-स्थापना (अडिल्ल छंद)-
उत्तम मार्दव धर्म विनय गुण पूर्ण है।
मान कषाय को करता वह निर्मूल है।।
इसकी पूजन करूँ विनय चित लायके।
जिनवर ढिग स्थापन कर लूँ आयके।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
तर्ज-देख तेरे संसार की………
उत्तम मार्दव धर्म की पूजन करो भव्य मन आन,
यह है विनय गुणों की खान।।
गंगा नदि का जल ले करके।
प्रभु पद में त्रयधारा करके।।
जन्म जरा मृत्यू क्षय करके पाऊँ सौख्य महान,
यह है विनय गुणों की खान।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम मार्दव धर्म की पूजन करो भव्य मन आन,
यह है विनय गुणों की खान।।
काश्मीरी केशर घिस करके।
जिनवर के पद चर्चन करके।।
हो संसार ताप का नाशन पाऊँ सौख्य महान,
यह है विनय गुणों की खान।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम मार्दव धर्म की पूजन करो भव्य मन आन,
यह है विनय गुणों की खान।।
शुभ्र धवल अक्षत ले करके।
मार्दव धर्म की पूजन करके।।
अक्षय पद की प्राप्ती करके पाऊँ सौख्य महान,
यह है विनय गुणों की खान।।३।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम मार्दव धर्म की पूजन करो भव्य मन आन,
यह है विनय गुणों की खान।।
विविध पुष्प की माल बनाऊँ।
मार्दव गुणयुत प्रभु को चढ़ाऊँ।।
कामबाण विध्वंसन करके पाऊँ सौख्य महान,
यह है विनय गुणों की खान।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मांगाय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम मार्दव धर्म की पूजन करो भव्य मन आन,
यह है विनय गुणों की खान।।
सरस मिष्ट पक्वान्न बनाकर।
मार्दव गुणयुत प्रभु को चढ़ाकर।।
क्षुधारोग नाशन करके पा जाऊँ सौख्य महान,
यह है विनय गुणों की खान।।५।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम मार्दव धर्म की पूजन करो भव्य मन आन,
यह है विनय गुणों की खान।।
घृत दीपक का थाल सजाया।
प्रभु आरति कर मन हर्षाया।।
मोह अंधेरा दूर भगा पा जाऊँ सौख्य महान,
यह है विनय गुणों की खान।।६।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मांगाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम मार्दव धर्म की पूजन करो भव्य मन आन,
यह है विनय गुणों की खान।।
अष्टगंध की धूप बनाकर।
प्रभु सम्मुख अग्नी में जलाकर।।
अष्टकर्म को दहन करूँ पा जाऊँ सौख्य महान,
यह है विनय गुणों की खान।।७।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मांगाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम मार्दव धर्म की पूजन करो भव्य मन आन,
यह है विनय गुणों की खान।।
विविध फलों का थाल सजाकर।
मार्दव गुणयुत प्रभु को चढ़ाकर।।
मोक्ष महाफल मिल जावे पा जाऊँ सौख्य महान,
यह है विनय गुणों की खान।।८।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मांगाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम मार्दव धर्म की पूजन करो भव्य मन आन,
यह है विनय गुणों की खान।।
अष्टद्रव्य का थाल सजाकर।
मार्दव गुणयुत प्रभु को चढ़ाकर।।
पद अनर्घ्य ‘चंदनामती’ मिल जावे सौख्य महान,
यह है विनय गुणों की खान।।९।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम मार्दव धर्म की पूजन करो भव्य मन आन,
यह है विनय गुणों की खान।।
रत्नत्रय की चाह मुझे है।
त्रयधारा इसलिए करूँ मैं।।
शांतीधारा करके चाहूँ शांती का वरदान,
यह है विनय गुणों की खान।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
उत्तम मार्दव धर्म की पूजन करो भव्य मन आन,
यह है विनय गुणों की खान।।
पुष्प सदृश महके जग सारा।
पुष्पगुच्छ अर्पूं मैं प्यारा।।
पुष्पांजलि करके मृदु गुण का चाहूँ मैं वरदान,
यह है विनय गुणों की खान।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
पूज्य जनों की विनय से, प्रगटे मार्दव धर्म।
मान नष्ट हो हृदय से, यही धर्म का मर्र्म।।
इति मण्डलस्योपरि द्वितीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-दोहा-
नंत चतुष्टय से सहित, हैं अरिहंत जिनेश।
अर्घ्य चढ़ाकर विनययुत, नमूँ नमूँ नत शीश।।१।।
ॐ ह्रीं श्री वीतरागअर्हंतदेवनमनयुतमार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टगुणों से हैं सहित, सिद्धशिला के ईश।
अर्घ्य चढ़ाकर विनययुत, नमूँ नमूँ नत शीश।।२।।
ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिनमनयुतमार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
छत्तिस गुणयुत सूरि हैं, संघ चतुर्विध ईश।
