स्थापना-गीता छंद
जो गणधरों से वंद्य हैं बारह सभा के नाथ हैं।
निज भक्त को संसार में करते सदैव सनाथ हैं।।
उन शांतिनाथ जिनेंद्र को मैं आज पूजूँ भाव से।
निज आत्म निधि की प्राप्ति हो अतएव थापूँ चाव से।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधीकरणं।
अष्टक-चाल-नंदीश्वर पूजा
यमुना नदि का शुचिनीर, झारी पूर्ण भरूँ।
मैं पाऊँ भवदधि तीर, तुम पद धार करूँ।।
श्री शान्तिनाथ भगवान, बारह गण वंदित।
हो स्वपर भेदविज्ञान, पूजूँ मैं संप्रति।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति
स्वाहा।
मलयागिरि चंदन सार, गंध सुगंध करे।
चर्चूं जिनपद सुखकार, मन की तपन हरे।।श्री शान्तिनाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति
स्वाहा।
मोतीसम अक्षत लाय, पुंज चढ़ाऊँ मैं।
निज अक्षयपद को पाय, यहाँ न आऊँ मैं।।श्री शान्तिनाथ.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति
स्वाहा।
बेला मचकुंद गुलाब, चुन चुन के लाऊँ।
अर्पूं जिनवर चरणाब्ज, निजसुखयश पाऊँ।।श्री शांतिनाथ.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति
स्वाहा।
मैं लड्डू मोतीचूर, थाली भर लाऊँ।
हो क्षुधा वेदना दूर, अर्पत सुख पाऊँ।।श्री शान्तिनाथ.।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
घृतमय दीपक की ज्योति, जग अंधेर हरे।
मुझ मोहतिमिर हर ज्योति, ज्ञानउद्योत करे।।श्री शान्तिनाथ.।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति
स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप, खेऊँ अगनी में।
उड़ती दशदिश में धूम्र, फैले यश जग में।।श्री शान्तिनाथ.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अंगूर अनार, श्रीफल भर थाली।
अर्पूं जिन आगे सार, मनरथ निंह खाली।।श्री शान्तिनाथ.।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल आदिक अर्घ्य बनाय उसमें रत्न मिला।
जिन आगे नित्य चढ़ाय, पाऊँ सिद्ध शिला।।श्री शान्तिनाथ.।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
सुवरण झारी में भरूँ, गंगा नदि को नीर।
शांती धारा मैं करूँ, मिले भवोदधि तीर।।१।।
शांतये शांतिधारा।
चंप चमेली केवड़ा, बेला बकुल गुलाब।
पुष्पांजलि अर्पण करत, शीघ्र स्वात्म सुख लाभ।।२।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-रोला छंद-
भादों कृष्णा पाख, सप्तमि तिथि शुभ आई।
गर्भ बसे प्रभु आप, सब जन मन हरषाई।।
इन्द्र सुरासुर संघ, उत्सव करते भारी।
हम पूजें धर प्रीति, जिनवर पद सुखकारी।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं भाद्रपदकृष्णासप्तम्यां श्रीशांतिनाथतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपमाीति स्वाहा।
जन्म लिया प्रभु आप, ज्येष्ठवदी चौदस में।
सुरगिरि पर अभिषेक, किया सभी सुरपति ने।।
शांतिनाथ यह नाम, रखा शांतिकर जग में।
हम नावें निज माथ, जिनवर चरणकमल में।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीक्षा ली प्रभु आप, ज्येष्ठ वदी चौदस के।
लौकांतिक सुर आय, बहु स्तवन उचरते।।
इंद्र सपरिकर आय, तप कल्याणक करते।
हम पूजें नत माथ, सब दुख संकट हरते।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान विकास, पौष सुदी दशमी के।
समवसरण में नाथ, राजें अधर कमल पे।।
इंद्र करें बहु भक्ति, बारह सभा बनी हैं।
सभी भव्य जन आय, सुनते दिव्य धुनी हैं।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं पौषशुक्लादशम्यां श्रीशांतिनाथतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्राप्त किया निर्वाण, ज्येष्ठ वदी चौदश में।
आत्यंतिक सुखशांति, प्राप्त किया उस क्षण में।।
महामहोत्सव इंद्र, करते बहुवैभव से।
हम पूजें तुम पाद, छुटें सभी भवदु:ख से।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
विश्वशांतिकर्ता प्रभो! शांतिनाथ भगवान।
पूर्ण अर्घ्य अर्पण करत, पाऊँ सौख्य निधान।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकरपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
गुणी जनों में गुण रहे, बिन आश्रय न बसंत।
गुणयुत नामों को यजत, गुणी स्वयं पूजंत।।
।।अथ मंडलस्योपरि द्वितीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
चाल – हे दीनबंधु……….
