-अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद-
तीर्थंकर श्रीमल्लिनाथ ने, निज पद प्राप्त किया है।
काम मोह यम मल्ल जीतकर, सार्थक नाम किया है।।
कर्म मल्ल विजिगीषु मुनीश्वर, प्रभु को मन में ध्याते।
हम पूजें आह्वानन करके, सब दु:ख दोष नशाते।।१।।
-दोहा-
मल्लिनाथ प्रभु बालयति, नमूं नमूं त्रयकाल।
पूजूं श्रद्धा भाव से, पुन: नमूं नत भाल।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-गीता छंद-
जल अमल ले जिनपाद पूजूँ, कर्म मल धुल जायेगा।
आत्मीक समतारस विमल, आनंद अनुभव आयेगा।।
श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र के, चरणाब्ज का अर्चन करूँ।
यमराज मल्ल पछाड़ने को, कोटिश: वंदन करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन सुगंधित ले जिनेश्वर, पद जजूँ आनंद से।
स्वात्मानुभव आह्लाद पाकर, पूजहूँ जगद्वंद से।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदा किरण सम धवल तंदुल, पुंज जिन आगे धरूँ।
वर धर्मशुक्ल सुध्यान निर्मल, पाय आतम निधि भरूँ।।
श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र के, चरणाब्ज का अर्चन करूँ।
यमराज मल्ल पछाड़ने को, कोटिश: वंदन करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदार चंपक पुष्प सुरभित, लाय जिनपद पूजते।
निज आत्मगुण कलिका खिले, जन भ्रमर तापे गूंजते।।श्री.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदक पुआ बरफी इमरती, लाय जिन सन्मुख धरें।
आत्मैकरस पीयूष मिश्रित, अतुल आनंद भव हरें।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक शिखा उद्योतकारी, जिनचरण में वारना।
अज्ञान तिमिर हटाय अंतर, ज्ञान ज्योती धारना।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंधधूप मंगाय स्वाहा, नाथ को अर्पण किया।
वसुकर्म स्वाहा हेतु ही, निज आत्म को तर्पण किया।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम अनार गन्ना, लाय जिनपूजा करूँ।
वर मोक्षफल की आश लेकर, कर्मकंटक परिहरूँ।।श्री.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध अक्षत पुष्प नेवज, दीप धूप फलादि ले।
जिन कल्पतरु पूजत मुझे, कैवल्य सुज्ञानमती मिले।।श्री.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
कंचनझारी में भरा, यमुना सरिता नीर।
जिनपद में धारा करत, मिले भवोदधि तीर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरभित फूलों को चुना, बेला जुही गुलाब।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले निजातम लाभ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-नरेन्द्र छंद-
मिथिलापुरी में कुंभ नृपति गृह, प्रजावती रानी को।
सोलह स्वप्न दिखा प्रभु आये, गर्भ बसे अतिसुख सों।।
चैत्र सुदी एकम तिथि उत्तम, सुरपति उत्सव कीना।
हम पूजें प्रभु गर्भकल्याणक, भव भव दु:ख क्षय कीना।।१।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाप्रतिपदायां श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर सुदि ग्यारस प्रभु जन्में, त्रिभुवन धन्य हुआ था।
रुचकाचल देवियाँ आय के, जातक कर्म किया था।।
सुरगिरि पर जन्माभिषेक कर, सुरगण धन्य हुये तब।
जन्मकल्याणक जजते मेरे, संकट दूर हुये सब।।२।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाएकादश्यां श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जातिस्मरण हुआ प्रभु को जब, बाल ब्रह्मचारी ही।
