अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, सिद्धा: कुर्युश्च मंगलम्।
तेषां सर्वाणि बिंबानि, कुर्वन्तु मम मंगलम्।।१।।
तीर्थकृत्सन्निधौ भान्ति, नवस्तूपा: सुरैर्नुता:।
तत्रस्था जिनसिद्धार्चा:, ते ताश्च सन्तु मंगलम्।।२।।
—शंभु छंद—
जय ऋषभदेव जय अजितनाथ, संभवजिन अभिनंदन जिनवर।
जय सुमतिनाथ जय पद्मप्रभु, जिनसुपार्श्व चन्द्रप्रभ जिनवर।।
जय पुष्पदंत शीतल श्रेयांस, जय वासुपूज्य जिन तीर्थंकर।
जय विमलनाथ जिनवर अनंत, जय धर्मनाथ जय शांतीश्वर।।३।।
जय कुंथुनाथ अरनाथ मल्लि, जिन मुनिसुव्रत तीर्थेश्वर की।
जय नमिजिन नेमिनाथ पारस, जय महावीर परमेश्वर की।।
ये चौबीसों तीर्थंकर ही, भव्यों के शिवपथ नेता हैं।
ये कर्म अचल के भेत्ता हैं, त्रिभुवन के ज्ञाता दृष्टा हैं।।४।।
सब स्तूप जिन सिद्धबिम्ब युत, मुनिगण से भी नित वंदित।
ये सभी आर्यिकाओं वंदित, सुर—नरगण से भी नित पूजित।।
इन स्तूपों के दर्शन से ही, सर्व पाप नश जाते हैं।
हम भी नितप्रति वंदन करके, सब व्याधी शोक नशाते हैं।।५।।
प्रभु घात घातिया केवल रवि, भू से पण सहस धनुष ऊपर।
वर समवसरण में कमलासन, पर अधर विराजे तीर्थंकर।।
द्वादशगण दिव्यध्वनी सुनकर, निज आत्मा का अघमल धोवें।
तीर्थंकर प्रभु औ समवसरण, हम सबको मंगलप्रद होवें।।६।।
—दोहा—
समवसरण में सातवीं, भवनभूमि सुखकार।
वहाँ स्तूप जिनबिम्ब को, नमूँ होऊँ भव पार।।
।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।