Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
Search
विशेष आलेख
पूजायें
जैन तीर्थ
अयोध्या
03 . सुदर्शनमेरु जिनालय पूजा
July 31, 2024
Workshop of Books
jambudweep
(पूजा नं.3)
सुदर्शनमेरु जिनालय पूजा
—अथ स्थापना—दोहा—
मध्यलोक के मध्य में, मेरु सुदर्शन नाम।
जंबूद्वीप विषे कहा, प्रथम गिरीन्द्र प्रधान।।१।।
चारों वन के चार दिश, सोलह जिनवर सद्म।
आह्वानन विधि मैं करूँ, पूजूँ जिनपद पद्म।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
अथाष्टक-चाल-नन्दीश्वर पूजा
शुचि शीतल प्रासुक नीर तीरथ गंग भरा।
चरणों में धारा देय सब आतंक हरा।।
मेरू के श्री जिनगेह सोलह विख्याता।
जो पूजें भक्ति समेत पावें सुख साता।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
अलि गुंजत गन्ध सुगन्ध चंदन घिस लाया।
जिनबिंब चरण अरविंद चर्चन को आया ।।मेरू.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ चन्द्र किरण सम श्वेत अक्षत धोय लिया।
मैं अक्षत सुख के हेत, सन्मुख पुंज किया।।
मेरू के श्री जिनगेह सोलह विख्याता।
जो पूजें भक्ति समेत पावें सुख साता।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पंकेरुह हरसिंगार वकुल सुगन्ध भरे।
जिन चरणन देत चढ़ाय भव संताप हरे ।।मेरू.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
फेनी घेवर पकवान ताजे सरस बने।
जिन सन्मुख-चरु की भेंट भूख पिशाचि हने।।मेरू.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति प्रकाश जगमग ज्योति जले।
दीपक से पूजूं नाथ! हिय अज्ञान टले ।।मेरू.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरु धूप सुगन्ध दश दिश वास करें।
जिन सन्मुख अग्नीदाह, करते पाप जरें ।।मेरू.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
नारंगी आम अनार केला फल सारे।
जिन सन्मुख फल की भेंट, करते सुख सारे।।मेरू.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादिक वसु द्रव्य लेकर थाल भरा।
प्रभु अर्घ्य समर्पण आज, करता हर्ष भरा।।
मेरू के श्री जिनगेह सोलह विख्याता।
जो पूजें भक्ति समेत पावें सुख साता।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
प्रासुक मिष्ट सुगंध जल, क्षीरोदधि सम श्वेत।
जिनपद धारा मैं करूं, तिहुँ जग शांती हेत ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पारिजात के पुष्प ले, श्री जिन चरण सरोज।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले निजातम सौख्य ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
सुदर्शनमेरु भद्रसाल वन जिनालय पूजा
अथ स्थापना—नरेन्द्र छन्द
(चाल-परम परंज्योति…..)
जम्बूद्रुम से लक्षित जम्बू-द्वीप सुसार्थक नामा।
एक लाख योजन विस्तृत सब द्वीपों में परधाना।।
इसके बीचोंबीच नाभिवत मेरू सुदर्शन जानो।
उसके भद्रसाल में जिनगृह आह्वानन विधि ठानो।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरूभद्रसालवनजिनालयस्थजिनिंबबसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं ।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरूभद्रसालवनजिनालयस्थजिनिंबबसमूह! अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरूभद्रसालवनजिनालयस्थजिनिंबबसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधीकरणम् ।
—अथाष्टक—नरेन्द्र छंद—
रेवानदि को तीरथमय जल, पयसम मुनि मनहारी।
जन्म जरा मृति ताप तीन हर, धार करूँ हितकारी।।
सुरगिरि भद्रसाल वन चारों, चैत्यालय सुखकारी।
सुरपति मौलि मणीप्रभ चुंबित, जिन पद धोक हमारी।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरूभद्रसालवनजिनालयस्थजिनिंबबेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा
कंचनद्रव सम कुंकुम केशर, भ्रमर समूह रमे हैं।
जिन पद पंकज चर्चन करते, भववन में न भ्रमें हैं।।सुर.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरूभद्रसालवनजिनालयस्थजिनिंबबेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
दुग्धसिंधु के फेन सदृश अति अक्षत उज्ज्वल लाये।
अमृत पिंड सदृश पुंजों से जिनपद पूज रचाये।।सुर.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरूभद्रसालवनजिनालयस्थजिनिंबबेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही चमेली मल्लि मालती, सुवरण पुष्प मंगाये।