देव जयंता पालकि लाये, मगसिर सुदि ग्यारस थी।।
श्वेतबाग में पहुँच प्रभू ने, दीक्षा स्वयं लिया था।
तपकल्याणक पूजा करके, सुरगण पुण्य लिया था।।३।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाएकादश्यां श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पौष वदी दुतिया वन में प्रभु, तरु अशोक तल तिष्ठे।
मोह नाश दशवें गुणथाने, बारहवें में पहुँचे।।
ज्ञानावरण दर्शनावरणी, अंतराय को नाशा।
केवलज्ञान सूर्य किरणों से, लोकालोक प्रकाशा।।४।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाद्वितीयायां श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमीति स्वाहा।
फाल्गुन सुदि पंचमि तिथि उत्तम, गिरि सम्मेद पर तिष्ठे।
चार अघाती कर्मनाश कर, मोक्षधाम में पहुँचे।।
इन्द्रगणों ने उत्सव करके, तांडवनृत्य किया तब।
शिवकल्याणक पूजा करते, जीवन सफल हुआ अब।।५।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लापंचम्यां श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकरमोक्षकाल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—दोहा—
मल्लिनाथ की भक्ति से, मृत्युमल्ल का अन्त।
अर्घ्य चढ़ाकर पूजते, भक्त बने भगवन्त।।६।।
ॐ ह्रीं बालयतिश्रीमल्लिनाथतीर्थंकरपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि।
—दोहा—
मल्लिनाथ भगवंत को, जजत मिले शिवपंथ।
बालब्रह्मचारी नमूं, पुष्पांजलि विकिरंत।।१।।
।।अथ मंडलस्योपरि द्वितीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
—सोरठा—
दिव्यध्वनी के नाथ, अठरह महभाषा कहीं।
लघू सात सौ भाष, मैं पूूजूँ वसु अर्घ्य ले।।१।।
ॐ ह्रीं दिव्यभाषापतये श्रीमल्लिनाथ तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय सुंदर आप, अत: ‘दिव्य’ गणधर कहे।
नशें कर्म अभिशाप, पूजत हो जिनसंपदा।।२।।
ॐ ह्रीं दिव्याय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय पावन वाच, ‘पूतवाक्’ प्रभु आप हैं।
नमत मिले गुण सांच, मल्लिनाथ तीर्थेश को।।३।।
ॐ ह्रीं पूतवाचे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शासन परम पवित्र, मल्लिनाथ का लोक में।
कर्माराति लवित्र, पूजत आत्म पवित्र हो।।४।।
ॐ ह्रीं पूतशासनाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पावन आत्मा नाथ, मुझको भी पावन करो।
नमूँ नमूँ नत माथ, अर्घ चढ़ाकर पूजहूँ।।५।।
ॐ ह्रीं पूतात्मने श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परमज्योति’ भगवान, केवलज्ञान प्रकाशमय।
नमूँ नमूं गुणखान, मल्लिनाथ भगवान को।।६।।
ॐ ह्रीं परमज्योतिषे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारित में अध्यक्ष, ‘धर्माध्यक्ष’ प्रसिद्ध हो।
धर्म न हो विध्वस्त, पूजूँ नित्य परोक्ष ही।।७।।
ॐ ह्रीं धर्माध्यक्षाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय दमन करंत, प्रभो! ‘दमीश्वर’ आप हैं।
शम दम धर्म दिशंत, नमूँ जितेन्द्रिय हेतु हैं।।८।।
ॐ ह्रीं दमीश्वराय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीपति’ शिवश्री नाथ, स्वर्गमोक्ष श्री देत हो।
मिले सभी गुण साथ, पूजूँ मल्लिजिनेश को।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपतये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रातिहार्य ऐश्वर्य, धरें मल्लि ‘भगवान’ हैं।
पुन: मोक्ष स्थैर्य, लिया जजूँ तीर्थेश को।।१०।।
