अथ स्थापना-शंभु छंद
प्रभु पंचकल्याणक के स्वामी, तीर्थंकर पद के धारी हैं।
श्री ऋषभदेव का समवसरण, इसकी शोभा अति न्यारी है।।
यद्यपि जिनवर के गुण अनंत, फिर भी छ्यालिस गुण विख्याते।
उनका आह्वानन कर पूजें, वे मेरे सब गुण विकसाते।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितश्रीऋषभदेव तीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितश्रीऋषभदेव तीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितश्रीऋषभदेव तीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
—अथ अष्टक—
चाल-हे दीनबंधु…..।
सरयू नदी का नीर स्वर्णभृंग में भरूँ।
जिननाथ पाद पद्म में त्रयधार मैं करूँ।।
तीर्थेश गुण समूह की मैं अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आज प्रार्थना करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितश्रीऋषभदेवतीर्थंकराय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर कपूर को घिसा चंदन सुरभि लिया।
जिननाथ चरण चर्च मैं मन को सुवासिया।।
तीर्थेश गुणसमूह की मैं अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आज प्रार्थना करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितश्रीऋषभदेवतीर्थंकराय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल अखंड शालि धोय थाल में भरे।
जिन अग्र पुंज धारते अखंड सुख भरें।।
तीर्थेश गुणसमूह की मैं अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आज प्रार्थना करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितश्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला गुलाब केतकी चंपा खिले खिले।
जिनपाद में चढ़ावते सम्यक्त्व गुण मिले।।
तीर्थेश गुणसमूह की मैं अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आज प्रार्थना करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितश्रीऋषभदेवतीर्थंकराय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूड़ी सोहाल मालपुआ थाल भर लिये।
जिन अग्र में चढ़ाय आत्मतृप्ति कर लिये।।
तीर्थेश गुणसमूह की मैं अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आज प्रार्थना करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितश्रीऋषभदेवतीर्थंकराय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिदीप मेंं कपूर ज्योति को जलावते।
जिन आरती करंत मोह तम भगावते।।
तीर्थेश गुणसमूह की मैं अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आज प्रार्थना करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितश्रीऋषभदेवतीर्थंकराय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जो धूप पात्र में सुगंध धूप खेवते।
उन पाप कर्म भस्म होंय आप सेवते।।
तीर्थेश गुणसमूह की मैं अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आज प्रार्थना करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितश्रीऋषभदेवतीर्थंकराय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अनार आम संतरा मंगा लिया।
जिन अग्र में चढ़ाय सर्वश्रेष्ठ फल लिया।।
तीर्थेश गुणसमूह की मैं अर्चना करूँ।
निज गुणसमूह हेतु आज प्रार्थना करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितश्रीऋषभदेवतीर्थंकराय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अर्घ लेय श्रेष्ठ रत्न मिलाऊँ।
जिन अग्र में चढ़ाय चित्त कमल खिलाऊँ।।
तीर्थेश गुण समूह की मैं अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आज प्रार्थना करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितश्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
पद्म सरोवर नीर ले, जिनपद धार करंत।
तिहुंजग में मुझ में सदा, करो शांति भगवंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अतिसुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(चौंतीस अतिशय के ३४ अर्घ्य)
—सोरठा—
जिनवर गुणमणि तेज, सर्व लोक में व्यापता।
हो मुझ ज्ञान अशेष, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—शंभु छंद—