घ्राण नयन प्रिय काम बाण हर, जिनपद पद्म चढ़ाये ।।सुर.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरूभद्रसालवनजिनालयस्थजिनिंबबेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
बरफी पेड़ा खीर मलाई, पूरणपोली लाये।
क्षुधा रोग निज दूर करन को, जिनवर निकट चढ़ाये।।सुर.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरूभद्रसालवनजिनालयस्थजिनिंबबेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिमयदीप रतनमय ज्योती, दशदिश तम हरता है।
जिनपद पूजत मोह तिमिर सब, तत्क्षण ही नशता है।।सुर.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरूभद्रसालवनजिनालयस्थजिनिंबबेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कालागरु चंदन मलयागिरि धूप सुगन्धित लेके।
दशदिश सुरभित करूँ धूम से, धूप अगनि में खेके।।
सुरगिरि भद्रसाल वन चारों, चैत्यालय सुखकारी।
सुरपति मौलि मणीप्रभ चुंबित, जिन पद धोक हमारी।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरूभद्रसालवनजिनालयस्थजिनिंबबेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला सेव मोसम्बी नासपती फल लाये।
घ्राण नयन मन प्रीणन१ तुम ढिग शिवफल हेतु चढ़ाये।।सुर.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरूभद्रसालवनजिनालयस्थजिनिंबबेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलफल आदिक अर्घ्य संजोकर उसमें रतन मिलाऊँ।
जिनवर सन्मुख अर्घ्य चढ़ाकर भवभव भ्रमण मिटाऊँ।।सुर.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरूभद्रसालवनजिनालयस्थजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
प्रासुक मिष्ट सुगंधजल, क्षीरोदधि सम श्वेत।
जिनपदधारा मैं करूँ तिहुं जग शांती हेत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।।
पारिजात के पुष्प ले, श्री जिन चरण सरोज।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले निजातम सौख्य।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य
—दोहा—
सर्वश्रेष्ठ गिरिराज है, मेरु सुदर्शन नाम।
भद्रसाल वन भूमि के, जिनगृह करूँ प्रणाम।।१।।
इति सुदर्शनमेरुभद्रसालवनस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजिंल क्षिपेत् ।
—वीरछंद—
भद्रसाल वन पृथ्वी तल पर, मेरु के चौतरफ कहा।
पूर्वदिशा में जिन चैत्यालय सुर नर खग से पूज्य कहा।।
आत्मसुधारस आस्वादी मुनि, दर्शन वंदन नित करते।
अष्ट द्रव्य से पूजन कर भवि, जन्म मरण दुख को हरते।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिभद्रसालवनस्थितपूर्वदिग्जिनालयस्थ- सर्वजिनबिम्बेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भद्रसाल के दक्षिण दिश में कांचन छवि जिनमंदिर है।
रत्नमयी जिनप्रतिमा राजें अनुपम रूप मनोहर है।। आत्म.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिभद्रसालवनस्थितदक्षिणदिग्जिनालयस्थ- सर्वजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भद्रसाल वन पश्चिम दिश में, अकृत्रिम जिनधाम कहा।
भवविजयी जिनवर बिंबों से अद्भुत अतिशय धाम रहा।।आत्म.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिभद्रसालवनस्थितपश्चिमदिग्जिनालयस्थ- सर्वजिनबिम्बेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भद्रशाल के उत्तर दिश में, जिनवर भुवन अतुल शुभ है।
भव्य मुमुक्षू जन नित पूजे, कोटि बार नित प्रणमत हैं।। आत्म.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिभद्रसालवनस्थितउत्तरदिग्जिनालयस्थ- सर्वजिनबिम्बेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-चौबोल—
मेरु सुदर्शन भद्रसाल में, चारों दिश के चार कहे।
त्रिभुवन तिलक जिनेश्वर के गृह, अकृत्रिम अभिराम रहे।।
जल गंधाक्षत पुष्प चरूवर, दीप धूप फल अर्घ्य लिया।
निज शुद्धातम लब्धी हेतू, जिन पद पूरण अर्घ्य दिया।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिभद्रसालवनस्थितचतुर्जिनालयस्थसर्वजिन- बिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
सुदर्शनमेरु नन्दनवन जिनालय पूजा
अथ स्थापना—सोरठा
मेरु सुदर्शन मािंह, नंदन वन के जिनभवन।
आह्वानन कर आज, मैं पूजों जिनबिंब को ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं ।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
अथ अष्टक-गीताछंद
(चाल-सम्मेदगढ़ गिरनार…..)
