भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्ति, कुंथु, अर, सुभौम, महापद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त क्रम से ये बारह चक्रवर्ती सब तीर्थंकरों की प्रत्यक्ष एवं परोक्ष वन्दना में आसक्त और अत्यन्त गाढ़ भक्ति से परिपूर्ण थे। भरत चक्रवर्ती ऋषभेश्वर के समक्ष, सगरचक्री अजितेश्वर के समक्ष तथा मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्री धर्मनाथ और शान्तिनाथ के अन्तराल में हुए हैं। शान्तिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ ये तीन चक्री होते हुए तीर्थंकर भी थे। सुभौम चक्री अरनाथ और मल्लिनाथ भगवान के अन्तराल में, पद्मचक्री मल्लि और मुनिसुव्रत के अन्तराल में, हरिषेण चक्री मुनिसुव्रत और नमिनाथ के अन्तराल में, जयसेन चक्री नमि और नेमिनाथ के अन्तराल में तथा ब्रह्मदत चक्री नेमि और पार्श्वनाथ के अन्तराल में हुए हैं।
पूर्व जन्म में किये गये तप के बल से भरत आदि की आयुधशालाओं में भुवन को विस्मित करने वाला ‘चक्ररत्न’ उत्पन्न होता है तब अतिशय हर्ष को प्राप्त चक्रवर्ती जिनेन्द्र भगवान की पूजा करके विजय के निमित्त पूर्व दिशा में प्रयाण करते हैं। क्रम से दक्षिण भरतक्षेत्र के दो खण्डों को सिद्ध करके पुन: उत्तर भरतक्षेत्र में सम्पूर्ण भूमिगोचरी और विद्याधरों को वश में कर लेते हैं।
ये चक्रवर्ती वृषभगिरि पर्वत पर अपना नाम लिखने के लिए विजय प्रशस्तियों से सर्वत्र व्याप्त उस वृषभाचल को देखकर और अपने नाम को लिखने के लिए तिलमात्र भी स्थान न पाकर विजय के अभिमान से रहित होकर चिन्तायुक्त खड़े रह जाते हैं, तब मंत्रियों और देवों के अनुरोध से एक स्थान के किसी चक्रवर्ती का नाम अपने दण्डरत्न से नष्ट करके अपना नाम अंकित करते हैं। इस प्रकार ये सभी चक्रवर्ती सम्पूर्ण षट्खण्ड को जीतकर अपने नगर में प्रवेश करते हैं।
प्रत्येक चक्री उत्तम संहनन, उत्तम संस्थान से युक्त सुवर्ण वर्ण वाले होते हैं। उनके छ्यानवे हजार रानियाँ होती हैं-इनमें ३२००० आर्यखण्ड की कन्याएँ, ३२००० विद्याधर कन्याएँ और ३२००० म्लेच्छ खण्ड की कन्याएँ होती हैं। प्रत्येक चक्रियों के संख्यात हजार पुत्र-पुत्रियाँ, ३२००० गणबद्ध राजा, ३६० अंगरक्षक, ३६० रसोइये, ३५०००००० (साढ़े तीन करोड़) बंधुवर्ग, ३००००००० गायें, १००००००० थालियाँ, ८४००००० भद्र हाथी, ८४००००० रथ, १८००००००० घोड़े, ८४००००००० उत्तर वीर, ८८००० म्लेच्छ राजा, अनेकों करोड़ विद्याधर, ३२००० मुकुटबद्ध राजा, ३२००० नाट्यशालाएँ, ३२००० संगीतशालाएँ और ४८००००००० पदातिगण होते हैं।
सभी चक्रवर्तियों में से प्रत्येक के ९६००००००० ग्राम, ७५००० नगर, १६००० खेट, २४००० कर्वट, ४००० मटंब, ४८००० पत्तन, ९९००० द्रोणमुख, १४००० संवाहन, ५६ अन्तर्द्वीप, ७०० कुक्षि निवास, २८००० दुर्गादि होते हैं एवं चौदह रत्न, नवनिधि और दशांग भोग होते हैं।
चौदह रत्न-गज, अश्व, गृहपति, स्थपति, सेनापति, पट्टरानी और पुरोहित ये सात जीवरत्न हैं। छत्र, असि, दण्ड, चक्र, कांकिणी, चिन्तामणि और चर्म ये सात रत्न निर्जीव होते हैं। चक्रवर्तियों के चामरों को बत्तीस यक्ष ढोरते हैं।
नवनिधि-काल, महाकाल, पांडु, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिङ्गल और नाना रत्न ये नवनिधियाँ श्रीपुर में उत्पन्न हुआ करती हैं। इन नव निधियों में से प्रत्येक क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्य, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, हर्म्य, आभरण और रत्नसमूहों को दिया करती हैं।
चक्रवर्तियों के २४ दक्षिण मुखावर्त धवल व उत्तम शंख, एक कोड़ाकोड़ी १०००००००००००००० हल होते हैं। रमणीय भेरी और पट बारह-बारह होते हैं, जिनका शब्द बारह योजनप्रमाण देश में सुना जाता है।
दशांग भोग-दिव्यपुर, रत्न, निधि, सैन्य, भाजन, भोजन, शय्या, आसन, वाहन और नाट्य ये उन चक्रवर्तियों के दशांग भोग कहे जाते हैं।
भरत चक्रवर्ती प्रथम चक्रवर्ती थे और भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे, उन्हीं के नाम से यह भरतभूमि ‘भारत’ कहलाती है। इन्होंने दीक्षा लेते ही अन्तर्मुहूर्त मात्रकाल में केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया था। इनका जीवनवृत्त महापुराण और भरतेशवैभव में देखिए। इनके भाई कामदेव पदधारक बाहुबली से इनका मानभंग, विजयभंग हुआ है, इसे हुण्डावसर्पिणी काल का दोष बताया है।
भगवान ऋषभदेव की यशस्वती रानी से भरत महाराज का जन्म हुआ था। भगवान ने दीक्षा के लिए जाते समय भरत को साम्राज्य पद पर प्रतिष्ठित किया था। एक समय राज्यलक्ष्मी से युक्त राजर्षि भरत को एक ही साथ तीन समाचार मालूम हुए थे-पूज्य पिता को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, अन्त:पुर में पुत्र का जन्म हुआ है और आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ है। क्षणभर में भरत ने मन में सोचा कि केवलज्ञान का उत्पन्न होना धर्म का फल है, चक्र का प्रकट होना अर्थ का फल है और पुत्र का उत्पन्न होना काम का फल है अत: भरत महाराज ने सबसे पहले समवसरण में जाकर भगवान की पूजा की, उपदेश सुना, तदनन्तर चक्ररत्न की पूजा करके पुत्र का जन्मोत्सव मनाया।
अनन्तर भरत महाराज ने दिग्विजय के लिए प्रस्थान कर दिया। चक्ररत्न सेना के आगे-आगे चलता था। सम्पूर्ण षट्खण्ड पृथ्वी को जीत लेने के बाद वापस आते समय वैâलाश पर्वत को समीप देखकर सेना को वहाँ ठहराकर स्वयं समवसरण में जाकर राजा भरत ने विधिवत् भगवान की पूजा की और वहाँ से आकर सेना सहित अयोध्या के समीप आ गये।
उस समय भरत महाराज का चक्ररत्न नगर के गोपुर द्वार को उल्लंघन कर आगे नहीं जा सका, तब चक्ररत्न की रक्षा करने वाले कितने ही देवगण्ा चक्र को एक स्थान पर खड़ा हुआ देखकर आश्चर्य को प्राप्त हुए। भरत महाराज भी सोचने लगे कि समस्त दिशाओं को विजय करने में जो चक्र कहीं नहीं रुका, आज मेरे घर के आँगन में क्यों रुक रहा है?
इस प्रकार से बुद्धिमान भरत ने पुरोहित से प्रश्न किया। उसके उत्तर में पुरोहित ने निवेदन किया कि हे देव! आपने यद्यपि बाहर के लोगों को जीत लिया है तथापि आपके घर के लोग आज भी आपके अनुकूल नहीं हैं, वे आपको नमस्कार न करके आपके विरुद्ध खड़े हुए हैं। इस बात को सुनकर भरत ने हृदय में बहुत कुछ विचार किया। अनन्तर मंत्रियों से सलाह करके कुशल दूत को सबसे पहले अपने निन्यानवे भाइयों के पास भेज दिया।
वे भाई दूत से सब समाचार विदित करके विरक्तमना भगवान ऋषभदेव के समवसरण में जाकर दीक्षित हो गये। अनन्तर भरत ने मन में दुःख का अनुभव करते हुए चक्र के अभ्यन्तर प्रवेश न करने से विचार-विमर्शपूर्वक एक दूत को युवा बाहुबली भाई के पास भेजा। दूत के समाचार से बाहुबली ने कहा कि ‘‘मैं भरत को भाई के नाते नमस्कार कर सकता हूँ किन्तु राजाधिराज कहकर उन्हें नमस्कार नहीं कर सकता, पूज्य पिता की दी हुई पृथ्वी का मैं पालन कर रहा हूँ, इसमें उनसे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है’’, इत्यादि समाचारों से बाहुबली ने यह बात स्पष्ट कर दी कि यदि वे मुझसे जबरदस्ती नमस्कार कराना चाहते हैं तो युद्ध भूमि में ही अपनी-अपनी शक्ति का परिचय दे देना चाहिए। इस वातावरण से महाराज भरत सोचने लगे, अहो! जिन्हें हमने बालकपन से ही स्वतंत्रतापूर्वक खिला-पिलाकर बड़ा किया है, ऐसे अन्य कुमार यदि मेरे विरुद्ध आचरण करने वाले हों तो खुशी से हों परन्तु बाहुबली तरुण, बुद्धिमान, परिपाटी को जानने वाला, विनयी, चतुर और सज्जन होकर भी मेरे विषय में विकार को कैसे प्राप्त हो गया? इस प्रकार छह प्रकार की सेना सामग्री से सम्पन्न हुए महाराज भरतेश्वर ने अपने छोटे भाई को जीतने की इच्छा से अनेक राजाओं के साथ प्रस्थान किया।
दोनों तरफ की सेना के प्रवाह को देखकर दोनों ओर के मुख्य-मुख्य मंत्री विचार कर इस प्रकार कहने लगे कि क्रूर ग्रहों के समान इन दोनों का युद्ध शान्ति के लिए नहीं है क्योंकि ये दोनों ही चरमशरीरी हैं, इनकी कुछ भी क्षति नहीं होगी, केवल इनके युद्ध के बहाने से दोनों ही पक्ष के लोगों का क्षय होगा, इस प्रकार निश्चय कर तथा भारी मनुष्यों के संहार से डरकर मंत्रियों ने दोनों की आज्ञा लेकर धर्मयुद्ध करने की घोषणा कर दी अर्थात् इन दोनों के बीच जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुयुद्ध में जो विजय प्राप्त करेगा, वही विजयलक्ष्मी का स्वयं स्वीकार किया हुआ पति होगा।
मनुष्यों से एवं असंख्य देवों से भूमण्डल और आकाशमण्डल के व्याप्त हो जाने पर इन दोनों का दृष्टियुद्ध प्रारंभ हुआ किन्तु बाहुबली ने टिमकार रहित दृष्टि से भरत को जीत लिया, जलयुद्ध में भी बाहुबली ने भरत के मुँह पर अत्यधिक जल डालकर आकुल करके जीत लिया क्योंकि भरत की ऊँचाई पाँच सौ धनुष और बाहुबली की पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण थी। मल्लयुद्ध में भी बाहुबली ने भरत को जीतकर उठाकर अपने कंधे पर बिठा लिया। दोनों पक्ष के राजाओं के बीच ऐसा अपमान देख भरत ने क्रोध से अपने चक्ररत्न का स्मरण किया और उसे बाहुबली पर चला दिया परन्तु उनके अवध्य होने से वह चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर तेजरहित हो उन्हीं के पास ठहर गया। उस समय बड़े-बड़े राजाओं ने चक्रवर्ती को धिक्कार दिया और दुःख के साथ कहा कि ‘बस-बस’ यह साहस रहने दो, बंद करो, यह सुनकर चक्रवर्ती और भी अधिक संताप को प्राप्त हुए। आपने खूब पराक्रम दिखाया, ऐसा कहकर बाहुबली ने भरत को उच्चासन पर बैठाया।