तीर्थंकर प्रभु के जन्म समय से, दश अतिशय सुखदायी हैं।
उनके तनु में नहिं हो पसेव, यह अतिशय गुण मन भायी है।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं नि:स्वेदत्वसहजातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माता की कुक्षी से जन्में, औदारिक तनु मानव का है।
फिर भी मल मूत्र नहीं तुममें, यह अतिशय पुण्य उदय का है।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं निर्मलतासहजातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तन में श्वेत रुधिर पय सम, यह अतिशय तीर्थंकर के हो।
अतएव मात सम त्रिभुवन जन, पोषण करते उदार मन हो।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं क्षीरसमधवलरुधिरत्वसहजातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम संहनन सुवङ्कावृषभनाराच कहाता शक्ति धरे।
यह अन्य जनों को सुलभ तथापी तुममें अतिशय नाम धरे।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं वङ्काऋषभनाराचसंहननसहजातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तन में एक एक अवयव, सब माप सहित अतिशय सुंदर।
यह समचतुरस्र नाम का ही, संस्थान कहा त्रिभुवन मनहर।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं समचतुरस्रसंस्थानसहजातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में उपमारहित रूप अतिसुंदर अणुओं से निर्मित।
सुरपति निज नेत्र हजार बना, प्रभु को निरखे फिर भी अतृप्त।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनुपमरूपसहजातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नव चंपक की उत्तम सुगंध, सम देह सुगंधित प्रभु का है।
यह अतिशय अन्य मनुज तन में नहिं कभी प्राप्त हो सकता है।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं सौगंध्यसहजातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ एक हजार आठ लक्षण, प्रभु तन का अतिशय कहते हैं।
यह तीन जगत् में भी उत्तम, अतएव इंद्र सब नमते हैं।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं अष्टोत्तरसहस्रशुभलक्षणसहजातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु में अनंत१ बल वीर्य रहे, जन्मत ही यह अतिशय प्रगटे।
अतएव हजार-हजार बड़े कलशों से न्हवन भि झेल सकें।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतबलवीर्यसहजातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हितमित सुमधुर वाणी प्रभु की, जनमन को अतिशय प्रिय लगती।
त्रिभुवन हितकारी भावों से, यह अद्भुत वचन शक्ति मिलती।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रियहितमधुरवचनसहजातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—नरेन्द्र छंद—
केवल ज्योति प्रगट होती इक दश१ अतिशय होते हैं।
चारों दिश में सुभिक्ष होवे, चउ चउ सौ कोसों में।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूंं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षताकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान प्रगट होते ही जिनवर, गगन गमन करते हैं।
बीस हजार हाथ ऊपर जा, अधर सिंहासन पर हैं।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूंं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं गगनगमनत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के गमन शरीर आदि से, प्राणी वध नहिं होवे।
करुणासिंधु अभयदाता को, पूजत निर्भय होवें।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूंं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्राणिवधाभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कोटी पूर्व वर्ष आयू में, कुछ कम ही वर्षों में।
केवलि का उत्कृष्ट काल यह, बिन भोजन है तन में।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूंं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं कवलाहाराभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव मनुज तिर्यंच आदि उपसर्ग नहीं कर सकते।