ॐ ह्रीं भगवते श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शत इन्द्रों से पूज्य, ‘अर्हन्’ तीर्थ स्वरूप हो।
पाऊँ जिनपद पूज्य, पूजूँ तुम पदपद्म को।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हते श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानदर्शनावर्ण, रज हैं धूली के सदृश।
इनका कीना नाश, ‘अरज’ आपको नित जजूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं अरजसे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब आवरण विनाश, सिद्ध लोक में जा बसे।
पूर्ण करो मम आश, जजूँ ‘विरज’ पद हेतु मैं।।१३।।
ॐ ह्रीं विरजसे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पावन तीर्थ विशुद्ध, ‘शुचि’ ब्रह्मा में लीन हो।
मेरा मन हो शुद्ध, पूजूँ त्रिकरण शुद्धि से।।१४।।
ॐ ह्रीं शुचये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवदधि तिरते भव्य, जिससे तीर्थ प्रसिद्ध है।
प्रभो ‘तीर्थकृत’ नव्य, जजूँ तिरूँ भवसिंधु से।।१५।।
ॐ ह्रीं तीर्थकृते श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान अनंत, गुण अनंत के तुम धनी।
नमूँ नमूँ भगवंत, अविकल गुणनिधि हेतु मैं।।१६।।
ॐ ह्रीं केवलिने श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रों के पति आप, मुनि ‘ईशान’ तुम्हें कहें।
भक्त बने निष्पाप, पूजूँ समरस हेतु मैं।।१७।।
ॐ ह्रीं ईशानाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट विधार्चन योग्य, मुनि ‘पूजार्ह’ तुम्हें कहें।
पाऊँ निजपद योग्य, इसी हेतु पूजा करूँ।।१८।।
ॐ ह्रीं पूजार्हाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घात घातिया कर्म, आप ‘स्नातक’ मान्य हैं।
मिले मोक्ष का मर्म, तुम पद पूजूँ भक्ति से।।१९।।
ॐ ह्रीं स्नातकाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्य भाव नोकर्म, त्रिविध मलों विरहित प्रभो!।
नमूँ ‘अमल’ दें शर्म, मेरा मन पावन करें।।२०।।
ॐ ह्रीं अमलाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमित दीप्ति से कांत, हे ‘अनंतदीप्ति’ प्रभो!।
गुण की दीप्ति अनंत, नमूँ तुम्हें बहु प्रीति से।।२१।।
ॐ ह्रीं अनंतदीप्तये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण सुज्ञान स्वरूप, ‘ज्ञानात्मा’ लोकाग्र में।
नमूँ नमॅूँ चिद्रूप, ज्ञानज्योति प्रगटित करूँ।।२२।।
ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वयंबुद्ध’ भगवान्, गुरु बिन ज्ञान अपूर्व था।
रत्नत्रय निधिमान, बनूँ आपकी भक्ति से।।२३।।
ॐ ह्रीं स्वयंबुद्धाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन जन के नाथ, आप ‘प्रजापति’ मान्य हो।
मुझको करो सनाथ, चिन्मय गुण विकसित करो।।२४।।
ॐ ह्रीं प्रजापतये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवबंधन से ‘मुक्त’, पूर्ण स्वतंत्र तुम्हीं प्रभो।
मुझको करिये मुक्त, चरणों में आश्रय चहूँ।।२५।।
ॐ ह्रीं मुक्ताय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बाइस परिषह कष्ट, सहने में सक्षम हुये।
अत: कहाये ‘शक्त’, सहनशक्ति हित मैं नमूँ।।२६।।
ॐ ह्रीं शक्ताय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब बाधा उपसर्ग, रहित आप परमातमा।
‘निराबाध’ संसर्ग, मेरी सब बाधा हरे।।२७।।
ॐ ह्रीं निराबाधाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
काल कला से शून्य, रत्नवृष्टि माँ के महल।
कवलाहार विशून्य, ‘निष्कल’ की संस्तुति करूँ।।२८।।
