अथ स्थापना—शंभु छंद
(तर्ज—यह नंदनवन….)
श्री पार्श्व प्रभू, त्रिभुवन के विभू, हम पूजा करने आये हैं।
निज आत्म सुधारस मिल जावे, यह आशा लेकर आये हैं।।टेक।।
आह्वानन संस्थापन करके, सन्निधीकरण विधि करते हैं।
निज हृदय कमल में धारण कर, अज्ञान तिमिर को हरते हैं।।
कमठारिजयी प्रभु क्षमाशील, की अर्चा करने आये हैं।
श्री पार्श्वप्रभू, त्रिभुवन विभू, हम पूजा करने आये हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकर ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकर ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकर ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टकं
(चाल—पूजों पूजों श्री अरहंत देवा…..)
स्वच्छ आकाश गंगा जल है, निज आत्मा का हरता मल है।
धार देते मिले इष्ट फल है, श्री पार्श्वनाथ वंदन करें हम नित ही।।
आवो पार्श्व प्रभु के गुण गायें, जो कलिकुंडदण्ड कहाये।
इन्हें पूजें परम सुख पायें, श्री पार्श्वनाथ वंदन करें हम नित ही।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध कर्पूर केशर मेला, सौगंधित सुमिश्रित एला।
ताप संताप हरत अकेला, श्री पार्श्वनाथ वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो पार्श्व.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
श्वेत मोती सदृश तंदुल हैं, पुंज धरते हृदय निर्मल है।
लाभ होता सुगुण उज्ज्वल है, श्री पार्श्वनाथ वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो पार्श्व.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद मंदार सुमनस माला, कामदेव निमूल कर डाला।
आत्म संपद गुणों की माला, श्री पार्श्वनाथ वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो पार्श्व.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मुद्ग लाडू इमरती भरके, पूजते भूख रोगादि हर के।
आत्म पीयूष अनुभव करके, श्री पार्श्वनाथ वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो पार्श्व.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण दीपक शिखा उज्ज्वल है, आरती से हरे मोह मल है।
होता आत्मा अपूर्व विमल है, श्री पार्श्वनाथ वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो पार्श्व.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप खेऊँ सुरभि दशगंधी, धूूम्र पैले दशों दिश गंधी।
होय कर्म अरी शतखंडी, श्री पार्श्वनाथ वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो पार्श्व.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम अंगूर दाड़िम फल हैं, जो फल दे उत्तम सुफल हैं।
तीन रत्नों की संपत्ति फल हैं, श्री पार्श्वनाथ वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो पार्श्व.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंधादि द्रव्य मिलाके, पूर्ण सौख्यादि होवे चढ़ाके।
अष्टकर्मारि बंधन हटा के, श्री पार्श्वनाथ वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो पार्श्व.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये निर्वपामीति स्वाहा।
—शेर छंद—
गंगा नदी का जल पवित्र स्वर्ण भृंग में।
वैवल्यज्ञान से पवित्र आप चर्ण में।।
त्रयधार दे के शांतिधार मैं सदा करूँ।
तिहुँलोक में भी शांति हो यह कामना करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
स्याद्वाद के उद्यान में बहुविध कमल खिले।
प्रभु गुण सुगंधि के समान सुरभि से मिले।।
बेला गुलाब पुष्प से प्रभु पाद कमल में।
पुष्पांजली करते निजात्म सौख्य हृदय में।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
वंदन शत शत बार है,
पार्श्वनाथ के चरण कमल में, वंदन शत शत बार है।
जिनका गर्भ कल्याणक जजते, मिले सौख्य भंडार है।।
पार्श्वनाथ.।।टेक०।।
अश्वसेन पितु वामा माता, तुमको पाकर धन्य हुए।
तिथि वैशाख वदी द्वितिया को, गर्भ बसे जगवंद्य हुए।।
प्रभु का गर्भकल्याणक पूजत, मिले निजातम सार है।।
