-अथ स्थापना-गीता छंद-
श्रीसुमति तीर्थंकर जगत में, शुद्धमति दाता कहे।
निज आतमा को शुद्ध करके, लोक मस्तक पर रहें।।
मुनि चार ज्ञानी भी सतत, वंदन करें संस्तवन करें।
हम भक्ति से थापें यहाँ, प्रभु पद कमल अर्चन करें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टकं-गीता छंद
प्रभु चार गतियों में बहुत ही, घूमकर अब थक चुका।
इस हेतु तुम पद शरण लेकर, नीर से पूजूँ मुदा।।
हे सुमति जिन! तुम पाद पंकज, की करूँ मैं अर्चना।
सद्बुद्धि पाऊँ नाथ! अब मैं, करूँ यम की तर्जना।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
एकेन्द्रियादिक देह में, दु:ख दाव से संतप्त हो।
प्रभु गंध से पद चर्चते, तुम पाद छाया सुलभ हो।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अहमिन्द्र से भि निगोद तक, सुख दु:खमयी सब पद धरे।
अक्षय सुपद के हेतु भगवन्! पुंज अक्षत के धरे।।हे.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध अयश से खिन्न हो, नहिं स्वात्मगुण यश पा सका।
बहुविध महकते पुष्प सुंदर, अत: चरणों में रखा।।हे.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय कामवाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लड्डू इमरती पूरियाँ, फेनी मलाई खीर से।
नहिं तृप्ति पाई इसलिए, नेवज चढ़ाऊँ प्रीति से।।
हे सुमति जिन! तुम पाद पंकज, की करूँ मैं अर्चना।
सद्बुद्धि पाऊँ नाथ! अब मैं, करूँ यम की तर्जना।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक अंधेरा दूर करता, एक कोठे का अरे।
तुम आरती करते सकल, अज्ञानतम हरता खरे।।हे.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
वरधूप खेते अग्नि में, सब कर्म भस्मीभूत हों।
निज आत्म समरस प्राप्त हो, फिर मोह बैरी दूर हों।।हे.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
बादाम पिस्ता सेव केला, आम दाड़िम फल लिया।
बस मोक्षफल की आश लेकर, आपको अर्पण किया।।हे.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध अक्षत पुष्प में, बहुरत्न आदि मिलाय के।
मैं अर्घ अर्पण करूँ प्रभु को, ‘ज्ञानमति’ हर्षाय के।।हे.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
श्री जिनवर पदपद्म, शांतीधारा मैं करूँ।
मिले शांति सुखसद्म, त्रिभुवन में सुख शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला कमल गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
परमानंद सुख लाभ, मिले सर्वसुख सम्पदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-नरेन्द्र छंद-
पुरी अयोध्या पिता मेघरथ, सती मंगला माता।
श्रावण शुक्ल द्वितीया तिथि में, गर्भ बसे जग त्राता।।
इन्द्र स्वयं सुरगण सह आये, मात पिता को पूजें।
पुनर्जन्म के नाश हेतु हम, गर्भकल्याणक पूजें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाद्वितीयायां श्रीसुमतिनाथतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र शुक्ल एकादशि तिथि में, जन्म लिया तीर्थेश्वर।
सुरपति जिन बालक को लेकर, बैठे ऐरावत पर।।
सुरगिरि पहुँचे जन्म महोत्सव, किया इन्द्रगण मिलकर।
जन्म कल्याणक मैं नित पूजूँ, मिले जन्म अविनश्वर।।२।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाएकादश्यां श्रीसुमतिनाथतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जातिस्मरण पाय विरती हो, इन्द्र सभी मिल आये।
सुदि नवमी वैशाख तिथी, अभयंकरि पालकि लाये।।
प्रभू सहेतुक वन में पहुँचे, बेला कर दीक्षा ली।
