नंदीश्वर वर द्वीप आठवों जानिये।
तामें दक्षिण दिश तेरह नग मानिये।।
तिन तेरह पे अकृत्रिम जिनसद्म हैं।
पूजूँ मन वच काय हरे वसु कर्म हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
चाल-पूजो-पूजों श्रीअरिहंत देवा……………
क्षीरसागर का प्रासुक नीर दु:ख सागर का पाने तीर।
द्वीप नंदीश्वरे दक्षीण, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।जिनेन्द्र……।
पूजूँ पूजूँ जिनेश्वर बिंब, सेवा करते सदा सुर वृंद।
शीघ्र छूटे करम का फंद, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध कर्पूर चंदन लाऊँ, राग वन्हि को शीघ्र बुझाऊँ।
द्वीप नंदीश्वरे दक्षीण, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।जिनेन्द्र……।
पूजूँ पूजूँ जिनेश्वर बिंब, सेवा करते सदा सुर वृंद।
शीघ्र छूटे करम का फंद, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सोम रश्मि सदृश वर शाली, पुंज करते बनूँ गुणशाली।
द्वीप नंदीश्वरे दक्षीण, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।जिनेन्द्र……।
पूजूँ पूजूँ जिनेश्वर बिंब, सेवा करते सदा सुर वृंद।
शीघ्र छूटे करम का फंद, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद मंदार चंपक लाऊँ, काम जेता प्रभु को चढ़ाऊँ।
द्वीप नंदीश्वरे दक्षीण, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।जिनेन्द्र……।
पूजूँ पूजूँ जिनेश्वर बिंब, सेवा करते सदा सुर वृंद।
शीघ्र छूटे करम का फंद, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
खीर श्रीखंड मोदक लाऊँ, भूख बाधा सदा की मिटाऊँ।
द्वीप नंदीश्वरे दक्षीण, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।जिनेन्द्र……।
पूजूँ पूजूँ जिनेश्वर बिंब, सेवा करते सदा सुर वृंद।
शीघ्र छूटे करम का फंद, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हेम दीपक में कर्पूर ज्वालूं, चित्त के मोहतम को नशालूँ।
द्वीप नंदीश्वरे दक्षीण, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।जिनेन्द्र……।
पूजूँ पूजूँ जिनेश्वर बिंब, सेवा करते सदा सुर वृंद।
शीघ्र छूटे करम का फंद, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप खेऊँ अग्नि में दह के, गंध सौगंध्य दशदिश महके।।
द्वीप नंदीश्वरे दक्षीण, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।जिनेन्द्र……।
पूजूँ पूजूँ जिनेश्वर बिंब, सेवा करते सदा सुर वृंद।
शीघ्र छूटे करम का फंद, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पिस्ता बादाम काजू लाऊँ, मोक्षफल आश धरके चढ़ाऊँ।
द्वीप नंदीश्वरे दक्षीण, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।जिनेन्द्र……।
पूजूँ पूजूँ जिनेश्वर बिंब, सेवा करते सदा सुर वृंद।
शीघ्र छूटे करम का फंद, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंधादि अर्घ सजाऊँ, अष्टकर्मारिसैन्य भगाऊँ।।
द्वीप नंदीश्वरे दक्षीण, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।जिनेन्द्र……।
पूजूँ पूजूँ जिनेश्वर बिंब, सेवा करते सदा सुर वृंद।
शीघ्र छूटे करम का फंद, जिनेन्द्रधाम तेरह को नित्य जजूँ मैं।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमल बावड़ी नीर, जिनपद धारा मैं करूँ।
शांति करो जिनराज, मेरे को सबको सदा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
कमल केतकी फूल, हर्षित मन से लायके।
जिनवर चरण चढ़ाय, सर्वसौख्य संपति बढ़े।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य-सोरठा-
भव बाधा निरवार, अमृतगर्भित भक्ति से।
पूजूं जिनपद सार, कुसुमांजलि अर्पण करूँ।।१।।
इति श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिक्स्थाने मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
नंदीश्वर के दक्षिण दिश में, मधि ‘‘अंजनगिरि’’ तुुंग महान।
इंद्रनीलमणि सम छवि ऊपर, नित्य निरंजन का गृह मान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त१ परमस्थान।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अंजनगिरिजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजनगिरि के पूरब ‘‘अरजा’’, वापी सजल कमल की खान।
ताके मधि ‘‘दधिमुख’’ पर्वत पर, जिनमंदिर अविचल सुख दान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अरजावापिकामध्यदधिमुखपर्वत-जिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजन नग दक्षिण दिश वापी, ‘‘विरजा’’ कही अमल जल खान।
मध्य अचल ‘‘दधिमुख’’ के ऊपर, जिन चैत्यालय पावन जान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि विरजावापिकामध्यदधिमुखपर्वत-जिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजन नग पश्चिम दिश वापी, नाम ‘‘अशोका’’ शुच अपहार।
बीच अचल ‘‘दधिमुख’’ के ऊपर, शोक रहित जिनगृह सुखकार।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अशोकावापिकामध्यदधिमुखपर्वत-जिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तर दिश में अंजनगिरि के, वापि ‘‘वीतशोका’’ अमलान।