पार्श्वनाथ.।।१।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णाद्वितीयायां श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
पार्श्वनाथ के चरण कमल में, वंदन शत शत बार है।
जिनका जन्मकल्याणक जजते, मिले सौख्य भंडार है।।
पार्श्वनाथ.।।
पौष कृष्ण ग्यारस तिथि उत्तम, वाराणसि में जन्म हुआ।
श्री सुमेरु की पांडुशिला पर, इन्द्रों ने जिन न्हवन किया।।
जो ऐसे जिनवर को जजते, हो जाते भव पार हैं।।
पार्श्वनाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
पार्श्वनाथ के चरण कमल में, वंदन शत शत बार है।
जिनका तपकल्याणक जजते, मिले सौख्य भंडार है।।
पार्श्वनाथ.।।
पौषवदी ग्यारस जाति स्मृति, से बारह भावन भाया।
विमलाभा पालकि में प्रभु को, बिठा अश्ववन पहुँचाया।।
स्वयं प्रभू ने दीक्षा ली थी, जजत मिले भव पार है।।
पार्श्वनाथ.।।३।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
पार्श्वनाथ के चरण कमल में, वंदन शत शत बार है।
जिनका ज्ञानकल्याणक जजते, मिले सौख्य भंडार है।।
पार्श्वनाथ.।।
चैत्रवदी सुचतुर्थी१ प्रात:, देवदारु तरु के नीचे।
कमठ किया उपसर्ग घोर तब, फणपति पद्मावति पहुँचे।।
जित उपसर्ग केवली प्रभु का, समवसरण हितकार है।।
पार्श्वनाथ.।।४।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाचतुर्थ्यां श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
पाश्वनाथ के चरण कमल में, वंदन शत शत बार है।
जिनका मोक्षकल्याणक जजते, मिले सौख्य भंडार है।।
पार्श्वनाथ.।।
श्रावण शुक्ल सप्तमी पारस, सम्मेदाचल पर तिष्ठे।
मृत्युजीत शिवकांता पायी, लोकशिखर पर जा तिष्ठे।।
सौ इन्द्रों ने पूजा करके, लिया आत्म सुखसार है।।
पार्श्वनाथ.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लासप्तम्यां श्रीपार्श्वनाथतीथंकरमोक्षकल्याणकाय अघ्यं
निवपामीति स्वाहा।
-पूणाघ्य (दोहा)-
पाश्वनाथ पादाब्ज को, पूजूँ बारम्बार।
पूण अघ्य से जजत ही, पाऊँ सौख्य अपार।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथतीथंकरपंचकल्याणकाय पूणाघ्यं निवपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—दोहा—
पार्श्वनाथ जिन बालयति, नमूँ नमूँ शत बार।
पुष्पांजलि से पूजते, भरे सौख्य भंडार।।१।।
।।अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
—सोरठा—
‘महाशोकध्वज’ नाम, महाशोकतरु चिन्ह है।
करूँ अनंत प्रणाम, शोक हरो हे पाश्व जिन!।।१।।
ॐ ह्रीं महाशोकध्वजाय श्रीपार्श्वनाथतीथं कराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
पुत्र स्त्री मित्रादि, रहित शोक अणुमात्र ना।
नाथ! ‘अशोक’ सुपाद, नमत शोक दुख नाश हो।।२।।
ॐ ह्रीं अशोकाय श्रीपार्श्वनाथतीथं कराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
अहत् ब्रह्मा आप, ‘क’ प्रसिद्ध परमात्मा।
जजत हरें जन पाप, सवसौख्य पावें सदा।।३।।
ॐ ह्रीं काय श्रीपार्श्वनाथतीथं कराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
‘सृष्टा’ नमूँ त्रिकाल, निंदित दुगति दुख लहें।
वीतराग जगपाल, पूजत जन दिव मोक्ष लें।।४।।
ॐ ह्रीं स्रष्ट्रे श्रीपार्श्वनाथतीथं कराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
कमलासन पर नाथ, तिष्ठ ‘पद्मविष्टर’ बने।
नमूँ जोड़ जुग हाथ, यश सौरभ जग में भ्रमें।।५।।
ॐ ह्रीं पद्मविष्टराय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
लक्ष्मी के पति देव, कहलाए ‘पद्मेश’ तुम।
नमते हो दुख छेव, मिले नवों निधि संपदा।।६।।
ॐ ह्रीं पद्मेशाय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
श्रीविहार में देव, स्वणकमल सुरभित रचें।
चरण तले जिनदेव, पूजत यश सुरभी उड़े।।७।।
ॐ ह्रीं पद्मसंभूतये श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
नाभी कमल समान, ‘पद्मनाभि’ कहते मुनी।
धरूँ आपका ध्यान, कमल बनाकर नाभि में।।८।।
ॐ ह्रीं पद्मनाभये श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