दीक्षा कल्याणक जजते ही, मिले स्वात्मगुणशैली।।३।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लानवम्यां श्रीसुमतिनाथतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र सुदी ग्यारस उद्यान, सहेतुक में प्रभु पहुँचे।
तरु प्रियंगु के नीचे तिष्ठे, केवल रवि बन चमके।।
धनपति समवसरण रच करके, ज्ञानकल्याणक पूजें।
गंधकुटी में सुमति जिनेश्वर, पूजत भव से छूटें।।४।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाएकादश्यां श्रीसुमतिनाथतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र शुक्ल ग्यारस अपराण्हे, सम्मेदाचल से ही।
मृत्युनाश मृत्युंजय होकर, स्वात्मा में तिष्ठे ही।।
सुमतिनाथ का मोक्षकल्याणक, इन्द्र जजें भक्ती से।
मैं पूजूँ इस कल्याणक को, नशें कर्म युक्ती से।।५।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाएकादश्यां श्रीसुमतिनाथतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
सुमति सुमतिदाता प्रभो! तीर्थंकर परमेश!।
जजूँ मोक्षपद हेतु मैं, जहाँ न दुख लवलेश।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकरपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
गणपति मुनिपति वंद्य, सुरपति नरपति से नमित।
पूजूं भक्ति अमंद, आनंद कंद जिनंद को।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजिंल क्षिपेत्।
-सोरठा-
दिव्यध्वनी के नाथ, अठरह महभाषा कही।
लघू सात सौ भाष, सुमतिनाथ को नित जजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं दिव्यभाषापतये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय सुंदर आप, अत: ‘दिव्य’ गणधर कहें।
नशें कर्म अभिशाप, पूजत हाे जिनसंपदा।।२।।
ॐ ह्रीं दिव्याय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय पावन वाच, ‘पूतवाक्’ प्रभु आप हैं।
नमत मिले गुण सांच, स्वात्म सुधारस की नदी।।३।।
ॐ ह्रीं पूतवाचे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शासन परम पवित्र, सुमतिनाथ का लोक में।
कर्माराति लवित्र, पूजत आत्म पवित्र हो।।४।।
ॐ ह्रीं पूतशासनाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पावन आत्मा नाथ, मुझको भी पावन करो।
नमूँ नमूँ नत माथ, अर्घ चढ़ाकर पूजहूँ।।५।।
ॐ ह्रीं पूतात्मने श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परमज्योति’ भगवान, केवलज्ञान प्रकाशमय।
नमूँ नमूूँ गुणखान, लहूँ ज्ञानज्योती परम।।६।।
ॐ ह्रीं परमज्योतिषे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारित में अध्यक्ष, ‘धर्माध्यक्ष’ प्रसिद्ध हो।
धर्म न हो विध्वस्त, पूजूँ नित्य परोक्ष ही।।७।।
ॐ ह्रीं धर्माध्यक्षाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय दमन करंत, प्रभो! ‘दमीश्वर’ आप हैं।
शम दम धर्म दिशंत, नमूँ जितेन्द्रिय हेतु हैं।।८।।
ॐ ह्रीं दमीश्वराय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीपति’ शिवश्री नाथ, स्वर्गमोक्ष श्री देत हो।
मिले सभी गुण साथ, पूजूँ सुमति जिनेश को।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपतये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रातिहार्य ऐश्वर्य, धरें आप ‘भगवान’ हैं।
पुन: मोक्ष स्थैर्य, लिया जजूँ प्रभु आप को।।१०।।
ॐ ह्रीं भगवते श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शत इन्द्रों से पूज्य, ‘अर्हन्’ सिद्ध स्वरूप हो।
पाऊँ निजपद पूज्य, पूजूँ तुम पदपद्म को।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हते श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानदर्शनावर्ण, रज हैं धूली के सदृश।