ॐ ह्रीं निष्कलाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भुवेनश्वर’ त्रैलोक्य, ईश्वर पूज्य त्रिलोक में।
हो जाऊँ अक्षोभ्य, भेदविज्ञान प्रकाश से।।२९।।
ॐ ह्रीं भुवनेश्वराय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्माञ्जन से शून्य, अठरह दोष विमुक्त हो।
हो जाऊँ भव शून्य, नमूँ ‘निरञ्जन’ देव को।।३०।।
ॐ ह्रीं निरञ्जनाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगज्ज्योति’ चिद्रूप, लोक अलोक विलोकते।
चिन्मय ज्योतिस्वरूप, पाऊँ आतम ज्योति मैं।।३१।।
ॐ ह्रीं जगज्ज्योतिषे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्वापर अविरोध, स्याद्वादमय हैं वचन।
‘निरुक्तोक्ति’ गतशोक१, नमॅूँ स्वात्मसंपति मिले।।३२।।
ॐ ह्रीं निरुक्तोक्तये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘निरामय’ आप, सभी रोग से दूर हो।
नमत नशें सब पाप, पूर्ण स्वस्थता प्राप्त हो।।३३।।
ॐ ह्रीं निरामयाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अचलस्थिति’ भगवान, लोकशिखर पर तिष्ठते।
मिले भेदविज्ञान, नमते मन एकाग्र हो।।३४।।
ॐ ह्रीं अचलस्थितये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कभी चरित से नाथ! नहीं चलित हों स्वप्न में।
ज्ञानपूर्णता साथ, प्रभु ‘अक्षोभ्य’ नमूँ सदा।।३५।।
ॐ ह्रीं अक्षोभ्याय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकशिखर के अग्र, तिष्ठ रहे ‘कूटस्थ’ हो।
मोह शैल को वज्र, स्थिर रूप तुम्हें नमूँ।।३६।।
ॐ ह्रीं कूटस्थाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गमनागमन विहीन, ‘स्थाणु’ जन्म मृत्यू रहित।
रोग शोक हो क्षीण, वंदत सुस्थिर पद मिले।।३७।।
ॐ ह्रीं स्थाणवे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अक्षय’ नाश विहीन, इन्द्रिय विरहित आप हो।
अक्षय पद सुख लीन, नमूँ पूर्ण सुख हेतु मैं।।३८।।
ॐ ह्रीं अक्षयाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन ऊपर आप, ले जाते हैं ‘अग्रणी’।
मुझको भी हे नाथ! चरणों में स्थान दो।।३९।।
ॐ ह्रीं अग्रण्ये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव्यों को प्रभु मोक्ष, पहुँचाते हो ‘ग्रामणी’।
नमत मिले सब सौख्य, शिवपुर मार्ग प्रशस्त हो।।४०।।
ॐ ह्रीं ग्रामण्ये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नेता’ आप महान्, शिवपथ दिखलाते सदा।
हमें करो धनवान, रत्नत्रय निधि देय के।।४१।।
ॐ ह्रीं नेत्रे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशांगमय शास्त्र, रचा ‘प्रणेता’ हो प्रभो!।
मिले ध्यानमय शस्त्र, मोहमल्ल नाशूँ त्वरित।।४२।।
ॐ ह्रीं प्रणेत्रे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
न्याय-नीति के शास्त्र, उपदेशा है विश्व को।
‘न्यायशास्त्रकृत’ नाथ! नमत न्याय मुझको मिले।।४३।।
ॐ ह्रीं न्यायशास्त्रकृते श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हित उपदेशी देव, ‘शास्ता’ गुरु जग मान्य हो।
मेटो अहित कुटेव, नमूँ स्वात्महित मैं तुम्हें।।४४।।
ॐ ह्रीं शास्त्रे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वस्तुस्वभावी धर्म, क्षमादि रत्नत्रय दया।
‘धर्मपती’ दो शर्म, चउविध धर्म प्रचार हो।।४५।।
ॐ ह्रीं धर्मपतये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मसहित हो ‘धर्म्य’ धर्मरूप परिणत हुये।
मिले मोक्ष का मर्म, नमूँ प्रभो! सुख शांति दो।।४६।।
