिणे आदितीथंकरश्रीऋषभदेवाय अघ्यं निवपामीति
स्वाहा।।८।।
नाकस्य पत्यु: परिकम रम्यं, नागम्यरूपस्य तवोपकारी।
तस्यैव हेतु: स्वसुखस्य, भानोरुद्विभ्रतश्च्छत्रमिवादरेण।।९।।
प्रभु की सेवा करके सुरपति, बीज स्वसुख के बोता है।
हे अगम्य अज्ञेय न इससे, तुम्हें लाभ कुछ होता है।।
जैसे छत्र सूय के सम्मुख, करने से दयालु जिनदेव।
करने वाले ही को होता, सुखकर आतपहर स्वयमेव।।९।।
ॐ ह्रीं अहं आतपहरछत्रमिव इन्द्रकृतप्रभुभक्तिस्वोपकारिगुणसमन्विताय
सवविषापहारिणे आदितीथंकरश्रीऋषभदेवाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।।९।।
क्वोपेक्षकस्त्वं क्व सुखोपदेश:, स चेत्किमिच्छाप्रतिकूलवाद:।
क्वासौ क्व वा सवजगत्प्रियत्वम्, तन्नो यथातथ्यमवेविचं ते।।१०।।
कहाँ तुम्हारी वीतरागता, कहाँ सौख्यकारक उपदेश।
हो भी तो कैसे बन सकता, इन्द्रिय-सुख-विरुद्ध आदेश?।।
और जगत की प्रियता भी तब, संंभव कैसे हो सकती?।
अचरज, यह विरुद्ध गुणमाला, तुममें वैâसे रह सकती?।।१०।।
ॐ ह्रीं अहं सवजगदुपेक्षकायापि सवोप्देशकसर्वजगत्प्रियत्वगुण-
समन्विताय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।१०।।
तुङ्गात्फलं यत्तदकिंचनाच्च, प्राप्यं समृद्धान्न धनेश्वरादे:।
निरम्भसोऽप्युच्चतमादिवाद्रे-र्नैकापि निर्याति धुनी पयोधे:।।११।।
तुम समान अति तुंग किन्तु, निधनों से जो मिलता स्वयमेव।
धनद आदि धनिकों से वह फल, कभी नहीं मिल सकता देव।
जल विहीन ऊँचे गिरिवर से, नाना नदियाँ बहती हैं।
किन्तु विपुल जलयुक्त जलधि से, नहीं निकलती, झरती हैं।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं निर्जलोच्चतमाद्रिनिर्गतनदीसम-अकिंचनायस्वभक्तजनसर्व-
वांछितफलदानसमर्थाय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
त्रैलोक्यसेवानियमाय दण्डं, दध्रे यदिन्द्रो विनयेन तस्य।
तत्प्रातिहार्यं भवत: कुतस्त्यं, तत्कर्मयोगाद्यदि वा तवास्तु।।१२।।
करो जगत-जन जिनसेवा, यह समझाने को सुरपति ने।
दंड विनय से लिया, इसलिए प्रातिहार्य पाया उसने।।
किन्तु तुम्हारे प्रातिहार्य वसु-विधि हैं सो आए कैसे ?।
हे जिनेन्द्र! यदि कर्मयोग से, तो वे कर्म हुए कैसे?।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं महिम्ना त्रैलोक्यसेवानियमरूपदण्डधृतइंद्रकृतप्रातिहार्याय
तीर्थंकरप्रकृतिनिमित्तप्राप्तविभवाय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकर-
श्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
श्रिया परं पश्यति साधु नि:स्व:, श्रीमान्न कश्चित्कृपणं त्वदन्य:।
यथा प्रकाशस्थितमन्धकारस्थायी-क्षतेऽसौ न तथा तम:स्थम्।।१३।।
धनिकों को तो सभी निधन, लखते हैं, भला समझते हैं।
पर निधनों को तुम सिवाय जिन, कोई भला न कहते हैं।।
जैसे अन्धकारवासी, उजियाले वाले को देखे।
वैसे उजियाला वाला नर, नहिं तमवासी को देखे।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं निर्धन-दु:खिजनानां दयादृष्ट्यवलोकिने मोहान्धकार-