इनका कीना नाश, ‘अरज’ आपको नित जजूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं अरजसे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब आवरण विनाश, सिद्ध लोक में जा बसें।
पूर्ण करो मम आश, जजूँ ‘विरज’ पद हेतु मैं।।१३।।
ॐ ह्रीं विरजसे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पावन तीर्थ विशुद्ध, ‘शुचि’ ब्रह्मा में लीन हो।
मेरा मन हो शुद्ध, पूजूँ त्रिकरण शुद्धि से।।१४।।
ॐ ह्रीं शुचये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवदधि तिरते भव्य, जिससे तीर्थ प्रसिद्ध है।
प्रभो ‘तीर्थकृत’ नव्य, जजूँ तिरूँ भवसिंधु से।।१५।।
ॐ ह्रीं तीर्थकृते श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान अनंत, गुण अनंत के तुम धनी।
नमॅूं नमूँ भगवंत, अविकल गुणनिधि हेतु मैं।।१६।।
ॐ ह्रीं केवलिने श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रों के पति आप, मुनि ‘ईशान’ तुम्हें कहें।
भक्त बने निष्पाप, पूजूँ समरस हेतु मैं।।१७।।
ॐ ह्रीं ईशानाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट विधार्चन योग्य, मुनि ‘पूजार्ह’ तुम्हें कहें।
पाऊँ निजपद योग्य, इसी हेतु पूजा करूँ।।१८।।
ॐ ह्रीं पूजार्हाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घात घातिया कर्म, आप ‘स्नातक’ मान्य हैं।
मिले मोक्ष का मर्म, तुम पद पूजूँ भक्ति से।।१९।।
ॐ ह्रीं स्नातकाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्य भाव नोकर्म, त्रिविध मलों विरहित प्रभो!।
नमूँ ‘अमल’ दें शर्म, मेरा मन पावन करें।।२०।।
ॐ ह्रीं अमलाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमित दीप्ति से कांत, हे ‘अनंतदीप्ति’ प्रभो!।
हो गुणदीप्ति अनंत, नमूँ तुम्हें बहु प्रीति से।।२१।।
ॐ ह्रीं अनंतदीप्तये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण सुज्ञान स्वरूप, ‘ज्ञानात्मा’ लोकाग्र में।
नमूँ नमॅूँ चिद्रूप, ज्ञानज्योति प्रगटित करूँ।।२२।।
ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वयंबुद्ध’ भगवान्, गुरु बिन ज्ञान अपूर्व था।
रत्नत्रय निधिमान, बनूँ आपकी भक्ति से।।२३।।
ॐ ह्रीं स्वयंबुद्धाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन जन के नाथ, आप ‘प्रजापति’ मान्य हो।
मुझको करो सनाथ, चिन्मय गुण विकसित करो।।२४।।
ॐ ह्रीं प्रजापतये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवबंधन से ‘मुक्त’, पूर्ण स्वतंत्र तुम्हीं प्रभो।
मुझको करिये मुक्त, चरणों में आश्रय चहूँ।।२५।।
ॐ ह्रीं मुक्ताय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बाईस परिषह कष्ट, सहने में सक्षम हुये।
अत: कहाये ‘शक्त’, सहन शक्ति हित मैं जजूँ।।२६।।
ॐ ह्रीं शक्ताय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब बाधा उपसर्ग, रहित आप परमातमा।
‘निराबाध’ संसर्ग, मेरी सब बाधा हरे।।२७।।
ॐ ह्रीं निराबाधाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
काल कला से शून्य, रत्नवृष्टि माँ के महल।
कवलाहार विशून्य, ‘निष्कल’ की पूजा करूँ।।२८।।
ॐ ह्रीं निष्कलाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भुवेनश्वर’ त्रैलोक्य, ईश्वर पूज्य त्रिलोक में।
हो जाऊँ अक्षोभ्य, भेदविज्ञान प्रकाश से।।२९।।
ॐ ह्रीं भुवनेश्वराय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्माञ्जन से शून्य, अठरह दोष विमुक्त हो।