ॐ ह्रीं धर्म्याय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मस्वरूप जिनेश, ‘धर्मात्मा’ त्रिभुवन गुरू।
संस्तव करूँ हमेश, धर्मरूप मैं भी बनूँ।।४७।।
ॐ ह्रीं धर्मात्मने श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारित तीर्थ महान, उसके कर्ता नाथ हैं।
‘धर्मतीर्थकृत्’ नाम, स्वात्म शुद्धि हेतू नमूँ।।४८।।
ॐ ह्रीं धर्मतीर्थकृते श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मध्वजा है नित्य, ‘वृषध्वज’ माने लोक में।
आत्मधर्म हो नित्य, मैं वंदूँ गुणहेतु नित।।४९।।
ॐ ह्रीं वृषध्वजाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म अहिंसारूप, उसके स्वामी आप ही।
मिले स्वात्म चिद्रूप, ‘वृषाधीश’ तुमको नमूँ।।५०।।
ॐ ह्रीं वृषाधीशाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सौमराजी छंद—
महापुण्य का चिन्ह है आपका ही।
नमॅूँ नित्य ‘वृषकेतु’ रोगादि नाशो।।५१।।
ॐ ह्रीं वृषकेतवे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वृषायुध’ महामृत्यु मारा धरम से।
जरा मृत्यु नाशो, हमारे नमूँ मैं।।५२।।
ॐ ह्रीं वृषायुधाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किया धर्म वर्षा, अत: ‘वृष’ तुम्हीं हो।
हमें बोधि देवो, नमॅूँ भक्ति से मैं।।५३।।
ॐ ह्रीं वृषाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘वृषपती’ हो, अहिंसा के स्वामी।
नमूँ मैं मुझे पूर्ण आरोग्य देवो।।५४।।
ॐ ह्रीं वृषपतये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा भव्य को पोषते आप भर्ता।
नमूँ सद्गुणों को, भरो नाथ मुझमें।।५५।।
ॐ ह्रीं भर्त्रे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप वृषभांक सद्धर्म चिन्हित।
नमूँ धर्म मेरे, अनंते मिलेंगे।।५६।।
ॐ ह्रीं वृषभांकाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वृषोद्भव’ धरा धर्म पूरब भवों में।
नमूँ मैं मुझे आत्म संपत्ति देवो।।५७।।
ॐ ह्रीं वृषोद्भवाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘हीरण्यनाभी’ नमूँ मैं।
सुनाभी सभी से अधिक श्रेष्ठ सुंदर।।५८।।
ॐ ह्रीं हिरण्यनाभये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ज्ञान से व्याप्त आत्मा जगत में।
नमूँ ‘भूतआत्मा’ सभी शोक नाशो।।५९।।
ॐ ह्रीं भूतात्मने श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी जीव रक्षो, प्रभो! ‘भूतभृद्’ हो।
दयादृष्टि कीजे, पुनर्जन्म ना हो।।६०।।
ॐ ह्रीं भूतभृते श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमूँ ‘भूतभावन’ दरश शुद्धि आदी।
धरीं सोलहों, भावना श्रेष्ठ स्वामी।।६१।।
ॐ ह्रीं भूतभावनाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रभव’ आपका जन्म उत्कृष्ट माना।
नमूँ मैं बनू श्लाघ्य शिवमार्ग पाके।।६२।।
ॐ ह्रीं प्रभवाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विभव’ दूर संसार से आप हैं ही।
सफल जन्म मेरा करो शीश नाऊँ।।६३।।
ॐ ह्रीं विभवाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विभा ज्ञानदीप्ती, अत: आप ‘भास्वान्’।
मुझे पूर्ण विज्ञान दो याचना ये।।६४।।
ॐ ह्रीं भास्वते श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हृदय में हुये भव्य के ‘भव’ कहाये।
सदा चित्त में आप तिष्ठो नमूँ मैं।।६५।।
ॐ ह्रीं भवाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनी के हृदय में रहो ‘भाव’ तुम हो।
हमारे हृदय के तिमिर को विनाशो।।६६।।