हे नाथ ‘दिव्यभाषापति’ आप कहाये।
अठरा महाभाषा व लघू सात सौ गाये।।
श्री शांतिनाथ पूजा भव व्याधि हरेगी।
ये ज्ञानज्योति देके अज्ञान हरेगी।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं दिव्यभाषापतिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘दिव्य’ तुम हो, अतिशय सुरूप से।
नर सुर से अधिक सुंदर तन आपका दिपे।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं दिव्यनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘पूतवाक्’ आपकी वाणी पवित्र है।
सब दोष से विवर्जित अतिशय विशुद्ध है।।श्री.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूतवाक्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘पूतशासन’ तुम मत पवित्र है।
वह पूर्व अपर के विरोध दोष रहित है।।
श्री शांतिनाथ पूजा भव व्याधि हरेगी।
ये ज्ञानज्योति देके अज्ञान हरेगी।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूतशासननामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पूतात्मा’ प्रभु आपकी आत्मा पवित्र है।
अरु आप भव्यजीव को करते पवित्र हैं।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूतात्मानामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘परमज्योति’ आप ज्योतिपुंज हैं।
उत्कृष्ट ज्ञानज्योति रूप तेजपुंज हैं।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं परमज्योतिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘धर्माध्यक्ष’ चारित के अधीश हो।
दशधर्म के अध्यक्ष ज्ञान के अधीश हो।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं धर्माध्यक्षनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इंन्द्रियजयी दमी मुनि के ईश आप हैं।
हे नाथ ‘दमीश्वर’ प्रसिद्ध मुक्तिनाथ हैं।।श्री.।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं दमीश्वरनाथसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संसार मोह संपदा लक्ष्मी के पती हो।
हे नाथ आप ‘श्रीपति’ मुक्ती के पती हो।।श्री.।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीपतिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भगवान्’ आप ज्ञान व ऐश्वर्य पूर्ण हो।
सुरपूज्य आठ प्रातिहार्य विभव पूर्ण हो।।श्री.।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं भगवान्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अर्हंत’ इन्द्र आदि से पूजा को प्राप्त हो।
अरि रज रहस्य चार कर्म रहित आप हो।।श्री.।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं अर्हंतनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘अरज’ आप कर्मधूलि हीन हो।
ज्ञानावरण व दर्शनावरण विहीन हो।।श्री.।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं अरजस्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘विरज’ आप कर्मरज विहीन हो।
भव्यों की कर्मधूलि नाश में प्रवीण हो।।श्री.।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं विरजनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘शुचि’ ब्रह्मचर्य से पवित्र हो।
निज शुद्ध आत्म तीर्थ स्नान से पवित्र हो।।श्री.।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं शुचिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘तीर्थकृत्’ भवोदधि से भव्य तारते।
श्रुत द्वादशांग तीर्थ के कर्ता बखानते।।श्री.।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं तीर्थकृत्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण मोह आवरण व विघ्न नाशिया।
कैवल्य पाय ‘केवली’ हो मुनि भाषिया।।श्री.।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं केवलिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ईशान’ आप अनंत शक्ति से समर्थ हो।