हो जाऊँ भव शून्य, जजूँ ‘निरञ्जन’ देव को।।३०।।
ॐ ह्रीं निरञ्जनाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगज्ज्योति’ चिद्रूप, लोक अलोक विलोकते।
चिन्मय ज्योतिस्वरूप, पाऊँ आतम ज्योति मैं।।३१।।
ॐ ह्रीं जगज्ज्योतिषे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्वापर अविरोध, स्याद्वादमय हैं वचन।
‘निरुक्तोक्ति’ गतशोच, नमॅूँ स्वात्मसंपति मिले।।३२।।
ॐ ह्रीं निरुक्तोक्तये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘निरामय’ आप, सभी रोग से दूर हो।
नमत नशें सब पाप, पूर्ण स्वस्थता प्राप्त हो।।३३।।
ॐ ह्रीं निरामयाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अचलस्थिति’ भगवान, लोकशिखर पर तिष्ठते।
मिले भेद विज्ञान, नमते मन एकाग्र हो।।३४।।
ॐ ह्रीं अचलस्थितये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कभी चरित्र से नाथ! नहीं चलित हों स्वप्न में।
ज्ञानपूर्णतया साथ, प्रभु ‘अक्षोभ्य’ जजूँ सदा।।३५।।
ॐ ह्रीं अक्षोभ्याय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकशिखर के अग्र, तिष्ठ रहे ‘कूटस्थ’ हो।
मोह शैल को वङ्का, स्थिर रूप तुम्हें जजूँ।।३६।।
ॐ ह्रीं कूटस्थाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गमनागमन विहीन, ‘स्थाणु’ जन्म मृत्यू रहित।
रोग शोक हो क्षीण, पूजत सुस्थिर पद मिले।।३७।।
ॐ ह्रीं स्थाणवे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अक्षय’ नाश विहीन, इन्द्रिय विरहित आप हो।
अक्षय पद सुख लीन, नमूँ पूर्ण सुख हेतु मैं।।३८।।
ॐ ह्रीं अक्षयाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन ऊपर आप, ले जाते हैं ‘अग्रणी’।
मुझको भी हे नाथ! चरणों में स्थान दो।।३९।।
ॐ ह्रीं अग्रण्ये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव्यों को प्रभु मोक्ष, पहुँचाते हो ‘ग्रामणी’।
नमत मिले सब सौख्य, शिवपुर मार्ग प्रशस्त हो।।४०।।
ॐ ह्रीं ग्रामण्ये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नेता’ आप महान्, शिवपथ दिखलाते सदा।
हमें करो धनवान, रत्नत्रय निधि देय के।।४१।।
ॐ ह्रीं नेत्रे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशांगमय शास्त्र, रचा ‘प्रणेता’ हो प्रभो!।
मिले ध्यानमय शस्त्र, मोहमल्ल नाशूँ त्वरित।।४२।।
ॐ ह्रीं प्रणेत्रे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
न्याय-नीति के शास्त्र, उपदेशा है विश्व को।
‘न्यायशास्त्रकृत’ नाथ! जजत न्याय मुझ को मिले।।४३।।
ॐ ह्रीं न्यायशास्त्रकृते श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
हित उपदेशी देव, ‘शास्ता’ गुरु जग मान्य हो।
मेटो अहित कुटेव, नमूँ स्वात्महित मैं तुम्हें।।४४।।
ॐ ह्रीं शास्त्रे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वस्तुस्वभावी धर्म, क्षमादि रत्नत्रय दया।
‘धर्मपती’ दो शर्म, चउविध धर्म प्रचार हो।।४५।।
ॐ ह्रीं धर्मपतये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मसहित हो ‘धर्म्य’ धर्मरूप परिणत हुये।
मिले मोक्ष का मर्म, नमूँ प्रभो! सुख शांति दो।।४६।।
ॐ ह्रीं धर्म्याय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मस्वरूप जिनेश, ‘धर्मात्मा’ त्रिभुवन गुरु।
पूजन करूँ हमेश, धर्मरूप मैं भी बनूँ।।४७।।
ॐ ह्रीं धर्मात्मने श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारित तीर्थ महान, उसके कर्ता नाथ हैं।
‘धर्मतीर्थकृत्’ नाम, स्वात्म शुद्धि हेतू नमूँ।।४८।।