ॐ ह्रीं भावाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भवांतक’ हो स्वामी, किया अंत भव का।
भवांभोधि से भक्ति ही तारती है।।६७।।
ॐ ह्रीं भवान्तकाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रसू सौध में मास नौ रत्न वर्षे।
प्रभू नाम ‘हीरण्यगर्भा’ नमूँ मैं।।६८।।
ॐ ह्रीं हिरण्यगर्भाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करें सेव माँ की, सुरी श्री ह्रि आदी।
नमूँ नाथ ‘श्रीगर्भ’ श्री प्राप्त होवे।।६९।।
ॐ ह्रीं श्रीगर्भाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोकैक साम्राज्य पाया तुम्हीं ने।
नमूँ मैं ‘प्रभूताविभव’ सौख्य देवो।।७०।।
ॐ ह्रीं प्रभूतविभवाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अभव’ आप संसार से हीन सिद्धा।
नमूँ पंच संसार का नाश कीजे।।७१।
ॐ ह्रीं अभवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वयंप्रभु’ चिदात्मा, स्वयं नाथ सबके।
स्वयं सिद्ध कीजे, नमूँ भक्ति से मैं।।७२।।
ॐ ह्रीं स्वयंप्रभवे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रभूतातमा’ आप, अस्ती स्वभावी।
मुझे सिद्धि दीजे नमूँ शीश नाके।।७३।।
ॐ ह्रीं प्रभूतात्मने श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘भूतनाथा’, सभी पे दयालू।
दया दान दीजे, सुचारित्र पूरो।।७४।।
ॐ ह्रीं भूतनाथाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगत्प्रभु’ त्रिलोकेश सुख शांति दीजे।
नमॅूँ मैं सभी रोग शोकादि नाशो।।७५।।
ॐ ह्रीं जगत्प्रभवे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं नाथ ‘सर्वादि’ हो श्रेष्ठ सबमें।
नमूँ मैं सुसम्यक्त्व निधि दान दीजे।।७६।।
ॐ ह्रीं सर्वादये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुकैवल्यदृक् से सभी विश्व देखा।
नमूँ ‘सर्वदृक्’ शुद्ध सम्यक्त्व कीजे।।७७।।
ॐ ह्रीं सर्वदृशे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी जीव हितकारि, हो ‘सार्व’ जग में।
नमूँ चार आराधना, पूर्ण कीजे।।७८।।
ॐ ह्रीं सार्वाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोकं त्रिकालं, सभी वस्तु ज्ञाता।
नमूँ आप ‘सर्वज्ञ’ मेटो असाता।।७९।।
ॐ ह्रीं सर्वज्ञाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘सर्वदर्शन’ सुसम्यक्त्व क्षायिक।
मेरे ज्ञानचारित्र सत्यार्थ कर दो।।८०।।
ॐ ह्रीं सर्वदर्शनाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी वस्तु प्रतिबिंबती आप में ही।
मेरा ज्ञान कैवल्य कीजे नमूँ मैं।।८१।।
ॐ ह्रीं सर्वात्मने श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी प्राणि के ईश, वंदूं सदा मैं।
प्रभो ‘सर्वलोकेश’ भवदु:ख मेटो।।८२।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकेशाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी लोक को जानते ‘सर्ववित्’ हो।
प्रभो ज्ञानज्योती मुझे दो नमूँ मैं।।८३।।
ॐ ह्रीं सर्वविदे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयी पंच संसार के जो नमूँ मैं।
प्रभो ‘सर्वलोकैकजित्’ शोक नाशो।।८४।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकजिते श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुगति’ मुक्ति पंचमगती प्राप्त की है।
सुगति में गमन हो इसी हेतु वंदूँ।।८५।।
ॐ ह्रीं सुगतये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुश्रुत’ शास्त्र सम्यक् प्रगट आपसे हैं।
