-अथ स्थापना (शंभु छंद)-
अर्हंत जिनेश्वर सांपरायिक, आस्रव से रहित पूर्ण ज्ञानी।
ये पुण्य के फल हैं पुण्यराशि, पुण्यास्रव के कारण ज्ञानी।।
हम इनका आह्वानन करके, भक्ती से अर्चा करते हैं।
इनकी पूजन से पापास्रव, नहिं हो यह वांछा करते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-श्री अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-श्री अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-श्री अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक – शंभु छंद-
सरयू नदि का प्रासुक जल ले, कंचन झारी भर लाये हैं।
जिनवर पद में त्रयधारा कर, भव तृषा बुझाने आये हैं।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-श्री अर्हत्परमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन केशर संग, घिसकर कंचनद्रव सम लाये।
जिनवर पद चर्चत वात पित्त, कफ जनित रोग सब नश जायें।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-श्री अर्हत्परमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम उज्ज्वल शालि धुले, जिन सन्मुख पुंज चढ़ाते हैं।
सब द्रव्य भाव मल धुल जावे, शुद्धात्म भावना भाते हैं।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-श्री अर्हत्परमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा बेला अरविंद वकुल, सुरभित पुष्पों को लाये हैं।
निज आत्म गुणों की सुरभि हेतु, जिनचरणों पुष्प चढ़ाये हैं।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।४।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-श्री अर्हत्परमेष्ठिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरणपोली लाडू बरफी, सेमई खीर ले आये हैं।
सब उदर व्याधि प्रशमन हेतू, प्रभु सन्मुख चरू चढ़ाये हैं।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।५।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-श्री अर्हत्परमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत पूरित कंचन दीप लिये, जगमग ज्योती सब ध्वांत हरे।
आरती करें जिनवर सन्मुख, अंतर में ज्ञान प्रकाश भरे।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-श्री अर्हत्परमेष्ठिने मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप यहाँ, बस धूप घटों में खेते ही।
सब अशुभ कर्म जल जाते हैं, मन देह स्वस्थता प्रगटे ही।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-श्री अर्हत्परमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला अंगूर आम, फल मधुर चढ़ाते हैं प्रभु को।
सब ईप्सित फल जाते तत्क्षण, रत्नत्रय फल भी दो मुझको।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-श्री अर्हत्परमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधाक्षत माला नेवज, वर दीप धूप फल अर्घ्य लिये।
प्रभु चरणों करें समर्पण हम, मिल जाय स्वात्मपद इसीलिए।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।९।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-श्री अर्हत्परमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
अर्हत्प्रभु के चरण में, धारा तीन करंत।
मुझमें त्रिभुवन में प्रभो! कीजे शांति तुरंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला हरसिंगार ले, पुष्पांजलि विकिरंत।
मेरा तन मन स्वस्थ हो, समकितनिधि विलसंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
सब संसारी जीव, कर्मास्रव करते सदा।
पुष्पांजली विकीर्य, पूजत सब आस्रव रूकें।।१।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
अथ प्रथमवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्
(27 अर्घ्य)
-शंभु छंद-
मन वचन काय त्रय योग कहे, संमरंभ समारंभ आरंभा।
कृत कारित अनुमति चउकषाय, इनको आपस में गुणितांता।।
सब इक सौ आठ भेद होते, जो क्रोध करे मन संरंभ से।
इस रहित अर्हत्प्रभु को पूजूँ, मेरा मन क्रोध सभी विनशे।।१।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतमन:संरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो पर से मन संरंभ क्रोध, करवाता कर्मास्रव करता।
इनसे विरहित अर्हंतों की, अर्चा से पापास्रव टलता।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितमन:संरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन से संरंभ क्रोधपूर्वक, उसका अनुमोदन जो करते।
उनके पापास्रव होते हैं, प्रभु पूजा से ही टल सकते।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतमन:संरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो क्रोधित मन से समारंभ, करके पापास्रव करते हैं।