त्रस्तजनहितोपदेशप्रकाशप्रदायिने सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकर-
श्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
स्ववृद्धिनि:श्वासनिमेषभाजि, प्रत्यक्षमात्मानुभवेपि मूढ:।
किं चाखिलज्ञेयविवर्तिबोध-स्वरूपमध्यक्षमवैति लोक:।।१४।।
निज शरीर की वृद्धि श्वास-उच्छ्वास और पलकें झपना।
ये प्रत्यक्ष चिह्न हैं जिसमें, ऐसा भी अनुभव अपना।।
कर न सकें जो तुच्छबुद्धि वे, हे जिनवर! क्या तेरा रूप।
इन्द्रियगोचर कर सकते हैं, सकल ज्ञेयमय ज्ञानस्वरूप?।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं सकलपदार्थज्ञायकभगवत्स्वरूपाज्ञानिस्वात्मानुभव-
मूढजनप्रतिबोधकाय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
तस्यात्मजस्तस्य पितेति देव, त्वां येऽवगायन्ति कुलं प्रकाश्य।
तेऽद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं, पाणौ कृतं हेम पुनस्त्यजन्ति।।१५।।
‘उनके पिता’ ‘पुत्र हैं उनके’, कर प्रकाश यों कुल की बात।
नाथ! आपकी गुण-गाथा जो, गाते हैं रट रट दिनरात।।
चारु चित्तहर चामीकर को, सचमुच ही वे बिना विचार।
उपल-शकल से उपजा कहकर, अपने कर से देते डार।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं नाभिराजपुत्र-भरतसम्राड्जनकादिकुलप्रकाशाद्यनपेक्षिणे
स्वयमनन्तगुणादिस्वरूपमाहात्म्यप्राप्ताय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकर-
श्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
दत्तस्त्रिलोक्यां पटहोऽभिभूता:, सुरासुरास्तस्य महान्स लाभ:।
मोहस्य मोहस्त्वयि को विरोद्धुम्, मूलस्य नाशो बलवद्विरोध:।।१६।।
तीन लोक में ढोल बजाकर, किया मोह ने यह आदेश।
सभी सुरासुर हुए पराजित, मिला विजय यह उसे विशेष।।
किन्तु नाथ! वह निबल आपसे, कर सकता था कहाँ विरोध।
वैर ठानना बलवानों से, खो देता है खुद को खोद।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं त्रिभुवनस्थितसुरासुरमनुष्यादिविजयिमोहराज-
प्रभावमूलोन्मूलिने सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
-पूर्णार्घ्य-
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भव सिंधु अगर तरना चाहो, जिन चरण शरण में आ जाना।।
युगस्रष्टा असि मषि कृषि आदिक, षट्क्रिया सिखायी जनता को।
वर धर्म अहिंसा सर्व श्रेष्ठ, उपदेशा धर्म सभी जन को।
इनके चरणों का आश्रय ले, दु:ख से छुटकारा पा जाना।। यह मानव.।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुनरागनविरहितादि-मोहशत्रून्मूलनान्तषोडशकाव्य-
गुणसमन्विताय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्री ऋषभदेवाय पूर्णार्घ्यं……।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
तृतीय वलय में 16 अर्घ्य
-दोहा-
प्रभु वचनामृत आपके, भरें स्वात्म विज्ञान।
पुष्पांजलि से पूजते, पाऊँ सौख्य महान।।
अथ षोडशकाव्यसमन्वित तृतीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
मार्गस्त्वयैको ददृशे विमुक्ते:, चतुर्गतीनां गहनं परेण।
सर्वं मया दृष्टमिति स्मयेन, त्वं मा कदाचित् भुजमालुलोक:।।१।।