प्रभु सम कोई न अन्य, नाम ‘अनुत्तर’ ऋषि कहें।
जजत बनें जन धन्य, सम्यग्दशन शुद्धि से।।९।।
ॐ ह्रीं अनुत्तराय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
लक्ष्मी हो उत्पन्न, प्रभो! आपकी भक्ति से।
‘पद्मयोनि’ अन्वथ, नमत मिले गुण संपदा।।१०।।
ॐ ह्रीं पद्मयोनये श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
धम जगत् का जन्म, हुआ आप से हे प्रभो!।।
‘जगत्योनि’ शुभ नाम, जजत जगत् से पार हों।।११।।
ॐ ह्रीं जगद्योनये श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
तप से भविजन आप, प्राप्त करें रुचि मन धरें।
‘इत्य’ नाम निष्पाप, शरणागत मैं आपकी।।१२।
ॐ ह्रीं इत्याय श्रीपाश्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
इन्द्रादिक से नित्य, स्तुति योग्य तुम्हीं प्रभो!।
त्रिभुवन में ‘स्तुत्य’ मैं स्तवन करूँ सदा।।१३।।
ॐ ह्रीं स्तुत्याय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
संस्तुति के तुम ईश, साधु ‘स्तुतीश्वर’ कहें।
नमूँ नमाकर शीश, गुण गाऊँ हषितमना।।१४।।
ॐ ह्रीं स्तुतीश्वराय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
मुनिगण के स्तुति योग्य, ‘स्तवनाह’ प्रसिद्ध हो।
मिले मुक्ति संयोग, जजते भेदविज्ञान हो।१५।।
ॐ ह्रीं स्तवनाहाय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
किया पंचेन्द्रिय वश्य, ‘हृषीकेश’ श्रुतमान्य हो।
जो जन जजें अवश्य, सौख्य अतीन्द्रिय लें भले।१६।।
ॐ ह्रीं हृषीकेशाय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
मोहादिक अरिजीत, कहलाये ‘जितजेय’ तुम।
जो पूजें धर प्रीत, मोह हरें निमम बनें।१७।।
ॐ ह्रीं जितजेयाय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
करने योग्य समस्त, क्रिया पूण कर शिव गये।
वंदत चित्त प्रशस्त, ‘कृतक्रिय’ जजते सिद्धि हो।।१८।।
ॐ ह्रीं कृतक्रियाय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
द्वादशगण के नाथ, समवसरण में आप ही।
मुझको करो सनाथ, जजूँ ‘गणाधिप’ आपको।।१९।।
ॐ ह्रीं गणाधिपाय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
सभी गणों में श्रेष्ठ, श्रेष्ठ गुणाकर आप हैं।
नमूँ तुम्हें ‘गणज्येष्ठ’, गुणमणि को पाऊँ अबे।२०।।
ॐ ह्रीं गणज्येष्ठाय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में प्रभु आप, गणना करने योग्य हैं।
वंदत नशते पाप, ‘गण्य’ तुम्हें मैं भी जजूूँ।।२१।।
ॐ ह्रीं गण्याय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
सबको किया पवित्र, ‘पुण्य’ तुम्हें मुनिगण कहें।
मुझको करो पवित्र, पुन: पुन: याञ्चा करूँ।।२२।।
ॐ ह्रीं पुण्याय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
हितपथ में ले जायं, सभी भक्त को आप ही।
‘गणाग्रणी’ तुम पाय, वंदूं निज नेता बनूँ।।२३।।
ॐ ह्रीं गणाग्रण्ये श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
प्रभु अनंतगुणखान, साधु ‘गुणाकर’ कह रहे।
वंदत हों गुणवान, हो तुम गुण वणन करें।।२४।।
ॐ ह्रीं गुणाकराय श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
गुण में आप समुद्र, ‘गुणाम्भोधि’ हो विश्व में।
नमत बने उन्निद्र, पावें निज के गुण सभी।२५।।
ॐ ह्रीं गुणाम्भोधये श्रीपार्श्वनाथतीथंकराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
गुण के ज्ञाता सिद्ध, तुम ‘गुणज्ञ’ जगख्यात हो।
मुझ गुण सवप्रसिद्ध, होवेंगे तुम भक्ति से।।२६।।
ॐ ह्रीं गुणज्ञाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुणनायक’ भगवान, तुमको जो वंदे सदा।
निजगुण से धनवान, हो जाते वे शीघ्र से।।२७।।
ॐ ह्रीं गुणनायकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुणादरी’ प्रभु सिद्ध, मैं भी गुण आदर करूँ।
पूजत हो नव निद्ध, क्रम से जिनगुुण संपदा।।२८।।
ॐ ह्रीं गुणादरिणे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोधादिक बहुभाव, वैभाविक गुण जगत में।
नाश धरा निजभाव, नमूँ ‘गुणोच्छेदी’ तुम्हें।।२९।।