प्रभु सिद्धों के गुण गाते ही, सब अशुभ कर्म भी झड़ते हैं।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतमन:समारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो क्रोधित मन से समारंभ, करवाते पापास्रव करते।
प्रभु भक्ती से वे बंधे कर्म, फल दिये बिना भी झड़ सकते।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितमन:समारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो क्रोधित मन से समारंभ, करने वाले को अनुमति दें।
उनके जो कर्म बंधे वे भी, जिन भक्ती से फल नहिं भी दें।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतमन:समारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोधित मन से आरंभ करें, मनकृत आरंभ क्रोधधारी।
ये कर्मबंध भव भव दुखप्रद, इन कर्मों से ही संसारी।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।७।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतमन:आरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोधित मन से आरंभ करे, उसको जो प्रेरित करते हैं।
वे पाप बंध कर जन्म मरण, दु:खों को भरते रहते हैं।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।८।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितमन:आरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोधित मन हो आरंभ करे, उसको जो अनुमति देते हैं।
वे गर्भवास के दु:ख सहें, नाना संकट भर लेते हैं।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।९।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतमन:आरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चौपाई छंद-
मान करे मन से संरंभ। पाप कर्म का करता बंध।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१०।।
ॐ ह्रीं मानकृतमन:संरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान सहित जो मन संरंभ। उसे कराके कर्म निबंध।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। जजूँ परम आनंद निधान।।११।।
ॐ ह्रीं मानकारितमन:संरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानसंरंभ मानयुत कहा। अनुमति देकर हर्षित रहा।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१२।।
ॐ ह्रीं मानानुमतमन:संरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानसहित मन का व्यापार। समारंभ यह दुख दातार।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। जजूँ परम आनंद निधान।।१३।।
ॐ ह्रीं मानकृतमन: समारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानसहित मन का व्यापार। करवाता जो मूढ़ अपार।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१४।।
ॐ ह्रीं मानकारितमन:समारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समारंभ जो मान समेत। अनुमोदें आतमदुख हेत।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। जजूँ परम आनंद निधान।।१५।।
ॐ ह्रीं मानानुमतमन:समारंंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान सहित मन से आरंभ। कार्य करे जो दुख का फंद।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१६।।
ॐ ह्रीं मानकृतमन:आरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान सहित मन से आरंभ। करवाते वे पाप प्रबंध।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। जजूँ परम आनंद निधान।।१७।।
ॐ ह्रीं मानकारितमन:आरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान सहित मन से आरंभ। अनुमति दे हो आस्रव बंध।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१८।।
ॐ ह्रीं मानानुमतमन:आरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पद्धड़ी छंद-
माया युत मन संरंभ जान। तिर्यंच गती का है निदान।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।१९।।
ॐ ह्रीं मायाकृतमन:संरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायायुत मन संरंभ होय। जो करवाते नितमुदित होय।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२०।।
ॐ ह्रीं मायाकारितमन:संरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायायुतमन संरंभ लीन। अनुमति देते वे सौख्य हीन।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२१।।
ॐ ह्रीं मायानुमतमन:संरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायायुत मन का समारंभ। जो स्वयं करें वे भव भ्रमंत।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२२।।
ॐ ह्रीं मायाकृतमन:समारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से मन का समारंभ। जो करवाते वे करें बंध।।