इस घटना से बाहुबली उसी समय विरक्त हो गये और संसार, शरीर, वैभव आदि की क्षणभंगुरता का विचार करते हुए बड़े भाई भरत से अपने अपराध की क्षमा कराकर तपोवन को जाने लगे, तब भरत भी अत्यधिक दुःखी होकर बाहुबली को समझाने और रोकने लगे। बाहुबली अपने वैराग्य को अचल करके तपोवन को चले गये और दीक्षा लेकर एक वर्ष का योग धारण कर लिया। एक वर्ष की ध्यानावस्था में सर्पों ने चरणों के आश्रय वामीरन्ध्र बना लिये, पक्षियों ने घोंसले बना लिये और लताएँ ऊपर तक चढ़कर बाहुबली के शरीर को ढँकने लगीं किन्तु योग चक्रवर्ती बाहुबली भगवान योग में लीन थे।
इधर भरत महाराज का चक्रवर्ती पट्ट पर महासाम्राज्य अभिषेक हुआ। दीक्षा लेते समय बाहुबली ने एक वर्ष का उपवास किया था, जिस दिन उनका वह उपवास पूर्ण हुआ उसी दिन भरत ने आकर उनकी पूजा की और पूजा करते ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। ‘‘वह भरतेश्वर मुझ से संक्लेश को प्राप्त हुआ है अर्थात् मेरे निमित्त से उसे दु:ख पहुँचा है, यह विचार बाहुबली के हृदय में विद्यमान रहता था, इसलिए भरत के पूजा करते ही बाहुबली का हृदय विकल्परहित हो गया और उसी समय उन्हें केवलज्ञान प्रकट हो गया। भरतेश्वर ने बहुत ही विशेषता से बाहुबली की पूजा की। केवलज्ञान प्रकट होने के पहले जो भरत ने पूजा की थी, वह अपना अपराध नष्ट करने के लिए ही थी और अनन्तर की पूजा केवलज्ञान के महोत्सव की थी। उस समय देव कारीगरों ने बाहुबली भगवान की गंधकुटी बनाई थी। समस्त पदार्थों को जानने वाले बाहुबली अपने वचनरूपी अमृत के द्वारा समस्त संसार को संतुष्ट करते हुए पूज्य पिता भगवान ऋषभदेव के सामीप्य से पवित्र हुए वैâलाशपर्वत पर जा पहुँचे।
ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति-
किसी समय भरत सोचते हैं कि मैं जिनेन्द्रदेव का महामह यज्ञ कर धन वितरण करता हुआ समस्त संसार को संतुष्ट करूँ, सदा निःस्पृह रहने वाले मुनि तो हमसे धन लेते नहीं परन्तु ऐसा गृहस्थ भी कौन है जो धन-धान्य आदि सम्पत्ति के द्वारा पूजा करने योग्य है ? जो अणुव्रतों में मुख्य है, श्रावकों में श्रेष्ठ है उसे दान देना उचित है। ऐसा सोचकर भरत ने योग्य व्यक्तियों की परीक्षा करने की इच्छा से समस्त राजाओं को बुलाया और घर के आँगन में हरे-भरे अंकुर, पुष्प और फल खूब डलवा दिये। उन लोगों में जो अव्रती थे वे बिना कुछ सोच-विचार के राजमंदिर में चले आये। राजा भरत ने उन्हें एक ओर हटाकर बाकी बचे हुए लोगों को बुलाया। पाप से डरने वाले कितने लोग तो वापस चले गये और कितने लोग वापस लौटने लगे परन्तु चक्रवर्ती के विशेष आग्रह से जब कुछ लोग दूसरे प्रासुक मार्ग से ले जाये गये तब प्रश्न करने पर उन्होंने कहा-महाराज! आज पर्व के दिन कोंपल, हरे पत्ते तथा पुष्प आदि का विघात नहीं किया जाता, हे देव! हरे अंकुर आदि में अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं ऐसे सर्वज्ञदेव के वचन हैं। इस उत्तर से भरत महाराज बहुत प्रभावित हुए और व्रतों में दृढ़ रहने वाले उन सबकी प्रशंसा कर उन्हें दान, मान आदि से सम्मानित कर पद्म नामक निधि से प्राप्त हुए एक से लेकर ग्यारह तक की संख्या वाले ब्रह्मसूत्र नाम के व्रतसूत्र से उन सबके चिन्ह किये। भरत ने इन्हें उपासकाध्ययनांग से इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश दिया। त्रेपन गर्भान्वय क्रियाएँ, अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाएँ और सात कर्त्रन्वय क्रियाएँ भी बतलाईं। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और नीच वृत्ति का आश्रय लेने से शूद्र कहलाते हैं।
भरत के सोलह स्वप्न-
कुछ काल बीत जाने के बाद एक दिन चक्रवर्ती भरत ने अद्भुत फल दिखाने वाले कुछ स्वप्न देखे। उनके देखने से खेदखिन्न हो भरत ने यह समझ लिया कि इनका फल कटु है और ये पंचमकाल में फल देने वाले होंगे। इस प्रकार विचार कर भरत ने भगवान के समवसरण में जाकर पूजा-भक्ति आदि करके भगवान से प्रार्थना की-हे भगवन्! मैंने सिंह, सिंह के बालक आदि सोलह स्वप्न देखे हैं, उनका फल क्या है ? और मैंने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की है, वह योग्य है या अयोग्य ? कृपया हमारे संशय को दूर कीजिए। यद्यपि अवधिज्ञान से भरत ने इन स्वप्नों का फल जान लिया था, फिर भी सभी को विशेष जानकारी होने के लिए भगवान से सुनना चाहते थे। भरत का प्रश्न समाप्त होने पर जगद्गुरु भगवान अपनी दिव्यध्वनि से सभा को संतुष्ट करने लगे। हे भरतराज! सुनो!
(१) तुमने जो ‘पृथ्वी पर अकेले विहार कर पर्वत की चोटी पर चढ़ते हुई तेईस सिंह देखे हैं’ उसका फल यह है कि महावीर स्वामी को छोड़कर शेष तीर्थंकरों के समय दुष्ट नयों की उत्पत्ति नहीं होगी।
(२) ‘अकेले सिंह के पीछे हिरणों के बच्चे’ देखने से महावीर के तीर्थ में परिग्रही कुलिंगी बहुत हो जावेंगे।
(३) ‘बड़े हाथी के बोझ को घोड़े पर लदा’ देखने से पंचम काल के साधु तपश्चरण के समस्त गुणों को धारण करने में समर्थ नहीं होंगे।
(४) ‘सूखे पत्ते खाने वाले बकरों को देखने’ से आगामी काल में मनुष्य दुराचारी हो जावेंगे।
(५) ‘गजेन्द्र के कंधे पर चढ़े हुए वानरों’ को देखने से आगे चलकर क्षत्रियवंश नष्ट हो जावेंगे, नीच कुल वाले पृथ्वी का पालन करेंगे।
(६) ‘कौवों के द्वारा उलूक को त्रास दिया जाना’ देखने से मनुष्य धर्म की इच्छा से जैन मुनियों को छोड़कर अन्य साधुओं के पास जावेंगे।
(७) ‘नाचते हुए बहुत से भूतों के देखने से’ लोग व्यंतरों को देव समझकर उनकी उपासना करने लगेंगे।
(८) ‘मध्य भाग में शुष्क और चारों तरफ से पानी से भरे हुए तालाब’ के देखने से धर्म मध्य भागों से हटकर यत्र-तत्र रह जावेगा।
(९) ‘धूल से मलिन हुए रत्नों की राशि के देखने से’ पंचमकाल में ऋद्धिधारी उत्तम मुनि नहीं होंगे।
(१०) ‘कुत्ते को नैवेद्य खाते हुए’ देखने से व्रत रहित ब्राह्मण गुणी पात्रों के समान आदर पावेंगे।
(११) ‘ऊँचे स्वर से शब्द करते हुए तरुण बैल का विहार’ देखने से पंचमकाल में अधिकतर लोग तरुण अवस्था में मुनिपद को धारण करेंगे।
(१२) ‘परिमण्डल से घिरे हुए चन्द्रमा’ के देखने से पंचमकाल के मुनियों में अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान नहीं होगा।
(१३) ‘परस्पर मिलकर जाते हुए दो बैलों के’ देखने से पंचमकाल में मुनिजन साथ-साथ रहेंगे, अकेले विहार करने वाले नहीं होंगे।
(१४) ‘मेघों के आवरण में रुके हुए सूर्य’ के देखने से प्राय: पंचमकाल में केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय नहीं होता है।
(१५) ‘सूखे वृक्ष के देखने से’ स्त्री-पुरुषों का चारित्र भ्रष्ट हो जायेगा।
(१६) ‘जीर्ण पत्तों के देखने से’ महा औषधियों का रस नष्ट हो जावेगा।
हे भरत! इन स्वप्नों को तुम बहुत समय बाद का फल देने वाला समझो तथा जो तुमने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की है, सो आज तो ठीक है किन्तु ये भी पंचमकाल में जाति के मद से युक्त होकर प्राय: धर्मद्रोही हो जावेंगे, फिर भी अब जिनकी सृष्टि की है उन्हें नष्ट करना ठीक नहीं है।
भगवान के उपर्युक्त वचन काे सुनकर भरत महाराज अपना संशय दूर करके ऋषभदेव को बार-बार प्रणाम करके वहाँ से लौटे। खोटे स्वप्नों से होने वाले अनिष्ट की शांति के लिए जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक और उत्तम पात्र को दान देना आदि पुण्य कार्य किये।
बहुत काल तक साम्राज्य सुख का अनुभव करते हुए महाराज भरत ने किसी समय दर्पण में मुख देखते हुए एक श्वेत केश देखा और तत्क्षण भोगों से विरक्त हो गये। अपने पुत्र अर्ककीर्ति को राज्यपद देकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली, उन्हें उसी समय मन:पर्ययज्ञान प्रकट हो गया और उसके बाद ही केवलज्ञान प्रकट हो गया। ये भरतकेवली अब देवाधिदेव भगवान हो गये और इन्द्रों द्वारा वन्दनीय गंधकुटी में विराजमान हो गये। बहुत काल तक भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते हुए अन्त में शेष कर्मों का नाश करके मुक्तिधाम को प्राप्त हो गये।
द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ के तीर्थ में सगर चक्रवर्ती हुए हैं, इनके पूर्व भवों को सुनाते हैं-जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्सकावती देश है-विदेह क्षेत्र है। वहाँ के राजा जयसेन की जयसेना रानी के रतिषेण और धृतिषेण दो पुत्र थे। किसी समय रतिषेण पुत्र की मृत्यु से राजा जयसेन बहुत ही दु:खी हुए। अनंतर अनेक उपायों से संबोधन को प्राप्त कर धृतिषेण पुत्र को राज्य देकर अपने साले महारूत के साथ तथा और भी अनेक राजाओं के साथ यशोधर महामुनि के समीप जैनेश्वरी दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे।
जयसेन मुनि आयु के अंत में संन्यास से मरण कर अच्युत स्वर्ग में ‘महाबल’ नाम के देव हो गये। महारूत मुनि भी उसी स्वर्ग में ‘मणिकेतु’ नाम के देव हो गए। दोनों ने परस्पर में प्रीति से प्रतिज्ञा की कि-‘‘हम दोनों में से जो पहले पृथ्वी पर अवतीर्ण होगा तो दूसरा देव उसे संबोधन देकर दीक्षा ग्रहण करा देगा।’’
कालांतर में बाईस सागर की आयु पूर्ण कर ‘महाबल देव’ वहाँ से च्युत होकर अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशी राजा समुद्रविजय की रानी सुबाला के ‘सगर’ नाम के पुत्र हुए। इनकी आयु सत्तर लाख पूर्व की थी, शरीर चार सौ धनुष ऊँचा था और स्वर्णिम कांति थी। इनके अठारह लाख पूर्व कुमारकाल में तथा इतने ही वर्ष महामण्डलेश्वर के पद में रहे हैं। पुन: इनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हो गया जिससे इन्होंने भरत चक्रवर्ती के समान छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर पुन: अयोध्या जाकर एकछत्र शासन किया है। इनके साठ हजार पुत्र थे अर्थात् चक्रवर्ती के ९६ हजार रानियाँ होती हैं अत: इन रानियों से ६० हजार पुत्र थे।