पीयूषसम जल लाय हितकर, नाथ पदधारा करूँ।
जर जन्म मृत्यु तापत्रय के, शांति हित आशा धरूँ।।
श्री मेरू कांचनगिरि दुतिय, नंदन वनी के जिनगृहा।
जिन पूजते संसार संभव, चतुर्गति के दुख दहा।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गुंजारते मधुकर सुरभियुत गंध चंदन लायके।
भववन दवानल तापहर, जिनचरण गंध चढ़ायके।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य:चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशिकिरण सम उज्ज्वल कमल, अक्षत लिया भर थाल में।
वसु पुण्य पुंज चढ़ाय, पूजूँ, हर्ष से नत भाल मैं।।श्री.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्ली बकुल अरविंद पाटल, फूल सुरभित ले लिये।
जिनपाद पंकज पूजते, सब काम शर निष्फल किये।।
श्रीमेरू कांचनगिरि दुतिय नंदन वनी के जिनगृहा।
जिन पूजते संसार संभव, चतुर्गति के दुख दहा।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य:पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मिष्टान्न घृतमय सरस व्यंजन, दिव्य अमृत सम लिया।
जिन पाद पंकज पूज के, क्षुध डाकिनी को वश किया।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक शिखा से यज्ञभूमी, में उजाला हो गया।
प्रभु आरती करते तुरत, निज मोहतम सब खो गया।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरभित अगुरु गुरु श्वेत चंदन, धूप धूपायन जले।
बहु गगन में धूमावली उड़ती करम अरि को दले।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
दाडिम पनस अंगूर केला आम्र अमरख लाइये।
मन नयन भावन सत्फलों से, पूज शिवफल पाइये।।श्री.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध अक्षत आदि ले भर अर्घ्य कंचन थाल में।
जिन पाद पूजूँ फिर कभी, निंह फसूँ भ्रम के जाल में।।श्री.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
प्रासुक मिष्ट सुगंध जल, क्षीरोदधि सम श्वेत।
जिनपद धारा मैं करूं, तिहुंजग शांती हेत ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पारिजात के पुष्प ले, श्री जिनचरण सरोज।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले निजातम सौख्य।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य
—सोरठा—
जंबूद्वीप महान् ताके मध्य सुमेरु के ।
नंदन वन जिनधाम पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।१।।
इति सुदर्शनमेरुनंदनवनस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—रोला छंद—
मेरु सुदर्शन विषे, सुभग नंदन वन जानो।
सुरनरगण से पूज्य, पूर्वदिक् जिन गृह मानो।।
जल गंधादि मिलाय, अर्घ्य ले पूजो भाई ।
रोग शोक मिट जाय मिले निज संपति आई।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनस्थितपूर्वदिग्जिनालयस्थसर्वजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदन वन के मांहि जिनालय दक्षिण दिश हैं।
नित्य महोत्सव साज, देवगण पूजन रत हैं।।
जल गंधादि मिलाय, अर्घ्य ले पूजो भाई ।
रोग शोक मिट जाय मिले निज संपति आई।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनस्थितदक्षिणदिग्जिनालयस्थ सर्वजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम दिश जिननिलय, मनोहर नंदनवन में।
सुर विद्याधर रहें सतत भक्तीरत जिन में ।।
जल गंधादि मिलाय, अर्घ्य ले पूजो भाई ।
रोग शोक मिट जाय मिले निज संपति आई।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनस्थितपश्चिमदिग्जिनालयस्थ-सर्वजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नन्दनवन के उत्तर जिन मंदिर सुखकारी।
उसमें जिनवर बिंब, दुरितहर मंगलकारी।।
जल गंधादि मिलाय, अर्घ्य ले पूजो भाई ।
रोग शोक मिट जाय मिले निज संपति आई।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनस्थितउत्तरदिग्जिनालयस्थ सर्वजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य-दोहा
मेरु सुदर्शन में दिपे, नंदन वन सुखकार।
पूजूं अर्घ्य चढ़ाय के, तिनके जिनगृह चार।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिनन्दनवनस्थितचतुर्जिनालयस्थसर्वजिन-बिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुदर्शनमेरु सौमनसवन जिनालय पूजा
अथ स्थापना—अडिल्ल छंद
सुरगिरि में वन तृतिय सौमनस शुभ कहा।
ताके चहुंदिश चार जिनालय हैं महा।।
रत्नमयी जिनबिंब उन्हीं में अघ हरें।
आह्वानन कर पूजें हम शिवतिय वरें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं ।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
अथ अष्टकं-द्रुतविलम्बित छंद
सुरनदी जल निर्मल लाइया, भवहरण जिनपाद चढ़ाइया।
सुरगिरी के वन सौमनस में, जिन निकेतन पूजें नित नमें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरभि कुंकुम चंदन लाइके, पद सरोरुह आप चढ़ाय के।
सुरगिरी के वन सौमनस में, जिन निकेतन पूजें नित नमें।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
कमल निष्तुष तंदुल लायके, अमृत पिंड समान चढ़ाय के।
सुरगिरी के वन सौमनस में, जिन निकेतन पूजें नित नमें।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमन की माला सुरभित लिये, सुमनसा मनहर तुम अर्पिये।
सुरगिरी के वन सौमनस में, जिन निकेतन पूजें नित नमें।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतमयी पकवान चढ़ाइये, निज क्षुधामय रोग मिटाइये।
सुरगिरी के वन सौमनस में, जिन निकेतन पूजें नित नमें।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल तामस नाशन दीप ये, पद जजत त्रयलोक विलोकिये।
सुरगिरी के वन सौमनस में, जिन निकेतन पूजें नित नमें।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगरु कृष्णागरु वर धूप ले, अगनि में खेते सब अघ जले।
सुरगिरी के वन सौमनस में, जिन निकेतन पूजें नित नमें।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस आम्र अनार भले भले, तुम जजत ही शिवफल को फलें।
सुरगिरी के वन सौमनस में, जिन निकेतन पूजें नित नमें।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल सुचंदन अक्षत आदि से, करत अर्घ्य छुटें जगजाल से।
सुरगिरी के वन सौमनस में, जिन निकेतन पूजें नित नमें।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
प्रासुक मिष्ट सुगन्ध जल, क्षीरोदधि समश्वेत।
जिनपद धारा मैं करूँ, तिहुँ जग शांती हेत ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पारिजात के पुष्प ले, श्री जिनचरण सरोज।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले निजातम सौख्य।।१।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य—सोरठा
कल्पवृक्षसम जान, सुरुगिरि का सौमनस वन।
ताके चउ जिनधाम, पुष्पांजलि कर मैं जजूँ।।१।।
इति सुदर्शनमेरुसौमनसवनस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
—दोहा—
वन सौमनस महान है, मेरु सुदर्शन माहिं।
पूरब दिश में जिनभवन, पूजूँ अर्घ्य चढ़ाहिं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वन सौमनस जिनेश गृह, दक्षिण दिशा मंझार।
वसु विाfध अर्घ्य संजोय के, पूजो हो भव पार ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम दिश सौमनस के, स्वर्णमयी जिनधाम।
भक्तिभाव से अर्घ्य ले, पूजो जिनवर धाम।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तरदिश सौमनस में, श्री जिनभवन महान्।
त्रिभुवनतिलक प्रसिद्ध है, जजूूं अर्घ्य ले आन ।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितउत्तरदिग्जिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—
सुरगिरि का सौमनस वन, दिशदिश में जिनगेह।