तुमने केवल एक मुक्ति का, देखा मार्ग सौख्यकारी।
पर औंरों ने चारों गति के, गहन पंथ देखे भारी।।
इससे सब कुछ देखा हमने, यह अभिमान ठान करके।
हे जिनवर! नहिं कभी देखना, अपनी भुजा तान करके।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं चतुर्गतिगहनमार्गदर्शीश्वरापेक्षया केवलैकमोक्षमार्गदर्शिने
सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
स्वर्भानुरर्कस्य हविर्भुजोऽम्भ:, कल्पान्तवातोऽम्बुनिधेर्विघात:।
संसारभोगस्य वियोगभावो, विपक्षपूर्वाभ्युदयास्त्वदन्ये।।२।।
रवि को राहु रोकता है, पावक को वारि बुझाता है।
प्रलयकाल का प्रबल पवन, जलनिधि को नाच नचाता है।।
ऐसे ही भव-भोगों को, उनका वियोग हरता स्वयमेव।
तुम सिवाय सबकी बढ़ती पर, घातक लगे हुए हैं देव।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं सूर्यविरोधिराहु-अग्निविरोधिजल-संसारभोगविरोधि-
वयोगभावप्रतिपादनकुशलाय स्वयं विपक्षगणरहिताय सर्वविषापहारिणे
आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
अजानतस्त्वां नमत: फलं यत्, तज्जानतोऽन्यं न तु देवतेति।
हरिन्मणिं काचधिया दधान:।, तं तस्य बुद्ध्या वहतो न रिक्त:।।३।।
बिन जाने भी तुम्हें नमन, करने से जो फल फलता है।
वह औरों को देव मान, नमने से भी नहिं मिलता है।।
ज्यों मरकत को काँच मानकर, करगत करने वाला नर।
समझ सुमणि जो काच गहे, उसके सम रहे न खाली कर।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं त्वद्गुणज्ञानविरहितनमस्कृतिमात्रेणापि ईप्सितफलप्रापक-
समर्थाय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।३।।
प्रशस्तवाचश्चतुरा: कषायै:, दग्धस्य देवव्यवहारमाहु:।
गतस्य दीपस्य हि नंदितत्वम्, दृष्टं कपालस्य च मंगलत्वम्।।४।।
विशद मनोज्ञ बोलने वाले, पंडित जो कहलाते हैं।
क्रोधादिक से जले हुए को, वे यों ‘देव’ बताते हैं।।
जैसे ‘बुझे हुए’ दीपक को, ‘बढ़ा हुआ’ सब कहते हैं।
और कपाल विघट जाने को, ‘मंगल हुआ’ समझते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं कषायदग्धजनानां देवशब्दसंबोधनप्रशस्तवाक्यकुशल-
जनसत्यमार्गप्रतिबोधकाय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
नानार्थमेकार्थमदस्त्वदुक्तम्, हितं वचस्ते निशमय्य वक्तु:।
निर्दोषतां के न विभावयंति, ज्वरेण मुक्त: सुगम: स्वरेण।।५।।
नयप्रमाणयुत अतिहितकारी, वचन आपके कहे हुए।
सुनकर श्रोताजन तत्त्वों के, परिशीलन में लगे हुए।।
वक्ता का निर्दोषपना, जानेंगे क्यों नहिं हे गुणमाल।
ज्वरविमुक्त जाना जाता है, अच्छे स्वर से ही तत्काल।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं परस्परविरोधविरहितसर्वहितकरस्याद्वादवचनोपदेशिने
सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
न क्वापि वांछा ववृते च वाक्ते, काले क्वचित्कोऽपि तथा नियोग:।
न पूरयाम्यम्बुधिमित्युदंशु:, स्वयं हि शीतद्युतिरभ्युदेति।।६।।
यद्यपि जग के किसी विषय में, अभिलाषा तव रही नहींr।