अहिंमद्र आदि के भि ईश जग प्रसिद्ध हो।।श्री.।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं ईशाननामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पूजार्ह’ पाँचविद्या अर्चन के योग्य हो।
मह कल्पतरु ऐन्द्रध्वज आदि पूज्य हो।।श्री.।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूजार्हनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्म मल कलंक धोय शुद्ध आत्मा।
हे नाथ ‘स्नातक’ सुज्ञान चंद्रपूर्णिमा१।।श्री.।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्नातकनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘अमल’ देह मलादि विहीन हो।
नैर्मल्य आप राग आदि दोष क्षीण हो।।श्री.।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं अमलनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनंतदीप्ति’ नाथ ज्ञानदीप्ति धारते।
निजदेह दीप्ति से समस्त ध्वांत वारते।।
श्री शांतिनाथ पूजा भव व्याधि हरेगी।
ये ज्ञानज्योति देके अज्ञान हरेगी।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतदीप्तिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पाँच विधे ज्ञान से ‘ज्ञानात्मा’ कहे।
कैवल्यज्ञानदेहमयी आत्मा कहे।।श्री.।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानात्मानामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘स्वयंबुद्ध’ स्वयं ही प्रबुद्ध हो।
गुरू की सहाय बिन समस्त ज्ञान युक्त हो।।श्री.।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंबुद्धनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रजापति’ त्रिलोक जीव रक्षते पती।
संपूर्ण प्रजा को सदा पालें प्रजापती।।श्री.।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रजापतिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘मुक्त’ कर्म बंधनादि मुक्त हो।
संपूर्ण दोष से विमुक्त भ्रमण मुक्त हो।।श्री.।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं मुक्तनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चाल-नंदीश्वर पूजा
प्रभु ‘शक्त’ नाम है आप, परिषह सहन किया।
तुम भक्ति करे निष्पाप, इससे शरण लिया।।
श्री शांतिनाथ की भक्ति, भवभव ताप हरे।
प्रगटावे आतम शक्ति, सौख्य अबाध करे।।२६।।
ॐ ह्रीं अर्हं शक्तनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निराबाध’ उपसर्ग, बाधा विरहित हो।
निज भक्तों को सुख स्वर्ग, देते शिवप्रद हो।।श्री.।।२७।।
ॐ ह्रीं अर्हं निराबाधनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निष्कल’ देह विमुक्त, काल कला हीना।
विज्ञान कलागुण युक्त, कवलाहार बिना।।श्री.।।२८।।
ॐ ह्रीं अर्हं निष्कलनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भुवनेश्वर’ त्रिभुवन ईश, भविजन के त्राता।
मैं जजूँ नमाकर शीश, पाऊँ सुख साता।।श्री.।।२९।।
ॐ ह्रीं अर्हं भुवनेश्वरनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘निरंजन’ आप, कर्मांजन शून्या।
सब द्रव्यभाव नोकर्म, विरहित सुख पूर्णा।।श्री.।।३०।।
ॐ ह्रीं अर्हं निरंजननामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘जगज्ज्योति’ जिनराज, केवलज्ञान लहा।
सब लोक अलोक प्रकाश, अनुपम ज्योतिमहा।।श्री.।।३१।।
ॐ ह्रीं अर्हं जगज्ज्योतिर्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘निरुक्तोक्ती’ य, सार्थक वचन धरो।
सब पूर्वापर अविरोधि, हित उपदेश करो।।श्री.।।३२।।
ॐ ह्रीं अर्हं निरुक्तोक्तिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘निरामय’ आप, व्याधि विवर्जित हो।
पूजत ही स्वास्थ्य सुलाभ, भविजन हर्षित हो।।श्री.।।३३।।
ॐ ह्रीं अर्हं निरामयनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अचलस्थिति’ हे जिननाथ, तुम थल अचल कहा।