अर्घ्य चढ़ाकर विनययुत, नमूँ नमूँ नत शीश।।३।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्यपरमेष्ठिनमनयुतमार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाठक पच्चिस गुण सहित, ज्ञानी परम ऋषीश।
अर्घ्य चढ़ाकर विनययुत, नमूँ नमूँ नत शीश।।४।।
ॐ ह्रीं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिनमनयुतमार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमेष्ठी हैं साधु जो, गुण उनके अठवीस।
अर्घ्य चढ़ाकर विनययुत, नमूँ उन्हें नत शीश।।५।।
ॐ ह्रीं श्री साधुपरमेष्ठिनमनयुतमार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मचक्र जिनराज का, चलता रहे सदैव।
अर्घ्य चढ़ाकर विनययुत, नमूँ धर्म नत शीश।।६।।
ॐ ह्रीं श्री जिनधर्मनमनयुतमार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनमुख से निकले वचन, हैं जिनआगम देव।
अर्घ्य चढ़ाकर विनययुत, करूँ जिनागम सेव।।७।।
ॐ ह्रीं श्री जिनागमनमनयुतमार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जितने भी जिनबिम्ब हैं, तीन लोक के माहिं।
अर्घ्य चढ़ाकर विनययुत, सबको नमूँ त्रिकाल।।८।।
ॐ ह्रीं श्री जिनचैत्यनमनयुतमार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जितने भी जिनभवन हैं, त्रिभुवन में सुखकार।
अर्घ्य चढ़ाकर विनययुत, नमूँ उन्हें त्रयबार।।९।।
ॐ ह्रीं श्री जिनचैत्यालयनमनयुतमार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थक्षेत्र इस लोक मेंं, हैं जो जिनवर धाम।
अर्घ्य चढ़ाकर विनययुत, उनको करूँ प्रणाम।।१०।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरादिमहापुरुषाणां गर्भजन्मादिकल्याणकै: पवित्रतीर्थक्षेत्र नमनयुत-
मार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो भी अतिशय क्षेत्र हैं, इस धरती पर पूज्य।
अर्घ्य चढ़ाकर विनययुत, नमूँ उन्हें नित पूज्य।।११।।
ॐ ह्रीं समस्तअतिशयक्षेत्रनमनयुतमार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर मुनि आदि को, मिला जहाँ शिवधाम।
सिद्धक्षेत्र उन तीर्थ को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१२।।
ॐ ह्रीं समस्तसिद्धक्षेत्रनमनयुतमार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
मृदु भावों से ही उत्तम मार्दव धर्म प्रगट होता मन में।
तब मन वच तन से विनय भाव प्रगटित हो जाता हर मन में।।
तीनों लोकों के परमपूज्य नवदेवों को वन्दन करके।
पूर्णार्घ्य समर्पण करूँ विनत भावों से उन्हें नमन करके।।१।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यस्थितपरमपूज्यनवदेवतानमनयुतमार्दवधर्मांगाय पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मांगाय नम:।
तर्ज-बाबुल की दुआएँ……………
दशधर्मों में है उत्तम मार्दव, धर्म जगत में हितकारी।
जयमाला अर्घ्य समर्पित कर, मैं मृदुगुण पाऊँ सुखकारी।।टेक.।।
व्यवहार विनय का पालन कर, अपना शिवद्वार प्रशस्त करूँ।
गुणरत्नाकर चउविध संघ का, सत्कार विनय अरु भक्ति करूँ।।
निज स्वाभिमान की रक्षाकर, अभिमान तजूँ जो दुखकारी।
जयमाला अर्घ्य समर्पित कर, मैं मृदु गुण पाऊँ सुखकारी।।१।।
कुल जाति ज्ञान बल पूजादिक, मद आठ प्रकार बताए हैं।
जिनको अपनाकर रावण आदिक, ने कितने दुख पाए हैं।।
उत्तममार्दव का स्वाभाविक गुण, मानशत्रु मर्दनकारी।
जयमाला अर्घ्य समर्पित कर, मैं मृदु गुण पाऊँ सुखकारी।।२।।
हैं देवशास्त्रगुरु इस जग में, सर्वाधिक पूज्य कहे जाते।
इनके प्रति विनय भावना से, मुक्ती के मारग खुल जाते।।
मार्दव गुण अपनी आत्मा को, सन्मान दिलाता सुखकारी।
जयमाला अर्घ्य समर्पित कर, मैं मृदु गुण पाऊँ सुखकारी।।३।।
पाँचों परमेष्ठी नवदेवों के, प्रति हो सदा विनत यह मन।
व्यवहार व निश्चय विनय धार कर, हो जावे तन मन पावन।।
लौकिक एवं परमार्थिक जीवन, बने सदा मंगलकारी।
जयमाला अर्घ्य समर्पित कर, मैं मृदु गुण पाऊँ सुखकारी।।४।।
यह धर्म प्रगट कर निज मन में, मुनिवर ही जिनवर बनते हैं।
निज आत्मा की शाश्वत सत्ता, में ही अवगाहन करते हैं।।
‘‘चंदनामती’’ यह मार्दव गुण, सबके हि लिए है उपकारी।
जयमाला अर्घ्य समर्पित कर, मैं मृदु गुण पाऊँ सुखकारी।।५।।
उत्तम मार्दव धर्म को, वन्दूँ बारम्बार।
मृदु गुण मन में प्रगट हो, मिले निजातम सार।।६।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मांगाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्यजन दशधर्म की, आराधना करें।
निज मन में धर्म धार वे, शिवसाधना करें।।
इस धर्म कल्पवृक्ष को, धारण जो करेंगे।
वे ‘‘चंदनामती’’ पुन:, भव में न भ्रमेंगे।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि: ।।