इनसे विरहित श्री अर्हंत देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२३।।
ॐ ह्रीं मायाकारितमन:समारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से मन का समारंभ। जो पर को अनुमति दे अनंद।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२४।।
ॐ ह्रीं मायानुमतमन:समारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायायुत मन आरंभ लीन। जो स्वयं करें वे स्वात्महीन।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२५।।
ॐ ह्रीं मायाकृतमन:आरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायायुत मन आरंभ लीन। करवाते जो वे सौख्यहीन।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२६।।
ॐ ह्रीं मायाकारितमन:आरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायायुत मन आरंभ होय। उसको अनुमति दे बंध होय।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२७।।
ॐ ह्रीं मायानुमतमन:आरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-दोहा-
परम अतीन्द्रिय ज्ञानसुख, वीर्य दर्श गुणवान्।
आस्रव रहित जिनेन्द्र को, नमूँ नमूँ सुखदान।।१।।
ॐ ह्रीं क्रोधमानमायारंभादिआस्रवरहिताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
परम शुद्ध परिणाम हित, तुम पद पूजूँ आज।
पुष्पांजलि अर्पण करूँ, भरो आश जिनराज।।१।।
(27 अर्घ्य)
-दोहा-
लोभ सहित मन से करें, जो संरंभ महान।
पाप बंधे इनसे रहित, नमूँ अर्हत् भगवान।।२८।।
ॐ ह्रीं लोभकृतमन:संरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभचित्त संरंभ को, जो करवाते जीव।
पाप बंधे इनसे रहित, नमूँ अर्हत् सुख नींव।।२९।।
ॐ ह्रीं लोभकारितमन:संरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनुमोदें जो लोभ युत, मन संरंभ करंत।
इन विरहित अर्हंत को, जजत मिले भव अंत।।३०।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतमन:संरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ सहित मन से करें, समारंभ जो जीव।
पापास्रव करते सतत, नमतें हों दुख छीव।।३१।।
ॐ ह्रीं लोभकृतमन:समारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ सहित मन से करें, समारंभ नरवृंद।
करवाते वे मूढ़जन, नमूँ अर्हत् सुखकंद।।३२।।
ॐ ह्रीं लोभकारितमन:समारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभसहित मन से करें, समारंभ जो कोय।
अनुमोदें उनसे रहित, जजूँ अर्हत् सुख होय।।३३।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतमन:समारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभचित्त आरंभ जो, करें पाप में लीन।
उन विरहित अर्हंत को, नमूँ स्वात्म सुख लीन।।३४।।
ॐ ह्रीं लोभकृतमन:आरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभचित्त आरंभयुत, करवाते जो पाप।
उन विरहित अर्हंत को, नमत बनूँ निष्पाप।।३५।।
ॐ ह्रीं लोभकारितमन:आरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ चित्त आरंभयुत, अनुमोदें जो नित्य।
कर्म बांधते उन रहित, नमूँ अर्हद् गुण नित्य।।३६।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतमन:आरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-स्रग्विणी छंद-
क्रोध में वाक्य से कार्य की भूमिका।
नाम संरंभ है जो करें सर्वदा।।
पाप को बांधते चारगति में भ्रमें।
आपने नाशिया मैं जजूँ अर्घ्य ले।।३७।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतवचनसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध में वचन से जो कराते सदा।
नाम संरंभ है कार्य की भूमिका।।
कर्म आते इन्हें आपने नाशिया।
मैं जजूँ अर्घ्य ले ज्ञान सम्यक् किया।।३८।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितवचनसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध से वचन संरंभ में अनुमती।
सर्व प्राणी इसी से लहें दुर्गती।।
आपने नाश के पाई पंचमगती।
मैं नमूँ मैं नमूँ पाऊं सम्यक्मती।।३९।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतवचनसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध से वच समारंभ जो आचरें।
कार्य को सर्व वस्तू इकट्ठी करें।।
ये समारंभ कर्मारि का मित्र है।
आपने नाशिया आप ही शर्ण हैं।।४०।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतवचनसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध में वचन से जो समारंभ हो।
जो करावें इसे कर्म बांधें अहो।।
आप ही नाथ हो आज रक्षा करो।
अर्घ्य लेके जजूँ मम सुरक्षा करो।।४१।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितवचनसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध से वचन व्यापार में अनुमती।
जो करें सो भ्रमें तीन जग में दुखी।।
