अर्हन्तस्तीर्थकर्तारो, नित्यं कुर्वन्तु मंगलम्।
एतेषां प्रतिमाश्चापि, कुर्वन्तु मम मंगलम्।।१।।
मम मंगलं अरहंता य सिद्धा य बुद्धा य जिणा य केवलिणो ओहिणाणिणो मणपज्जवणाणिणो चउदसपुव्वंगमिणो सुदसमिदि—समिद्धा य तवो य वारहविहो तवस्सी, गुणा य गुणवंतो य, महरिसी तित्थं तित्थंकरा य, पवयणं पवयणी य, णाणं णाणी य, दंसणं दंसणी य, संजमो संजदा य, विणओ विणदा य, बंभचेरवासो बंभचारी य, गुत्तीओ चेव गुत्तिमंतो य, मुत्तीओ चेव मुत्तिमंतो य, समिदीओ चेव समिदिमंतो य, ससमयपर-समयविदू, खंतिक्खवगा य खंतिवंतो य, खीणमोहा य खीणवंतो य, बोहियबुद्धा य बुद्धिमंतो य, चेइयरुक्खा य चेइयाणि१।
—चौबोल—छंद—
मेरा मंगल करें सर्व, अर्हंत सिद्ध बुद्धा जिनराज।
केवलि जिन अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी ऋषिराज।।
चौदश पूर्व अंग पारंगत, अंगबाह्य श्रुतसंपन्ना।
बारह तप तपसी गुण और, गुणोंयुत महाऋद्धि शरणा।।२।।
तीर्थ और तीर्थंकर प्रवचन, प्रवचनयुत व ज्ञान ज्ञानी।
सद्दर्शन सम्यग्दृष्टी, संयम व संयमी मुनिध्यानी।।
विनय तथा सुविनययुत साधू, ब्रह्मचर्य व्रत ब्रह्मचारी।
गुप्ति गुप्तिधर मुक्ति मुक्तियुत, समिति और समितिधारी।।३।।
स्वमत और परमत के ज्ञाता, क्षमाशील अरु क्षपक मुनी।
क्षीणमोह यति बोधितबुद्ध, बुद्धिऋद्धीयुत परममुनी।।
चैत्यवृक्ष जिनबिम्ब अकृत्रिम-कृत्रिम जितने त्रिभुवन में।
मेरा मंगल करें सभी ये, ये मंगलप्रद तिहुँजग में।।४।।
—अनुष्टुप् छंद—
तीर्थकृत्समवसृतौ, चतुर्थभूमिषु स्थिता:।
चैत्यवृक्षाश्चतुर्दिक्षु, ते मे कुर्वन्तु मंगलम्।।५।।
चैत्यवृक्षेषु चैत्यानि, चतुर्दिक्षु विभान्त्यपि।
तानि सर्वाणि बिम्बानि, कुर्वन्तु मम मंगलम्।।६।।
—चौबोल—छंद—
चौबीसों तीर्थंकर प्रभु को, भक्तिभाव से नमन करूँ।
उनके श्री चरणों में शत—शत, प्रणमन कर भवतपन हरूँ।।
जन्म—जरा —मृत्यु को नाशा, मृत्युञ्जयपद प्राप्त किया।
उनके चरणों के आश्रय से, मैंने समकित रत्न लिया।।७।।
।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।