तथा आप विख्यात जग में नमूँ मैंं।।८६।।
ॐ ह्रीं सुश्रुताय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी की सुनी प्रार्थना आप ‘सुश्रुत्’।
मुझे स्वात्म संपत्ति दीजे नमूँ मैं।।८७।।
ॐ ह्रीं सुश्रुते श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुवाक्’ सप्तभंगी युता दिव्य वाणी।
उसी में रमूं मैं इसी हेतु वंदूँ।।८८।।
ॐ ह्रीं सुवाचे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! पंच आचार से ‘सूरि’ माने।
नमॅूूँ आपको बुद्धि सम्यक् करीजे।।८९।।
ॐ ह्रीं सूरये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बहुश्रुत’ सभी शास्त्र के मर्मज्ञाता।
तुम्हीं से हुआ श्रुत नमूँ ज्ञान हेतू।।९०।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुताय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमूँ आप ‘विश्रुत’ जगत् में प्रसिद्धा।
सभी इन्द्र धरणेन्द्र से वंद्य वंदूँ।।९१।।
ॐ ह्रीं विश्रुताय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अधो मध्य ऊरध त्रिजग व्याप्त कीना।।
नमूँ ‘विश्वत:पाद’ ज्ञानी किरण से।।९२।।
ॐ ह्रीं विश्वत:पादाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिजग में हि मस्तक त्रिलोकाग्र राजें।
नमूँ ‘विश्वशीर्षा’ करो मेरी रक्षा।।९३।।
ॐ ह्रीं विश्वशीर्षाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी प्राणियों की सुनी आप अर्जी।
नमूँ मैं ‘शुचिश्रव’ हमें बोधि देवो।।९४।।
ॐ ह्रीं शुचिश्रवसे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सहसशीर्ष’ भगवन्! अनंते सुखी हो।
मुझे स्वात्म सुख दीजिये मैं जजूँ अब।।९५।।
ॐ ह्रीं सहस्रशीर्षाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजात्मा को जाना चराचर सभी भी।
प्रभो! ‘क्षेत्रज्ञा’ नमूँ स्वस्थहेतू।।९६।।
ॐ ह्रीं क्षेत्रज्ञाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंते पदारथ तुम्हीं जानते हो।
‘सहस्राक्ष’ स्वामिन्! नमूँ प्रीति से मैं।।९७।।
ॐ ह्रीं सहस्राक्षाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंते बली नंत किरणों सुव्यापी।
‘सहसपात्’ वंदूं मुझे शक्ति दीजे।।९८।।
ॐ ह्रीं सहस्रपदे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं भूतभावी व संप्रति के स्वामी।
नमूँ ‘भूतभव्यभवद्भर्तृ’ तुमको।।९९।।
ॐ ह्रीं भूतभव्यभवद्भर्त्रे श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुविद्या अखिल के तुम्हीं नाथ माने।
अत: ‘विश्वविद्यामहेश्वर’ नमूँ मैं।।१००।।
ॐ ह्रीं विश्वविद्यामहेश्वराय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
पाँच महाव्रत ईश, नाम ‘महाव्रतपति’ धरा।
जजूँ मल्लितीर्थेश, नाममंत्र प्रभु आपके।।१०१।।
ॐ ह्रीं महाव्रतपतये श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मह्य’ आप जगपूज्य, मल्लिनाथ भगवंत हो।
मिले स्वात्मपद पूज्य, नाममंत्र को पूजते।।१०२।।
ॐ ह्रीं मह्याय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकान्तिधर’ आप अतिशय कांतिनिधान हो।
नाममंत्र तुम जाप, करे अतुल सुखसंपदा।।१०३।।
ॐ ह्रीं महाकांतिधराय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबके स्वामी इष्ट, अत: ‘अधिप’ सुरगण कहें।
नाशो सर्व अनिष्ट, मल्लिनाथ तुम पूजहूूँ।।१०४।।
ॐ ह्रीं अधिपाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामैत्रिमय’ नाथ! सबसे मैत्रीभाव है।
