नम: ऋषभदेवाय, तेऽजिताय नमो नम:।
श्रीसम्भव! नमस्तुत्य—मभिनन्दन! ते नम:।।१।।
नम: सुमतिनाथाय !, श्रीपद्मप्रभ ! ते नम:।
नम: सुपार्श्वनाथाय !, नमश्चन्द्रप्रभाय ते।।२।।
पुष्पदन्त ! नमस्तुभ्यं, शीतलेशाय ते नम:।
नम: श्रेयांसनाथाय, वासुपूज्य ! नमोऽस्तु ते।।३।।
नम: विमलनाथाय, नमोऽनंतजिनेश ! ते।
धर्मनाथ ! नमस्तुभ्यं, शान्तिनाथ ! नमोऽस्तु ते।।४।।
कुंथुनाथ ! नमस्तुभ्य—मरनाथ ! नमो नम:।
नम: श्रीमल्लिनाथाय, मुनिसुव्रत ! ते नम:।।५।।
नम: श्रीनमिनाथाय, नेमिनाथ ! नमोऽस्तु ते।
नम: श्रीपार्श्वनाथाय, महावीर ! नमोऽस्तु ते।।६।।
चतुर्विंशतितीर्थेशा:, धर्मचक्राधिपा अमी।
सर्वाननन्तशो नौमि, ते मे कुर्वन्तु मंगलम्।।७।।
सिद्धा: सिद्धिविधातार:, तांस्तद् बिंबानि च स्तुवे।
ते सर्वे तानि सर्वाणि, कुर्वन्तु मम मंगलम्।।८।।
सिद्धार्थतरव: सर्वे, सिद्धार्चास्तेषु या: स्थिता:।
ते सर्वे प्रतिमाश्चापि, कुर्वन्तु मम मंगलम्।।९।।
—शंभु छन्द—
प्रभु समवसरण की छठी भूमि, यह कल्पभूमि जन मन हरती।
चारों दिश में सिद्धार्थवृक्ष में, सिद्धों की प्रतिमा दिखतीं।।
उन सिद्धबिम्ब के दर्शन से, सम्पूर्ण ऋद्धि—सिद्धी मिलती।
मैं सिद्धबिम्ब को नित वंदूं, वंदत ही गुणसम्पद् फलती।।१०।।
।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।