आप जगवंद्य हो नाथ! रक्षा करो।
मैं जजूँ अर्घ्यं ले मम सुरक्षा करो।।४२।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतवचनसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध में वचन से कार्य को आरभे।
नाम आरंभ कृत कर्म को बांधते।।
आप आरंभ को त्याग परमातमा।
मैं जजूँ आपको होऊं शुद्धातमा।।४३।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतवचनारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्य आरंभते को करे प्रेरणा।
क्रोध से वचन से पाप बांधे घना।।
जो तजे दोष को वे हि शुद्धातमा।
मैं जजूँ प्राप्त कर लूँ स्व परमातमा।।४४।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितवचनारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्य आरंभते को अनूमोदते।
क्रोध में वचन से कर्म को बांधते।।
आप प्रभु घातिया कर्म से शून्य हो।
मैं जजूँ कर्मवैरी स्वयं चूर होें।।४५।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतवचनारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानकृत वचन संरंभ से पाप हो।
सो जगत में भ्रमें दु:ख संताप हो।।
सर्व संरंभ से मुक्त परमात्मा।
मैं जजूँ साम्यपीयूष पाऊं यहाँ।।४६।।
ॐ ह्रीं मानकृतवचनसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से वचन से कार्य की भूमिका।
जो कराता सभी लोक में घूमता।।
आपने नाश के स्वात्मसंपद लिया।
मैं जजूँ आपको शुद्ध सम्यक् लिया।।४७।।
ॐ ह्रीं मानकारितवचनसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से वचन से कार्य संरंभ में।
जो अनूमोदता दु:ख भोगें भ्रमें।।
आप सिद्धातमा मैं जजूँ भक्ति से।
ज्ञानज्योती मिले स्वात्मसंपत्ति से।।४८।।
ॐ ह्रीं मानानुमतवचनसंंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से वचन से जो समारंभ हो।
कार्य हेतू सभी वस्तु एकत्र हो।।
नाश के सिद्ध भगवान होते यहाँ।
मैं जजूँ स्वात्म पीयूष पीऊं यहाँ।।४९।।
ॐ ह्रीं मानकृतवचनसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो कराते समारंभ नित मान से।
वाक्य से प्रेरते जीव दुख पावते।।
मुक्त आत्मा सभी कर्म से दूर हैं।
मैं जजूँ सौख्य पाऊँ जो भरपूर है।।५०।।
ॐ ह्रीं मानकारितवचनसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो समारंभ करते वचन मान से।
दें अनूमोदना कर्म को बांधते।।
मुक्त सर्वज्ञ को मैं नमूँ भाव से।
भेद विज्ञान पाऊं निजी चाव से।।५१।।
ॐ ह्रीं मानानुमतवचनसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से वचन से कार्य जो आरभें।
नित्य आरंभ से जीव हिंसा करें।।
आपने सर्व आरंभ परिग्रह तजा।
मैं जजूँ भक्ति से प्राप्त हो मुक्तिजा।।५२।।
ॐ ह्रीं मानकृतवचनआरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से वचन से कार्य आरंभ में।
जो करें प्रेरणा कर्म बांधें घने।।
मुक्ति हेतू धरा ध्यान मैं पूजहूँ।
रोग शोकादि दारिद्र से छूटहूँ।।५३।।
ॐ ह्रीं मानकारितवचनआरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्य आरंभते को करे अनुमती।
मान में वाक्य से वे धरें दुर्गती।।
आपको पूजते सर्व संकट टलें।
मैं स्वयं मैं स्वयं आन संपत् मिलें।।५४।।
ॐ ह्रीं मानानुमतवचनआरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-दोहा-
पंचमगति के हेतु मैं, नमन करूँ पंचांग।
परमानंद अमृत अतुल, सौख्य भरो सर्वांग।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहिताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
चिंतित फल देवें सदा, चिंतामणि चिद्रूप।
पुष्पांजलि से पूजते, भक्त बने शिवरूप।।१।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(27 अर्घ्य)
-शेरछंद-
माया से वचन से स्वयं संरंभ जो करें।
जो कार्य को करने में भूमिका को विस्तरें।।
ये पापहेतु लाखों योनियों में भ्रमावें।
जो नाथ की पूजा करें निज संपदा पावें।।५५।।
ॐ ह्रीं मायाकृतवचनसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो छद्म से वच से सदा संरंभ कराते।
वे भी करम से सर्व जग में निज को भ्रमाते।।
अर्हंत के गुणों की अर्चना प्रधान है।
जो पूजते वे भी बनें जग में महान हैं।।५६।।
ॐ ह्रीं मायाकारितवचनसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया सहित वचन से जो संरंभ को करें।
उनकी करें अनुमोदना वे पाप को भरें।।
जिनवर की वंदना से सर्व दु:ख दूर हों।
निज आत्म की अनुभूति से पीयूष पूर हो।।५७।।
ॐ ह्रीं मायानुमतवचनसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से वचन से जो समारंभ को करें।
चौरासी लाख योनियों में जन्म वे धरें।।
यदि जन्मसिंधु से तुम्हें तिरने की है इच्छा।