तो भी विमल वाणी तव खिरती, यदा कदाचित् कहीं-कहीं।।
ऐसा ही कुछ है नियोग यह, जैसे पूर्णचन्द्र जिनदेव।
ज्वार बढ़ाने को न ऊगता, किन्तु उदित होता स्वयमेव।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्वयमुदितपूर्णचंद्राम्बुधिपूरमिव इच्छाविरहितसर्वजनहित-
करदिव्यध्वनिप्रकटितकरणाय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
गुणा गभीरा: परमा: प्रसन्ना:, बहुप्रकारा बहवस्तवेति।
दृष्टोऽयमन्तस्तवने न तेषाम्, गुणो गुणानां किमत: परोऽस्ति।।७।।
हे प्रभु! तेरे गुण प्रसिद्ध हैं, परमोत्तम हैं, गहरे हैं।
बहु प्रकार हैं, पार रहित हैं, निज स्वभाव में ठहरे हैं।।
स्तुति करते करते यों देखा, छोर गुणों का आखिर में।
इनमें जो नहिं कहा रहा वह, और कौन गुण जाहिर में।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं गंभीर-परम-प्रसन्न-बहुप्रकार-बहु-अन्तविरहित-
अनन्तगुण-स्वामिने सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
स्तुत्या परं नाभिमतं हि भक्त्या, स्मृत्या प्रणत्या च ततो भजामि।
स्मरामि देवं! प्रणमामि नित्यम्, केनाप्युपायेन फलं हि साध्यम्।।८।।
किन्तु न केवल स्तुति करने से, मिलता है निज अभिमत फल।
इससे प्रभु को भक्तिभाव से, भजता हूँ प्रतिदिन प्रतिपल।।
स्मृति करके सुमरन करता हूँ, पुनि विनम्र हो नमता हूँ।
किसी यत्न से भी अभीष्ट-साधन की इच्छा रखता हूँ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्तुति-भक्ति-स्मृति-प्रणति इत्यादि उपायै:अभिमतफल-
प्राप्त्यर्थं प्रयत्नतत्परभाक्तिकजनमनोरथपूर्णीकराय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकर
श्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
ततस्त्रिलोकीनगराधिदेवं, नित्यं परंज्योतिरनंतशक्तिम्।
अपुण्यपापं परपुण्यहेतुं, नमाम्यहं वन्द्यमवन्दितारम्।।९।।
इसीलिए शाश्वत तेजोमय, शक्ति अनन्तवन्त अभिराम।
पुण्य पाप बिन, परम पुण्य के, कारण परमोत्तम गुणधाम।।
वन्दनीय, पर जो न और की, करें वंदना कभी मुनीश।
ऐसे त्रिभुवन-नगर-नाथ को, करता हूँ प्रणाम धर सीस।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं नित्य-परंज्योति-रनन्तशक्तिस्वरूपत्रैलोक्याधिपतये
पुण्यपापविरहितपरपुण्यहेतवे सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
अशब्दमस्पर्शमरूपगन्धं, त्वां नीरसं तद्विषयावबोधम्।
सर्वस्य मातारममेयमन्यै-र्जिनेन्द्रमस्मार्यमनुस्मरामि।।१०।।
जो नहिं स्वयं शब्द रस सपरस, अथवा रूप गंध कुछ भी।
पर इन सब विषयों के ज्ञाता, जिन्हें केवली कहें सभी।।
सब पदार्थ जो जानें पर न, जान सकता कोई जिनको।
स्मरण में न आ सकते हैं जो, करता हूँ सुमरन उनको।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं शब्द-गंध-स्पर्श-रूप-रसविरहिताय अन्यैरज्ञेयाय
सर्वज्ञजिनेन्द्राय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
अगाधमन्यैर्मनसाप्यलंघ्यं, निष्किंचनं प्रार्थितमर्थवद्भि:।
विश्वस्य पारं तमदृष्टपारं, पतिं जिनानां शरणं व्रजामि।।११।।
