-स्थापना-(दोहा)-
श्री सुरमन्यु ऋषीश की, पूजा करूँ त्रिकाल।
आह्वानन स्थापना, करूँ बसो मन आन।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युऋषीश्वर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युऋषीश्वर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युऋषीश्वर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक (सोरठा छंद)-
स्वर्णकलश में नीर, लेकर जलधारा करूँ।
श्री सुरमन्यु ऋषीश, पूजा कर भवदुख हरूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युमहर्षये जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरभित चन्दन लाय, गुरुपद में चर्चन करूँ।
श्री सुरमन्यु ऋषीश, पूजा कर भवदुख हरूँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युमहर्षये संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल अक्षत लाय, गुरुपद में अर्पण करूँ।
श्री सुरमन्यु ऋषीश, पूजा कर भवदुख हरूँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युमहर्षये अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्प सुगंधित लाय, गुरुपद में अर्पण करूँ।
श्री सुरमन्यु ऋषीश, पूजा कर भवदुख हरूँ।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युमहर्षये कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मीठे व्यंजन लाय, गुरुपद में अर्पण करूँ।
श्री सुरमन्यु ऋषीश, पूजा कर भवदुख हरूँ।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युमहर्षये क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णिम दीप जलाय, गुरुपद की आरति करूँ।
श्री सुरमन्यु ऋषीश, पूजा कर भवदुख हरूँ।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युमहर्षये मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्नि में धूप जलाय, गुरुपद का अर्चन करूँ।
श्री सुरमन्यु ऋषीश, पूजा कर भवदुख हरूँ।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युमहर्षये अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्ष हेतु फल लाय, गुरुपद में अर्पण करूँ।
श्री सुरमन्यु ऋषीश, पूजा कर भवदुख हरूँ।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युमहर्षये मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य थाल भर लाय, गुरुपद में अर्पण करूँ।
श्री सुरमन्यु ऋषीश, पूजा कर भवदुख हरूँ।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युमहर्षये अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लेकर प्रासुक नीर, शांतीधारा मैं करूँ।
श्री सुरमन्यु ऋषीश, पूजा कर भवदुख हरूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
विविध पुष्प को लाय, पुष्पांजलि गुरुपद करूँ।
श्री सुरमन्यु ऋषीश, पूजा कर भवदुख हरूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
सप्तऋषी मण्डल रचा, पूजा हेतु महान।
पुष्पांजलि करके वहाँ, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
राजा श्रीनन्दन की रानी, धारिणी पुत्र सुरमन्यु कहे।
प्रीतिंकर जिनवर के समीप, दीक्षा ले तपकर ऋद्धि लहें।।
उन चारणादि ऋद्धीधारी, मुनिवर की पूजा सुखकारी।
उनकी ऋद्धी से मिल जाती, भौतिक आत्मिक संपति सारी।।२।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वितश्रीसुरमन्युमहर्षये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युमहर्षये नम:। (९, २७ या १०८ बार जाप्य करें)
-शंभु छंद-
हे मुनिवर! तुम तो श्रीजिनवर के, लघुनंदन कहलाते हो।
हे ऋषिवर! तुम तो जिनशासन का, सच्चा रूप दिखाते हो।।
हे यतिवर! तुम तो जिनशास्त्रों को, जीवन में अपनाते हो।
हे गुरुवर! तुम तो शिवपथ पर चल, शिवपथ को दरशाते हो।।१।।
श्री नंदन नृप के प्रथम पुत्र, ने राजमहल का सुख छोड़ा।
आतम सुख प्राप्ती हेतु उन्होंने, परिकर से नाता तोड़ा।।
जब पिता चले दीक्षा लेने, तब उनको भी वैराग्य हुआ।
नश्वर सांसारिक वैभव को, तज शिवपथ में अनुराग हुआ।।२।।
श्रीनंदन मुनि ने तप करके, वैवल्यज्ञान को प्राप्त किया।
पुत्रों ने भी तप कर करके, नाना ऋद्धी को प्राप्त किया।।
उनकी ऋद्धी से अन्य प्राणियों, ने ही लाभ उठाया था।
सुरमन्यु ऋद्धिधारी मुनिवर ने, ज्ञानामृत बरसाया था।।३।।
वे निजचर्या में रत रहकर, जिनकल्पी मुनि कहलाते थे।
चौमास में भी इसलिए कहीं भी, वे विहार कर जाते थे।।
उनके विहार से जीवों की, हिंसा न कभी भी होती थी।
व्रत समिति गुप्तियों से सदैव, रक्षा उनकी खुद होती थी।।४।।
उन श्रीसुरमन्यु मुनी को हम, पूर्णार्घ्य चढ़ाने आए हैं।
आठों द्रव्यों का थाल सजा, जयमाला गाने आए हैं।।
‘‘चन्दनामती’’ उन ऋद्धी से, हम लाभ उठाने आए हैं।
रत्नत्रय की वृद्धी हेतू, तप शक्ती पाने आए हैं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुरमन्युमहर्षये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
सप्तऋषी की अर्चना, देवे सौख्य महान।
इनके पद की वंदना, करे कष्ट की हान।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।