केवलि प्रभु के कर्म असाता, साता में ही फलते।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूंं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं उपसर्गाभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण की गोल सभा में, चहुंदिश प्रभु मुख दीखे।
चतुर्मुखी१ ब्रह्मा यद्यपि ये, पूर्व उदड़् मुख तिष्ठे।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूंं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं चतुर्मुखत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमौदारिक पुद्गल तनु भी, छाया नहीं पड़े है।
केवलज्ञान सूर्य होकर भी सबको छांव करे हैं।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूंं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं छायारहितकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेत्रों की पलकें नहिं झपकें, निर्निमेष दृष्टी है।
जो पूजें वे भव्य लहें तुम, सदा कृपादृष्टी है।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूंं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं पक्ष्मस्पंदरहितकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में जितनी विद्या हैं, सबके ईश्वर प्रभु हैं।
जो भवि पूजें वे सब विद्या, अतिशय प्राप्त करे हैं।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूंं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविद्येश्वरकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केश और नख बढ़े न प्रभु के, चिच्चैतन्य प्रभू हैं।
दिव्यदेह को धारण करते, त्रिभुवन एक विभू हैं।।
घाति कर्म के क्षय से अतिश्ाय, मन वच तन से पूजूंं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं समाननखकेशत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनुपम दिव्यध्वनी१ त्रय संध्या, मुहूर्त त्रय त्रय खिरती।
चार कोश तक सुनते भविजन, सब भाषामय बनती।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूंं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं अक्षरानक्षरात्मसर्वभाषामयदिव्यध्वनिकेवलज्ञानातिशयगुण-मंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—शंभु छंद—
प्रभु के श्रीविहार में दशदिश, संख्यात कोस तक असमय में।
सब ऋतु के फल फलते व फूल, खिल जाते हैं वन उपवन में।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वर्तुफलादिशोभिततरुपरिणामदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंटक धूली को दूर करे, जनमनहर सुखद पवन बहती।
प्रभु के विहार में बहुत दूर तक, स्वच्छ हुई भूमी दिखती।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं वायुकुमारोपशमितधूलिकंटकादिदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जीव पूर्व के बैर छोड़, आपस में प्रीती से रहते।
इस अतिशय पूजत निंदा कलह अशांति बैर निश्चित टलते।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वजनमैत्रीभावदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पृथिवी दर्पण तल सदृश स्वच्छ, अरु रत्नमयी हो जाती है।
जहं जहं प्रभु विहरण करते हैं, यह भूमि रम्य मन भाती है।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं आदर्शतलप्रतिमारत्नमयीमहीदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुर मेघकुमार सुगंध शीत, जल कण की वर्षा करते हैं।
इंद्राज्ञा से सब देववृंद, प्रभु का अतिशय विस्तरते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२६।।
ॐ ह्रीं अर्हं मेघकुमारकृतगंधोदकवृष्टिदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाली जौ आदिक धान्यभरित, खेती फल से झुक जाती है।
सब तरफ खेत हों हरे भरे, यह महिमा सुखद सुहाती है।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२७।।
ॐ ह्रीं अर्हं फलभारनम्रशालिदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जन मन परमानंद भरें, जहं जहं प्रभु विचरण करते हैं।
