स्वयंसिद्ध लक्ष्मीपति, महावीर भगवान्।
सर्वकर्म रिपु जीतकर, पाया पद निर्वाण।।१।।
वर्धमान, अतिवीर, प्रभु, सन्मति, वीर जिनेश।
आवो आवो सब यहाँ, पूरो आश महेश।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
गंगानदी नीर पवित्र लाया, पादाम्बुजों में प्रभु के चढ़ाया।
निर्वाण लक्ष्मीपति को जजूँ मैं, निर्वाण लक्ष्मी सुख को भजूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर चंदन घिस के सुगंधी, श्री सन्मति पाद जजूँ अनंदी।
निर्वाण लक्ष्मीपति को जजूँ मैं, निर्वाण लक्ष्मी सुख को भजूँ मैं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेंद्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ताफलों सम सित धौत अक्षत, प्रभु को चढ़ाते पद होत शाश्वत।
निर्वाण लक्ष्मीपति को जजूँ मैं, निर्वाण लक्ष्मी सुख को भजूँ मैं।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेंद्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा चमेली अरविंद लाके, कामारिजेता प्रभु को चढ़ाके।
निर्वाण लक्ष्मीपति को जजूँ मैं, निर्वाण लक्ष्मी सुख को भजूँ मैं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
फेनी पुआ घेवर मोदकादी, क्षुधरोग नाशार्थ तुम्हें चढ़ादी।
निर्वाण लक्ष्मीपति को जजूँ मैं, निर्वाण लक्ष्मी सुख को भजूँ मैं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योति तम को हरे है, तुम आरती ज्ञान उदे करे है।
निर्वाण लक्ष्मीपति को जजूँ मैं, निर्वाण लक्ष्मी सुख को भजूँ मैं।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरू धूप सुगंध खेऊँ, कर्मारि कर भस्म निजात्म सेवूँ।
निर्वाण लक्ष्मीपति को जजूँ मैं, निर्वाण लक्ष्मी सुख को भजूँ मैं।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर केला फल आम्र लाऊँ, शिव सौख्यहेतू प्रभु को चढ़ाऊँ।
निर्वाण लक्ष्मीपति को जजूँ मैं, निर्वाण लक्ष्मी सुख को भजूँ मैं।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि संयुक्त सुअर्घ्य लाऊँ, मोक्षैकहेतू तुमको चढ़ाऊँ।
निर्वाण लक्ष्मीपति को जजूँ मैं, निर्वाण लक्ष्मी सुख को भजूँ मैं।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रैलोक्य शांतीकर शांतिधारा, श्री सन्मती के पदकंज धारा।
निजस्वांत शांतीहित शांतिधारा, करते मिले है भवदधि किनारा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरकल्पतरु के वर पुष्प लाऊँ, पुष्पांजलि कर निज सौख्य पाऊँ।
संपूर्ण व्याधी भय को भगाऊँ, शोकादि हर के सब सिद्धि पाऊँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
सिद्धार्थ राजा कुण्डलपुरि में, राज्य संचालन करें।
त्रिशला महारानी प्रिया सह, पुण्य संपादन करें।।
आषाढ़ शुक्ला छठ तिथी, प्रभु गर्भ मंगल सुर करें।
हम पूजते वसु अर्घ्य ले, हर विघ्न सब मंगल भरें।।१।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लाषष्ठ्यां श्रीमहावीरजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सितचैत्र तेरस के प्रभू, अवतीर्ण भूतल पर हुए।
घंटादि बाजे बज उठे, सुरपति मुकुट भी झुक गये।।
सुरशैल पर प्रभु जन्म उत्सव, हेतु सुरगण चल पड़े।