ॐ ह्रीं धर्मतीर्थकृते श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मध्वजा है नित्य, ‘वृषध्वज’ माने लोक में।
आत्मधर्म हो नित्य, मैं पूजूँ गुणहेतु नित।।४९।।
ॐ ह्रीं वृषध्वजाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म अहिंसा रूप, उसके स्वामी आप ही।
मिले स्वात्म चिद्रूप, ‘वृषाधीश’ तुमको नमूँ।।५०।।
ॐ ह्रीं वृषाधीशाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सौमराजी छंद—
महापुण्य का चिन्ह है आपका ही।
नमॅूँ नित्य ‘वृषकेतु’ रोगादि नाशो।।५१।।
ॐ ह्रीं वृषकेतवे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वृषायुध’ महामृत्यु मारा धरम से।
जरा मृत्यु नाशो, हमारे जजूँ मैं।।५२।।
ॐ ह्रीं वृषायुधाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किया धर्म वर्षा, अत: ‘वृष’ तुम्हीं हो।
हमें बोधि देवो, नमॅूँ भक्ति से मैं।।५३।।
ॐ ह्रीं वृषाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘वृषपती’ हो, अहिंसा के स्वामी।
नमूँ मैं मुझे पूर्ण आरोग्य देवो।।५४।।
ॐ ह्रीं वृषपतये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा भव्य को पोषते आप भर्ता।
नमूँ सद्गुणों को, भरो नाथ मुझमें।।५५।।
ॐ ह्रीं भर्त्रे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप वृषभांक सद्धर्म चिन्हित।
नमूँ धर्म मेरे, अनंते मिलेंगे।।५६।।
ॐ ह्रीं वृषभांकाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वृषोद्भव’ धरा धर्म पूरब भवों में।
जजूँ मैं मुझे आत्म संपत्ति देवो।।५७।।
ॐ ह्रीं वृषोद्भवाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘हीरण्यनाभी’ नमूँ मैं।
सुनाभी सभी से अधिक श्रेष्ठ सुंदर।।५८।।
ॐ ह्रीं हिरण्यनाभये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ज्ञान से व्याप्त आत्मा जगत में।
नमूँ ‘भूतआत्मा’ सभी शोक नाशो।।५९।।
ॐ ह्रीं भूतात्मने श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी जीव रक्षो, प्रभो! ‘भूतभृद्’ हो।
दयादृष्टि कीजे, पुनर्जन्म ना हो।।६०।।
ॐ ह्रीं भूतभृते श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमूँ ‘भूतभावन’ दरश शुद्धि आदी।
धरीं सोलहों भावना, श्रेष्ठ स्वामी।।६१।।
ॐ ह्रीं भूतभावनाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रभव’ आपका जन्म उत्कृष्ट माना।
नमूँ मैं बनू श्लाघ्य शिवमार्ग पाके।।६२।।
ॐ ह्रीं प्रभवाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विभव’ दूर संसार से आप हैं ही।
सफल जन्म मेरा करो शीश नाऊँ।।६३।।
ॐ ह्रीं विभवाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विभा ज्ञानदीप्ती, अत: आप ‘भास्वान्’।
मुझे पूर्ण विज्ञान दो याचना ये।।६४।।
ॐ ह्रीं भास्वते श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हृदय में हुये भव्य के ‘भव’ कहाये।
सदा चित्त में आप तिष्ठो नमूँ मैं।।६५।।
ॐ ह्रीं भवाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनी के हृदय में रहों ‘भाव’ तुम हो।
हमारे हृदय के तिमिर को विनाशो।।६६।।
ॐ ह्रीं भावाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भवांतक’ स्वामी, किया अंत भव का।
भवांभोधि से भक्ति ही तारती है।।६७।।
ॐ ह्रीं भवान्तकाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रसू सौध में मास नौ रत्न वर्षे।
प्रभू नाम ‘हीरण्यगर्भा’ नमूँ मैं।।६८।।
ॐ ह्रीं हिरण्यगर्भाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करें सेव माँ की, सुरी श्री ह्रि आदी।