मुनिजन भी आत्मसुधा पीकर, क्रम से शिवरमणी वरते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२८।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वजनपरमानंदत्वदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वायूकुमार जिन भक्तीरत, सुख शीतल पवन चलाते हैंं।
जिन विहरण में अनुकूल पवन, उससे जन व्याधि नशाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२९।।
ॐ ह्रीं अर्हं विहरणमनुगतवायुत्वदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कुएं सरोवर बावड़ियाँ, निर्मल जल से भर जाते हैं।
इस चमत्कार को देख भव्य, निज पुण्य कोष भर लाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।३०।।
ॐ ह्रीं अर्हं निर्मलजलपूर्णकूपसरोवरादिदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आकाश धूम्र उल्कादि रहित, अतिस्वच्छ शरद्ऋतु सम होता।
जिनवर भक्ती वंदन करते, भविजन मन भी निर्मल होता।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।३१।।
ॐ ह्रीं अर्हं शरत्कालवन्निर्मलाकाशदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जन ही रोग शोक संकट, बाधाओं से छुट जाते हैं।
जहं जहं प्रभु विहरण करते हैं, सर्वोपद्रव टल जाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।३२।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वजनरोगशोकबाधारहितत्वदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यक्षेन्द्र चार दिश मस्तक पर, शुचि धर्मचक्र धारण करते।
उनमें हजार आरे अपनी, किरणों से अतिशय चमचमते।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।३३।।
ॐ ह्रीं अर्हं यक्षेंद्रशीशोपरिस्थितधर्मचक्रचतुष्टयदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिश विदिशा में छप्पन सुवर्ण, पंकज खिलते सुरभी करते।
इक पाद पीठ मंगल सु द्रव्य, पूजन सुद्रव्य सुरगण धरते।।
प्रभु के विहार में चरण तले, सुर स्वर्ण कमल रखते जाते।
इन तेरह१ सुरकृत अतिशय को, हम पूजत ही सब सुख पाते।।३४।।
ॐ ह्रीं अर्हं जिनचरणकमलतलस्वर्णकमलरचनादेवोपनीतातिशयगुण-मंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—गीता छंद—
वर प्रातिहार्य सु आठ में, तरुवर अशोक विराजता।
मरकत मणी के पत्र पुष्पों, से खिला अति भासता।।
निज तीर्थकर ऊँचाई से बारह गुणे तुंग फरहरे।
इसकी करें हम अर्चना, यह शोक सब मन का हरे।।३५।।
ॐ ह्रीं अर्हं अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु शीश पर त्रय छत्र शोभें, मोतियों की हैं लरें।
प्रभु तीन जग के ईश हैं, यह सूचना करती फिरे।।
क्या चंद्रमा नक्षत्रगण, को साथ ले भक्ती करें।
इस कल्पनायुत छत्रत्रय की, हम सदा अर्चा करें।।३६।।
ॐ ह्रीं अर्हं छत्रत्रयमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निर्मल फटिक मणि से बना, बहुरत्न से चित्रित हुआ।
जिननाथ सिंहासन दिपे, निज तेज से नभ को छुआ।।
इस पीठ पर तीर्थेश, चतुरंगुल अधर ही राजते।
यह प्रातिहार्य महान जो जन पूजते निज भासते।।३७।।
ॐ ह्रीं अर्हं सिंहासनमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर मुनीगण देव देवी, चक्रि नर पशु आदि सब।
निज निजी कोठे बैठ अंजलि जोड़ते१ सुप्रसन्न मुख।।
इन बारहों गण से घिरे तीर्थेश त्रिभुवन सूर्य हैं।
यह प्रातिहार्य महान इसको जजत जन जग सूर्य हैं।।३८।।
ॐ ह्रीं अर्हं द्वादशगणपरिवेष्टितमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब आइये जिन शरण में, मानों कहे यह दुंदुभी।
सब देवगण मिलकर बजाते बहुत बाजे दुंदुभी।।
यह प्रातिहार्य महान इसको वाद्य ध्वनि से पूजते।
सुरगण बजावें वाद्य उनके सामने बहु भक्ति से।।३९।।
ॐ ह्रीं अर्हं देवदुंदभिमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरगण गगन से कल्पतरु के पुष्प बहु बरसा रहे।
यह वर्ण वर्ण सुगंध खिलते पुष्प जन मन भा रहे।।
यह प्रातिहार्य महान इसको सुमन अर्घ लिये जजूँ।
अतिशय सुयश सुख प्राप्तकर सब अशुभ अपयश से बचूँ।।४०।।
ॐ ह्रीं अर्हं सुरपुष्पवृष्टिमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह कोटि भास्कर तेज हरता प्रभामंडल नाथ का।
जन दर्श से निज सात भव को देखते उसमें सदा।।
यह प्रातिहार्य महान इसको पूजहूँ अतिचाव से।