हम पूजते वसु अर्घ्य ले, नजकर्म धूली झड़ पड़े।।२।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लात्रयोदश्यां श्रीमहावीरजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर वदी दशमी तिथी, भवभोग से निःस्पृह हुए।
लौकांतिकादी आनकर, संस्तुति करें प्रमुदित हुए।।
सुरपति प्रभू की निष्क्रमण, विधि में महा उत्सव करें।
हम पूजते वसु अर्घ्य ले, संसार सागर से तरेंं।।३।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां श्रीमहावीरजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैवल्य सूर्य उदित हुआ, प्रभु के अरी चउ नाशते।
बैशाखसित दशमीतिथी, प्रभु समवसृति में राजते।।
इंद्रादिगण वैâवल्य की, पूजा महोत्सव विधि करें।
हम पूजते वसु अर्घ्य ले, निजज्ञानकलि विकसित करें।।४।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लादशम्यां श्रीमहावीरजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक अमावस पुण्य तिथि, प्रत्यूष बेला में प्रभो।
पावापुरी उद्यान सरवर, बीच में तिष्ठे विभो।।
निर्वाण लक्ष्मी वरणकर, लोकाग्र में जाके बसे।
हम पूजते वसु अर्घ्य ले, तुम पास में आके बसें।।५।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णा-अमावस्यायां श्रीमहावीरजिननिर्वाणकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिन्मूरति चिंतामणि, चिंतित फलदातार।
तुम गुणमणिमाला कहूँ, सुखसंपति साकार।।१।।
जय जय श्री सन्मति रत्नाकर! महावीर! वीर! अतिवीर! प्रभो!
जय जय गुणसागर वर्धमान! जय त्रिशलानंदन! धीर प्रभो!।।
जय नाथवंश अवतंस नाथ! जय काश्यपगोत्र शिखामणि हो।
जय जय सिद्धार्थतनुज फिर भी, तुम त्रिभुवन के चूड़ामणि हो।।२।।
जिस वन में ध्यान धरा तुमने, उस वन की शोभा अति न्यारी।
सब ऋतु के फूल खिलें सुन्दर, सब फूल रहीं क्यारी क्यारी।।
जहँ शीतल मंद पवन चलती, जल भरे सरोवर लहरायें।
सब जात विरोधी जन्तूगण, आपस में मिलकर हरषायें।।३।।
चहुँ ओर सुभिक्ष सुखद शांती, दुर्भिक्ष रोग का नाम नहीं।
सब ऋतु के फल पूâल रहे मधुर, सब जन मन हर्ष अपार सही।।
कंचन छवि देह दिपे सुंदर, दर्शन से तृप्ति नहीं होती।
सुरपति भी नेत्र हजार करे, निरखे पर तृप्ति नहीं होती।।४।।
श्री इन्द्रभूति आदिक ग्यारह, गणधर सातों ऋद्धीयुत थे।
चौदह हजार मुनि अवधिज्ञानी, आदिक सब सात भेदयुत थे।।
चंदना प्रमुख छत्तीस सहस, संयतिकायें सुरनरनुत थीं।
श्रावक इक लाख श्राविकाएँ, त्रय लाख चतुःसंघ संख्या थी।।५।।
प्रभु सात हाथ, उत्तुंग आप, मृगपति लांछन से जग जाने।
आयू बाहत्तर वर्ष कही, तुम लोकालोक सकल जाने।।
भविजन खेती को धर्मामृत, वर्षा से सिंचित कर करके।
तुम मोक्षमार्ग अक्षुण्ण किया, यति श्रावक धर्म बता करके।।६।।
मैं भी अब आप शरण आया, करुणाकर जी करुणा कीजे।
निज आत्म सुधारस पान करा, सम्यक्त्व निधी पूर्णा कीजे।।
रत्नत्रयनिधि की पूर्ती कर, अपने ही पास बुला लीजे।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ निर्वाणश्री, साम्राज्य मुझे दिलवा दीजे।।७।।
जय जय श्रीसन्मति, मुक्ति रमापति, जय जिनगुणसंपति दाता।
तुम पूजूँ ध्याऊँ, भक्ति बढ़ाऊँ, पाऊँ निजगुण विख्याता।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
।।शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।।