ॐ ह्रीं गुणोच्छेदिने श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब विभावगुण शून्य, ‘निर्गुण’ कहलाये प्रभो!।
नमत मिले गुण पूर्ण, पूजूँ मन वच काय से।।३०।।
ॐ ह्रीं निर्गुणाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘पुण्यगी’ सिद्ध, दिव्यध्वनी के तुम धनी।
तुम वचसुधा समृद्ध, भविजन स्वस्थ पवित्र हों।।३१।।
ॐ ह्रीं पुण्यगिरे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण से सहित प्रधान, ‘गुण’ कहलाये शास्त्र में।
स्वात्म सुधारस पान, हेतु नमूूँ प्रभु पार्श्व को।।३२।।
ॐ ह्रीं गुणाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनसे भय हो दूर, शरणागत के नाथ हो।
मिले ज्ञान भरपूर, नमूँ ‘शरण्य’ जिनेश को।।३३।।
ॐ ह्रीं शरण्याय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुण्यवाक्’१ जिन सिद्ध पूर्वापर अविरुध वचन।
होवे चारित रिद्ध, इसी हेतु वंदन करूँं।।३४।।
ॐ ह्रीं पुण्यवाचे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भावकर्ममल शून्य, पूर्ण पवित्र तुम्हीं प्रभो!।
रत्नत्रय निधि पूर्ण, हेतु ‘पूत’ भगवन् नमूँ।।३५।।
ॐ ह्रीं पूताय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तिरमा को आप, वरण किया भव नाश के।
प्रभु ‘वरेण्य’ गुरु आप, जजूँ आप सम निधि मिले।।३६।।
ॐ ह्रीं वरेण्याय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करता आत्म पवित्र, पुण्य वही है लोक में।
मुझ मन करो पवित्र, जजूँ ‘पुण्यनायक’ तुम्हीं।।३७।।
ॐ ह्रीं पुण्यनायकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम गुणगण ना शक्य, नहीं कभी गणधर कहें।
इससे तुम्हीं ‘अगण्य’ जजते अगणित सौख्य हो।।३८।।
ॐ ह्रीं अगण्याय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘पुण्यधी’ नाथ, शुद्ध बुद्ध ज्ञानी तुम्हीं।
नमूँ नमूँ नत माथ, शुद्ध निरंजन पद मिले।।३९।।
ॐ ह्रीं पुण्यधिये श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह गण के नाथ, सबके हितकारी तुम्हीं।
मिले महाव्रत सार्थ, ‘गण्य’१ तुम्हें वंदन करूँ।।४०।।
ॐ ह्रीं गण्याय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुण्यतीर्थ करतार, आप ‘पुण्यकृत्’ सिद्ध हैं।
नमूँ अनंतों बार, एक मुक्ति के हेतु मैं।।४१।।
ॐ ह्रीं पुण्यकृते श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ग मोक्षदातार, आप ‘पुण्यशासन’ कहे।
मिले ज्ञान भंडार, प्रभु तुम मत की शरण है।।४२।।
ॐ ह्रीं पुण्यशासनाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘धर्माराम’, नंदनवन सम धर्म है।
मिले स्वात्म सुखधाम, वंदन करते भव नशे।।४३।।
ॐ ह्रीं धर्मारामाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कहे अनंतानंत, गुण समूह भगवान् तुम।
‘गुणग्राम’ भगवंत, पूजत ही गुणमणि मिले।।४४।।
ॐ ह्रीं गुणग्रामाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुण्य पाप के द्वार, संवर से रोका प्रभो!।
वंदूूं मैं शत बार, ‘पुण्यपापरोधक’ तुम्हीं।।४५।।
ॐ ह्रीं पुण्यापुण्यनिरोधकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पापापेत’ महान् , हिंसादिक से शून्य हो।
नमत बनूं धनवान्, संयमनिधि को पूर्ण कर।।४६।।
ॐ ह्रीं पापापेताय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वात्मजन्य सुख प्राप्त, प्रभो ‘विपापात्मा’ नमूँ।
समकित निधि हो प्राप्त, मिले शुद्ध उपयोग झट।।४७।।
ॐ ह्रीं विपापात्मने श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मशत्रु को नाश, सिद्ध ‘विपात्मा’ हो गये।
शिवलक्ष्मी की आश, धर मन में वंदन करूँ।।४८।।
ॐ ह्रीं विपात्मने श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कलिमल किया विनाश, नाथ ‘वीतकल्मष’ तुम्हीं।
नहिं भवसुख की आश, नमत अतीन्द्रिय सुख मिले।।४९।।
ॐ ह्रीं वीतकल्मषाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जगद्वंद विभाव, परिग्रह विरहित सिद्ध हो।