किसी समय सिद्धिवन में श्रीचतुर्मुख महामुनि को केवलज्ञान प्रगट हो गया। उनके केवलज्ञान कल्याणोत्सव में मणिकेतु देव आया था। वह अपने अवधिज्ञान से सगरचक्रवर्ती को अपना मित्र जानकर देवपद में की गई प्रतिज्ञा को स्मरण कर राजाधिराज चक्रवर्ती को अनेक प्रकार से वैराग्य के लिए समझाने लगा किन्तु चक्रवर्ती ने सब कुछ सुनते हुए समझकर भी हंसकर टाल दिया। तब देव वापस अपने स्वर्ग चला गया पुन: उसने किसी समय चारणऋद्धिधारी मुनि का रूप बनाकर चक्रवर्ती के चैत्यालय में पहुँचकर चक्रवर्ती को नाना प्रकार के प्रश्नोत्तरों से समझाने का प्रयास किया, यद्यपि चक्रवर्ती भयभीत हुआ किन्तु दीक्षा लेने के भाव उनके नहीं हुए चूँकि वह पुत्रों के मोह में बहुत ही फंसा हुआ था। शास्त्रों में तो पुत्रों को सांकल की उपमा दी है। यथा-
इत्युक्त: संसृतेर्भूपो, वेपमानोऽपि नापतत्।
पंथानं निर्वृतेर्बद्ध:, पुत्रशृंखलया दृढ़म्।।९४।।
मणिकेतु देव वापस अपने स्थान चला गया।
किसी समय चक्रवर्ती के पुत्र राज्यसभा में आकर निवेदन करते हैं कि हमें कोई कार्य सौंपिए। राजा ने कहा कि सभी कार्य परिपूर्ण हो चुके हैं आदि। पुन: किसी दिन पुत्रों ने आकर कहा-
हे पूज्य पिता! यदि आप मुझे कोई कार्य नहीं बताएँगे, तो हम भोजन नहीं करेंगे। तब राजा चिंता में पड़ गए पुन: कुछ सोचकर बोले-हे पुत्रों! सुनो, भरतचक्रवर्ती ने वैâलाशपर्वत पर तीर्थंकर भगवन्तों के महारत्नों के मंदिर बनवाए हैं। तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गंगा नदी को पहुँचाकर पर्वत की परिखा बना दो। इस आज्ञा को शिरोधार्य कर पुत्रों ने दण्डरत्न लेकर वैसा ही करना प्रारंभ कर दिया। जैसा कि कहा है-
राज्ञाप्यज्ञापिता यूयं, वैâलाशे भरतेशिना।
गृहा: कृता महारत्नै-श्चतुर्विंशतिरर्हताम्।।१०७।।
तेषां गंगां प्रकुर्वीध्वं, परिखां परितो गिरिम्।
इति तेऽपि तथा कुर्वन्, दण्डरत्नेन सत्त्वरम्।।१०८।।
उस समय मणिकेतु देव अच्छा अवसर समझकर पुन: उपाय सोचने लगा और वहाँ स्वर्ग से आकर उसने उन पुत्रों को सब तरफ से भयंकर नाग का रूप धरकर मूर्च्छित कर दिया वे सभी प्राय: मृतक के समान ही हो गए। सभी मंत्रियों ने देखा कि सभी पुत्र तो मर गए हैं। राजा को यह समाचार वैâसे सुनाया जावे, चूँकि चक्रवर्ती तो पुत्रों के मोह में बंधे हुए हैं अत: वे इस समाचार से कदाचित् मृत्यु को न प्राप्त हो जाएँ, इस भय से उन्होंने राजा को कोई समाचार नहीं पहुुँचाया।
तदनंतर मणिकेतु देव एक ब्राह्मण का रूप रखकर चक्रवर्ती के पास पहुँचकर अपने पुत्र के वियोग में रोते हुए बोला-हे भूमंडल के नाथ! चक्रवर्तिन्! मेरे पुत्र को यमराज से वापस दिला दो………आदि कहने लगा। तब चक्री ने कहा-
हे द्विजराज! क्या आप नहीं जानते कि सिद्ध भगवान के सिवाय संसार में कोई भी यमराज को जीत नहीं सकता है। इत्यादि रूप से चक्रवर्ती उस ब्राह्मण को समझाते हुए बोले-हे बुद्धिमन्! तुम यमराज को जीतने के लिए दीक्षा ग्रहण करो। तब मणिकेतु देव ने ब्राह्मण वेष में कहा-
हे देव! यदि यही सच है तो मैं भी जो कहूँगा, सो आप भयभीत मत होइए। आपके सभी पुत्र, जो वैâलाशपर्वत के चारों ओर खाई खोद रहे थे, उन्हें यमराज ने उठा लिया है इसलिए अब आप भी यमराज को जीतने के लिए दीक्षा स्वीकार कीजिए।
इतना सुनते ही चक्रवर्ती सगर मूर्च्छित हो गए। अनेक उपचारों से सचेत हुए, तब वैराग्य भावना का चिंतवन करते हुए उन्होंने अपने पौत्र ‘भगीरथ’ का राज्याभिषेक करके ‘दृढ़धर्मा भगवान केवली’ के पादमूल में पहुँचकर दीक्षा धारण कर ली। उसी क्षण मणिकेतु देव ने उन साठ हजार पुत्रों के पास पहुँचकर उन्हें सचेत करके उनको पिता के शोक व दीक्षा का समाचार सुना दिया। देव के वचन सुनकर राजपुत्रों ने भी विरक्तमना होकर जिनेन्द्र भगवान के चरण सान्निध्य में दीक्षा धारण कर ली। अनंतर मणिकेतु देव चक्रवर्ती व सभी पुत्रों के पास, जो कि महामुनि के रूप में विराजमान थे, उन्हें नमस्कार करके अपने सारे मायामयी उपायों को बताकर क्षमायाचना करने लगा। तब इन मुनियों ने कहा कि आपने तो हमारा बहुत बड़ा उपकार किया है, आप हमारे सच्चे मित्र हैं।
इन सभी मुनियों ने अनेक वर्षों तक घोरातिघोर तपश्चरण करके केवलज्ञान प्राप्त किया है पुन: सम्मेदशिखर पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया है। अपने पितामह-चक्रवर्ती और सभी उनके पुत्रों को तथा अपने पिता को निर्वाण प्राप्त सुनकर राजा भगीरथ भी परम वैराग्य को प्राप्त हुए। तब उन्होंने अपने पुत्र वरदत्त को राज्यभार सौंपकर वैâलाशपर्वत पर जाकर शिवगुप्त महामुनि से जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और नानाविध तपश्चरण करते हुए गंगा नदी के तट पर प्रतिमायोग धारणकर ध्यान में स्थित हो गए। उनके तपश्चरण व विशेष ध्यान के प्रभाव से इन्द्र ने आकर क्षीरसागर के जल से भगीरथ महामुनि के चरणों का अभिषेक किया। उस अभिषेक के जल का प्रवाह गंगा नदी में जाकर मिल गया, तभी से गंगा नदी भी तीर्थपने को प्राप्त हो गई और उसका ‘भागीरथी’ यह नाम प्रसिद्ध हो गया है।
वहीं पर इन भागीरथ महामुनि ने केवलज्ञान प्राप्त किया है पुन: वहीं से गंगा नदी के तट से निर्वाण को प्राप्त किया है।
ऐसे सगरचक्री सिद्ध भगवान, उनके साठ हजार पुत्र एवं भगीरथ पोते सिद्धालय में विराजमान हैं, वे सदा जयवंत होवें, उन सबको हमारा कोटि-कोटि नमस्कार है।
यहाँ श्री गौतम स्वामी कहते हैं-हे श्रेणिक! संसार में इस लोक तथा परलोक में मित्र के समान हित करने वाला दूसरा कोई नहीं है। न मित्र से बढ़कर कोई भाई है। जो बात गुरु अथवा माता-पिता से भी नहीं कही जाती, ऐसी गुप्त से गुप्त बात मित्र से कही जाती है, मित्र अपने प्राणों की परवाह न करके कठिन से कठिन कार्य सिद्ध कर देता है। मणिकेतु देव ही इसके विषय में एक स्पष्ट उदाहरण हैं इसलिए आप सभी को भी ऐसे ही मित्र बनाना चाहिए।
यद्यपि मणिकेतु देव ने मायाचारी से ऐसा अप्रिय कार्य करके सगर चक्रवर्ती को विरक्त करने का उपाय किया था तथापि आचार्यश्री गुणभद्रदेव इसे अच्छा ही कह रहे हैं।
वचन चार प्रकार के होते हैं–(१) कुछ वचन तो हित और प्रिय दोनों होते हैं। (२) कुछ हित और अप्रिय होते हैं। (३) कुछ प्रिय होकर भी अहितकर होते हैं। (४) और कुछ अहित और अप्रिय होते हैं। इन चार प्रकार के वचनों में से अंत के तीसरे व चौथे प्रकार के वचनों को छोड़कर शेष-प्रथम और द्वितीय इन दो प्रकार के वचनों से हित का उपदेश दिया जा सकता है। यहाँ मणिकेतु देव के वचन अथवा उपाय हितकर थे और अप्रिय थे अर्थात् अप्रिय होकर भी उनका उपाय हितकारी था अत: उन्हें मायाचारी का दोष नहीं लगा था।
पद्मपुराण में लिखा है कि भगवान अजितनाथ के पिता ‘जितशत्रु’ महाराजा थे, उनके छोटे भाई विजयसागर की रानी सुमंगला से सगर चक्रवर्ती जन्मे हैं पुन: इन्हीं चक्रवर्ती सगर ने भगवान अजितनाथ के समवसरण में दीक्षा ली है और केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया है।
पद्मपुराण में चक्रवर्ती के इन साठ हजार पुत्रों का पूर्व भव पढ़ने योग्य है। यथा-भगवान अजितनाथ ने दिव्यध्वनि से कहा-
एक बार चतुर्विध संघ सम्मेदशिखर की वंदना के लिए जा रहा था, सो मार्ग में वह अन्तिक नामक ग्राम में पहुँचा। संघ में दिगम्बर मुनियों को देखकर उस ग्राम के सब लोग कुवचन कहते हुए संघ की हंसी करने लगे परन्तु उस ग्राम में एक कुंभकार था, उसने गाँव के सब लोगों को मना कर संघ की स्तुति की। किसी समय उस ग्राम में रहने वाले एक मनुष्य ने चोरी की थी, सो अविवेकी राजा ने सोचा कि यह गाँव ही बहुत अपराध करता है इसलिए घेरा डालकर सारा का सारा गाँव जला दिया। जिस दिन वह गाँव जलाया गया था, उस दिन मध्यस्थ परिणामों का धारक वह कुंभकार निमंत्रित होकर कहीं बाहर गया था अत: वही एक बच गया था। कालांतर में जब कुंभकार मरा तो वह भारी धनपति वैश्य हो गया और गाँव के सब लोग मरकर कौड़ी हुए थे, तो उस वैश्य ने उन कौड़ियों को खरीद दिया। तदनंतर कुंभकार का जीव मरकर राजा हुआ और गाँव के-कौड़ी के जीव मरकर गिजाई हुए, सो राजा के हाथी के पैर के नीचे मरकर वे सब गिजाइयाें के जीव संसार में भ्रमण करते रहे। कुंभकार के जीव राजा ने मुनि होकर मरणकर देवपद प्राप्त किया और वहाँ से च्युत होकर सगर चक्रवर्ती के पुत्र जन्हु का पुत्र भगीरथ हुआ था तथा गाँव के जो सभी लोग एक साथ मरे थे, वे क्रम से कौड़ी, गिजाई आदि पर्यायों में भ्रमण कर कुछ पुण्ययोग से सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्र हुए हैं।
मुनिनिंदा के पाप से गाँव के सभी लोग एक साथ मरकर नाना दु:खों को प्राप्त करते रहे थे पुन: पुण्ययोग से चक्रवर्ती के पुत्र हुए और कुंभकार ने मुनि की स्तुति के प्रभाव से वैश्य, राजा तथा देव होकर अंत में मोक्ष को प्राप्त किया है अत: मुनियों की निंदा का त्याग कर उनकी स्तुति करके अपने जीवन को सुखी व परलोक को सुखी बनाते हुए परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
श्री धर्मनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में मघवा चक्रवर्ती हुए हैं, ये तृतीय चक्रवर्ती थे। इनके पूर्व भव का वर्णन इस प्रकार है-