नमूँ नाथ ‘श्रीगर्भ’ श्री प्राप्त होवे।।६९।।
ॐ ह्रीं श्रीगर्भाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोवैâक साम्राज्य पाया तुम्हीं ने।
नमूँ में ‘प्रभूताविभव’ सौख्य देवो।।७०।।
ॐ ह्रीं प्रभूतविभवाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अभव’ आप संसार से हीन स्वामी।
नमूँ पंच संसार का नाश कीजे।।७१।
ॐ ह्रीं अभवाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वयंप्रभु’ चिदात्मा, स्वयं नाथ सबके।
स्वयं सिद्ध कीजे, नमूँ भक्ति से मैं।।७२।।
ॐ ह्रीं स्वयंप्रभवे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रभूतातमा’ आप, अस्ती स्वभावी।
मुझे सिद्धि दीजे नमूँ शीश नाके।।७३।।
ॐ ह्रीं प्रभूतात्मने श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘भूतनाथा’, सभी पे दयालू।
दया दान दीजे, सुचारित्र पूरो।।७४।।
ॐ ह्रीं भूतनाथाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगत्प्रभु’ त्रिलोकेश सुख शांति दीजे।
नमॅूँ मैं सभी रोग शोकादि नाशो।।७५।।
ॐ ह्रीं जगत्प्रभवे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं नाथ ‘सर्वादि’ हो श्रेष्ठ सबमें।
नमूँ मैं सुसम्यक्त्व निधि दान दीजे।।७६।।
ॐ ह्रीं सर्वादये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुवैवल्यदृक् से सभी विश्व देखा।
नमूँ ‘सर्वदृक्’ शुद्ध सम्यक्त्व कीजे।।७७।।
ॐ ह्रीं सर्वदृशे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी जीव हितकारि, हो ‘सार्व’ जग में।
नमूँ चार आराधना पूर्ण कीजे।।७८।।
ॐ ह्रीं सार्वाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोकं त्रिकालं, सभी वस्तु ज्ञाता।
जजूँ आप ‘सर्वज्ञ’ मेटो असाता।।७९।।
ॐ ह्रीं सर्वज्ञाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘सर्वदर्शन’ सुसम्यक्त्व क्षायिक।
मेरे ज्ञानचारित्र सत्यार्थ कर दो।।८०।।
ॐ ह्रीं सर्वदर्शनाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी वस्तु प्रतिबिंबती आप में ही।
मेरा ज्ञान वैâवल्य कीजे जजूँ मैं।।८१।।
ॐ ह्रीं सर्वात्मने श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी प्राणि के ईश, वंदूं सदा मैं।
प्रभो ‘सर्वलोकेश’ भवदु:ख मेटो।।८२।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकेशाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।]
सभी लोक को जानते ‘सर्ववित्’ हो।
प्रभो ज्ञानज्योति मुझे दो जजूूँ मैं।।८३।।
ॐ ह्रीं सर्वविदे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयी पंच संसार के जो जजूँ मैं।
प्रभो ‘सर्वलोवैâकजित्’ शोक नाशो।।८४।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकजिते श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुगति’ मुक्ति पंचम गती प्राप्त की है।
सुगति में गमन हो सुमति हेतु पूजूँ।।८५।।
ॐ ह्रीं सुगतये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुश्रुत’ शास्त्र सम्यक् प्रगट आपसे हैं।
तथा आप विख्यात जग में जजूँ मैंं।।८६।।
ॐ ह्रीं सुश्रुताय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी की सुनी प्रार्थना आप ‘सुश्रुत्’।
मुझे स्वात्म संपत्ति दीजे नमूँ मैं।।८७।।
ॐ ह्रीं सुश्रुते श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुवाक्’ सप्तभंगी युता दिव्य वाणी।
उसी में रमूं मैं इसी हेतु वंदूँ।।८८।।
ॐ ह्रीं सुवाचे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! पंच आचार से ‘सूरि’ माने।