लंघ्य न औरों के मन से भी, और गूढ़ गहरे अतिशय।
धनविहीन जो स्वयं किन्तु, जिनका करते धनवान विनय।।
जो इस जग के पार गये पर, पाया जाय न जिनका पार।
ऐसे जिनपति के चरणों की, लेता हूँ मैं शरण उदार।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं अर्थिभि: प्रार्थ्यनिकिंचनाय अदृष्टपारविश्वपारंगताय
जिनपतये सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
त्रैलोक्यदीक्षागुरवे नमस्ते, यो वर्धमानोऽपि निजोन्नतोऽभूत।
प्राग्गण्डशैल: पुनरद्रिकल्प:, पश्चान्न मेरु: कुलपर्वतोऽभूत।।१२।।
मेरु बड़ा सा पत्थर पहले, फिर छोटा सा शैलस्वरूप।
और अन्त में हुआ न कुलगिरि, किन्तु सदा से उन्नत रूप।।
इसी तरह जो वर्धमान है, किन्तु न क्रम से हुआ उदार।
सहजोन्नत उस त्रिभुवन-गुरु को, नमस्कार है बारम्बार।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं मेरुपर्वतमिव स्वयमेव त्रैलोक्यदीक्षागुरवे सर्वविषापहारिणे
आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
स्वयंप्रकाशस्य दिवा निशा वा, न बाध्यता यस्य न बाधकत्वम्।
न लाघवं गौरवमेकरूपं, वंदे विभुं कालकलामतीतम्।।१३।।
स्वयं प्रकाशमान जिस प्रभु को, रात दिवस नहिं रोक सका।
लाघव गौरव भी नहिं जिसको, बाधक होकर टोक सका।।
एक रूप जो रहे निरन्तर, काल-कला से सदा अतीत।
भक्तिभार से झुककर उसकी, करूँ वंदना परम पुनीत।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंप्रकाशरूप-लाघवगौरवविरहितैकरूपाय काल-
कलामतीताय विभवे सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
इति स्तुतिं देव! विधाय, दैन्याद्वरंं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि।
छायातरुं संश्रयत: स्वत:, स्यात्कश्छायया याचितयात्मलाभ:।।१४।।
इस प्रकार गुणकीर्तन करके, दीन भाव से हे भगवान।
वर न मांगता हूँ मैं कुछ भी, तुम्हें वीतरागी वर जान।।
वृक्षतले जो जाता है, उस पर छाया होती स्वयमेव।
छाँह-याचना करने से फिर, लाभ कौन सा है जिनदेव?।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्तुतिकर्त्रे याचनाविरहितायापि सर्वाभीप्सितफलप्रदायिने
सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
अथास्ति दित्सा यदि वोपरोध-स्त्वय्येव सक्तां दिश भक्तिबुद्धिम्।
करिष्यते देव! तथा कृपां मे, को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरि:।।१५।।
यदि देने की इच्छा ही हो, या इसका कुछ आग्रह हो।
तो निज चरन-कमल-रत निर्मल, बुद्धि दीजिए नाथ अहो।।
अथवा कृपा करोगे ही प्रभु, शंका इस में जरा नहीं।
अपने प्रिय सेवक पर करते, कौन सुधी जन दया नहीं।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं त्वय्येव भक्तिबुद्धियाचनासफलीकराय आत्मपोष्य-
शिष्याचार्याय परमकृपालवे सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
-पुष्पिताग्रा छंद-
वितरति विहिता यथाकथञ्चिज्जिन, विनताय मनीषितानि भक्ति:।
त्वयि नुतिविषया पुनर्विशेषाद्दिशति, सुखानि यशो धनं जयं च।।१६।।
यथाशक्ति थोड़ी सी भी, की हुई भक्ति श्रीजिनवर की।
भक्तजनों को मनचाही, सामग्री देती जगभर की।।
इससे गूंथी गई स्तवन में, यह विशेषता से रुचिकर।
‘प्रेमी’ देगी सौख्य सुयश को, तथा ‘धनंजय’ को शुचितर।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं त्वत्पदकमलभाक्तिकाय मे सर्वसौख्यं यशो धनं जयं दातुं समर्थाय
सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
-पूर्णार्घ्य-
जिनवर के गुणों को गाते चलो, मनवांछित फल पा जावोगे।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाते चलो, धन सुख संपति पा जावोगे।।
सौ इन्द्रों से वंदित प्रभु तुम, त्रिभुवन के गुरू कहाते हो।
श्रद्धा से इनका नाम लिये, भवसागर से तिर जावोगे।।जिन.।।
मुझमें भी केवलज्ञान भरा, यह ज्ञानावरण उसे ढकता।
कैसे विनाश हो कर्मों का, भक्ती से युक्ती पावोगे।।जिन.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं एकमात्रमोक्षमार्गदर्श्यादिभाक्तिकजनाभीप्सितफलदानपर्यन्त-
षोडशकाव्यगुणसमन्विताय सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-पूर्णार्घ्य-शंभु छंद-
एकेक काव्य भी गुण अनंत से, भरित अतुल महिमाशाली।
मैं अल्पबुद्धि नहिं समझ सवूँ, फिर भी भक्ती गुणमणिमाली।।
इन चालिस काव्यों को विधिवत्, अर्चन कर मैं पूर्णार्घ्य करूँ।
संपूर्ण अमंगल विघ्न नशें, अतिशय परमानंद प्राप्त करूँ।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकरश्रीऋषभदेवाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
मंत्र जाप्य-
१. ॐ ऋषभाय अमृतविंदवे ठ: ठ: ठ: स्वाहा।
२. ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकर श्रीऋषभदेवाय नम:।
३. ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवाय सर्र्वसिद्धिकराय सर्वसौख्यं कुरु कुरु ह्रीं नम:।
जयमाला
-अनंगशेखर छंद-
जयो जिनेन्द्र! आप ही महान देवदेव हो,
समस्त इंद्र देव चक्रवर्ति शीश नावते।
जयो जिनेन्द्र! आप ही समस्त विश्ववंद्य हो,
मुनीन्द्र औ गणीन्द्र साधुवृंद कीर्ति गावते।।
जयो जिनेन्द्र! आपकी अपूर्व ज्ञान ज्योति में,
त्रिलोक औ अलोक एक साथ भासते रहें।
जयो जिनेन्द्र! आपकी अपूर्व दिव्यदृष्टि में,
त्रिकाल की अनंंत वस्तुएँ विभासती रहें।।१।।
जयो जिनेन्द्र! आपकी ध्वनी अनक्षरी खिरे,
तथापि संख्य भाषियों को बोध है करा रही।
जयो जिनेन्द्र! आपका अचिन्त्य ये महात्म्य देख,
सुभक्ति से प्रजा समस्त आप-आप आ रही।।
जिनेश! आपकी सभा असंख्य जीव से भरी,
अनंत वैभवों समेत भव्य चित्त मोहती।
जिनेश! आपके समीप साधुवृंद औ गणीन्द्र,
केवली मुनीन्द्र और आर्यिकाएँ शोभतीं।।२।।
सुरेन्द्र देवियों की टोलियाँ असंख्य आ रहीं,
खगेश्वरों की पंक्तियाँ अनेक गीत गा रहीं।
सुभूमिगोचरी मनुष्य नारियाँ तमाम हैं,
पशू तथैव पक्षियों की टोलियाँ भी आ रहीं।।
सु बारहों सभा स्वकीय ही स्वकीय में रहें,
असंख्य भव्य बैठके जिनेश देशना सुनें।
सुतत्त्व सात नौ पदार्थ पाँच अस्तिकाय और,
द्रव्य छह स्वरूप को भले प्रकार से गुनें।।३।।