श्री वासुपूज्य भगवान के तीर्थकाल में ‘नरपति’ नाम के राजा ने राज्य, भोगों से विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। घोरातिघोर तप करके मध्यम ग्रैवेयक में अहमिंद्र हो गए। वहाँ की सत्ताईस सागर की आयु में दिव्य सुखों का अनुभव कर अंत में वहाँ से च्युत होकर अयोध्यापुरी के इक्ष्वाकुवंशी महाराजा सुमित्र की भद्रा रानी से ‘मघवा’ नाम के पुत्र हुए। इनकी पाँच लाख वर्ष की आयु थी, साढ़े चालीस धनुष ऊँचा शरीर था। इनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हो गया, तब इन्होंने दिग्विजय करके छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर सार्वभौम एकछत्र शासन किया। एक समय मनोहर उद्यान में ‘‘श्री अभयघोष’’ केवली का आगमन हुआ। उनकी गंधकुटी में पहुँचकर भक्तिपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर वन्दना, स्तुति, भक्ति, पूजा करके चक्रवर्ती ने केवली भगवान का दिव्य उपदेश सुना, पुन: विरक्तमना होकर अपने पुत्र प्रियमित्र को राज्य देकर स्वयं जैनेश्वरी दीक्षा ले ली।
निर्दोष संयम का पालन करते हुए अंत में शुक्लध्यान से घातिया कर्मों का नाशकर दिव्य केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। गंधकुटी की रचना देवों के द्वारा की गई। बहुत काल तक श्रीविहार कर चक्रवर्ती केवली भगवान ने असंख्य भव्यों को धर्मामृत पान से तृप्त किया। अनंतर चतुर्थ शुक्लध्यान से सम्पूर्ण अघातिया कर्मों का नाशकर निर्वाणधाम को प्राप्त किया है। ऐसे ये मघवा चक्रवर्ती अनंत-अनंतकाल तक सिद्धशिला के ऊपर विराजमान रहेंगे। इनके श्रीचरणों में मेरा कोटि-कोटि वंदन है।
कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में कुरुवंश की परम्परा में चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार हुए जो रूपपाश से खिंचकर आये हुए देवों द्वारा संबोधित हो दीक्षित हो गये थे। आराधना कथाकोश में इनका जीवनवृत्त इस प्रकार है-
ये सनत्कुमार चक्रवर्ती सम्यग्दृष्टियों में प्रधान थे। उन्होंने छह खण्ड पृथ्वी अपने वश में कर ली थी। नवनिधि, चौदह रत्न, चौरासी लाख हाथी, इतने ही रथ, अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी करोड़ शूरवीर, छ्यानवे करोड़ ग्राम, छ्यानवे हजार रानियाँ इत्यादि विशाल वैभव था। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा चक्रवर्ती की आज्ञा शिरसा धारण करते थे। ये चक्रवर्ती कामदेव पद के धारक भी थे।
एक दिन सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने अपनी सभा में मनुष्यों के रूप की प्रशंसा करते हुए सनत्कुमार के रूप को सबसे उत्कृष्ट कहा। उस समय कौतुकवश परीक्षा करने के लिए मणिचूल और रत्नचूल नाम के दो देव यहाँ भूमण्डल पर आये। गुप्तवेष से स्नानागार में राजा के रूप को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए। अनन्तर द्वारपाल से कहा कि चक्रवर्ती को कहो कि स्वर्ग से दो देव आपके रूप को देखने के लिए आये हैं। चक्रवर्ती ने स्नान करके वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो सिंहासन पर आरूढ़ होकर उन देवों को आने को कहा। उस समय वे देव सभा में आकर बोले-महाराज! स्नान के समय जो आपका रूप था, वह अब नहीं रहा। ऐसा सुनकर सभी सभासदों को बहुत ही आश्चर्य हुआ।
देवों ने एक घड़े में जल भर दिया और एक बिन्दु जल निकाल दिया फिर सभा से पूछा कि क्या जल कम हो गया है ? उत्तर में सबने कहा-जल ज्यों की त्यों भरा है। बस! देवों ने कहा-ऐसे ही राजा के रूप में जो अन्तर हुआ है वह तुम्हें पता नहीं चल रहा है। इस घटना से चक्रवर्ती संसार के विषय भोगों से विरक्त हो गये। अपने पुत्र सुकुमार को राज्य देकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और घोरातिघोर तपश्चरण करने लगे। पराधीन प्रकृति, विरुद्ध आहार आदि के निमित्त से और असाता कर्म के तीव्रोदय से मुनिराज सनत्कुमार के शरीर में भयंकर रोग उत्पन्न हो गये किन्तु वे मुनि शरीर से निर्मम होने से उसकी उपेक्षा करके अपनी आवश्यक क्रियाओं में सावधान थे और कठिन से कठिन तप कर रहे थे।
पुन: किसी समय सौधर्म स्वर्ग की इन्द्रसभा में मुनियों के चारित्र की प्रशंसा करते हुए इन्द्र ने सनत्कुमार मुनि की प्रशंसा की। उस समय मदनकेतु नाम का देव उनकी परीक्षा के लिए यहाँ आया। वैद्य का वेष बनाकर वन में साधु के पास गया। मुनिराज ने कहा-भाई! मुझे सबसे ब़ड़ा रोग है यदि तुम उसकी दवाई कर सको तो ठीक है। वैद्य ने पूछा-वह क्या है ? मुनिराज ने कहा-वह रोग है ‘जन्म लेना’ यदि इस रोग की दवाई तुम्हारे पास है तो दे दो। वैद्य वेषधारी देव ने कहा-इस रोग को तो मैं कुछ नहीं समझता हूँ। उस समय मुनिराज ने अपनी तप शक्ति से उत्पन्न हुई ऋद्धियों के बल से क्षणमात्र में अपने एक हाथ का कुष्ठ रोग नष्ट करके उस वैद्य को बता दिया और कहा कि जब शरीर मेरा नहीं है, तब मैं इसकी चिंता क्यों करूँ ? इसलिए मैं निस्पृह हूँ। यह चमत्कार देखकर वैद्य ने अपने रूप को प्रगट कर मुनि की अनेक स्तुतियों से स्तुति करते हुए पूजा की और कहा-हे नाथ! जन्म-मरण को दूर करने वाली औषधि तो आपके पास ही है और आप स्वयं इसका सेवन कर भी रहे हैं तथा हम जैसे संसारी दीन प्राणी भी आप जैसे महापुरुषों की शरण में आकर इस रोग का नाश कर सकते हैं।
इस प्रकार मुनि का माहात्म्य प्रगट कर वह देव स्वर्ग चला गया।
इधर मुनिराज सनत्कुमार उपसर्ग एवं परीषहों को सहन करने में समर्थ अपने चारित्र को वृद्धिंगत करते हुए घातिया कर्मों का नाशकर केवली हो गये और बहुत काल तक पृथ्वी पर विहार कर अघातिया कर्मों का भी नाशकर शाश्वत सुखमय सिद्धपद को प्राप्त हो गये।
इन चक्रवर्ती की कुल आयु तीन लाख वर्ष की थी। उसमें पचास हजार वर्ष कुमार काल में, पचास हजार वर्ष मांडलिक अवस्था में, दस हजार वर्ष दिग्विजय में, नब्बे हजार वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य के उपभोग में और एक लाख वर्ष संयमी मुनि अवस्था में व्यतीत हुए हैं।
ये चक्रवर्ती पन्द्रहवें धर्मनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में हुए हैं। आज लोक के अग्रभाग में विराजमान सिद्ध परमात्मा हैं, उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कार होवे।
कुरुजांगल देश की हस्तिनापुर राजधानी में कुरुवंशी राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ऐरावती था। भगवान शांतिनाथ के गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही इन्द्र की आज्ञा से हस्तिनापुर नगर में माता के आंगन में रत्नों की वर्षा होने लगी और श्री, ह्री, धृति आदि देवियाँ माता की सेवा में तत्पर हो गईं। भादों वदी सप्तमी के दिन भरणी नक्षत्र में रानी ने गर्भ धारण किया। उस समय स्वर्ग से देवों ने आकर तीर्थंकर महापुरुष का गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया और माता-पिता की पूजा की।
नव मास व्यतीत होने के बाद रानी ऐरादेवी ने ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन प्रात:काल के समय तीन लोक के नाथ ऐसे पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसी समय चार प्रकार के देवों के यहाँ स्वयं ही बिना बजाये शंखनाद, भेरीनाद, सिंहनाद और घण्टानाद होने लगे। सौधर्मेन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर इन्द्राणी और असंख्य देवगणों सहित नगर में आया तथा भगवान को सुमेरुपर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव मनाया। अभिषेक के अनन्तर भगवान को अनेकों वस्त्रालंकारों से विभूषित करके उनका ‘‘शांतिनाथ’’ यह नाम रखा। इस प्रकार भगवान को हस्तिनापुर वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर पुनरपि यहाँ जन्मकल्याणक महोत्सव मनाकर आनंद नामक नाटक करके अपने-अपने स्थान पर चले गये।
भगवान की आयु एक लाख वर्ष की थी, शरीर चालीस धनुष ऊँचा था, सुवर्ण के समान कांति थी, ध्वजा, तोरण, शंख, चक्र आदि एक हजार आठ शुभ चिन्ह उनके शरीर में थे। उन्हीं विश्वसेन की यशस्वती रानी के चक्रायुध नाम का एक पुत्र हुआ। देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए भगवान शांतिनाथ अपने छोटे भाई चक्रायुध के साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे। भगवान की यौवन अवस्था आने पर उनके पिता ने कुल, रूप, अवस्था, शील, कांति आदि से विभूषित अनेक कन्याओं के साथ उनका विवाह कर दिया।
इस तरह भगवान के जब कुमारकाल के पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो गये तब महाराज विश्वसेन ने उन्हें अपना राज्य समर्पण कर दिया। क्रम से उत्तमोत्तम भोगों का अनुभव करते हुए जब भगवान के पच्चीस हजार वर्ष और व्यतीत हो गये, तब उनकी आयुधशाला में चक्रवर्ती के वैभव को प्रगट करने वाला चक्ररत्न उत्पन्न हो गया। इस प्रकार चक्र को आदि लेकर चौदह रत्न और नवनिधियाँ प्रगट हो गईं। इन चौदह रत्नों में चक्र, छत्र, तलवार और दण्ड ये आयुधशाला में उत्पन्न हुए थे, काकिणी, चर्म और चूड़ामणि श्रीगृह में प्रकट हुए थे, पुरोहित, सेनापति, स्थपति और गृहपति हस्तिनापुर में मिले थे और स्त्री, गज तथा अश्व विजयार्ध पर्वत पर प्राप्त हुए थे। नौ निधियाँ भी पुण्य से प्रेरित हुए इन्द्रों के द्वारा नदी और सागर के समागम पर लाकर दी गई थीं।
