श्री धर्मनाथ जिनेन्द्र धर्मामृत पिला के भव्य को।
निज आत्म का दर्शन कराया, पथ दिखाया विश्व को।।
उनके चरण की वंदना कर, भक्ति से गुण गायेंगे।
आह्वान कर पूजें यहाँ, जिनधर्म प्रीति बढ़ायेंगे।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-नाराच छंद-
हिमाद्रि गंग नीर लाय, स्वर्ण भृंग में भरूँ।
जिनेश पाद पद्म धार, देत ही तृषा हरूँ।।
जिनेन्द्र धर्मनाथ के, पदारविंद मैं नमूँ।
समस्त रोग शोक मोह, राग द्वेष को वमूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगंध अष्टगंध लेय, हर्षभाव ठानिये।
जिनेश पादपद्म चर्च, मोहताप हानिये।।जिनेन्द्र.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
कमोद जीरिका अखंड, शालि धान्य लाइये।
सुपुंज आप पास दे, अखंड सौख्य पाइये।।जिनेन्द्र.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
गुलाब कुंद पारिजात, पुष्प अंजली लिये।
जिनेश पाद पूज कामदेव को हनीजिये।।जिनेन्द्र.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमिष्ट लाडु फेनि व्यंजनादि भांति भांति के।
जिनेश पाद पूजते, भगे क्षुधा पिशाचि के।।जिनेन्द्र.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अखंड ज्योतिवान दीप, स्वर्ण पात्र में जले।
जिनेन्द्र पाद पूजते हि, मोहध्वांत भी टले।।
जिनेन्द्र धर्मनाथ के, पदारविंद मैं नमूँ।
समस्त रोग शोक मोह, राग द्वेष को वमूँ।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशांग धूप लेय अग्नि-पात्र माहिं खेइये।
जिनेश सन्निधी तुरंत, कर्मभस्म होइये।।जिनेन्द्र.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
इलायची लवंग दाख, औ बदाम लाइये।
जिनेश को चढ़ाय मुक्ति-वल्लभा को पाइये।।जिनेन्द्र.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलादि अष्टद्रव्य लेय, अर्घ्य को बनाइये।
सुज्ञानमती पूर्ण हेतु, नाथ को चढ़ाइये।।जिनेन्द्र.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
सरयूनदि को नीर, जिनपद में धारा करूँ।
मिले भवोदधि तीर, शांति बढ़े तिहुँलोक में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल कमल अरविंद, सुरभित फूलों को चुने।
मिले सौख्य अभिनंद्य, पुष्पांजलि अर्पूं सदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-चौपाई-
रत्नपुरी पितु भानु महान, मात सुव्रता गर्भ निधान।
सुदि तेरस वैशाख सुरेन्द्र, जजें गर्भ कल्याण जिनेन्द्र।।१।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लात्रयोदश्यां श्रीधर्मनाथतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माघ शुक्ल तेरस जिन जन्म, सुरपति किया महोत्सव धन्य।
नाम रखा श्रीधर्म जिनेन्द्र, जन्म कल्याण जजें शत इन्द्र।।२।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लात्रयोदश्यां श्रीधर्मनाथतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उल्कापात देख वैराग्य, नागदत्त पालकि बड़भाग्य।
माघ सुदी तेरस वन शाल, दीक्षा धरी नमूँ नत भाल।।३।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लात्रयोदश्यां श्रीधर्मनाथतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सप्तपत्रतरु तल धर ध्यान, घात घाति ले केवलज्ञान।
समवसरण में प्रभु राजंत, पौष पूर्णिमा इन्द्र जजंत।।४।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लापूर्णिमायां श्रीधर्मनाथतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्येष्ठ चतुर्थी सुदि प्रत्यूष, गिरि सम्मेद मुक्ति में तोष।
शिवकल्याणक पूजें इन्द्र, जजत मिले निज सौख्य अनिंद।।५।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाचतुर्थ्यां श्रीधर्मनाथतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
धर्मनाथ दशधर्म के, दाता जग में मान्य।
जजत मिले आतम निधी, जिसमें निजसुख साम्य।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकरपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।