मल्लिनाथ तुम जाप, त्रिभुवन को वश में करे।।१०५।।
ॐ ह्रीं महामैत्रीमयाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनवधि गुण के नाथ, तुम्हें ‘अमेय’ मुनी कहें।
पूजत बनूूँ सनाथ, नाममंत्र प्रभु आपके।।१०६।।
ॐ ह्रीं अमेयाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महोपाय’ तुम नाथ! शिव के श्रेष्ठ उपाययुत।
पूजूँ मल्लीनाथ, नाममंत्र को नित जपूँ।।१०७।।
ॐ ह्रीं महोपायाय श्रीमल्लिनाथ तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ!‘महोमय’ आप, अति उत्सव अरु ज्ञानयुत।
मल्लिनाथ तुम जाप, सर्व उपद्रव नाशता।।१०८।।
ॐ ह्रीं महोमयाय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—
मल्लिनाथ भगवंत को, नमन करूं शत बार।
पूरण अर्घ्य चढ़ाय के, पाऊं निजसुख सार।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरशतनाममंत्रसमन्विताय श्रीमल्लिनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीबालयतिमल्लिनाथतीर्थंकराय नम:।
-शेरछंद-
जय जय श्री जिनदेव देव देव हमारे।
जय जय प्रभो! तुम सेव करें सुरपति सारे।।
जय जय अनंत सौख्य के भंडार आप हो।
जय जय समोसरण के सर्वस्व आप हो।।१।।
मुनिवर विशाख आदि अट्ठाईस गणधरा।
चालिस हजार साधु थे व्रतशील गुणधरा।।
श्रीबंधुषेणा गणिनी आर्या प्रधान थीं।
पचपन हजार आर्यिकाएँ गुण निधान थीं।।२।।
श्रावक थे एक लाख तीन लाख श्राविका।
तिर्यंच थे संख्यात देव थे असंख्यका।।
तनु धनु पचीस आयू पचपन सहस बरस।
है चिन्ह कलश देह वर्ण स्वर्ण के सदृश।।३।।
जो भव्य भक्ति से तुम्हें निज शीश नावते।
वे शिरोरोग नाश स्मृति शक्ति पावते।।
जो एकटक हो नेत्र से प्रभु आप को निरखें।
उन मोतिबिन्दु आदि नेत्र व्याधियाँ नशें।।४।।
जो कान से अति प्रीति से तुम वाणि को सुनें।
उनके समस्त कर्ण रोग भागते क्षण में।।
जो मुख से आपकी सदैव संस्तुती करें।
मुख दंत जिह्वा तालु रोग शीघ्र परिहरें।।५।।
जो कंठ में प्रभु आपकी गुणमाल पहनते।
उनके समस्त कंठ ग्रीवा रोग विनशते।।
श्वासोच्छ्वास से जो आप मंत्र को जपते।
सब श्वांस नासिकादि रोग उनके विनशते।।६।।
जो निज हृदय कमल में आप ध्यान करे हैं।
वे सर्व हृदय रोग आदि क्षण में हरे हैं।।
जो नाभिकमल में तुम्हें नित धारते मुदा।
नश जाती उनकी सर्व उदर व्याधियाँ व्यथा।।७।।
जो पैर से जिनगृह में आके नृत्य करे हैं।
वे घुटने पैर रोग सर्व नष्ट करे हैं।।
पंचांग जो प्रणाम करें आपको सदा।
उनके समस्त देह रोग क्षण में हों विदा।।८।।
जो मन में आपके गुणों का स्मरण करें।
वे मानसिक व्यथा समस्त ही हरण करें।।
ये तो कुछेक फल प्रभो! तुम भक्ति किये से।
फल तो अचिन्त्य है न कोई कह सके उसे।।९।।
तुम भक्ति अकेली समस्त कर्म हर सके।
तुम भक्ति अकेली अनंत गुण भी भर सके।।
तुम भक्ति भक्त को स्वयं भगवान बनाती।
फिर कौन-सी वो वस्तु जिसे ये न दिलाती।।१०।।
अतएव नाथ! आप चरण की शरण लिया।
संपूर्ण व्यथा मेट दीजिए अरज किया।।
अन्यत्र नहीं जाऊँगा मैंने परण किया।
बस ‘ज्ञानमती’ पूरिये यहँ पे धरण दिया।।११।।
ॐ ह्रीं श्री बालयतिमल्लिनाथजिनेन्द्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो पांच बालयति का विधान, श्रद्धा भक्ती से करते हैं।
वे त्रिभुवन पूजित ब्रह्मचर्य, पाकर स्वात्मा में रमते हैं।।
देवर्षिदेव लौकांतिकसुर, होकर अंतिम भव लभते हैं।
कैवल्य ज्ञानमति भास्कर हो, त्रिभुवन आलोकित करते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:।।