हो अचल आत्म थल वास, पूजूँ हरस महा।।श्री.।।३४।।
ॐ ह्रीं अर्हं अचलस्थितिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अक्षोभ्य’ नाथ नहिं क्षोभ, तुममें कभी हुआ।
सब मिटे चित्त का क्षोभ, ये ही विनय किया।।श्री.।।३५।।
ॐ ह्रीं अर्हं अक्षोभ्यनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कूटस्थ’ कूट-लोकाग्र, ऊपर तिष्ठे हो।
करिये मुझ मन एकाग्र, ईप्सित देते हो।।श्री.।।३६।।
ॐ ह्रीं अर्हं कूटस्थनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ आप ‘स्थाणु’, गमनागमन नहीं।
हे लोकशिखर विश्राम, काल अनंत सही।।
श्री शांतिनाथ की भक्ति, भवभव ताप हरे।
प्रगटावे आतम शक्ति, सौख्य अबाध करे।।३७।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्थाणुनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अक्षय’ क्षय निंह होय, काल अनंते भी।
याइंद्रिय सुख निंह कोय, आप अतीन्द्रिय भी।।श्री.।।३८।।
ॐ ह्रीं अर्हं अक्षयनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘अग्रणी’ आप, जग में मुख्य सही।
ले जाते तुम लोकाग्र, भवि को सौख्य मही।।श्री.।।३९।।
ॐ ह्रीं अर्हं अग्रणीनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘ग्रामणी’ आप, जग में भव्यों को।
करवाते मुक्ती प्राप्त, निज सुख दो मुझको।।श्री.।।४०।।
ॐ ह्रीं अर्हं ग्रामणीनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भविजन को हितपथ मािंह, ले जाते ‘नेता’।
मैं पूजूँ भक्ति बढ़ाय, शिवपथ के नेता।।श्री.।।४१।।
ॐ ह्रीं अर्हं नेतृनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु द्वादशांगमय शास्त्र रचना करते हो।
इसलिये ‘प्रणेता’ आप, हित उपदिशते हो।।श्री.।।४२।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रणेतृनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु न्यायशास्त्र उपदेश, करते आप सदा।
तुम ‘न्यायशास्त्रवित्’ नाम, कहते इंद्र मुदा।।श्री.।।४३।।
ॐ ह्रीं अर्हं न्यायशास्त्रवित्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नित धर्मामृत उपदेश, देते गुरू ‘शास्ता’।
हित अनुशास्ता परमेश, देवो मुझ साता।।श्री.।।४४।।
ॐ ह्रीं अर्हं शास्तृनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘धर्मपती’ तुम नाम, धर्माधीश्वर हो।
दश धर्मों के तुम धाम, शिवप्रद ईश्वर हो।।श्री.।।४५।।
ॐ ह्रीं अर्हं धर्मपतिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु चउविध धर्मसमेत, धर्म्य कहाते हो।
रत्नत्रय जीवदयादि, वस्तुस्वभाव कहो।।श्री.।।४६।।
ॐ ह्रीं अर्हं धर्म्यनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम आत्मा धर्मस्वरूप, शिवफल प्राप्त किया।
‘धर्मात्मा’ नाम अनूप, सुरपति आन दिया।।श्री.।।४७।।
ॐ ह्रीं अर्हं धर्मात्मन्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘धर्मतीर्थकृत’ आप, धर्म सुतीर्थ किया।
सम्यक् चारितमय तीर्थ, का उपदेश दिया।।श्री.।।४८।।
ॐ ह्रीं अर्हं धर्मतीर्थकृत्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वृषध्वज’ आप प्रसिद्ध, धर्मध्वजा धारो।
तुम वृषभ चिन्ह से सिद्ध, पाप सु परिहारो।।श्री.।।४९।।
ॐ ह्रीं अर्हं वृषध्वजनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृष-धर्म अहिंसारूप, उसके स्वामी हो।
हो ‘वृषाधीश’ निज रूप, अंतर्यामी हो।।श्री.।।५०।।
ॐ ह्रीं अर्हं वृषाधीशनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चामर छंद-
नाथ ‘वृषकेतु’ आप धर्म की ध्वजा करो।
जैन धर्म की ध्वजा त्रिलोक में भि फरहरो।।
शांतिनाथ स्वामी की सदा करूँ उपासना।
आत्म सौख्य प्राप्त हो जहाँ पे दु:ख रंचना।।५१।।
ॐ ह्रीं अर्हं वृषकेतुनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म शत्रु नाश हेतु धर्मशास्त्र धारते।
