त्रिभुवन वंदित तीर्थंकर को, जब वैराग्य उदित हो।
लौकांतिक सुर आकर पूजें, मन में बहु प्रमुदित हो।।
उनके तप कल्याणक को मैं, भक्ति भाव से वंदूँ।
आह्वानन कर पूजन करके, कर्म शत्रु को खंडूंं।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आहृवाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरण् ।
नंदावापी का निर्मल जल, कंचन भृंग भराऊँ।
श्रीजिनवर के चरण कमल में, धारा तीन कराऊँ।।
तीर्थंकर के तप कल्याणक, भक्ति भाव से पूजूँ।
निश्चय अरु व्यवहार रतनत्रय, पाकर भव से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन केशर घिस, गंध सुगंधित लाऊँ।
जिनवर चरणकमल में चर्चूं, निजानंद सुख पाऊँ।।
तीर्थंकर के तप कल्याणक, भक्ति भाव से पूजूँ।
निश्चय अरु व्यवहार रतनत्रय, पाकर भव से छूटूँ।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम उज्ज्वल तंदुल ले, तुम ढिग पुंज रचाऊँ।
अमल अखंडित सुख से मंडित, निज आतमपद पाऊँ।।
तीर्थंकर के तप कल्याणक, भक्ति भाव से पूजूँ।
निश्चय अरु व्यवहार रतनत्रय, पाकर भव से छूटूँ।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदनवन के लताकुंज से, सुरभित पुष्प चुनाऊँ।
जिनवर चरणकमल में अर्पूं, निजगुण यश विकसाऊँ।।
तीर्थंकर के तप कल्याणक, भक्ति भाव से पूजूँ।
निश्चय अरु व्यवहार रतनत्रय, पाकर भव से छूटूँ।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतपिंड सदृश चरु ताजे, घेवर मोदक लाऊँ।
जिनवर आगे अर्पण करते, सब दुख व्याधि नशाऊँ।।
तीर्थंकर के तप कल्याणक, भक्ति भाव से पूजूँ।
निश्चय अरु व्यवहार रतनत्रय, पाकर भव से छूटूँ।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक में ज्योति जलाकर, करूँ आरती भगवन्।
निज घट का अज्ञान दूर हो, ज्ञानज्योति उद्योतन।।
तीर्थंकर के तप कल्याणक, भक्ति भाव से पूजूँ।
निश्चय अरु व्यवहार रतनत्रय, पाकर भव से छूटूँ।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर तगर चंदन से मिश्रित, धूप सुगंधित लाऊँ।
अशुभ कर्म को दग्ध करूँ मैं, अग्नी संग जलाऊँ।।
तीर्थंकर के तप कल्याणक, भक्ति भाव से पूजूँ।
निश्चय अरु व्यवहार रतनत्रय, पाकर भव से छूटूँ।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव आम अंगूर सरस फल, लाके थाल भराऊँ।
जिनवर सन्निध अर्पण करते, परमानंद सुख पाऊँ।।
तीर्थंकर के तप कल्याणक, भक्ति भाव से पूजूँ।
निश्चय अरु व्यवहार रतनत्रय, पाकर भव से छूटूँ।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत कुसुमावलि, आदिक अर्घ बनाऊँ।
उसमें रत्न मिलाकर अर्पूं, निज गुणमणि को पाऊँ।।
तीर्थंकर के तप कल्याणक, भक्ति भाव से पूजूँ।
निश्चय अरु व्यवहार रतनत्रय, पाकर भव से छूटूँ।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर परमेश, तुम पदपंकज में सदा।
जग में शांती हेतु शांतिधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, सुरभित करते दश दिशा।
तीर्थंकर पादाब्ज, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अनंत चतुष्टय के धनी, तीर्थंकर चौबीस।
कुसुमांजलि कर पूजहूँ, नित्य नमाऊँ शीश।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलि: क्षिपेत्।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णानवम्यां ऋषभदेवदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लानवम्यां अजितनाथ दीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षपूर्णिमायां संभवनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वादश्यां अभिनंदनजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लानवम्यां सुमतिनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णात्रयोदश्यां पद्मप्रभजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां सुपार्श्वनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां चन्द्रप्रभजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाप्रतिपदायां पुष्पदंतनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाद्वादश्यां शीतलनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाएकादश्यां श्रेयांसजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्यां वासुपूज्यजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाचतुर्थ्यां विमलनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाद्वादश्यां अनंतनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लात्रयोदश्यां धर्मनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां शांतिनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपदायां कुंथुनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लादशम्यां अरनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाएकादश्यां मल्लिनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णादशम्यां मुनिसुव्रतजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णादशम्यां नमिनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां नेमिनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां पार्श्वनाथदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णादशम्यां महावीरजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
जिन ऋषभ इक्षुरस का आहार, तेइस जिन खीर आहार लिया।
सब जिनकी प्रथम पारणा में, सुरगण ने पंचाश्चर्य किया।।
सन्मति के सब आहारों में, रत्नों की वर्षा खूब हुई।
अधिकाधिक बारहकोटि सु कम से कम वह बारह लाख कही।।
-दोहा-
चौबिस जिन दीक्षा दिवस, जजूँ भक्ति उरधार।
पाँच बालयति को नमूँ, मिले तपोनिधि सार।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरदीक्षाकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं तप:कल्याणकसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
नित्य निरंजन देव, परमहंस परमातमा।
करूँ चरण के सेव, तुम गुणमाला गायके।।१।।
चिन्मय ज्योति चिदंबर चेतन, चिच्चैतन्य सुधाकर।
जय जय चिन्मूरत चिंतामणि, चिंतितप्रद रत्नाकर।।
जब तुमको वैराग्य प्रगट हो, सुरपति आसन कंपे।
लौकांतिक सुरगण भी आते, पुष्पांजलि को अर्पें।।२।।
तीर्थंकर भगवान स्वयं ही दीक्षा लेते वन में।
सिद्धों की साक्षी से दीक्षा, गुरू नहिं उन जीवन में।।
दीक्षा लेते सामायिक संयम बस एक हि होवे।
त्रयज्ञानी प्रभु के मनपर्यय के ज्ञान उसी क्षण होवे।।३।।
मौन धरें प्रभु मुनि जीवन में दीक्षा भी नहिं देते।
नहीं शिष्य परिकर रखते प्रभु चतुर्मास नहिं करते।।
नहिं अतिचार दोष हों प्रभु से प्रायश्चित नहिं उनके।
वस्त्ररहित निर्ग्रंथ दिगम्बर अर्हत् मुद्रा उनके।।४।।
तीर्थंकर ‘जिन’ हैं साक्षात् हि सर्वोत्तम चर्या है।
‘जिनकल्पी’ मुनि उन अनुसारी जिनसम कहलाते हैं।।
जिस घर में आहार प्रभू का अक्षय भोजन होवे।
पंचाश्चर्य वृष्टि सुर करते रत्नन वर्षा होवे।।५।।
ध्यान धरें प्रभु कल्पवृक्ष सम खड़े विजन वन में हों।
निज आतम अनुभव रस पीकर परमानंद मगन हों।।
घोर तपश्चर्या करके प्रभु शुक्ल ध्यान को ध्याते।
क्षपकश्रेणि आरोहण करके घाती कर्म नशाते।।६।।
यद्यपि मैं व्यवहार नयाश्रित कर्मकलंक सहित हूँ।
जन्म-मरण के दुख सह-सहकर निज सुख से विरहित हूँ।।
फिर भी निश्चय नय आश्रय से शुद्ध बुद्ध चिद्रूपी।
परमानंद अतीन्द्रिय सुखमय दर्शन ज्ञान स्वरूपी।।७।।
वर्ण गंध रस स्पर्श शून्य मैं चिदानंद शुद्धात्मा।
संसारी होकर भी निश्चय नय से मैं परमात्मा।।
हे प्रभु ऐसी शक्ती दीजे तपश्चरण कर पाऊँ।
‘ज्ञानमती’ केवल करने को निज आतम को ध्याऊँ।।८।।
तपकल्याणक को नमूँ, स्वात्मनिधि के हेतु।
जिनपूजा चिंतामणि, अजर अमर पद देत।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतप:कल्याणकेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो पंचकल्याणक महापूजा महोत्सव को करें।
वे पंचपरिवर्तन मिटाकर पंचलब्धी को धरें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप हो मुक्तिकन्या वश करें।
‘सुज्ञानमति’ रविकिरण से भविजन कमल विकसित करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।