प्रभु ‘निर्द्वंद्व’ स्वभाव, जजत कलह दुख दूर हो।।५०।।
ॐ ह्रीं निर्द्वंद्वाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—चित्रपदा छंद—
‘निर्मद’ पार्श्व तुम्हीं हो , मान कषाय जयी हो।
वंदत हो निज संपत्, नाथ! जजूँ धर प्रीती।।५१।।
ॐ ह्रीं निर्मदाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शांत’ स्वभाव जिनेशा, पूर्ण शांति तुममें ही।
पूजत विपद् नशेगी, शांति अपूर्व मिलेगी।।५२।।
ॐ ह्रीं शांताय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप प्रभो ‘निरमोही’, मोह ध्वांत मुझ नाशो।
मोक्षपुरी मिल जावे, नाथ! तुम्हें मैं पूजूँ।।५३।।
ॐ ह्रीं निर्मोहाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व उपद्रव नाशा, ‘निरुपद्रव’ कहलाये।
शोक वियोग नशेंगे, जो जजते धर भक्ती।।५४।।
ॐ ह्रीं निरुपद्रवाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेत्र पलक ना झपकें, ‘निर्निमेष’ भगवंता।
दर्शन करूँ तुम्हारा, नेत्र सफल हों मेरे।।५५।।
ॐ ह्रीं निर्निमेषाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीाfत स्वाहा।
कवलाहार तुम्हें ना, नाथ ‘निराहारी’ हो।
क्षुधा तृषा की व्याधी, पूजन से नशती है।।५६।।
ॐ ह्रीं निराहाराय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निष्क्रिय’ सिद्ध महंता, नंत गुणों के कंता।
पूजत हो सुख साता, स्वात्म सुधारस पाके।।५७।।
ॐ ह्रीं निष्क्रियाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘निरूपप्लव’ हो, बाध विकार नहीं है।
कर्म नशें सब मेरे, वंदन से सुख संपत्।।५८।।
ॐ ह्रीं निरुपप्लवाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निष्कलंक’ अभिरामा, शीघ्र वरी शिवरामा।
दु:ख दरिद्र विनाशो, वंदत ज्ञान प्रकाशो।।५९।।
ॐ ह्रीं निष्कलंकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! निरस्तैना हो, सर्व कर्म हीना हो।
मैं प्रभु अपराधी हूँ, दृष्टि कृपा की कीजे।।६०।।
ॐ ह्रीं निरस्तैनसे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप नहीं अपराधी, ‘निर्धूतागस’ मानें।
मुझ अपराध क्षमा हो, जन्म मरण से छूटूंं।।६१।।
ॐ ह्रीं निर्धूतागसे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व कर्म आस्रव से, शून्य ‘निरास्रव’ ही हो।
आस्रव का रोधन हो, पूजत संवर प्रगटे।।६२।।
ॐ ह्रीं निरास्रवाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘विशाल’ तुम्हीं हो, श्रेष्ठ महान जगत में।
पूजत सौख्य विशाला, ज्ञान विशाल बनेगा।।६३।।
ॐ ह्रीं विशालाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान सुज्योती, नाथ! ‘विपुलज्योती’ हो।
भेदविज्ञान मिलेगा, वंदन से पूजन से।।६४।।
ॐ ह्रीं विपुलज्योतिषे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘अतुल’ नहिं तुलना, नंत गुणों की गणना।
ज्ञान सुखामृत पाऊँ, वंदत पाप नशाऊँ।।६५।।
ॐ ह्रीं अतुलाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘अचिन्त्यवैभव’ युत, चिंतन करते योगी।
भक्ति करें जो जन भी, बोधि समाधि लहें वो।।६६।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यवैभवाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आस्रव कर्म रुके हैं, नाथ! ‘सुसंवृत’ माने।
संवर मुझे मिलेगा, भक्ति सहाय बनेगी।।६७।।
ॐ ह्रीं सुसंवृताय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘सुगुप्तात्मा’ हो, तीन गुप्तिसंयुत हो।
काय वचन मनगुप्ती, देकर देवो तृप्ती।।६८।।
ॐ ह्रीं सुगुप्तात्मने श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व पदार्थ सुज्ञाता, ‘सुभुत१’ सिद्ध भगवंता।
ज्ञान हमारा पूरो, सब अज्ञान निवारो।।६९।।
ॐ ह्रीं सुभुजे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान नयों का सम्यक्, ‘सुनयतत्त्ववित्’ स्वामी।
सत्य सुनय को जानूँ, स्यात्पद जजते मुक्ती।।७०।।
ॐ ह्रीं सुनयतत्त्वविदे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘एकविद्य’ भगवंता, केवलज्ञान धरंता।