नाथ! ‘वृषायुध’ अनंत जन्म को निवारते।।
शांतिनाथ स्वामी की सदा करूँ उपासना।
आत्म सौख्य प्राप्त हो जहाँ पे दु:ख रंचना।।५२।।
ॐ ह्रीं अर्हं वृषायुधनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘वृष’ नामधारि धर्मरूप विश्व में।
धर्ममय पियूष वृष्टि कारि मेघ भव्य में।।शांति.।।५३।।
ॐ ह्रीं अर्हं वृषनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘वृषपती’ दयामयी सुधर्म के पती।
आप शर्ण पाप भव्य लेय पंचमी गती।।शांति.।।५४।।
ॐ ह्रीं अर्हं वृषपतिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘भर्तृ’ आप भव्य जीव पोषते सदा।
दु:ख से निकाल श्रेष्ठ सौख्य में धरें सदा।।शांति.।।५५।।
ॐ ह्रीं अर्हं भर्तृनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘वृषभांक’ बैल चिन्ह आपका कहा।
श्रेष्ठ धर्म चिन्ह से समस्त को सुखी किया।।शांति.।।५६।।
ॐ ह्रीं अर्हं वृषभांकनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘वृषोद्भव’ सुआप धर्म को जनम दिया।
धर्म से हि तीर्थनाथ होय जन्म धारिया।।शांति.।।५७।।
ॐ ह्रीं अर्हं वृषोद्भवनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘हिरण्यनाभि’ स्वर्ण रूप नाभि धारते।
आप गर्भ पूर्व इन्द्र स्वर्णवृष्टि कारते।।शांति.।।५८।।
ॐ ह्रीं अर्हं हिरण्यनाभिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूत आतमा’ जिनेश! सत्यरूप आतमा।
आप पाद शीश नाय होऊँ अंतरातमा।।शांति.।।५९।।
ॐ ह्रीं अर्हं भूतात्मन्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूभृत्’ प्रभो! समस्त भव्यजीव पोषते।
आप शर्ण आय साधु सर्व कर्म धोवते।।शांति.।।६०।।
ॐ ह्रीं अर्हं भूभृत्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूत भावनो’ सुआप भावना सुउत्तमा।
हाथ जोड़ शीश नाय भव्य जांय मुक्ति मा।।शांति.।।६१।।
ॐ ह्रीं अर्हं भूतभावननामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘प्रभव’ आप मुक्ति प्राप्ति हेतु भव्य को।
आप जन्म है प्रशंस सौख्य हेतु विश्व को।।शांति.।।६२।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रभवनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘विभव’ भव विमुक्त भव्य भव विनाशते।
भव विशिष्ट पाय धर्मचक्र को चलावते।।शांति.।।६३।।
ॐ ह्रीं अर्हं विभवनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘भास्वान्’ आप ज्ञानदीप्ति रूप हो।
आत्म को प्रकाश्य भव्य को प्रकाश हेतु हो।।शांति.।।६४।।
ॐ ह्रीं अर्हं भास्वान्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘भव’ उत्पत्ति व्यय व ध्रौव्य सत् रूप हो।
भव्य चित्त मांहि होय पापपंक धोत हो।।शांति.।।६५।।
ॐ ह्रीं अर्हं भवनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भाव’ आप चित्स्वरूप स्वात्म में हि लीन हो।
साधुवृन्द के हृदय निलीन दु:ख हीन हो।।शांति.।।६६।।
ॐ ह्रीं अर्हं भावनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘भवांतको’ चतुर्गती भवो कुनाशिया।
भव्य के अनंतभव क्षणेक में विनाशिया।।शांति.।।६७।।
ॐ ह्रीं अर्हं भवांतकनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो! ‘हिरण्यगर्भ’ गर्भ पूर्व स्वर्ण वर्षते।
आपके पिता कि जीत ना किसी से हो सके।।शांति.।।६८।।
ॐ ह्रीं अर्हं हिरण्यगर्भनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीगरभ’ सुआप अन्तरंग नंतसंपदा।
श्री सु आदि देवियों ने मात सेव की मुदा।।
शांतिनाथ की सदा करूँ उपासना।
आत्म सौख्य प्राप्त हो जहाँ पे दु:ख रंचना।।६९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीगर्भनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो! ‘प्रभूतविभव’ आपका विभव महान है।