पूरण अर्घ्य चढ़ाय के, जजूँ हृदय धर नेह।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिसौमनसवनस्थितचतुर्जिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य परिपुष्पांजलि:।
सुदर्शनमेरु पाण्डुकवन जिनालय पूजा
अथ स्थापना—दोहा
सुरगिरि पर पांडुकवनी, दिश दिश जिनगृह चार।
स्थापन कर पूजहूँ, जिनप्रतिमा सुखकार।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिपांडुकवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं ।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिपांडुकवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिपांडुकवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
अथाष्टक-अडिल्ल छंद
देवसरित को नीर तीर्थ सम लाइये।
पापपंक क्षालन हित नाथ चढ़ाइये।।
कनकदेह सुरपर्वत, वन पांडुक तहां।
कर्मपंक क्षालन हित सुर पूजें वहाँ ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिपांडुकवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर हरिचंदन घिस लिया।
भव दावानल शांतिहेतु, प्रभु चर्चिया।।कनकदेह.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिपांडुकवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
साठीं चावल चन्द्रकिरण सम धो लिये।
अमृत पिंड समान पुंज तुम ढिंग किये।।कनकदेह.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिपांडुकवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पारिजात मंदार कुंद मचकुंद ले।
मधुकर चुंबित जजूँ पाद पंकज भले।।कनकदेह.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिपांडुकवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत शक्करमय घेवर फेनी ले घने।
तुम नैवेद्य चढ़ाय क्षुधा डाकिन हने।।कनकदेह.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिपांडुकवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हेमपात्र में घृत कर्पूर जलाइये।
दीपक से जिनपूज अज्ञान नशाइये ।।कनकदेह.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिपांडुकवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अलि गुंजे चहुँ ओर धूप की गंध तें।
कर्म भगे चहुं ओर पूज पदपद्म तें।।
कनकदेह सुरपर्वत, वन पांडुक तहां।
कर्मपंक क्षालन हित सुर पूजें वहाँ ।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिपांडुकवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रमुक१ संतरा सेव आम्र फल लाइये।
जिनपद पंकज पूज, मुक्तिफल पाइये।।कनकदेह.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिपांडुकवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधाक्षत सुम चरु आदिक अर्घ्य ले।
जिनपद पंकज पूज सकल संपत्ति मिले ।।कनकदेह.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिपांडुकवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
प्रासुक मिष्ट सुगंध जल, क्षीरोदधि समश्वेत।
जिनपद धारा मैं करूँ, तिहुंजग शांती हेत ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पारिजात के पुष्प ले, श्री जिनचरण सरोज।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले निजातम सौख्य।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य-सोरठा
पांडुकवन जिनगेह सुरतरु सुमन चढ़ायके।
पूजूँ धर वर नेह, फेर न भव वन में भ्रमूँ।।१।।
इति श्रीसुदर्शनमेरुपांडुकवनस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—शंभु छन्द—
मेरू पर चौथा पांडुकवन, उसके पूरब दिश सुन्दर हैं।
रत्नों की मूर्ती से संयुत, मणिकनकमयी जिनमंदिर हैं।।
जल गंधादिक वसु द्रव्य लिये, नित पूजा करके अर्घ्यं करूँ।
संसार जलधि से तिरने को, जिन भक्ती नौका प्राप्त करुँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपांडुकवनपूर्वदिक्जिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पांडुकवन में दक्षिण दिश का, जिनभवन अनूपम कहलाता।