एक ज्ञान मुझ दीजे, कर्म कलंक हरीजे।।७१।।
ॐ ह्रीं एकविद्याय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाविद्य’ जिनदेवा, विद्या बहुत तुम्हीं में।
वंदत पाप नशेंगे, केवलबोध खिलेगा।।७२।।
ॐ ह्रीं महाविद्याय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगत् चराचर जानो, आप मुनी परधाना।
उत्तम ‘मुनी’ बनूं मैं, पूजत आश फलेगी।।७३।।
ॐ ह्रीं मुनये श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ईश्वर आप सभी के, शास्त्र ‘परिवृढ’ कहते।
वंदन पादकमल का, नाश करे सब विपदा।।७४।।
ॐ ह्रीं परिवृढाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संसृति दुख से रक्षो, प्राणिमात्र पे करुणा।
आप ‘पती’ कहलाये, जग के नाथ तुम्हीं हो।।७५।।
ॐ ह्रीं पतये श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धीश’ बुद्धि के पति हो, शुद्ध करो मुझ बुद्धी।
मैं तुम पादकमल की, पूजन करूँ रुची से।।७६।।
ॐ ह्रीं धीशाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विद्यानिधि’ श्रुतनिधि हो, शास्त्र स्वपर के वेत्ता।
ज्ञानगुणाम्बुधि माने, मैं रुचि से नित पूजूँ।।७७।।
ॐ ह्रीं विद्यानिधये श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘साक्षी’ तीन भुवन के, देख लिया प्रभु साक्षात्।
वंदत केवल लक्ष्मी, भव्य करें निज कर में।।७८।।
ॐ ह्रीं साक्षिणे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नम्र किया शिवपथ में, नाथ! ‘विनेता’ जग में।
वंदन शत शत मेरा, दूर करो भव फेरा।।७९।।
ॐ ह्रीं विनेत्रे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साधु कहे ‘विहतान्तक’, मृत्यु विनाश किया है।
नाश करूँ यम का मैं, स्वात्म निधी मिल जावे।।८०।।
ॐ ह्रीं विहतान्तकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दुर्गति से रक्षक हो, आप ‘पिता’ त्रिभुवन के।
पूजन से निज लब्धी, सर्व दु:खों से मुक्ती।।८१।।
ॐ ह्रीं पित्रे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप जगत् के गुरु हैं, नाम ‘पितामह’ ख्याता।
मैं गुरु तुम्हें बनाऊँ, फेर न भव में आऊँ।।८२।।
ॐ ह्रीं पितामहाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शोक रोग आदिक से , ‘पाता’ करते रक्षा।
हे प्रभु! जिन को पाके, स्वस्थ बनूं गुण गाके।।८३।।
ॐ ह्रीं पात्रे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पवित्र’ तुम्हीं हो, पावन करते प्राणी।
पावन हो मुझ आत्मा, पूजन से फल प्राप्ती।।८४।।
ॐ ह्रीं पवित्राय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पावन’ सिद्ध कहाये, वंदत सौख्य बढ़ायें।
हो मन पावन मेरा, काय वचन भी शुचि हों।।८५।।
ॐ ह्रीं पावनाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘गती’ हैं जग में, आर्त दूर कर देते।
ज्ञानमात्र हो स्वामी, पूजत पंचमगति हो।।८६।।
ॐ ह्रीं गतये श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव्य जनों के ‘त्राता’, भक्त इसी से जजते।
काय वचन मन से मैं, ध्यान धरूँ प्रभु तेरा।।८७।।
ॐ ह्रीं त्रात्रे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘भिषग्वर’ तुम ही, पूर्ण स्वस्थ कर देते।
जन्म मरण रोगों से, भक्त छुटें निश्चित ही।।८८।।
ॐ ह्रीं भिषग्वराय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तिरमा को वर के, ‘वर्य’ कहाए जग में।
इंद्रगणों से वेष्टित, मैं नत हूँ श्रीपद में।।८९।।
ॐ ह्रीं वर्याय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इच्छित फल देते हो, नाथ ‘वरद’ कहलाये।
बोधि समाधि मुझे दो, एक यही वर मांगूँ।।९०।।
ॐ ह्रीं वरदाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पालन पोषण कर्ता, आप ‘परम’ भव्यों के।
इष्ट फलों को देकर, पूजन का फल मिलता।।९१।।
ॐ ह्रीं परमाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्मा पावन कर, आप ‘पुमान’ कहाये।
भाक्तिकजन मन शुद्धी, वंदन से झट होती।।९२।।
ॐ ह्रीं पुंसे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म अधर्म निरूपा, नाथ ‘कवी’ मुनि गायें।
मैं तुम गुण गा गाके, सफल करूँ निज रसना।।९३।।
ॐ ह्रीं कवये श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्ध ‘पुराणपुरुष’ हो, आदि अंत नहिं होता।
प्रभु पुरुषार्थ करूँ मैं, मोक्ष मिले अर्चन से।।९४।।
ॐ ह्रीं पुराणपुरुषाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वर्षीयान्’ गुणों से, अतिशय वृद्ध कहाये।
स्वात्मगुणों की वृद्धी, हो मुझ में यह मांगूँ।।९५।।
ॐ ह्रीं वर्षीयसे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘ऋषभ’ माने हो, पूर्ण जगत् को जानो।
श्रेष्ठ ज्ञान गुण दीजे, मोह अंधेर हरीजे।।९६।।
ॐ ह्रीं ऋषभाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुरु’ महान भगवंता, वंदन करूँ तुम्हारा।
दान अभय का दीजे, दूर करो भव फेरा।।९७।।
ॐ ह्रीं पुरवे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रतिष्ठाप्रभवा’, उत्पत्ती तुमसे ही।
सुस्थिरता प्रगटेगी, वंदन करूँ सदा मैं।।९८।।
ॐ ह्रीं प्रतिष्ठाप्रसवाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हेतु’ तुम्हीं हो जग में, भुक्ति मुुक्तिप्रद माने।
रत्नत्रय निधि दीजे, वंदत सुख संपत् हो।।९९।।
ॐ ह्रीं हेतवे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप एक त्रिभुवन के, कहे पितामह स्वामी।
एकमात्र गुरु माने, पूजत ही भव हानें।।१००।।
ॐ ह्रीं भुवनैकपितामहाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—स्रग्विणी छंद—
हे ‘महाध्वरधर’ प्रभु पारस विभो।
महाउपसर्ग विजयी नमूं आपको।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।१०१।।
ॐ ह्रीं महाध्वरधराय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धुर्य’ हो मुक्ति के मार्ग में श्रेष्ठ हो।
कमठ को जीत के सर्व में ज्येष्ठ हो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।१०२।।
ॐ ह्रीं धुर्याय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महौदार्य’ अतिशायि ऊदार हो।
आप निर्ग्रन्थ भी इष्ट दातार हो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।१०३।।
ॐ ह्रीं महौदार्याय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूज्य वाक्याधिपति सु ‘महिष्ठवाक्’ हो।
दिव्यवाणी सुधावृष्टि कर्ता सु हो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।१०४।।
ॐ ह्रीं महिष्ठवाचे श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक आलोक व्यापी ‘महात्मा’ तुम्हीं।
अंतरात्मा पुन: सिद्ध आत्मा तुम्हीं।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।१०५।।
ॐ ह्रीं महात्मने श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व तेजोमयी ‘महसांधाम’ हो।
आत्म के तेज से पार्श्व प्रभु मान्य हो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।१०६।।
ॐ ह्रीं महासांधाम्ने श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व ऋषि में प्रमुख हो ‘महर्षि’ तुम्हीं।
ऋद्धि सिद्धी धरो आप सुख ही मही।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।१०७।।
ॐ ह्रीं महर्षये श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेष्ठ भव धारके आप ‘महितोदया’।
पार्श्व जिन नाम से पूज्य धर्मोदया।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।१०८।।
ॐ ह्रीं महितोदयाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—
पार्श्वनाथ प्रभु बालयति, हैं जग के आधार।
पूर्ण अर्घ्य से मैं जजूं, हो जाऊं भव पार।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरशतगुणसमन्विताय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
जाप्य-ॐ हीं कमठोपसर्ग—विजयिने श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय नम:।
(शंभु छंद-तर्ज-चंदन सा वदन……….)