चक्ररत्न के प्रकट होने के बाद भगवान ने विधिवत् दिग्विजय करके छह खण्ड को जीतकर इस भरतक्षेत्र में एकछत्र शासन किया था। जहाँ पर स्वयं भगवान शांतिनाथ इस पृथ्वी पर प्रजा का पालन करने वाले थे, वहाँ के सुख और सौभाग्य का क्या वर्णन किया जा सकता है ? इस प्रकार चक्रवर्ती के साम्राज्य में भगवान की छ्यानवे हजार रानियाँ थीं। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनकी सेवा करते थे और बत्तीस यक्ष हमेशा चमरों को ढुराया करते थे। चक्रवर्तियों के साढ़े तीन करोड़ बंधुकुल होता है। अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी, तीन करोड़ उत्तम वीर, अनेकों करोड़ विद्याधर और अठासी हजार म्लेच्छ राजा होते हैं। छ्यानवे करोड़ ग्राम, पचहत्तर हजार नगर, सोलह हजार खेट, चौबीस हजार कर्वट, चार हजार मटंब और अड़तालीस हजार पत्तन होते हैं इत्यादि अनेकों वैभव होते हैं।
ये शांतिनाथ भगवान तीर्थंकर होने से बारहवें भव पूर्व राजा श्रीषेण थे और मुनि को आहारदान देने के प्रभाव से भोगभूमि में गये थे, फिर देव हुए, फिर विद्याधर हुए, फिर देव हुए, फिर बलभद्र हुए, फिर देव हुए, फिर वङ्काायुध चक्रवर्ती हुए, उस भव में इन्होंने दीक्षा ली थी और एक वर्ष का योग धारण कर खड़े हो गये थे, तब इनके शरीर पर लताएँ चढ़ गई थीं, सर्पों ने वामी बना ली थी, पक्षियों ने घोंसले बना लिये थे और ये वङ्काायुध मुनिराज ध्यान में लीन रहे थे, अनन्तर अहमिन्द्र हुए, फिर मेघरथ राजा हुए, उस भव में इन्होंने दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करते हुए सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन किया था और उसके प्रभाव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया था, फिर वहाँ से सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए, फिर वहाँ से आकर जगत को शांति प्रदान करने वाले सोलहवें तीर्थंकर, बारहवें कामदेव और पंचम चक्रवर्ती ऐसे शांतिनाथ भगवान हुए।
उत्तरपुराण में श्री गुणभद्र स्वामी कहते हैं कि इस संसार में अन्य लोगों की बात जाने दीजिए, श्री शांतिनाथ जिनेन्द्र को छोड़कर भगवान तीर्थंकरों में ऐसा कौन है जिसने पूर्व के बारह भवों में से प्रत्येक भव में बहुत भारी वृद्धि प्राप्त की हो ? इसलिए हे विद्वान् लोगों! यदि तुम शांति चाहते हो तो सबसे उत्तम और सबका भला करने वाले श्री शांतिनाथ जिनेन्द्र का निरन्तर ध्यान करते रहो। यही कारण है कि आज भी भव्यजीव शांति की प्राप्ति के लिए श्री शांतिनाथ भगवान की आराधना करते हैं।
पुष्पदंत तीर्थंकर से लेकर सात तीर्थंकरों तक उनके तीर्थकाल में धर्म की व्युच्छित्ति हुई अत: धर्मनाथ तीर्थंकर के बाद पौन पल्य कम तीन सागर तक धर्म की परम्परा अव्युच्छिन्न रूप से चलती रही। अनन्तर पाव पल्यकाल तक इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में धर्म का विच्छेद हो गया अर्थात् हुण्डावसर्पिणी के दोष से उस पाव पल्य प्रमाणकाल तक दीक्षा लेने वालों का अभाव हो जाने से धर्मरूपी सूर्य अस्त हो गया था, उस समय शांतिनाथ ने जन्म लिया था। तब से आज तक धर्मपरम्परा अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है इसलिए उत्तरपुराण में श्रीगुणभद्र स्वामी कहते हैं कि-
‘‘भोगभूमि आदि कारणों से नष्ट हुआ मोक्षमार्ग यद्यपि ऋषभनाथ आदि तीर्थंकरों के द्वारा पुन:-पुन: दिखलाया गया था तो भी उसे प्रसिद्ध अवधि के अन्त तक ले जाने में कोई भी समर्थ नहीं हो सका, तदनन्तर जो शांतिनाथ भगवान ने मोक्षमार्ग प्रगट किया वही आज तक अखण्ड रूप से बाधारहित चला आ रहा है इसलिए इस युग के आद्यगुरु श्री शांतिनाथ भगवान ही हैं क्योंकि उनके पहले जो पन्द्रह तीर्थंकरों ने मोक्षमार्ग चलाया था, वह बीच-बीच में विनष्ट होता जाता था।’’
इस प्रकार से इस हस्तिनापुर नगरी में भगवान शांतिनाथ के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ऐसे चार कल्याणक हुए हैं।
कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में कुरुवंशी महाराज सूरसेन राज्य करते थे, उनकी पट्टरानी का नाम श्रीकांता था। उस पतिव्रता देवी ने देवों के द्वारा की हुई रत्नवृष्टि आदि पूजा प्राप्त की थी। श्रावण कृष्णा दशमी के दिन रानी ने सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया, उस समय इन्द्रों ने आकर भगवान का गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया और माता-पिता की पूजा करके स्वस्थान को चले गये। क्रम से नव मास व्यतीत हो जाने पर वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन पुत्ररत्न का जन्म हुआ, उसी समय इन्द्रादि सभी देवगण आये और बालक को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर महामहिमाशाली जन्माभिषेक महोत्सव करके अलंकारों से अलंकृत किया एवं बालक का नाम ‘‘कुंथुनाथ’’ रखा। वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर देवगण स्वस्थान को चले गये। पंचानवे हजार वर्ष की इनकी आयु थी, पैंतीस धनुष ऊँचा शरीर था और तपाये हुए स्वर्ण के समान शरीर की कांति थी। ये तेरहवें कामदेव एवं छठे चक्रवर्ती पद के धारक थे।
तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष कुमारकाल के बीत जाने पर उन्हें राज्य प्राप्त हुआ और इतना ही काल बीत जाने पर उन्हें वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन चक्रवर्ती की लक्ष्मी मिली। इस प्रकार वे बाधारहित, निरन्तर दश प्रकार के भोगों का उपभोग करते थे, सारा वैभव शांतिनाथ भगवान के समान ही था। चक्रवर्ती पद के साम्राज्य का उपभोग करते हुए भगवान के तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष व्यतीत हो गये।
किसी समय भगवान को पूर्व भव का स्मरण हो जाने से आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया और वे भोगों से विरक्त हो गये, उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर प्रभु का स्तवन-पूजन किया। उन्होंने अपने पुत्र को राज्यभार देकर इन्द्रों द्वारा किया हुआ दीक्षाकल्याणक उत्सव प्राप्त किया। देवों द्वारा लाई गई ‘विजया’ नाम की पालकी पर सवार होकर भगवान सहेतुक वन में पहुँचे, वहाँ तेला का नियम लेकर वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन कृत्तिका नक्षत्र में तिलक वृक्ष के नीचे सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली। उसी समय प्रभु को मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया। दूसरे दिन हस्तिनापुर के धर्ममित्र राजा ने भगवान को आहारदान देकर पंचाश्चर्य को प्राप्त किया। इस प्रकार घोर तपश्चरण करते हुए प्रभु के सोलह वर्ष बीत गये।
किसी दिन भगवान तेला का नियम लेकर तप करने के लिए वन में तिलक वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। वहाँ चैत्र शुक्ला तृतीया के दिन उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उसी समय देवों ने समवसरण की रचना की और केवलज्ञान कल्याणक की पूजा की। भगवान के समवसरण में स्वयंभू को आदि लेकर पैंतीस गणधर, साठ हजार मुनिराज, साठ हजार तीन सौ पचास आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच थे। भगवान दिव्यध्वनि के द्वारा चिरकाल तक धर्मोपदेश देते हुए विहार करते रहे। भगवान का केवलीकाल तेईस हजार सात सौ चौंतीस वर्ष का था।
जब भगवान की आयु एक मास की शेष रह गई तब वे सम्मेदशिखर पर पहुँचे और प्रतिमायोग धारण कर लिया, वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन रात्रि के पूर्व भाग में समस्त कर्मों से रहित, नित्य, निरंजन सिद्धपद को प्राप्त हो गये। ये कुंथुनाथ भगवान तीर्थंकर होने के तीसरे भव पहले सिंहरथ राजा थे, मुनि अवस्था में सोलहकारण भावनाओं के प्रभाव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया, पुन: सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए, वहाँ से आकर कुंथुनाथ नाम के सत्रहवें तीर्थंकर, छठे चक्रवर्ती और तेरहवें कामदेव पद के धारक हुए हैं।
इसी हस्तिनापुर नगरी में सोमवंश में उत्पन्न हुए राजा सुदर्शन राज्य करते थे। उनकी मित्रसेना नाम की रानी थी। रानी ने फाल्गुन कृष्णा तृतीया के दिन गर्भ में अहमिन्द्र के जीव को धारण किया, उसी समय देवों ने आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया। रात्री मित्रसेना ने नव मास के बाद मगसिर शुक्ला चतुर्दशी के दिन पुष्य नक्षत्र में पुत्ररत्न को जन्म दिया। देवों ने बालक को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव करके भगवान का अरनाथ नाम रखा। भगवान की आयु चौरासी हजार वर्ष की थी, १२० हाथ ऊँचा शरीर था, सुवर्ण के समान शरीर की कांति थी।
भगवान के कुमार अवस्था के इक्कीस हजार वर्ष बीत जाने पर उन्हें मण्डलेश्वर के योग्य राज्यपद प्राप्त हुआ, इसके बाद इतना ही काल बीत जाने पर चक्रवर्ती पद प्राप्त हुआ। इस तरह भोग भोगते हुए जब आयु का तीसरा भाग बाकी रह गया, तब शरद ऋतु के मेघों का अकस्मात् विलय होना देखकर भगवान को वैराग्य हो गया। लौकांतिक देवों द्वारा स्तुत्य भगवान अपने पुत्र अरविंद कुमार को राज्य देकर देवों द्वारा उठाई हुई वैजयंती नाम की पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में पहुँचे। तेला का नियम कर मगसिर शुक्ला दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में भगवान ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। पारणा के दिन चक्रपुर नगर के अपराजित राजा ने भगवान को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया था।
जब भगवान के छद्मस्थ अवस्था के सोलह वर्ष बीत गये, तब वे कार्तिक शुक्ला दशमी के दिन आम्रवन के नीचे तेला का नियम लेकर विराजमान हुए और घातिया कर्मों का नाशकर केवली बन गये। देवों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। भगवान के समवसरण में तीस गणधर, पचास हजार मुनिराज, साठ हजार आर्यिकाएँ, एक लाख साठ हजार श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच थे। इस तरह बारह सभाओं से घिरे हुए भगवान अरनाथ ने बीस हजार नौ सौ चौरासी वर्ष केवली अवस्था में व्यतीत किए।