‘‘दधिमुख’’ पर्वत शाश्वत उस पर, वीतशोक जिनमंदिर जान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि वीतशोकावापिकामध्यदधिमुखपर्वत-जिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘‘अरजाद्रह’’ ईशान कोण पर, ‘‘रतिकर’’ पर्वत सुंदर जान।
अकृत्रिम जिन चैत्यालय में, रतनमयी जिनबिंब महान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अरजावापिकाईशानकोणे रतिकर-पर्वतजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘‘अरजा’’ वापी अग्निकोण में, ‘‘रतिकर’’ दुतिय स्वर्णद्युतिमान।
अकृत्रिम जिनमंदिर सुंदर, जिनप्रतिमा सब सौख्य निधान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अरजावापिकाआग्नेयकोणे रतिकर-पर्वतजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘‘विरजावापी’’ आग्नेय पर, ‘‘रतिकर’’ नग अद्भुत मणिमान।
सिद्धकूट जिननिलय अकृत्रिम, मणिमय जिन आकृति शिवदान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि विरजावापिकाआग्नेयकोणे रतिकर-पर्वतजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘‘विरजावापी’’ नैऋत दिश में, ‘‘रतिकर’’ पर्वत पीत सुहाय।
परमपुण्य जिनभवन अकृत्रिम, जिनवर छवि वरणी नहिं जाय।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि विरजावापिकानैऋत्यकोणे रतिकरपर्वतजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाम ‘‘अशोकाद्रह’’ नैऋत में, ‘‘रतिकर’’ पर्वत अतुल निधीश।
रत्नमयी जिनमहल अनूपम, जिनवरप्रतिमा त्रिभुवन ईश।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अशोकावापिकानैऋत्यकोणे रतिकरपर्वतजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वापि ‘‘अशोका’’ वायवदिश में, ‘‘रतिकर’’ नग शोभे स्वर्णाभ।
परमपूत जिनवेश्म अमल है, श्री जिनबिंब अतुल रत्नाभ।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अशोकावापिकावायव्यकोणे रतिकरपर्वतजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वापी सजल ‘‘वीतशोका’’ के, वायुकोण ‘‘रतिकर’’ रतिनाथ।
रतिपति विजयी जिनमंदिर में, रुचिकर जिनछवि त्रिभुवननाथ।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि वीतशोकावापिकावायव्यकोणे रतिकरपर्वतजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वीतशोकद्रह में ईशान पर, रतिकर पीतवर्ण मणिकांत।
अकृत्रिम जिनआलय दुखहर, जिनवरबिंब सौम्यछवि शांत।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि वीतशोकावापिकाईशानकोणे रतिकरपर्वतजिनालयस्थजिनबिंंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजनगिरि इक दधिमुख नग चउ,रतिकर पर्वत आठ कहाय।
इन तेरह पर तेरह मंदिर, मन वच तन से पूजूँ आय।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि संबंधित्रयोदशजिनालयस्थजिन-बिंबेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपस्थद्वापंचाशत्जिनालयस्थजिनबिंबेभ्यो नम:।
दोहा- पुण्यतीर्थ कल्याणतरु, शाश्वत श्री जिनधाम।
तेरह विध चर्या क्रिया, हेतु जजूँ वसु याम।।१।।
स्रग्विणी छंद- जै महाद्वीप अष्टम सुनंदीश्वरं।
जैदिशा याम्य तेरह सु जिनमंदिरं।।
मृत्युहर सिद्ध प्रतिमा नमोस्तु तुम्हें।
जो तुम्हें, पूजतें सिद्धि परणें उन्हें।।१।।
इंद्र शत भक्त परिवार सह आवते।
जैन प्रतिमा जजें शीश को नावते।।
साधुगण नित्य मन में तुम्हें ध्यावते।
अष्टमी भूमि३ को शीघ्र ही पावते।।२।।
चिच्चमत्कार चैतन्य ज्योती धरें।
शुद्ध परमात्म आनंद अमृत भरें।।
सिद्ध शाश्वत परम सौख्य पीयूष हैं।
जैन के बिंब सर्वात्म चिद्रूप हैं।।३।।
रत्न सिंहासनों पे विराजे वहाँ।
मोतियों से जड़े छत्र फिरते वहाँ।।
कांति भामंडलों की अधिक भासती।
कोटि सूरजप्रभा देख के लाजती।।४।।
वीतरागी महाशांति मुद्रा प्रभो।
पूजकों का अशुभ राग हरती विभो।।
पद्म आसन धरें पापहारी प्रभो।
नासिका अग्र पे दृष्टि धारी विभो।।५।।
स्वर्ण रत्नोंमयी मूर्तियाँ शाश्वती।
भव्य के दु:ख संताप संहारती।।
आज मैं भी यहाँ अर्चना कर रहा।
शुद्ध सम्यक्त्व का आज निर्झर बहा।।६।।
नाथ मांगूं अबे आश को पूरिये।
ज्ञानमति पूर्णकर काल को चूरिये।।
सिद्धि साम्राज्य को दे सुखी कीजिए।
आपके पास में ही बुला लीजिए।।७।।
दोहा- तुम गुण धागा में किये, विविधवर्णमय फूल।
स्तुतिमाला कंठ में, धरे लहें भव कूल।।८।।
ॐ ह्रीं श्री नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि त्रयोदशजिनालयस्थजिनबिंबेभ्यो जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य आष्टान्हिक परब में, आठ दिन पूजा करें।
वर द्वीप नंदीश्वर जिनालय, बिंब के गुण उच्चरें।।
वे सर्व सुख संपत्ति ऋद्धी, सिद्धि को भी पाएंगे।
सज्ज्ञानमति की गुण सुरभि को, विश्व में फैलाएंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।