जय पार्श्व प्रभो! करुणासिंधो! हम शरण तुम्हारी आये हैं।
जय जय प्रभु के श्रीचरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।।टेक.।।
नाना महिपाल तपस्वी बन, पंचाग्नी तप कर रहा जभी।
प्रभु पार्श्वनाथ को देख क्रोधवश, लकड़ी फरसे से काटी।।
तब सर्प युगल उपदेश सुना, मर कर सुर पद को पाये हैं।।जय.।।१।।
यह सर्प सर्पिणी धरणीपति, पद्मावति यक्षी हुए अहो।
नाना मर शंबर ज्योतिष सुर, समवित बिन ऐसी गती अहो।।
नहिं ब्याह किया प्रभु दीक्षा ली, सुर नर पशु भी हर्षाये हैं।।जय.।।२।।
प्रभु अश्वबाग में ध्यान लीन, कमठासुर शंवर आ पहुँचा।
क्रोधित हो सात दिनों तक बहु, उपसर्ग किया पत्थर वर्षा।।
प्रभु स्वात्म ध्यान में अविचल थे, आसन कंपते सुर आये हैं।।जय.।।३।।
धरणेंद्र व पद्मावति ने फण पर, लेकर प्रभु की भक्ती की।
रवि केवलज्ञान उगा तत्क्षण, सुर समवसरण की रचना की।।
अहिच्छत्र नाम से तीर्थ बना, अगणित सुरगण हर्षाए हैं।।जय.।।४।।
यह देख कमठचर शत्रू भी, सम्यक्त्वी बन प्रभु भक्त बने।
मुनिनाथ स्वयंभू आदिक दश, गणधर थे ऋद्धीवंत घने।।
सोलह हजार मुनिराज प्रभू के, चरणों में शिर नाये हैं।।जय.।।५।।
गणिनी सुलोचना प्रमुख आर्यिका, छत्तिस सहस धर्मरत थीं।
श्रावक इक लाख श्राविकायें, त्रय लाख वहाँ जिन भाक्तिक थीं।।
प्रभु सर्प चिन्ह तनु हरित वर्ण, लखकर रवि शशि शर्माये हैं।।जय.।।६।।
नव हाथ तुंग सौ वर्ष आयु, प्रभु उग्र वंश के भास्कर हो।
उपसर्गजयी संकटमोचन, भक्तों के हित करुणाकर हो।।
प्रभु महासहिष्णू क्षमासिंधु, हम भक्ती करने आये हैं।।जय.।।७।।
चौंतिस अतिशय के स्वामी हो, वर प्रातिहार्य हैं आठ कहे।
आनन्त्य चतुष्टय गुण छ्यालिस, फिर भी सब गुण आनन्त्य कहे।।
बस केवल ‘ज्ञानमती’ हेतू, प्रभु तुम गुण गाने आये हैं।।
जय पार्श्व प्रभो! करुणासिंधो! हम शरण तुम्हारी आये हैं।।जय.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्य कालसर्पहर विधान करेंगे।
वे कालसर्प आदि दोष दूर करेंगे।।
संपूर्ण ग्रहों को सदा अनुकूल करेंगे।
‘सज्ज्ञानमती’ सूर्य से उद्योत करेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।