जब एक माह की आयु शेष रही, तब भगवान सम्मेदशिखर पर जाकर प्रतिमायोग से स्थित हो गये। चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के पूर्वभाग में सम्पूर्ण कर्मों से रहित अशरीरी होकर सिद्ध पद को प्राप्त हो गये। ये अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ सातवें चक्रवर्ती और चौदहवें कामदेव पद के भी धारक थे। तीर्थंकर होने से पूर्व तीसरे भव में ये भगवान अरनाथ धनपति नाम के राजा थे, दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया था, पुन: जयंत विमान में अहमिन्द्र हुए, वहाँ से आकर अरनाथ तीर्थंकर हुए हैं। इनका मत्स्य (मछली) का चिन्ह था।
हस्तिनापुर नगर में कौरववंशी कार्तवीर्य नाम का राजा था, उसने कामधेनु के लोभ में जमदग्नि नामक तपस्वी को मार डाला। जमदग्नि का लड़का परशुराम था। यह भी बड़ा बलवान था अत: उसने क्रुद्ध होकर पिता को मारने वाले कार्तवीर्य को मार डाला तथा अनेकों क्षत्रियों को भी मार डाला। उस समय कार्तवीर्य राजा की तारा नाम की रानी गर्भवती थी, वह गुप्तरूप से कौशिक ऋषि के आश्रम में जा पहुँची, वहाँ उसने क्षत्रियों के त्रास को नष्ट करने वाले आठवें चक्रवर्ती को जन्म दिया। चूँकि वह पुत्र भूमिगृह-तलघर में उत्पन्न हुआ था इसलिए ‘सुभौम’ इस नाम से पुकारा जाने लगा। इधर वह बालक गुप्तरूप से ऋषि के आश्रम में बढ़ रहा था, उधर परशुराम के यहाँ अशुभसूचक उत्पात होने से निमित्तज्ञानियों ने बतलाया कि तुम्हारा शत्रु उत्पन्न हो गया है। उसके जानने का उपाय यह है कि ‘‘तुम्हारे द्वारा मारे गये क्षत्रियों की दाढ़ें जिसके भोजन करते समय खीररूप में परिणत हो जायें, वही तुम्हारा शत्रु है।’’
यह सुनकर परशुराम ने शीघ्र ही एक दानशाला खुलवाई और वहीं मध्य में क्षत्रियों की दाढ़ों से भरा हुआ पात्र रखकर वहाँ विद्वान आदमी नियुक्त कर दिया। जब सुभौम को इस बात का पता लगा तब वह शीघ्र ही वहाँ पहुँचकर भोजनशाला में खाने के लिए बैठ गया। ब्राह्मण के अग्रासन पर बैठे हुए कुमार सुभौम के आगे दाढ़ों का पात्र रखा गया और उसके प्रभाव से समस्त दाढ़ें खीररूप परिणत हो गईं। यह सूचना शीघ्र ही परशुराम को दी गई और वह अपना फरसा लेकर शीघ्र उसे मारने आ गया। उस समय सुभौम के पुण्य से वह थाली चक्ररत्न बन गई। उसने उसी चक्र से शीघ्र ही परशुराम को मार गिराया। वह सुभौम चक्रवर्ती अष्टम चक्री के रूप में प्रगट हो गया। चौदह रत्न, नव निधियाँ और बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उसकी सेवा करने लगे। शठ के प्रति शठता दिखाने वाले उस चक्रवर्ती ने क्रोधयुक्त हो चक्ररत्न से इक्कीस बार पृथ्वी को ब्राह्मण रहित कर दिया। चक्रवर्ती सुभौम साठ हजार वर्ष तक जीवित रहा परन्तु तृप्ति को प्राप्त नहीं हुआ इसलिए आयु के अन्त में मरकर नरक गया।
उत्तरपुराण में सुभौम चक्रवर्ती का कथानक कुछ विशेष है, यथा-राजा सहस्रबाहु की रानी चित्रमती थी। वह चित्रमती कान्यकुब्ज देश के राजा ‘पारत’ की पुत्री थी। इनके कृतवीर (कार्तवीर्य) नाम का पुत्र हुआ। इसी से संबंधित एक कथा और है-
राजा सहस्रबाहु के काका शतबिन्दु से उनकी श्रीमती स्त्री के जमदग्नि नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। यह श्रीमती (जमदग्नि की माँ) चित्रमती के पिता राजा पारत की बहन थीं। कुमारावस्था में माँ के मर जाने से जमदग्नि तापस हो गया और पंचाग्नि तप तपने लगा।
किसी समय एक सौधर्म स्वर्ग का देव और एक ज्योतिषी देव दोनों मिले, आपस में सम्यक्त्व-मिथ्यात्व की चर्चा करने लगे। स्वर्ग के देव ने कहा कि मिथ्यात्व के कारण जीव अनंत संसार में परिभ्रमण करता है। दोनों ही चर्चा के अनन्तर एक-दूसरे के धर्म की परीक्षा के लिए वहाँ आये और जहाँ यह जमदग्नि तप कर रहा था, वहाँ चिड़ा-चिड़ी का रूप बनाकर उस साधु की दाढ़ी में रहने लगे। एक दिन चिड़ा किसी चिड़ी के विवाह में जाने लगा तब चिड़ी ने कहा कि वापस आने के लिए कुछ शपथ करके जाओ। उत्तर में चिड़ा बोला कि इस तापस की जो गति होगी, उसको छोड़कर तू चाहे जो शपथ करवा ले। बस, यह सुनते ही जमदग्नि एकदम क्रोधित हो इनको मारने लगा, तब वे दोनों उड़कर सामने के पेड़ पर जा बैठे। तब उसने इन्हें कुछ विशेष समझकर पूछा कि ‘मेरे कठिन तप से होने वाली भावी गति को तुमने क्यों नहीं पसंद किया ?’’ उत्तर में चिड़ा ने कहा-अरे! ‘अपुत्रस्य कुतो गति:’ पुत्ररहित मनुष्य की कोई गति नहीं होती, ऐसा वेदवाक्य है फिर आप बालब्रह्मचारी रहकर क्यों तप कर रहे हो ? ऐसे वचन सुनकर वह अज्ञानी तापसी विषयासक्त हो गया। आचार्य कहते हैं कि जब अनादिकाल से मनुष्य की विषयों में होने वाली बुद्धि बड़ी मुश्किल से गुरु के उपदेश से हटाई जाती है तब यदि गुरु उपदेश ही विषयों का पोषक मिल जाये, फिर क्या पूछना ?
वह तापस सीधे अपने मामा राजा पारत के पास आया और कन्या की याचना करने लगा। राजा बहुत ही दु:खी हुए फिर भी साधु के शाप दे देने के डर से उन्होंने कहा-मेरी सौ पुत्रियों में तुम्हें जो चाहे, उसे ले जाओ। उस तापस के अधजले मुरदे जैसे विरूप को देखकर सब कन्याएँ भाग गईं। तब उस तापस ने धूलि में खेलती हुई एक कन्या को केला दिखाकर कहा-क्या तू मुझे चाहेगी? उस बालिका ने ‘हाँ’ कहकर केला ले लिया। बस तापस उसे गोद में लेकर गया और उसे बड़ी कर उससे विवाह कर लिया।
उस समय लोग उसकी अज्ञानता को धिक्कारते थे। तभी से ऋषि आश्रम में पत्नी सहित रहने की कुप्रथा चल पड़ी। उन जमदग्नि और रेणुका से इन्द्र (परशुराम) और श्वेतराम ऐसे दो पुत्र उत्पन्न हुए।
कुछ दिन बाद अिंरजय नाम के एक साधु रेणुका के जो बड़े भाई थे, वे वहाँ आये। रेणुका ने उनकी बड़ी भक्ति की। भाई! ‘आपने हमें विवाह में कुछ नहीं दिया, अब कुछ दीजिए’ ऐसी याचना करने में मुनि ने ‘कामधेनु’ नाम की विद्या और मंत्र सहित फरसा ये दो चीजें दे दीं।
किसी दिन उस वन में सहस्रबाहु राजा कृतवीर के साथ आये। उनका सत्कार करके रेणुका ने ‘कामधेनु’ से उत्पन्न हुई खीर का भोजन कराया। कृतवीर ने अपनी माँ की छोटी बहन रेणुका से पूछा-ऐसा भोजन राजाओं के यहाँ दुर्लभ है सो यहाँ वन में तुम्हारे यहाँ वैâसे आया ? उत्तर में रेणुका ने मुनि द्वारा प्रसाद में प्राप्त कामधेनु विद्या बता दी। कृतघ्नी कृतवीर ने उसे मांगा। जमदग्नि के नहीं देने पर उसने उस साधु को मारकर वह कामधेनु ले ली और अपने नगर आ गये।
वन से कुश लेकर आए दोनों ऋषियों ने जब माता का रुदन और पिता का निधन देखा तब वे कुपित हो मंत्रित फरसा लेकर गये और राजा सहस्रबाहु तथा कृतवीर को मार दिया। रानी चित्रमती गर्भवती थी। उसके भाई शांडिल्य नामक तापस ने इस घटना को देख बहन को अज्ञातरूप से ले जाकर किन्हीं मुनि के समीप उसे बिठा दिया। उसके पुत्ररत्न का जन्म हुआ, तब वनदेवता ने भावी चक्रवर्ती जानकर उसके पुण्य से उस बालक की रक्षा की। रानी के प्रश्न करने पर मुनि ने कहा-हे अम्ब! यह बालक सोलहवें वर्ष में चक्रवर्ती होगा, तू भय मत कर।
तापस शांडिल्य, चित्रमती को पुत्र सहित अपने स्थान पर ले गया और सुभौम नाम रखा। इधर परशुराम, श्वेतराम दोनों ऋषिपुत्र इक्कीस बार क्षत्रियों का वंश निर्मूल करके सुख से राज्य कर रहे थे। निमित्तज्ञानी द्वारा बताने पर शत्रु का निर्णय करने के लिए दानशाला में मरे हुए क्षत्रियों के दांत (दाढ़ें) पात्र में रखा दीं। ये सुभौम वहाँ दानशाला में पहुँचे। वे दांत शालि चावल बन गये, तब परशुराम आया। उसी समय सुभौम के पुण्य से चक्ररत्न प्रगट हो गया। कुमार ने उससे ब्राह्मण को मार डाला। इस आठवें चक्रवर्ती की हजार वर्ष की आयु थी। अट्ठाईस धनुष (११२ हाथ) ऊँचा शरीर था। यह छह खण्ड का अधिपति हो गया।
किसी दिन रसोइये ने सुभौम को रसायना नाम की गरम-गरम ‘कढ़ी’ परोसी, सुभौम राजा ने गुस्से में आकर उसके ऊपर कढ़ी का बर्तन फेंक दिया, जिससे वह मरकर ज्योतिष्क देव हो गया। कुअवधि से यहाँ आकर व्यापारी के वेष में राजा को अच्छे-अच्छे फल देने लगा। रसना इन्द्रियलंपट राजा भी उसमें आसक्त हो गया, तब एक दिन यह कपट से राजा को समुद्र के मध्य में ले गया और वेष प्रगट कर बदला चुकाने के लिए मारने को उद्यत हुआ। जब तक सुभौम वहाँ ‘णमोकार’ मंत्र जपता रहा तब तक देव उसे मार नहीं सका। तब उसने कपट से कहा-राजन्! यदि आप अपने मंत्र को लिखकर मिटा देंगे (छोड़ देंगे) तब मैं आपको जीवित छोड़ दूँगा अन्यथा मार दूँगा। प्राणों के लोभ से राजा ने मंत्र की अवहेलना कर दी। बस, देव ने उसे मार दिया। वह मंत्र का अपमान करने के कारण मरकर नरक चला गया। देखो! जो मंत्र रक्षक था, राजा ने उसे ही जब छोड़ दिया तब उसकी रक्षा वैâसे होती ? इसलिए बुद्धिमानों को संकट में धर्म की ही शरण लेना चाहिए, धर्म को छोड़ना नहीं चाहिए।
अरनाथ तीर्थंकर के बाद दो सौ करोड़ वर्षों के बीत जाने पर उन्हीं के तीर्थ में ये सुभौम चक्रवर्ती हुए हैं।
उज्जयिनी नगरी में श्रीधर्मा नाम के प्रसिद्ध राजा थे, उनकी श्रीमती नाम की रानी थी। राजा के बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद ऐसे चार मंत्री थे। किसी समय सात सौ मुनियों सहित महामुनि अकंपनाचार्य उज्जयिनी के बाहर उपवन में विराजमान हुए। महामुनि की वंदना के लिए नगर के लोग उमड़ पड़े। महल पर खड़े हुए राजा ने मंत्रियों से पूछा कि ये लोग असमय में कहाँ जा रहे हैं ? उत्तर में मंत्रियों ने कहा कि राजन्! ये लोग अज्ञानी दिगम्बरों की वंदना के लिए जा रहे हैं।
श्रीधर्मा ने भी जाने की इच्छा प्रकट की, मंत्रियों के द्वारा बहुत रोकने पर भी राजा चल पड़ा, तब मंत्री भी उसके साथ हो लिए। वहाँ मुनियों की वंदना कर कुछ विवाद करने लगे। उस समय गुरु आज्ञा से सब मुनि मौन लेकर बैठे थे इसीलिए ये चारों मंत्री विवश होकर लौट आये। लौटते समय उन्होंने एक मुनि को सामने आते हुए देखकर उन्हें राजा के समक्ष छेड़ा। सब मंत्री मिथ्यामार्ग से मोहित तो थे ही अत: श्रुतसागर नामक उक्त मुनिराज ने उन्हें वाद-विवाद में जीत लिया। उस दिन रात्रि के समय उक्त मुनिराज प्रतिमायोग से उसी वाद की जगह विराजमान थे। ये सब मंत्री संघ को मारने के लिए जाते हुए मार्ग में उन मुनि को मारने के लिए उद्यत हुए परन्तु वनदेव ने उन्हें कीलित कर दिया। यह देख राजा ने उन्हें अपने देश से निकाल दिया।
उस समय हस्तिनापुर में महापद्म नामक चक्रवर्ती रहते थे। किसी समय चरमशरीरी महापद्म चक्रवर्ती किसी निमित्त से विरक्त हो गये, इनके दो पुत्र थे। राजा ने बड़े पुत्र ‘पद्म’ को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार के साथ दीक्षा धारण कर ली। तपश्चरण करते हुए मुनि विष्णुकुमार अनेक ऋद्धियों के भण्डार हो गये। इधर उज्जयिनी से निकाले गये बलि आदि चारों मंत्री राजा पद्म को प्रसन्न कर उसके मंत्री हो गये। उस समय राजा पद्म बलि मंत्री की सहायता से किले में स्थित सिंहबल राजा को पकड़ने में सफल हो गये इसलिए उन्होंने बलि से कहा कि ‘वर’ मांग कर इष्ट वस्तु को ग्रहण करो। बलि ने प्रणाम कर कहा कि ‘अभी आवश्यकता नहीं है, जब आवश्यकता होगी तब माँग लूँगा’ यह कहकर अपना वर धरोहर रूप में रख दिया। अनन्तर ये मंत्री सुखपूर्वक रहने लगे।
किसी समय धीरे-धीरे विहार करते हुए अकंपनाचार्य सात सौ मुनियों के साथ हस्तिनापुर आये और चार माह के लिए वर्षायोग धारण कर नगर के बाहर विराजमान हो गए। उस समय शंका को प्राप्त हुए ये बलि आदि भयभीत हो गये और अहंकार के साथ उन्हें हटाने का उपाय सोचने लगे। बलि ने राजा पद्म के पास आकर कहा कि राजन्! आपने जो वर दिया था उसके फलस्वरूप सात दिन का राज्य मुझे दिया जाए। ‘संभाल, तेरे लिए सात दिन का राज्य दिया’ यह कहकर राजा पद्म अपने अन्त:पुर में रहने लगे। बलि ने राज्यसिंहासन पर आरुढ़ होकर उन अकंपनाचार्य आदि मुनियों पर उपद्रव करवाया। उसने चारों तरफ से मुनियों को घेरकर उनके समीप पत्तों का धुँआ कराया तथा जूठन व कुल्हड़ आदि फिंकवाए। अकंपनाचार्य सहित सब मुनि आदि ‘उपसर्ग दूर हुआ तो आहार-विहार करेंगे, अन्यथा नहीं’ इस प्रकार सावधिक संन्यास धारण कर उपसर्ग सहित हुए कायोत्सर्ग से खड़े हो गये।
उस समय विष्णुकुमार मुनि के अवधिज्ञानी गुरु मिथिलानगरी में थे। वे अवधिज्ञान से विचारकर तथा दया से युक्त हो कहने लगे कि हा! आज अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर अभूतपूर्व दारुण उपसर्ग हो रहा है। उस समय उनके पास बैठे हुए क्षुल्लक ने पूछा-हे नाथ! कहाँ हो रहा है ? गुरु ने कहा-हस्तिनापुर में। क्षुल्लक ने कहा-हे नाथ! यह उपसर्ग किसके द्वारा दूर हो सकता है? गुरु ने कहा-जिन्हें विक्रियाऋद्धि प्राप्त हुई है ऐसे विष्णुकुमार मुनि से यह उपसर्ग दूर हो सकता है। क्षुल्लक पुष्पदंत ने उसी समय जाकर मुनि विष्णुकुमार से सब समाचार कहा। तब मुझे विक्रिया ऋद्धि है या नहीं ? इसकी परीक्षा के लिए मुनि ने अपनी भुजा पैâलाई सो वह भुजा बिना रुकावट के आगे बढ़ती ही चली गई। जिससे उन्हें ऋद्धि प्राप्ति का निश्चय हो गया। ऐसे जिनशासन के स्नेही वे विष्णुकुमार मुनि राजा पद्म के पास जाकर बोले-हे पद्मराज! राज्य पाते ही तुमने यह क्या कर रखा है, ऐसा कार्य कुरुवंशियों में तो कभी नहीं हुआ है।
राजा पद्म ने नम्रीभूत होकर कहा-हे नाथ! मैंने बलि के लिए सात दिन का राज्य दे रखा है इसलिए इस विषय में मेरा अधिकार नहीं है। हे भगवन्! आप ही इस उपसर्ग को दूर करने में समर्थ हैं।
तब महामुनि विष्णुकुमार वामन (ब्राह्मण) का रूप लेकर बलि के पास आशीर्वाद देते हुए पहुँचे और बोले- महाभाग! तू दातारों में श्रेष्ठ है इसलिए आज मुझे भी कुछ दे। उत्तर में बलि ने इच्छित वस्तु माँगने को कहा तब ब्राह्मण वेषधारी विष्णुकुमार मुनि ने कहा कि हे राजन्! मैं अपने पैर से तीन डग धरती चाहता हूँ तू यही मुझे दे दे। तब बलि ने कहा ‘यह तो बहुत थोड़ा क्षेत्र है इतना ही क्यों माँगा ? ले लो’ इतना कहकर उसने ब्राह्मण के हाथ में जलधार छोड़कर तीन पैर धरती दे दी।’’
अनन्तर वामन मुनि विष्णुकुमार ने विक्रिया ऋद्धि से अपने शरीर को इतना बड़ा बना लिया कि वह ज्योतिष्पटल को छूने लगा। उन्होंने एक पैर मेरु पर्वत पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रखा और तीसरे डग के लिए अवकाश न मिलने से वह डग आकाश में घूमता रहा। उस समय विष्णु मुनि के प्रभाव से तीनों लोकों में क्षोभ मच गया। किम्पुरुष आदिदेव ‘क्या है’? यह शब्द करने लगे। वीणा बांसुरी बजाने वाले गन्धर्व देव अपनी-अपनी देवियों के साथ उन मुनिराज के समीप मधुर गीत गाने लगे। लाल-लाल तलुवे से सहित एवं आकाश में स्वच्छन्दता से घूमता हुआ उनका पैर अत्यधिक सुशोभित हो रहा था। ‘हे विष्णो! हे प्रभो! मन के क्षोभ को दूर करो, दूर करो, आप के तप के प्रभाव से आज तीनों लोक चल-विचल हो उठे हैं।’ इस प्रकार मधुर गीतों के साथ वीणा बजाने वाले देवों, धीर-वीर विद्याधरों तथा सिद्धान्त की गाथाओं को गाने वाले एवं बहुत ऊँचे आकाश में विचरण करने वाले चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने जब उन्हें शांत किया तब वे धीरे-धीरे अपनी विक्रिया को संकोचकर स्वभावस्थ हो गये। उस समय देवों ने शीघ्र ही मुनियों का उपसर्ग दूर कर दुष्ट बलि को बाँध लिया और उसे दण्डित कर देश से निकाल दिया। उस समय किन्नर देव तीन वीणाएँ लाये थे। उसमें घोषा नाम की वीणा तो उत्तर श्रेणी में रहने वाले विद्याधरों को दी, महाघोषा वीणा सिद्धकूटवासियों को और सुघोषा नाम की वीणा दक्षिण तटवासी विद्याधरों को दी। इस प्रकार उपसर्ग दूर करने से जिनशासन के प्रति वत्सलता प्रगट करते हुए विष्णुकुमार मुनि ने सीधे गुरु के पास जाकर प्रायश्चित्त द्वारा विक्रिया की शल्य छोड़ी। स्वामी विष्णुकुमार घोर तपश्चरण कर घातिया कर्मों का क्षयकर केवली हुए और अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुए।
यह कथा हरिवंशपुराण के आधार से है। अन्यत्र बतलाया है कि उस समय उपसर्ग से पीड़ित मुनियों के गले धुएँ और अग्नि की भयंकर लपटों से पीड़ित हैं, ऐसा समझकर श्रावकों ने विवेक गुणों से उन मुनियों को खीर का आहार दिया था। उसी स्मृति में रक्षाबंधन पर्व के दिन आज भी सर्वत्र घर-घर में लोग खीर बनाते हैं और पात्र की प्रतीक्षा करते हैं। मुनियों के अभाव में श्रावक आदि पात्रों को भोजन कराकर भोजन करते हैं। धर्म तथा धर्मात्माओं के प्रति वात्सल्य करने वाले मुनि श्री विष्णुकुमार की तथा उपसर्गविजेता अकंपनाचार्य आदि मुनियों की कथा सुनते हैं और उनकी पूजा करते हैं। धर्म की रक्षा करने के लिए आपस में रक्षासूत्र बाँधते हैं। वह दिन श्रावण शुक्ला पूर्णिमा का था अत: आज तक उस दिन की स्मृति में ‘रक्षाबंधन’ पर्व मनाते हैं।
श्री विष्णुकुमार मुनि के पिता ‘महापद्म’ चक्रवर्ती श्री मल्लिनाथ भगवान के तीर्थ में हुए हैं। इनको इस पृथ्वी पर हुए आज लगभग पैंसठ लाख छियासी हजार पाँच सौ वर्ष हो गये किन्तु आज भी यह हस्तिनापुर क्षेत्र उन मुनियों की स्मृति को जीवन्त कर रहा है और भव्यजीवों को उपसर्ग सहन करने का तथा विष्णुकुमार मुनि सदृश धर्मात्माओं के प्रति वात्सल्य भाव रखने का उपदेश दे रहा है।
कांपिल्यनगर के राजा सिंहध्वज की पट्टरानी वप्रादेवी थीं। उनके हरिषेण नाम का पुत्र था। उन राजा की दूसरी रानी महालक्ष्मी थी, यह अत्यंत गर्विष्ठ थी। किसी समय आष्टान्हिक पर्व में महामहोत्सव करके महारानी वप्रा ने जिनेन्द्र भगवान का रथोत्सव कराने का निश्चय किया। तभी रानी महालक्ष्मी ने जैनरथ के विरुद्ध होकर उसे रोक दिया और ब्रह्मरथ निकलाना चाहा। तब वप्रा महारानी ने शोक से संतप्त हो अन्न-जल का त्याग कर दिया और दु:ख से व्याकुल हो रोने लगी। पुत्र हरिषेण ने माता के दु:ख को देखकर स्थिति जानकर चिंतन किया-
मैं पिता के विरोध में भी नहीं बोल सकता हूँ और न माता का दु:ख देख सकता हूँ। वह उद्विग्नमना घर से निकलकर वन में पहुँचा। वहाँ भटकते हुए अंगिरस ऋषि के शिष्य शतमन्यु के आश्रम में पहुँचा।
इसी के पूर्व की एक घटना थी-
चंपानगरी के राजा जनमेजय को एक कालकल्प राजा ने बहुत बड़ी सेना लेकर घेर लिया। जब तक राजा में युद्ध हो, बीच में ही माता नागवती अपनी पुत्री को लेकर लंबी सुरंग के मार्ग से निकलकर वन में शतमन्यु के आश्रम में पहुँच गई थी। वहाँ आश्रम में उस पुत्री ने हरिषेण को देखा तो वह उसके प्रति आसक्त हो गई। माता नागवताr ने कहा-पुत्रि! एक महामुनि ने कहा था कि तू चक्रवर्ती की स्त्रीरत्न होगी। तपस्वियों ने भी जब कन्या का हरिषेण के प्रति अनुराग जाना, उसी समय अपकीर्ति के डर से हरिषेण को आश्रम से निकाल दिया, वह शोकाकुल हुआ। इधर माता के दु:ख से तो व्याकुल था ही, कन्यारत्न के लिए और भी चिंतित हो गया।
इधर भटकते हुए हरिषेण सिंधुनद नगर में पहुँचता है। वहाँ नगर की स्त्रियाँ उसके रूप को एकटक देख रही थीं। तभी एक अंजनगिरि नाम का हाथी वहाँ उन्मत्त हो उधर आ गया। महावत जोर-जोर से चिल्ला रहा था-भागो! भागो! उस समय बहुत सी स्त्रियाँ व बालक हरिषेण के निकट आ गये और कहने लगे-बचाओ! बचाओ!