निज आत्मतेज अपूर्व पाकर छूटहूँ भव दाव से।।४१।।
ॐ ह्रीं अर्हं भामंडलमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुर यक्षगण चौंसठ चंवर जिनराज पर ढोरें सदा।
ये चंद्रसम उज्ज्वल चंवर हरते सभी मन की व्यथा।।
यह प्रातिहार्य महान इसको पूजहूँ श्रद्धा धरे।
जो जजें चामर ढोरकर वे उच्च पद के सुख भरें।।४२।।
ॐ ह्रीं अर्हं चतु:षष्टिचामरमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(चार अनंत चतुष्टय के 4 अर्घ्य)
—नाराच छंद—
तीन लोक तीन काल की समस्त वस्तु को।
एक साथ जानता अनंत ज्ञान विश्व को।।
जो अनंतज्ञान युक्त इंद्र अर्चते जिन्हें।
पूजहूँ सदा उन्हें अनंतज्ञान हेतु मैं।।४३।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतज्ञानगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक अरु अलोक के समस्त ही पदार्थ को।
एक साथ देखता अनंत दर्श सर्व को।।
जो अनंत दर्श युक्त इंद्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा उन्हें अनंत दर्श हेतु मैं।।४४।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतदर्शनगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बाधहीन जो अनंत सौख्य भोगते सदा।
हो भले अनंतकाल आवते न ह्यां कदा।।
वे अनंत सौख्य युक्त इंद्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा तिन्हें अनंत सौख्य हेतु मैं।।४५।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतसौख्यगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अनंतवीर्यवान अंतराय को हने।
तिष्ठते अनंत काल श्रम नहीं कभी उन्हें।।
वे अनंत शक्ति युक्त इंद्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा तिन्हें अनंतवीर्य हेतु मैं।।४६।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतवीर्यगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य-शंभु छंद
दश अतिशय जन्म समय से ग्यारह केवलज्ञान उदय से हों।
देवोंकृत तेरह अतिशय हों, चौंतिस अतिशय सब मिलके हों।।
वर प्रातिहार्य हैं आठ कहे, सु अनंत चतुष्टय चार कहे।
ये छ्यालिस गुण तीर्थंकर के, हम पूजें वांछित सर्व लहें।।४७।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
सरस्वती माता का अर्घ्य
जलादी लिये स्वर्ण पुष्पों सहित मैं।
करूँ अर्घ अर्पण सरस्वति चरण में।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान महालक्ष्मी का अर्घ्य
जल चंदन अक्षत माला चरु, दीप धूप फल लाऊँ।
जिनगुण लक्ष्मी की पूजा कर, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।
केवलज्ञान महालक्ष्मी को, नित पूजूँ हरषाऊँ।
सुख संपति सौभाग्य प्राप्त कर, शिवलक्ष्मी को पाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञानमहालक्ष्म्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
समवसरण में भक्तियुत, तीर्थंकर के पास।
यक्ष यक्षिणी नित रहे, उन्हें बुलाऊँ आज।।
—चाल शेर—
श्री आदिनाथ के निकट जो भक्ति से रहें।
‘गोवदन’ यक्ष नाम जिनका सूरिवर कहें।।
जिननाथ के शासन के देव आइये यहाँ।
निज यज्ञ भाग लीजिये सुख कीजिये यहाँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवस्य शासनदेव गोमुखयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
वृषभदेव के समवसरण में, ‘चक्रेश्वरी’ सुयक्षी।
सम्यग्दर्शन गुण से मंडित, खंडे सर्व विपक्षी।।
महायज्ञ पूजा विधान में, आवो आवो माता।
यज्ञभाग मैं अर्पण करता, करो सर्व सुख साता।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवस्य शासनदेवि चक्रेश्वरी यक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय नम:।
(108 बार या ९ बार पुष्प या पीले तंदुल से जाप्य करें)
—त्रिभंगी छंद—
जय जय तीर्थंकर घातिक्षयंकर केवलसूर्य प्रभात खिला।
त्रिभुवन समुद्र महिं हर्ष लहर हुइ, सब जन को आनंद मिला।।
सुर कल्पतरू से सुमनस बरसें, इंद्र सिंहासन डोल रहे।
सब दिशा प्रसन्ना, स्वच्छ सुगगना, मंद सुगंधित पवन बहें।।१।।
—शंभु छंद—
जय केवलज्ञान उदित होते, तिहुंजग में अद्भुत शांति हुई।
सब जग में अतिशय क्षोभ उठा, नरकों में भी क्षण शांति हुई।।
सुर कल्पवासी गृह में घंटा, स्वयमेव बजे सुर नाच उठे।
ज्योतिषी गृहों में सिंहनाद, सुरललना के मन नाच उठे।।२।।
व्यंतर सुरगृह में भेरी और नगाड़े जोरों से बाजे।
सुर भवनवासि घर में शंखों की ध्वनी हुई, सब दिश गाजें।।
सुर गज सूँड़ों में कमल लिए ऊँचे कर करके नाच रहे।
मानों ये प्रभु को अर्घ करें, भक्ती से सुरगण नाच रहे।।३।।
ऐरावत हाथी की शोभा, सुरगुरु वर्णन नहिं कर सकते।
वह एक लाख योजन प्रमाण, बत्तीस बने हैं मुख उसके।।
प्रतिमुख में आठ आठ दंता, प्रतिदंत एक-इक सरवर हैं।
प्रति सरवर में एकेक कमलिनी, स्वर्णकमल से सुरभित हैं।।४।।
एकेक कमलिनी कमलिनि में, बत्तिस बत्तिस हैं कमल खिले।
प्रत्येक कमल में बत्तिस दल, वे बड़े बड़े लंबे पैâले।।
इक-इक दल पर बत्तिस बत्तिस, सुर अप्सरियाँ बहु नृत्य करें।
सब हावभाव शृंगार पूर्ण, नवरस में भक्ती स्तवन करें।।५।।
यह हाथी श्वेत वर्ण सुंदर, घंटा माला िंककणियों से।
अति शोभ रहा मन मोह रहा, नर्तन करतीं अप्सरियों से।।
इसके ऊपर कामग विमान, रत्नों से बना चमकशाली।
मोती के हार पुष्पमाला, फन्नूसों से अतिशयशाली।।६।।
सौधर्म इंद्र शचिदेवी सह, इस गज पर चढ़कर आते हैं।
ईशान इंद्र आदिक सब मिल, निज निज वाहन चढ़ आते हैं।।
सबसे आगे किल्विषक देव, बहु वाद्य बजाते चलते हैं।
फिर सौधर्मंेद्र प्रभृति सुरगण, निज निज वैभवयुत चलते हैं।।७।।
आगे आगे सुर अप्सरियाँ किन्नरियाँ नर्तन करती हैं।
जिनमहिमा के स्तोत्र पढ़े, जिनवर गुण वर्णन करती हैं।।
गज पर सत्ताइस कोटि प्रमित अप्सरियाँ नृत्य करें सर में।
सातों कक्षा की सेना के सब देव चलें निज निज क्रम में।।८।।
इंद्राज्ञा से धनपति आकर, इक क्षण में समवसरण रचता।
अतिशय रचना है जगह जगह, त्रिभुवन का वहाँ वैभव रखता।।
प्रभु समवसरण में सिंहासन, पर चतुरंगल से अधर रहें।
वैभव अनंत को पाकर भी, प्रभु उससे नित्य अलिप्त रहें।।९।।
चौंतीसों अतिशय सहित आप, वसु प्रातिहार्य के स्वामी हो।
आनन्त्य चतुष्टय से मंडित, सब जग के अंतर्यामी हो।।
सुरपति प्रदक्षिणा दे करके, जिनदेव वंदना करते हैं।
नरपति पशु भी आ वंदन कर, बारह कोठों में बसते हैं।।१०।।
यद्यपि यह क्षेत्र बहुत छोटा, फिर भी अवकाश सभी को है।
जिनवर महात्म्य से यह अतिशय सब आपस में अस्पर्शित हैं।।
इन कोठों में मिथ्यादृष्टी, संदिग्ध विपर्यय नहिं जाते।
नहिं जाय असंज्ञी अरु अभव्य, पाखंडी द्रोही नहिं जाते।।११।।
नहिं वहां कभी आतंक रोग, क्षुध तृष्णा कामादिक बाधा।
नहिं जन्म मरण नहिं वैर कलह, नहिं शोक वियोगजनित बाधा।।
सब सीढ़ी एक हाथ ऊँची, जो बीस हजार प्रमाण कही।
बालक व वृद्ध पंगू आदिक, अंतर्मुहूर्त१ में चढ़ें सही।।१२।।
प्रभु की कल्याणी वाणी सुन, निज भव त्रैकालिक जान रहे।
अतिशय अनंत गुण श्रेणिरूप, परिणाम विशुद्धी ठान रहे।।
सब असंख्यात गुणश्रेणी में, कर्मों का खंडन करते हैं।
क्रम से जन बोधि समाधी पा, मुक्तीकन्या को वरते हैं।।१३।।
प्रभु क्षुधातृषादिक जन्म मरण, अठरह दोषों से छूट गये।
सब दोष आप से त्यक्त अत: सारे जग में ही घूम रहे।।
गोमुख प्रभु शासन यक्ष देव, चक्रेश्वरि माता यक्षी हैं।
जिनशासन देव और देवी , इनमें प्रभु भक्ती सच्ची है।।१४।।
तीर्थंकर के गुणमणि अनंत, नहिं गणधर भी कह सकते हैं।
जो पूजें ध्यावें भक्ति करें, उनके मन पंकज खिलते हैं।।
मैं भी प्रभु आप कीर्ति सुनकर, अब चरण शरण में आया हूँ।
अब जो कर्तव्य आपका हो, वह कीजे मैं अकुलाया हूँ।।१५।
—घत्ता—
जय जय जिन भास्कर, सर्व सुखाकर, ज्ञान ज्योति उद्योत भरें।
मुझ ‘ज्ञानमती’ को, तीन रतन दो, जिससे तुम पद प्राप्त करें।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वािंरशद्गुणमंडितगोमुखचक्रेश्वरीयक्षयक्षीसेवितश्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
ऋषभदेव के समवसरण को, जो जन पूजें रुचि से।
मनवांछित फल को पा लेते, सर्व दुखों से छुटते।।
धर्मचक्र के स्वामी बनते, तीर्थंकर पद पाते।
केवल ‘ज्ञानमती’ किरणों से भविमन ध्वांत नशाते।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।