वे अत्यन्त प्रसिद्ध वीरसेन भट्टारक हमें पवित्र करें, जिनकी आत्मा स्वयं पवित्र है, जो कवियों में श्रेष्ठ हैं, जो लोकव्यवहार तथा काव्यस्वरूप के महान् ज्ञाता हैं तथा जिनकी वाणी के सामने औरों की तो बात ही क्या, स्वयं सुरगुरु बृहस्पति की वाणी भी सीमित-अल्प जान पड़ती है। धवलादि सिद्धान्तों के ऊपर अनेक उपनिबन्ध-प्रकरणों के रचने वाले हमारे गुरु श्री वीरसेन भट्टारक के कोमल चरणकमल हमेशा हमारे मनरूप सरोवर में विद्यमान रहें।
धवलां भारतीं तस्य, कीर्तिं च विधुनिर्मलाम्।
धवलीकृतनिश्शेष-भुवनां नन्नमीम्यहम्।।५८।।
श्री वीरसेन गुरु की धवल, चन्द्रमा के समान निर्मल और समस्त लोक को धवला करने वाली वाणी (धवलाटीका) तथा कीर्ति को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। कविता भी वही प्रशंसनीय समझी जाती है, जो धर्मशास्त्र से संबंध रखती है। धर्मशास्त्र के संबंध से रहित कविता मनोहर होने पर भी मात्र पापास्रव के लिए होती है। जो प्राचीनकाल के इतिहास से संबंध रखने वाला हो, जिसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों के चरित्र का चित्रण किया गया हो तथा जो धर्म, अर्थ और काम के फल को दिखाने वाला हो, उसे महाकाव्य कहते हैं।