जिनवर की अर्चना करो मानो गुरु शिक्षा।।५८।।
ॐ ह्रीं मायाकृतवचनसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से वाक्य से जो समारंभ कराते।
चारों गती के दुख जलधि में निज को डुबाते।।
ये भूत प्रेत डाकिनी शाकिनि पिशाचिनी।
सब दूर हों जिनभक्ति से बाधाएं भी घनी।।५९।।
ॐ ह्रीं मायाकारितवचनसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से वचन से जो समारंभ को करें।
अनुमोदते उन्हें वे पशू योनि को धरें।।
जो इनसे मुक्त हो चुके त्रिभुवन ललाम हैं।
उनको अनंत बार ही मेरा प्रणाम है।।६०।।
ॐ ह्रीं मायानुमतवचनसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो छद्म से वचन से आरंभ नित करें।
ये कार्य को प्रारंभ करते हर्ष मन धरें।।
इनके अशुभ प्रकृती बंधे दुर्गति में जा पड़ें।
जो इनसे मुक्त उन प्रभू के चरण हम पड़ें।।६१।।
ॐ ह्रीं मायाकृतवचनारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से वचन से सदा आरंभ कराते।
वे निज को और पर को तीन जग में भ्रमाते।।
जो इनसे मुक्त हैं उन्हों की वंदना करूँ।
निर्मूल हो माया कषाय, प्रार्थना करूँ।।६२।।
ॐ ह्रीं मायाकारितवचनारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरंभ में अनुमोदना माया से वचन से।
तब कर्मशत्रु आवते रोके नहीं रुकते।।
इनसे विमुक्त समवसरण कमल पे रहें।
माया को जो तजें स्वयं ऊरधगती लहें।।६३।।
ॐ ह्रीं मायानुमतवचनारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ से वच से सदा संरंभ को करें।
वे आत्मशुद्धि ना करें जग में भ्रमण करें।।
प्रभु आपने इसको तजा निजधाम पा लिया।
मैं दुख से ऊब के ही आपकी शरण लिया।।६४।।
ॐ ह्रीं लोभकृतवचनसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ से वच से सदा संरंभ कराते।
वे भावशुद्धि के बिना निर्धन सदा रहते।।
इसको तजे से तीन लोक संपदा मिली।
मैं भी तुम्हें पूजूँ समस्त आपदा टलीं।।६५।।
ॐ ह्रीं लोभकारितवचनसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संरंभ लोभ से वचन से उसमें अनुमती।
ये बुद्धि सबमें काल अनादी से ही रहती।।
प्रभु इनसे मुक्त आपके गुणों की अर्चना।
जो भक्त हैं वे कर सकेंगे यम की तर्जना।।६६।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतवचनसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वच से व लोभ से जो समारंभ कर रहे।
वे मोहनीय कर्मबंध दृढ़ ही कर रहे।।
इनसे विमुक्त आप पाद वंदना भली।
प्रभु भक्त के मन कंज की कलियाँ तुरत खिलीं।।६७।।
ॐ ह्रीं लोभकृतवचनसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ से वचन से समारंभ कराते।
वे भेदज्ञान शून्य हैं निज शुद्धि न पाते।।
इनसे विमुक्त नाथ की जो वंदना करें।
वे सब कषाय शत्रुओं की खंडना करें।।६८।।
ॐ ह्रीं लोभकारितवचनसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वच लोभ से जो समारंभ उसमें अनुमती।
वे तनु की व्याधियों से दुखी जग में दुर्मती।।
इनसे विमुक्त नाथ के गुणों की अर्चना।
संसारवार्धि से तिरूँ हो दु:ख रंच ना।।६९।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतवचनसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ से वचन से भी आरंभ कर रहे।
वे छह निकाय जीव की हिंसा ही कर रहे।।
इनसे विमुक्त तीर्थनाथ की महापूजा।
ये सर्वसौख्यकारिणी इस सम नहीं दूजा।।७०।।
ॐ ह्रीं लोभकृतवचनआरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ में वचन से भी आरंभ कराते।
वे पापपुंज बांधते निज ज्ञान न पाते।।
इनसे विमुक्त तीर्थपती की उपासना।
जो कर रहे वे पायेंगे शिवपथ की साधना।।७१।।
ॐ ह्रीं लोभकारितवचनारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरंभ लोभ से वचन से उसमें अनुमती।
परिग्रह से ही आरंभ उससे होवे दुर्गती।।
इनसे विमुक्त नाथ की मैं वंदना करूँ।
संपूर्ण दु:ख से बचूँ सिध्यंगना वरूँ।।७२।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतवचनारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-नरेन्द्र छंद-
क्रोध सहित तन से कार्यों की बने रूपरेखा जो।
सो संरंभ कहाता श्रुत में इनसे मुक्त हुये जो।।
उन अर्हंतों के चरणों में नित प्रति शीश नमाऊँ।
गर्भवास के दु:ख मिटाकर निज समरस सुख पाऊँ।।७३।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतकायसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध सहित तन से कार्यों को करवाने की रुचि से।
पाप कमाते सब संसारी पंच परावृत करते।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।७४।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितकायसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध सहित तन से कुछ करना करे भूमिका कोई।
अनुमति देकर पाप बढ़ाते महामूढ़ जन सो ही।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।७५।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतकायसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध सहित तन से कार्यों की सामग्री को जोड़े।
समारंभ यह नरक निगोदों में ले जाकर छोड़े।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।७६।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतकायसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्य हेतु पर से सामग्री एकत्रित करवाता।
क्रोध करे तन से जो फिर भी नहीं किसी से नाता।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।७७।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितकायसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध सहित तन से जो करते समारंभ दे अनुमति।
बिना हेतु ये पाप उपार्जे नहीं मिली है सन्मति।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।७८।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतकायसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध सहित तन से आरंभे पाँच पाप आदिक जो।
पाँच परावर्तन कर करके जग में भ्रमण करें वो।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।७९।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतकायारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध करावे काय क्रिया से बहु आरंभ कराता।
तन की व्याधि करोड़ों भोगे कभी न पावे साता।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८०।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितकायारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध सहित काया से अनुमति देता आरंभी को।
नाना काय धरे मर मर कर भव भव में दु:खी हो।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८१।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतकायारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
समवसरणपति देव, अखिल अमंगल को हरें।
नित्य करूँ मैं सेव, नित नव नव मंगल भरें।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहिताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा- धर्मचक्र के अधिपती, त्रिभुवन पति जिनराज।
सुमन चढ़ाकर पूजहूँ, नमूँ नमूँ नत माथ।।१।।
(27 अर्घ्य)
मान सहित काया से जो संरंभ करे नित रुचि से।
नीच गोत्र में जन्म धरे फिर दु:ख सहे नित तन से।।
इनसे विरहित अर्हंतों को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८२।।
ॐ ह्रीं मानवृतकायसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान सहित काया से कराता जो संरंभ सदा ही।
देवगती में भी यदि जन्में कुत्सित गती धरे ही।।
इनसे विरहित अर्हंतों को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८३।।
ॐ ह्रीं मानकारितकायसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से काया से संरंभे, उसको अनुमति देवे।
पाप पुण्य का आस्रव करके, दु:ख निकट कर लेवे।।
इनसे विरहित अर्हंतों को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८४।।
ॐ ह्रीं मानानुमतकायसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मद से तन से समारंभ कर, कर्मों को नित बांधे।
मानस शारीरिक आगंतुक सभी दु:खों को साधे।।
इनसे विरहित अर्हंतों को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८५।।
ॐ ह्रीं मानकृतकायसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मद से तन से समारंभ जो सदा कराता रहता।
इहभव में परभव में भी तो दुख संकट बहु सहता।।
इनसे विरहित अर्हंतों को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८६।।
ॐ ह्रीं मानकारितकायसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से तन से समारंभ, करते को अनुमति देवे।
जन्म मरण के दुख सह-सहकर, बीज पाप का बोवे।।
इनसे विरहित अर्हंतों को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८७।।
ॐ ह्रीं मानानुमतकायसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान सहित तन से कार्यों को, आरंभे भव भव में।
संस्कारों से तनु धर-धर कर भ्रमण करे चहुंगति में।।
इनसे विरहित अर्हंतों को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८८।।
ॐ ह्रीं मानकृतकायारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मद से तन से सदा कराता पर से आरंभों को।
कुगुरु कुशास्त्रों की शिक्षा से कुत्सित बुद्धि धरे जो।।
इनसे विरहित अर्हंतों को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८९।।
