ऊँ नमो मंगलं कुर्यात्, ह्रीं नमश्चापिमंगलं।
मोक्षबीजं महामंत्रं, अर्हं नम: सुमंगलम्।।१।।
मानस्तंभा: सरांसि, प्रविमल—जल—सत्खातिका—पुष्पवाटी।
प्राकारो नाट्यशालाद्वितयमुपवनं वेदिकांतर्ध्वजाद्या:।।
शाल: कल्पद्रुमाणां, सुपरिवृत्त—वनं स्तूप हर्म्यावली च।
प्राकार: स्फाटिकोन्त—र्नृसुर—मुनिसभा पीठिकाग्रे स्वयंभू।।२।।
श्रेयान् श्रीवासुपूज्यो वृषभजिनपति: श्रीद्रुमांकोऽथधर्म:।
हर्यंक: पुष्पदन्तो मुनिसुव्रतजिनोऽनंतवाक् श्रीसुपार्श्व:।।
शान्ति: पद्मप्रभोऽरो विमलविभुरसौ वर्द्धमानोऽप्यजांक:।
मल्लिर्नेमिर्नमिर्मां सुमतिरवतु सच्छ्रीजगन्नाथधीरम्१।।३।।
द्वौ कुंदेन्दुतुषारहारधवलौ द्वाविन्द्रनीलप्रभौ।
द्वौै बंधूकसमप्रभौ जिनवृषौ द्वौ चप्रियंगुप्रभौ।।
शेषा: षोडशजन्ममृत्युरहिता: संतप्तहेमप्रभा:।
ते सज्ज्ञानदिवाकरा: सुरनुता: सिद्धिं प्रयच्छन्तु न:।।४।।
तीर्थकृत्सन्निधौ धर्म—चक्राणि विभान्त्यपि।
ते तानि चापि चक्राणि, कुर्वन्तु मम मंगलम्।।५।।
—गीताछंद—
तीर्थंकरों के समवसृति में, चारदिश में शोभते।
ये धर्मचक्र हजार आरों, से चहूँदिशि चमकते।।
जो धर्मचक्र विधान यह, श्रावक करेंगे भक्ति से।
वे धर्मचक्र चलाएँगे, नित वंद्य होंगे इंद्र से।।६।।
—दोहा—
धर्मचक्र विधान यह, अतिशय महिमावान।
करो करावो भव्यजन, बनो स्वात्मनिधिमान।।७।।
।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।