हरिषेण कुछ ही क्षणों में उस हाथी को वश में करके उस पर चढ़ गया। महल की छत से यह सब देखकर राजा सिंधु ने हरिषेण को बुलाकर सम्मानित करके अपनी सौ पुत्रियों के साथ उसका विवाह कर दिया।
इधर दूसरी एक घटना होती है कि एक विद्याधर की कन्या वेगवती रात्रि में सोते हुए हरिषेण को उठाकर ले गई अर्थात् हरिषेण का अपहरण कर लिया और पुन: उसने बताया कि-
हे भद्र! मैं सूर्योदय के राजा शक्रधनु की पुत्री जयचन्द्रा की सखी हूँ। वह कन्या आपके चित्रपट को देखकर आपमें आसक्त है अत: मैंने आपका अपहरण किया है। वहाँ सूर्योदय नगर में पहॅुँचकर हरिषेण ने देखा कि राजा शक्रधनु सामने आते हैं। परस्पर में कुशलक्षेम, वार्ता के अनंतर अपनी कन्या का विवाह करने की तैयारी करते हैं। इधर विद्याधर गंगाधर और महीधर कुपित होकर युद्ध के लिए सामने आ गए। इसलिए कि हम विद्याधरों को छोड़कर इस कन्या का विवाह एक भूमिगोचरी के साथ वैâसे संभव है ?
उसी क्षण हरिषेण श्वसुर शक्रधनु राजा से रथ आदि लेकर युद्धक्षेत्र में आ गए और अपनी कुशलता से विद्याधरों को पराजित कर दिया।
उसी समय उस हरिषेण के पुण्योदय से चक्ररत्न प्रगट हो गया और ये दशवें चक्रवर्ती के रूप में प्रसिद्ध हो गए। इनके और भी रत्न प्रगट हो गए थे। निर्विघ्न विवाह सम्पन्न होने के बाद चक्रवर्ती हरिषेण विशाल लंबी-चौड़ी सेना-बारह योजन तक पैâली हुई सेना को लेकर शत्रुओं को वश में करते हुए तापसी के आश्रम में पहुँचे। उन तापसियों ने हरिषेण को चक्रवर्ती देखकर सामने पहुँच फल आदि अर्घ्य से सम्मानित किया, तभी शतमन्यु के पुत्र जनमेजय और माता नागवती ने अपनी कन्या मदनावती का हरिषेण के साथ विवाह सम्पन्न कर दिया।
अनंतर चक्रवर्ती हरिषेण बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं के साथ अपने कांपिल्यनगर में आए, माता वप्रादेवी के चरणों में नमस्कार किया पुन: माता का आशीर्वाद प्राप्तकर सूर्य के समान तेजस्वी ऐसे बड़े-बड़े रथों में भगवन्तों की प्रतिमा विराजमान करके कांपिल्यनगर में ‘रथोत्सव’ कराकर अतिशायी धर्म की प्रभावना करके माता के मनोरथों को सफल किया।
पृथ्वी, पर्वत, नदियों के समागम स्थान, नगर तथा गाँव-गाँव में चक्रवर्ती हरिषेण ने नाना रंग के ऊँचे-ऊँचे जिनमंदिर बनवाए थे। बहुत काल तक चक्रवर्ती ने छह खण्ड का शासन करके अंत में राज्यभार छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर तपश्चरण करके तीन लोक का शिखर प्राप्त कर लिया है-सभी कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त किया है। ऐसे हरिषेण चक्रवर्ती सिद्धालय में अनंतानंत काल तक रहेंगे, उन्हें मेरा कोटि-कोटि नमस्कार होवे।
किसी समय राजा दशानन-रावण अपने दादा सुमाली के साथ विमान में बैठकर आकाशमार्ग से जा रहा था। अकस्मात् नीचे देखकर सुमाली से पूछता है-
हे पूज्य! इधर इस पर्वत के शिखर पर सरोवर तो नहीं है पर कमलों का समूह लहलहा रहा है, सो इस महाआश्चर्य को आप देखें।
हे स्वामिन्! यहाँ पृथ्वीतल पर पड़े ये रंग-बिरंगे बड़े-बड़े मेघ निश्चल होकर वैâसे खड़े हैं ?
तब सुमाली ने ‘नम: सिद्धेभ्य:’ उच्चारण करके कहा-
हे वत्स! न तो ये कमल हैं और न ये मेघ ही हैं किन्तु सफेद पताकाएँ जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिनमें हजारों प्रकार के तोरण बने हुए हैं, ऐसे-ऐसे ये जिनमंदिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं। ये सब मंदिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाए हुए हैं।
हे वत्स! तुम इन्हें नमस्कार करो और क्षण भर में अपने मन को पवित्र करो।
ऐसा सुंदर कथन पद्मपुराण में आया हुआ है। उसी गं्रथ से यह हरिषेण चक्रवर्ती का जीवन परिचय लिखा गया है। ये हरिषेण चक्रवर्ती श्री मुनिसुव्रत भगवान के तीर्थकाल में हुए हैं।
भगवान नमिनाथ के तीर्थ में जयसेन नाम के ग्यारहवें चक्रवर्ती हुए हैं। इसी जम्बूद्वीप के उत्तर में ऐरावत क्षेत्र में श्रीपुर नगर के राजा ‘वसुंधर’ राज्य संचालन कर रहे थे। किसी समय रानी पद्मावती के मरण से दु:खी हुए मनोहर नाम के वन में वरचर्य (वरधर्म) नाम के केवली भगवान की गंधकुटी में पहुँचे। धर्मोपदेश सुनकर विरक्तमना हुए अपने पुत्र विनयंधर को राज्यभार सौंपकर अनेक राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। अंत में समाधिपूर्वक मरण करके महाशुक्र स्वर्ग में देव हो गए। वहाँ पर सोलह सागर की आयु को व्यतीत कर वहाँ से च्युत होकर कौशाम्बी नगरी के इक्ष्वाकुवंशीय राजा विजय की महारानी प्रभाकरी के पुत्र हुए।
इनका नाम ‘जयसेन’ रखा, इनकी आयु तीन हजार वर्ष की थी, साठ हाथ शरीर की ऊँचाई थी, स्वर्णिम शरीर की कांति थी। ये चौदह रत्न और नव निधियों के स्वामी ग्यारहवें चक्रवर्ती हुए हैं।
किसी समय राजमहल की छत पर अपनी रानियों के साथ बैठे थे। उसी समय आकाश से गिरते हुए ‘उल्का’ को देखा। तत्क्षण ही वैराग्य भावना का चिंतवन करके अपने बड़े पुत्र को राज्य देना चाहा किन्तु उसके मना करने पर छोटे पुत्र को राज्य देकर ‘वरदत्त’ नाम के केवली भगवान के पादमूल में अनेक राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया। तपस्या के प्रभाव से श्रुत, बुद्धि, तप, विक्रिया, औषधि और चारणऋद्धि से विभूषित हो गए। अंत में सम्मेदशिखर के चरण नामक ऊँचे शिखर पर प्रायोपगमन सन्यास धारण कर आत्मा की आराधना करते हुए शरीर छोड़कर ‘जयंत’ नाम के अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हो गये। आगे ये नियम से मोक्ष प्राप्त करेंगे।
भगवान नेमिनाथ तीर्थंकर और पार्श्वनाथ तीर्थंकर के अंतराल में ये बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त हुए हैं। ये ब्रह्मराजा की महारानी चूड़ादेवी के पुत्र थे। इनके शरीर की ऊँचाई ७ धनुष एवं सात सौ वर्ष की आयु थी। इसमें इनका कुमारकाल २८ वर्ष, महामण्डलेश्वर काल ५६ वर्ष, दिग्विजयकाल १६ वर्ष, चक्रवर्ती राज्यकाल ६०० वर्ष रहा है। ये चक्रवर्तियों में अंतिम चक्रवर्ती हुए हैं। इन्होंने भी चक्ररत्न प्राप्त कर १४ रत्न एवं नव निधियों के स्वामी होकर छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर एकछत्र शासन किया है।
पुन: राज्य में ही दुर्ध्यान से मरकर सातवें नरक गए हैं। जैनशासन में यह नियम है कि जो राज्यवैभव को भोगते हुए दुर्ध्यान-आर्त अथवा रौद्रध्यान से मरते हैं, वे नरक चले जाते हैं और जो राज्य त्यागकर दीक्षा लेकर संयम धारण कर लेते हैं वे ही स्वर्ग अथवा मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रत्येक चतुर्थकाल में १२ चक्रवर्ती होते हैं। इनमें से वर्तमान के चतुर्थकाल में प्रथम चक्रवर्ती भरत, द्वितीय सगर, तृतीय मघवा, चतुर्थ सनत्कुमार, पंचम शांतिनाथ, छठे कुंथुनाथ, सातवें अरनाथ, नवमें महापद्म, दशवें हरिषेण ये मोक्ष गए हैं। आठवें सुभौम एवं बारहवें ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नरक गए हैं तथा ग्यारहवें चक्रवर्ती जयसेन जयंत नाम के तृतीय अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुए हैं।