ॐ ह्रीं मानकारितकायारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मद से काया से आरंभित कार्यों को अनुमोदे।
नाना कर्मों को नित बांधे निज पर को भी दुख दे।।
इनसे विरहित अर्हंतों को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।९०।।
ॐ ह्रीं मानानुमतकायारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-गीता छंद-
माया से तनु से जो सदा संरंभ करते प्रेम से।
वे कर्मबंधन से बंधे बहु दु:ख सहते देह से।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९१।।
ॐ ह्रीं मायाकृतकायसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से तनु से जो कराते हैं सदा संरंभ को।
तिर्यंच योनी में पड़ें वहाँ कष्ट दु:ख असंख्य हो।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९२।।
ॐ ह्रीं मायाकारितकायसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो छद्म से तन से करें संरंभ उसमें अनुमती।
वे मूढ़ भेदविज्ञान बिना नहिं पा सकेंगे सद्गती।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९३।।
ॐ ह्रीं मायानुमतकायसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया निमित तन से समारंभे इकट्ठी वस्तु हों।
सम्यक्त्व बिन समता नहीं पाते उठाते दु:ख को।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९४।।
ॐ ह्रीं मायाकृतकायसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से तनु से समारंभों को कराते प्रेम से।
चारित्र बिन संसार में दु:ख भोगते हैं देह से।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९५।।
ॐ ह्रीं मायाकारितकायसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु से समारंभें उन्हें माया व तनु से अनुमती।
तप बिना कर्मास्रव न सूखें फिर धरें तिर्यग्गती।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९६।।
ॐ ह्रीं मायानुमतकायसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया धरें तन से करें आरंभ जो भव मूल है।
जिन भक्ति बिन भव में भ्रमें पावें न वो भव कूल है।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९७।।
ॐ ह्रीं मायाकृतकायारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया सहित तनु से कराते बहुत ही आरंभ जो।
जिनशास्त्र के स्वाध्याय बिन साता न पाते रंच वो।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९८।।
ॐ ह्रीं मायाकारितकायारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायासहित तनु से करें आरंभ उसमें अनुमती।
दिग्वस्त्र गुरु की भक्ति बिन मिलती नहीं है शुभ मती।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९९।।
ॐ ह्रीं मायानुमतकायारंंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ से तनु से करें संरंभ चहुँगति में भ्रमें।
नित करें खोटे देव की भक्ती न जिनवच में रमें।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१००।।
ॐ ह्रीं लोभकृतकायसरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ वश तनु से कराते अन्य से संरंभ को।
जिनदेव की भक्ती बिना पाते न सुख के मर्म को।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०१।।
ॐ ह्रीं लोभकारितकायसंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संरंभ करते देख अनुमति दें तनू से लोभ से।
संसार में रुलते रहें नहिं छूटते भव रोग से।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०२।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतकायसंंरंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभवश तन की क्रिया से समारंभी हो रहे।
जिनधर्म बिन खोटे गुरू के वचन से भव दु:ख सहें।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०३।।
ॐ ह्रीं लोभकृतकायसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो समारंभी लोभवश तनु से करें पर प्रेरणा।
उनके चतुर्गति भ्रमण में निज आत्म सुख का लेश ना।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०४।।
ॐ ह्रीं लोभकारितकायसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनुमोदते जो लोभवश तनु से समारंभी जना।
वे मोक्षपथ के बिना व्यंतर योनि में दुख लें घना।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०५।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतकायसमारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ से तनु से करें आरंभ बहुविध प्रेम से।
नरकायु बांधें सागरों तक दु:ख भोगें नर्क के।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०६।।
ॐ ह्रीं लोभकृतकायारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभवश तनु से कराते अन्य से आरंभ को।