जो दर्शन वंदन करते हैं, उसको यह अनुपम फलदाता।।
जल गंधादिक वसु द्रव्य लिये, नित पूजा करके अर्घ्यं करूँ।
संसार जलधि से तिरने को, जिन भक्ती नौका प्राप्त करुँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपांडुकवनदक्षिणदिक्जिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पांडुकवन के पश्चिम दिश में, जिन चैत्यालय महिमाशाली।
सुरनर विद्याधर से पूजित, सब ताप हरे गुणमणिमाली।।
जल गंधादिक वसु द्रव्य लिये, नित पूजा करके अर्घ्य करूँ।
संसार जलधि से तिरने को, जिन भक्ती नौका प्राप्त करुँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपांडुकवनपश्चिमदिक्जिनालयस्थजिनबिंबेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पांडुकवन के उत्तर दिश में, शुभ त्रिभुवनतिलक जिनालय है।
नामोच्चारण से पाप दहे, भक्तों के लिये सुखालय है।।
जल गंधादिक वसु द्रव्य लिये, नित पूजा करके अर्घ्यं करूँ।
संसार जलधि से तिरने को, जिन भक्ती नौका प्राप्त करुँ।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपांडुकवनउत्तरदिक्जिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—
श्रीमेरुसुदर्शन पांडुकवन, दिशदिश में जिनमंदिर शोभें।
सब पंचवरणमय रत्नों के, अकृत्रिम भूकायिक शोभें।।
जल गंधादिक वसु द्रव्य लिये, नित पूजा करके अर्घ्यं करूँ।
संसार जलधि से तिरने को, जिन भक्ती नौका प्राप्त करुँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
मेरु सुदर्शन के सभी, सोलह जिनवर धाम।
वसुविध अर्घ्य संजोय के, मैं पूजूँ इत ठाम।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि
जाप्य—(108 बार (पुष्पों से))
ॐ ह्रीं अर्हं शाश्वतजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जयमाला
—दोहा—
सर्वोत्तम सर्वोच्च है, प्रथम मेरु गिरिराज।
उसकी यह जयमालिका, हर्षित गाऊँ आज ।।१।।
—शम्भु छन्द—
जय मेरु सुदर्शन है अनुपम, सोलह चैत्यालय से सोहे।
अध्यात्म शिरोमणि योगीजन, उनका भी अतिशय मन मोहे।।
उपवन वापी से कूटों से, परकोटों से सुर भवनों से।
मंडित रमणीक महासुन्दर, कांचन मणिमय शुभ रत्नों से।।२।।
पृथ्वी पर भद्रसाल वन है, चंपक तरु आदिक से भाता।
है पांच शतक योजन ऊपर, नन्दनवन अतिशय सुखदाता।।
इससे साढ़े बासठ हजार, योजन ऊपर सौमनस वनी।
छत्तीस हजार महायोजन, ऊपर पांडुकवन सौख्य घनी।।३।।
चारों वन के चारों दिश में, अकृत्रिम चैत्यालय मानो।
प्रतिमंदिर इक सौ आठ कही, जिनप्रतिमा अतिशययुत जानो।।
इनके दर्शन से घोर महा, मिथ्यात्व तिमिर भी नश जाता।
सम्यग्दर्शन की ज्योति जगे, आत्मा आत्मा को लख पाता।।४।।
भव भव से संचित पाप राशि, इक क्षण में भस्म हुआ करती।
जिनराज चरण की भक्ती ही, भवि के भव-भव दु:ख को हरती ।।
पांडुकवन की विदिशाओं में, पांडुक आदिक हैं चार शिला।
तीर्थंकर के अभिषव जल से, वे पूज्य हुईं सुरवंद्य इला।।५।।
जय भद्रसाल के जिनमंदिर, जय नंदनवन के जिनगेहा।
जय सौमनसं पांडुकवन के, जिनभवन जजूँ मैं धर नेहा।।
ये मूर्ति अचेतन होकर भी, चेतन को वांछित फल देतीं।
जो पूजें ध्यावें भक्ति करें, उनके सब संकट हर लेतीं।।६।।
—दोहा—
मेरुसुदर्शन की भविक, पूजा करो पुनीत।
मेरु सदृश उत्तुंग फल, लहो शीघ्र ही मीत ।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—गीता छंद—
जो भक्ति श्रद्धा भाव से यह ‘इन्द्रध्वज’ पूजा करें।
नव निद्धि रिद्धि समृद्धि पा देवेन्द्र सुख पावें खरे।।
नित भोग मंगल सौख्य जग में, फेर शिवललना वरें।
जहं अंत नाहीं ‘‘ज्ञानमति’’ आनंद सुख झरना झरें।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
Previous post
02 . समुच्चय पूजन
Next post
04 सुदर्शनमेरु संबंधी चार गजदंत जिनालय पूजा
error:
Content is protected !!