तीन लोक साम्राज्य पाय सुख निधान हैं।।शांति.।।७०।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रभूतविभवनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अभव’ आप जन्म ना धरें कभी यहाँ।
आप पाद सेय भव्य जनम नाशते यहाँ।।शांति.।।७१।।
ॐ ह्रीं अर्हं अभवनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘स्वयंप्रभु’ आप ही स्वयं समर्थ हैं।
सर्व कर्म नाश हेतु आप पूर्ण दक्ष हैं।।शांति.।।७२।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंप्रभुनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रभूतातमा’ सुआप आतमा यहाँ।
ज्ञान से समस्त लोक व्यापता सुखावहा१।।शांति.।।७३।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रभूतात्मन्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूतनाथ’ सर्वजीव के हि आप नाथ हो।
आप भक्ति से मुनीशवृंद भी सनाथ हों।।शांति.।।७४।।
ॐ ह्रीं अर्हं भूतनाथनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘जगतत्प्रभु’ त्रिलोक स्वामि हो समर्थ हो।
सर्व सौख्यदान हेतु आप पूर्ण दक्ष हो।।शांति.।।७५।।
ॐ ह्रीं अर्हं जगतत्प्रभुनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सखी-छंद-
‘सर्वादि’ सर्व-जग आदी। तुमसे सृष्टी उत्पादी।।
प्रभु शांतिनाथ को पूजूँ। सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।७६।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वादिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘सर्वदृक्’ तुम हो।
सब वस्तु देखते प्रभु हो।।
प्रभु शांतिनाथ को पूजूँ।
सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।७७।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदृकनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सार्व’ सभी को पालें।
सबका हित करने वाले।।प्रभु.।।७८।।
ॐ ह्रीं अर्हं सार्वनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वज्ञ’ सर्व जग जानो।
त्रैलोक्य त्रिकालिक जानो।।प्रभु.।।७९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वज्ञनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम्हीं ‘सर्वदर्शन’ हो।
सब कुमतों के मर्दक हो।।प्रभु.।।८०।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदर्शननामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वात्मा’ तुम अंतर में।
सब वस्तु झलकती क्षण में।।प्रभु.।।८१।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वात्मन्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सर्वलोकेशा’।
तिहुँलोक अलोक अधीशा।।प्रभु.।।८२।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकेशनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सर्वविद्’ मानें।
इक क्षण में सबको जानें।।प्रभु.।।८३।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविद्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सर्वलोकजित्’ तुम हो।
पणविध संसार विजित् हो।।प्रभु.।।८४।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकजित्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुगति’ मोक्षगति सुन्दर।
कैवल्यज्ञान उत्तम धर।।
प्रभु शांतिनाथ को पूजूँ।
सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।८५।।
ॐ ह्रीं अर्हं सुगतिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुश्रुत’ अतिशायि प्रसिद्धा।
सब भावश्रुतों के धर्ता।।प्रभु.।।८६।।
ॐ ह्रीं अर्हं सुश्रुतनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुश्रुत्’ सब अरज सुना है।
भव्यों हित मार्ग भणा है।।प्रभु.।।८७।।
ॐ ह्रीं अर्हं सुश्रुत्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप वचन उत्तम हैं।
अतएव ‘सुवाक्’ प्रथम हैं।।प्रभु.।।८८।।
ॐ ह्रीं अर्हं सुवाक््नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सूरि’ सभी के गुरू हो।
सब विद्याओं के धुरि हो।।प्रभु.।।८९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सूरिनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बहुश्रुत’ सब श्रुत के ज्ञानी।
तुमसे प्रकटी जिनवाणी।।प्रभु.।।९०।।
ॐ ह्रीं अर्हं बहुश्रुतनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्रुत’ त्रिभुवन विख्याता।
श्रुत बिना चराचर ज्ञाता।।प्रभु.।।९१।।
ॐ ह्रीं अर्हं विश्रुतनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वत:पाद’ तम घाती।
तुम ज्ञान किरण जग व्यापी।।प्रभु.।।९२।।
ॐ ह्रीं अर्हं विश्वत:नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वशीर्ष’ सिरताजो।
तुम लोक शिखर पर राजो।।प्रभु.।।९३।।
ॐ ह्रीं अर्हं विश्वशीर्षनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शुचिश्रवा’ तुम कर्णा।
भवि वचन सुनें दें शर्णा।।प्रभु.।।९४।।
ॐ ह्रीं अर्हं शुचिश्रवानामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘सहस्रशीर्षा’ हो।
आनन्त्य सुखी कीर्ता हो।।प्रभु.।।९५।।
ॐ ह्रीं अर्हं सहस्रशीर्षनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षेत्रज्ञ’ क्षेत्र-आत्मा को।
जाना सब कर आत्मा को।।प्रभु.।।९६।।
ॐ ह्रीं अर्हं क्षेत्रज्ञनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सहस्राक्ष’ जग मानें।
आनन्त्य पदार्थ सुजानें।।प्रभु.।।९७।।
ॐ ह्रीं अर्हं सहस्राक्षनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सहस्रपात्’ जगव्यापा।
तुम बल अनंत जगख्याता।।प्रभु.।।९८।।
ॐ ह्रीं अर्हं सहस्रपात्नामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूत भव्यभवद्भर्ता’ हो।
त्रैकालिक सुख कर्ता हो।।प्रभु.।।९९।।
ॐ ह्रीं अर्हं भूतभव्यभवद्भर्तृनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘विश्वविद्यामहेश्वर’ तुम ही।
सब विद्या के ईश्वर ही।।प्रभु.।।१००।।
ॐ ह्रीं अर्हं विश्वविद्यामहेश्वरनामसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—सोरठा—
शाश्वत धर्म निरूप्य, नाथ! ‘धर्मदेशक’ कहे।
नमत मिले निजरूप, जजत सर्वसुख संपदा।।१०१।।
ॐ ह्रीं अर्हं धर्मदेशकनामविभूषिताय श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
नाथ ‘शुभंयु’ आप, त्रिभुवन में मंगल करो।
हरो मोहसंताप, जँजू नित्य गुण गायके।।१०२।।
ॐ ह्रीं अर्हं शुभंयुनामविभूषिताय श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
अवनधि सुख विलसंत, ‘सुखसाद्भूत’ प्रसिद्ध हो।
निजसुख मिले अनंत, पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय के।।१०३।।
ॐ ह्रीं अर्हं सुखसाद्भूतनामविभूषिताय श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘पुण्यराशि’ भगवंत, श्रेष्ठ पुण्य फल रूप हो।
जजत मिले भव अंत, शिरोरोग सब दूर हों।।१०४।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यराशिनामविभूषिताय श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
जन्म जरा मृति रोग, शून्य ‘अनामय’ आप हो।
मिटें हृदय के रोग, पूर्ण स्वास्थ्य हो पूजते।।१०५।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनामयनामविभूषिताय श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘धर्मपाल’ भगवान् धर्मतीर्थ कर्ता तुम्हीं।
जजूँ सिद्ध गुणखान, रक्तचाप व्याधी नशे।।१०६।।
ॐ ह्रीं अर्हं धर्मपालनामविभूषिताय श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘जगत्पाल’ जिनदेव, त्रिभुवन गुरु जगपूज्य हो।
नमत करूँ भवछेव, शिवलक्ष्मी पाऊँ तुरत।।१०७।।
ॐ ह्रीं अर्हं जगत्पालनामविभूषिताय श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘धर्मपरमसाम्राज्य’, उसके स्वामी आप ही।
मिले स्वात्म साम्राज्य, जजूँ अर्घ्य ले भक्ति से।।१०८।।
ॐ ह्रीं अर्हं धर्मसाम्राज्यनायकनामविभूषिताय श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य – शंभुछंद-
दिवभाषापति से ले करके, श्रीधर्मसाम्राज्यनायक तक।
इक शतक आठ मंत्र जपते, शत खंड खंड हो जावें अघ।।
मैं अतिशय भक्ती श्रद्धा से, तुम नाम मंत्र को नित पूजूँ।
निज आतम अमृतरस पीकर, सब जन्म मरण दुख से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं दिव्यभाषापत्यादिअष्टोत्तरशतनाममंत्रविभूषिताय श्रीशांतिनाथ-
तीर्थंकरायपूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-जाप्य-
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथ—कुंथुनाथ—अरनाथतीर्थंकरेभ्यो नम:।
अथवा
ॐ ह्रीं अर्हं तीर्थंकरचक्रवर्तिकामदेवपदसमन्वितश्रीशांतिनाथ—कुंथुनाथ—
अरनाथेभ्यो नम:।
(दोनों में से कोई भी एक मंत्र १०८ बार या ९ बार सुगंधित
पुष्पों से या लवंग से या पीले चावल से जपें।)
-दोहा-
अति अद्भुत लक्ष्मी धरें, समवसरण प्रभु आप।
तुम धुनि सुन भविवृन्द नित, हरें सकल संताप।।१।।
-शंभु छंद-
जय शान्तिनाथ प्रभु का वैभव, अन्तर का अनुपम गुणमय है।
जो दर्श ज्ञान सुख वीर्य रूप, आनन्त्य चतुष्टय निधिमय है।।
बाहर का वैभव समवसरण, जिसमें असंख्य रचना मानीं।
जब गणधर भी वर्णन करते, थक जाते मनपर्यय ज्ञानी।।२।।
यह समवसरण की दिव्य भूमि, इक हाथ उपरि पृथ्वी तल से।
द्वादश योजन उत्कृष्ट कही, इक योजन हो घटते क्रम से।।
यह भूमि कमल आकार कही, जो इन्द्रनीलमणि निर्मित है।
है गंधकुटी इस मध्य सही, जो कमल कर्णिका सदृश है।।३।।
पंकज के दल सम बाह्य भूमि, जो अनुपम शोभा धारे है।
इस समवसरण का बाह्य भाग, जो अनुपम शोभा धारे है।।
सब बीस हजार हाथ ऊँचा, यह समवसरण अति शोभा है।
एकेक हाथ ऊँची सीढ़ी, सब बीस हजार प्रमित शोभे।।४।।
पंगू अन्धे रोगी बालक, औ वृद्ध सभी जन चढ़ जाते।
अंतर्मुहूर्त के भीतर ही, यह अतिशय जिन आगम गाते।।
इसमें शुभ चार दिशाओं में, अति विस्तृत महावीथियाँ हैं।
वीथी में मानस्तम्भ कहे, जिनकी कलधौत पीठिका हैं।।५।।
इक योजन से कुछ अधिक तुँग, बारह योजन से दिखते हैं।
इनमें हैं दो हजार पहलू, स्फटिक मणी के चमके हैं।।
उनमें चारों दिश में ऊपर, सिद्धों की प्रतिमाएँ राजें।
मानस्तम्भों की सीढ़ी पर लक्ष्मी की मूर्ति अतुल राजें।।६।।
ये अस्सी कोशों तक सचमुच, अपना प्रकाश पैलाते हैं।
जो इनका दर्शन करते हैं, वे निज अभिमान गलाते हैं।।
मानस्तम्भों के चारों दिश, जल पूरित स्वच्छ सरोवर हैं।
जिनमें अति सुन्दर कमल खिले, हंसादि रवों से मनहर हैं।।७।।
ये प्रभु का सन्निध पा करके, ही मान गलित कर पाते हैं।
अतएव सभी अतिशय भगवन्! तेरा ही गुरुजन गाते हैं।।
छत्तिस गणधर चक्रायुधादि, बासठ हजार मुनिवर ज्ञानी।
गणिनी हरिषेणा माता थीं, आर्यिकाओं में प्रधान मानी।।८।।
सब साठ हजार व तीन शतक, संयतिकायें गुरुगुण भक्ता।
दो लाख सुश्रावक चार लाख, श्राविकायें वहां सद्व्रतयुक्ता।।
मैं भी प्रभु तुम सन्निध पाकर, संपूर्ण कषायों को नाशूँ।
प्रभु ऐसा वह दिन कब आवे, जब निज में निज को परकाशूँ।।९।।
जिननाथ! कामना पूर्ण करो, जिन चरणों में आश्रय देवो।
जब तक नहिं मुक्ति मिले तुझको, तब तक ही शरण मुझे लेवो।।
तब तक तुम चरण कमल मेरे, मन में नित स्थिर हो जावें।
जब तक नहिं केवल ‘ज्ञानमती’ तब तक मम मन तुम पद ध्यावें।।१०।।
-दोहा-
तीर्थंकर गुणरत्न को, गिनत न पावें पार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो भाक्तिकजन तीर्थंकरत्रय—विधान भक्ती से करते हैं।
श्री शांतिनाथ श्री कुंथुनाथ, अरनाथ प्रभू को यजते हैं।।
वे नित नव मंगल प्राप्त करें, सब रोग शोक भय हरते हैं।
नवनिधि ऋद्धी सिद्धी पाकर, वैवल्य ज्ञानमति लभते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:।।