वे भी निगोदों के दुखों को सहें पापारंभ सों।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०७।।
ॐ ह्रीं लोभकारितकायारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरंभ करते देख तनु से लोभवश अनुमति करें।
वे भी कुमानुषयोनि में चिरकाल तक बहु दुख भरें।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०८।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतकायारंभमुक्ताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-दोहा-
धर्मतीर्थ के नाथ तुम, धर्म चक्रधर धीर।
पूरण अर्घ्य चढ़ाय के, पाऊँ मैं भव तीर।।१०९।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरशतास्रवविरहिताय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य – ॐ ह्रीं कर्मास्रवरहितानंतकेवलिभ्यो नम:।
(सुगंधित पुष्प, लवंग या पीले चावल से १०८ बार मंत्र जपें)
-दोहा-
तीर्थंकर जिनकेवली, आस्रव बंध विमुक्त।
गाऊँ तुम गुणमालिका, मोक्ष तत्त्व से युक्त।।१।।
-गीता छंद-
जय जय जिनेश्वरदेव, तीर्थंकर प्रभू जिनकेवली।
अर्हंत परमेष्ठी सकल, आस्रवरहित जिनकेवली।।
इनकी करूँ मैं वंदना, कर जोड़ नाऊं शीश को।
इनकी करूँ मैं अर्चना, शत-शत झुकाऊँ शीश को।।२।।
साता करम ही आस्रवे, ईर्यापथास्रव नाम ही।
हो केवली के इक समय, झड़ जाय नहिं हो बंध भी।।
आस्रव कहा जो सांपरायिक, सर्व जीवों में यही।
ये कर्म आठों बांधता, इससे भ्रमण जग में सही।।३।।
ये तीव्र मंद व ज्ञात अरु अज्ञात भावों से कहा।
निज शक्ति के कम या अधिक, से भेद नाना ले रहा।।
मिथ्यात्व पण पण अविरती, पंद्रह प्रमाद त्रियोग हैं।
चारों कषायों से सहित, भावास्रवों के भेद हैं।।४।।
आठों करम में दर्श मोहनि, चरित मोहनि दो प्रमुख।
सम्यक्त्व औ चारित्र को, नाशें अत: ये दु:खप्रद।।
सम्यक्त्व दर्शन ज्ञान चारित्र, मोक्ष के कारण कहे।
अतएव दर्शनमोहनी हेतू से हम बचना चहें।।५।।
जिनकेवली को रोग हो, आहार भी लेकर जियें।
श्रुत में कहा है मांस भक्षण, साधुगण निर्लज्ज हैं।।
जिनधर्म में कुछ गुण नहीं, सुर देवियाँ बलि मांगते।
इस विधि कहें जो मूढ़जन, वे दर्शमोहनि बांधते।।६।।
जो केवली श्रुत संघ को, जिनधर्म सुर को दोष दें।
वे मोहनी दर्शन अशुभ को, बांधकर दु:ख भोगते।।
ये सब असत् अपवाद हैं, हे नाथ! मैं इनसे बचूँ।
सम्यक्त्व निधि रक्षित करूँ, हे नाथ! भव दुख से बचूँ।।७।।
क्रोधादि अशुभ कषाय का, उद्रेक जब अति तीव्र हो।
चारित्र मोहनि बंध हो, नहिं चरित धारण शक्ति हो।।
चारित्र मोह अनादि से, हे नाथ! निर्बल कर रहा।
मेरी अनंती आत्म शक्ती, छीनकर दु:ख दे रहा।।८।।
करके कृपा हे नाथ! अब, चारित्रमोह निवारिये।
चारित्र संयम पूर्ण हो, भवसिंंधु से अब तारिये।।
प्रभु आप ही पतवार हो, मुझ नाव भवदधि में फंसी।
अब हाथ का अवलंब दो, ना देर कीजे मैं दुखी।।९।।
इन आठ कर्मों में अधिक, बलवान एकहि मोह है।
इसके अट्ठाइस भेद हैं, बहु भेद सर्व असंख्य हैं।।
ये मोहनी ही स्थिती, अनुभाग बंध करे सदा।
ये मोहनी संसार का, है मूल कारण दु:खदा।।१०।।
सब आस्रवों के भेद इक, सौ आठ पापास्रव करें।
इस हेतु इक सौ आठ मणि की, जपसरा से जप करें।।
तुम नाम मंत्रों को सदा, जो भव्य जपते भाव से।
वे पाप आस्रव रोककर नित पुण्य संचें चाव से।।११।।
व्रत पाँच समिती पाँच गुप्ती, तीन दशविध धर्म है।
बारह अनूप्रेक्षा परीषह, जय कहे बाईस हैं।।
ये कर्म आस्रव रोकते, संवर करें मुनिजन धरें।
हे नाथ! इनको दीजिए, हम कर्म आस्रव परिहरें।।१२।।
जिनभक्ति पूजा मंत्र से, बहु पुण्य संपादन करें।
जिनभक्ति से बलभद्र चक्री, तीर्थकर पद भी धरें।।
जिनभक्ति से सब ऋद्धि सिद्धी, पाय शिवललना वरें।
जिनभक्ति से ही भक्त निज, आनंद अमृत रस भरें।।१३।।
हे नाथ! ऐसी शक्ति दो, मैं सर्व ममता छोड़ दूॅँ।
निज देह से भी होऊं निर्मम, सब परिग्रह छोड़ दूँ।।
निज आत्म से ममता करूँ, निज आत्म की चर्चा करूँ।
निज आत्म में तल्लीन हो, परमात्म की अर्चा करूँ।।१४।।
ऐसा समय तुरतहिं मिले, निजध्यान में सुस्थिर बनूँ।
उपसर्ग परिषह हों भले, निजतत्त्व में ही थिर बनूँ।।
निज आत्म अनुभव रस पियूँ, परमात्मपद की प्राप्ति हो।
निज ‘ज्ञानमति’ ज्योती दिपे, जो तीनलोक प्रकाशि हो।।१५।।
-दोहा-
जब तक नहिं परमात्मपद, तुुम पद में मन लीन।
एक घड़ी भी नहिं हटे, बनूं आत्म लवलीन।।१६।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहिताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्य पुण्यास्रव विधान भक्ति से करें।
वे पाप आस्रव का निरोध युक्ति से करें।।
संपूर्ण पुण्यास्रव मिले निज शक्ति को धरें।
कैवल्य ‘ज्ञानमती’ सहित मुक्ति को वरें।।
।।इत्याशीर्वाद:।।