नमॅूूँ आपको बुद्धि सम्यक् करीजे।।८९।।
ॐ ह्रीं सूरये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बहुश्रुत’ सभी शास्त्र के मर्मज्ञाता।
तुम्हीं से हुआ श्रुत नमूँ ज्ञान हेतू।।९०।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुताय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमूँ आप ‘विश्रुत’ जगत् में प्रसिद्धा।
सभी इन्द्र धरणेन्द्र से वंद्य वंदूँ।।९१।।
ॐ ह्रीं विश्रुताय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अधो मध्य ऊरध त्रिजग व्याप्त कीना।।
नमूँ ‘विश्वत:पाद’ ज्ञानी किरण से।।९२।।
ॐ ह्रीं विश्वत:पादाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिजग में हि मस्तक त्रिलोकाग्र राजें।
नमूँ ‘विश्वशीर्षा’ करो मेरी रक्षा।।९३।।
ॐ ह्रीं विश्वशीर्षाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी प्राणियों की सुनी आप अर्जी।
नमूँ मैं ‘शुचिश्रव’ हमें बोधि देवो।।९४।।
ॐ ह्रीं शुचिश्रवसे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सहसशीर्ष’ भगवन्! अनंते सुखी हो।
मुझे स्वात्म सुख दीजिये मैं जजूँ अब।।९५।।
ॐ ह्रीं सहस्रशीर्षाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजात्मा को जाना चराचर सभी भी।
प्रभो! ‘क्षेत्रज्ञा’ मैं नमूँ स्वस्थ हेतू।।९६।।
ॐ ह्रीं क्षेत्रज्ञाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंते पदारथ तुम्हीं जानते हो।
‘सहस्राक्ष’ स्वामिन्! नमूँ प्रीति से मैं।।९७।।
ॐ ह्रीं सहस्राक्षाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंते बली नंत किरणों सुव्यापी।
‘सहसपात्’ वंदूं मुझे शक्ति दीजे।।९८।।
ॐ ह्रीं सहस्रपदे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं भूतभावी व संप्रति के स्वामी।
नमूँ ‘भूतभव्यभवद्भर्तृ’ तुमको।।९९।।
ॐ ह्रीं भूतभव्यभवद्भर्त्रे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुविद्या अखिल के तुम्हीं नाथ माने।
अत: ‘विश्वविद्यामहेश्वर’ नमूँ मैं।।१००।।
ॐ ह्रीं विश्वविद्यामहेश्वराय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
केवलज्ञान सुबुद्धि तुम, अति विस्तीर्ण प्रसिद्ध।
प्रभु ‘वरिष्ठधी’ तुम नमूँ, गुणमणि धरूँ समृद्ध।।१०१।।
ॐ ह्रीं वरिष्ठधिये श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक अग्र पर तिष्ठते, अतिशय स्थिर नित्य।
इसीलिये ‘प्रभु स्थेष्ठ’ हो, नमत लहूँ सुख नित्य।।१०२।।
ॐ ह्रीं स्थेष्ठाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन के गुरु आप हैं, नाथ ‘गरिष्ठ’ प्रधान।
स्वात्मामृत के पान से, बनूँ स्वस्थ अमलान।।१०३।।
ॐ ह्रीं गरिष्ठाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहु प्रशंसनीया सुगुण, प्रभो ‘श्रेष्ठ’ तुम नाम।
अनुपम गुणनिधि हेतु मैं, नमूँ आप शिवधाम।।१०४।।
ॐ ह्रीं श्रेष्ठाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चर्मचक्षु से आप हैं, अतिशय सूक्ष्म जिनेश।
प्रभु ‘अणिष्ठ’ तुमको नमूँ, मिटे जगत् का क्लेश।।१०५।।
ॐ ह्रीं अणिष्ठाय श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगत्पूज्य वाणी विमल, प्रभु ‘गरिष्ठगी’ नाम।
मम रसना हो रसवती, शत शत करूँ प्रणाम।।१०६।।
ॐ ह्रीं गरिष्ठगिरे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर्गती संसार को, नष्ट किया भगवान्।
नमूँ ‘विश्वमुट्’ आपको, पाऊँ सौख्य निधान।।१०७।।
ॐ ह्रीं विश्वमुचे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म सृष्टि रचना किया, आप ‘विश्वसृट्’ मान्य।