प्रभो! महात्मय आपका अपूर्व है अनंत है,
समस्त ईति भीति और आपदाएँ दूर हों।
पहाड़ टूट के पड़े व भूमिकंप हो महा,
तथापि कष्ट रंच ना यही जिनेन्द्र भक्ति हो।
नदी प्रवाह पूर हो, गिरें जहाज ना मिलें,
तथापि भक्ति नाव से तिरें महा समुद्र भी।।
न नीर कष्ट दे सके, जिनेन्द्र नाम मंत्र से,
पहाड़ बर्फ के गिरें न दु:ख हो वहाँ कभी।।४।।
त्रिचक्रिका चतुष्चक्रिका भिड़न्त हो जबे,
गिरें सुदूर जायके न चोट भी जरा लगे।
उड़े अकाश वायुयान से यदी गिरें कभी,
जिनेन्द्र मंत्र जाप से खरोंच भी तो ना लगे।।
विषाक्त वाष्प जो क्षरें शरीर मृत्यु ग्रास हो,
तथापि भक्त आपके न रंच वेदना धरें।
अनेक कष्टदायि संकटादि आ पड़ें यदी।
तथापि भक्ति के प्रभाव भक्त दु:ख ना भरें।।५।।
ज्वरादि पीलिया व कुष्ठ रक्तचाप रोग हों,
अनेक हृदय रोग कैंसरादि व्याधियाँ घनी।
करोड़ पाँच अड़सठे सुलाख निन्यानवे,
हजार पाँच सौ चुरासि संख्य व्याधियाँ भणी।।
बस एक चक्षुमात्र में छ्यिानवे कुरोग हैं,
शरीर सर्व में यदी समस्त रोग साथ हों।
जिनेन्द्र पाद धूलि शीश पे धरें उसी क्षणे,
समस्त रोग दूर हों शरीर पूर्ण स्वस्थ हो।।६।।
पिशाचिनी व डाकिनी समस्त भूत व्यन्तरा,
अनेक शत्रु देव भी न रंच कष्ट दे सकें।
प्रसिद्ध आदिनाथ मंत्र के प्रभाव से यहाँ,
समस्त शत्रु मित्र हों अनेक रत्न भेंट दें।।
विषैल सर्प बिच्छु आदि क्रोध से डसें यदी,
न विष चढ़े जिनेन्द्र भक्ति के प्रभाव से कभी।
अनेक क्रूर सिंह-व्याघ्र-हस्ति आदि जंतु भी,
जिनेन्द्र नाम जीभ पे न कष्ट दे सकें कभी।।७।।
अनंत बार मैं नमूूँ जिनेन्द्र! आप चर्ण में,
अनंत दु:ख दूर हों, अनंत सौख्य प्राप्त हो।
अनंत तीर्थनाथ जो हुए अनंत होयेंगे,
असंख्य तीर्थधाम भी यहाँ प्रसिद्धि प्राप्त हों।।
अनंत अरीहंत सिद्ध सूरि उपाध्याय हैं,
अनंत साधु जैनधर्म श्रुत असंख्य लोक में।
असंख्य जैन मूर्तियाँ जिनालया असंख्य हैं,
असंख्य ये त्रिकाल से नमूँ अनंतबार मैं।।८।।
सरस्वती यदी समुद्रनीर स्याहि ले बना,
त्रिलोक को बनाय ग्रंथ आप कीर्ति को लिखे।
अनंतकाल तक विराम ले नहीं तथापि वो,
अनन्त कीर्ति आप की तथापि माँ न लिख सके।।
सुनी सुकीर्ति आपकी अतेव मैं लिया शरण,
दया कि दृष्टि कीजिए न देर कीजिए प्रभो!
त्रिकाल दु:ख वार्धि से स्वपाद में निवास दो,
अनंतज्ञान दर्श सौख्यवीर्य दीजिए प्रभो!।।९।।
दोहा-
विषापहार विधान पति, ऋषभदेव भगवान।
‘ज्ञानमती’ कैवल्य कर, दीजे सिद्धस्थान।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविषापहारिणे आदितीर्थंकर श्री ऋषभदेवाय जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
गीता छंद- जो भव्य जीव विषापहार, विधान चालिस दिन करें।
श्री धनंजय कवि रचित, स्तोत्र के गुण उच्चरें।।
वे रोग शोक दरिद्र हर के, पूर्ण स्वस्थ तनू धरें।
निज ‘ज्ञानमति’ रविकिरण से, त्रिभुवन कमल विकसित करें।।११।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
श्री विषापहारविधानं समाप्तम्।
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