धर्म संपदा पूर्ण हो, नमते सुख धन धान्य।।१०८।।
ॐ ह्रीं विश्वसृजे श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—
अष्टोत्तर शतगुण जजूं, प्रभु अनंत गुण वार्धि।
सुमतिनाथ को नित नमूं, मिटे सर्व भव व्याधि।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीदिव्यभाषापत्यादि—अष्टोत्तरशतगुणसमन्विताय
श्रीसुमतिनाथ—तीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय नम:।
(सुगंधित पुष्प या लौंग या पीले चावल से 108 बार,
27 बार या 9 बार जाप्य करें)
-दोहा-
चिन्मूरति परमात्मा, चिदानंद चिद्रूप।
गाऊँ गुणमाला अबे, स्वल्पज्ञान अनुरूप।।१।।
-नाराचछंद-
नमो नमो जिनेन्द्रदेव! आपको सुभक्ति से।
मुनीन्द्रवृंद आप ध्याय कर्मशत्रु से छुटें।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।२।।
अनंतदर्श ज्ञान वीर्य सौख्य से सनाथ हो।
अनादि हो अनंत हो जिनेश सिद्धिनाथ हो।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।३।।
अनादिमोह वृक्ष मूल को उखाड़ आपने।
प्रधान राग द्वेष शत्रु को हना सु आपने।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।४।।
महान रोग शोक कष्ट हेतु औषधी कहे।
अनिष्ट योग इष्ट का वियोग दु:ख को दहे।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।५।।
अपूर्व चालिसे हि लाख पूर्व वर्ष आयु है।
सुतीन सौ धनुष प्रमाण तुंग देह आप हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।६।।
सुचक्रवाक चिन्ह देह स्वर्ण के समान है।
तनू विहीन ज्ञानदेह सिद्ध शक्तिमान हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।७।।
शतेन्द्र वृंद आपको सदैव शीश नावते।
गणीन्द्र वृंद आप को निजात्मा में ध्यावते।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।८।।
गणेश चामरादि एक सौ सुसोलहों सभी।
समस्त ऋद्धियों समेत आप भक्ति लीन ही।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।९।।
समस्त साधु तीन लाख बीस सहस संयमी।
निजात्म सौख्य हेतु नित्य स्वात्मध्यान लीन ही।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।१०।।
प्रधान आर्यिका अनंतमत्ति नाम धारती।
सुतीन लाख तीस सहस आर्यिका महाव्रती।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।११।।
जिनेश भक्त तीन लाख श्रावकों कि भीड़ है।
सुपाँच लाख श्राविका मिथ्यात्व से विहीन हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।१२।।
असंख्य देव देवियाँ जिनेन्द्र अर्चना करें।
वहाँ तिर्यंच संख्य सर्व वैरभाव को हरें।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।१३।।
सुनी सुकीर्ति आपकी अतेव संस्तुती करूँ।
अनंत जन्म के अनंत पापपुंज को हरूँ।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि दीजिए ।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।१४।।
जिनेन्द्र आप भक्ति से सदैव साम्य भावना।
सदैव स्वात्म ब्रह्म तत्त्व की करूँ उपासना।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।१५।।
-दोहा-
सुमतिनाथ! तुम भक्ति से, मिले निजातम शक्ति।
रत्नत्रय युक्ती मिले, पुन: शीघ्र हो मुक्ति।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
गीता छंद—
जो सुमतिनाथ विधान भक्ती, से करेंगे भव्यजन।
वे मोह तम को दूर कर, सद्बुद्धि पाते भक्तजन।।
‘सज्ज्ञानमति’ भास्कर किरण से, लोक में यश पायेंगे।
आर्हन्त्य लक्ष्मी प्राप्त कर, शिवधाम को पा जायेंगे।।१।।
इत्याशीर्वाद: