स्थापना-गीता छंद
हे ऋषभदेव जिनेन्द्र! आदिनाथ!युगस्रष्टा तुम्हीं।
युग आदि में इस कर्मभूमी, के प्रभो! कर्ता तुम्हीं।।
तुम ही प्रजापतिनाथ! मुक्ती के विधाता हो तुम्हीं।
सज्जाति परमस्थान दाता, नाथ! अब तिष्ठो यहीं।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्रदायक! श्री ऋषभदेव! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्रदायक! श्री ऋषभदेव! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्रदायक! श्री ऋषभदेव!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टकं
जिनवचसम शीतल नीर, कंचन भृंग भरूँ।
जिन चरणांबुज में धार, दे जगद्वंद्व हरूँ।।
श्री ऋषभदेव जिनराज, पूजूँ तीर्थंकर।
सज्जाति परमस्थान, पाऊँ क्षेमंकर।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनतनुसम सुरभित गंध, सुवरण पात्र भरूँ।
जिनचरण सरोरुह चर्च, भव संताप हरूँ।।
श्री ऋषभदेव जिनराज, पूजूँ तीर्थंकर।
सज्जाति परमस्थान, पाऊँ क्षेमंकर।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनगुणसम उज्ज्वल धौत, अक्षत थाल भरे।
जिन चरण निकट धर पुंज, अक्षय सौख्य भरे।।
श्री ऋषभदेव जिनराज, पूजूँ तीर्थंकर।
सज्जाति परमस्थान, पाऊँ क्षेमंकर।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनयशसम सुरभित श्वेत, कुंद गुलाब लिये।
मदनारिजयी जिनपाद, पूजूँ हर्ष हिये।।
श्री ऋषभदेव जिनराज, पूजूँ तीर्थंकर।
सज्जाति परमस्थान, पाऊँ क्षेमंकर।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवचनामृत सम शुद्ध, व्यंजन थाल भरे।
परमामृत तृप्त जिनेन्द्र, पूजत भूख टरे।।
श्री ऋषभदेव जिनराज, पूजूँ तीर्थंकर।
सज्जाति परमस्थान, पाऊँ क्षेमंकर।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वरभेद ज्ञान सम ज्योति, जगमग दीप लिये।
जिनपद पूजत ही होत, ज्ञान उद्योत हिये।।
श्री ऋषभदेव जिनराज, पूजूँ तीर्थंकर।
सज्जाति परमस्थान, पाऊँ क्षेमंकर।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप, खेवत कर्म जरे।
निज आतम गुण सौगंध्य, दश दिश माहिं भरे।।
श्री ऋषभदेव जिनराज, पूजूँ तीर्थंकर।
सज्जाति परमस्थान, पाऊँ क्षेमंकर।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ध्वनिसम मधुर रसाल, आम अनार भले।
जिनपद पूजत तत्काल, फल सर्वोच्च मिले।।
श्री ऋषभदेव जिनराज, पूजूँ तीर्थंकर।
सज्जाति परमस्थान, पाऊँ क्षेमंकर।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत पुष्प, नेवज दीप लिया।
वर धूप फूलों से युक्त, अर्घ समर्प्य किया।।
श्री ऋषभदेव जिनराज, पूजूँ तीर्थंकर।
सज्जाति परमस्थान, पाऊँ क्षेमंकर।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्र्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
सरयूनदी सुनीर, जिनपद पंकज धार दे।
शीघ्र हरो भव पीर, शांतीधारा शांतिकर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला कमल गुलाब, चंप चमेली ले घने।
आदीश्वर पादाब्ज, पूजत ही सुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
यह पुरी अयोध्या इंद्र रचित, चौदहवें कुलकर नाभिराज।
माता मरुदेवी के आँगन, बहु रत्न वृष्टि की धनदराज।।
आषाढ़ वदी द्वितीया सर्वारथ, सिद्धी से अहमिंद्र देव।
माता के गर्भ बसे आकर, इंद्रों ने की पितु मात सेव।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं आषाढ़कृष्णाद्वितीयायां श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री ह्री धृति आदि देवियों ने, माता की सेवा भक्ती की।
नाना विध गूढ़ प्रश्न करके, माता की अतिशय तृप्ती की।।
शुभ चैत्र वदी नवमी जन्में, प्रभु त्रिभुवन में अति हर्ष हुआ।
इन्द्रों ने आ प्रभु को लेकर, मेरू पर अतिशय न्हवन किया।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं चैत्रकृष्णानवम्यां श्रीऋषभदेवतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव निलांजना नृत्य देख, वैराग्यभाव मन में लाये।
लौकांतिक सुर स्तुति करते, सुर सुदर्शना पालकि लाये।।
नक्षत्र उत्तराषाढ़ चैत वदि, नवमी प्रभु सिद्धार्थ वन में।
छह मास योग ले दीक्षा ली, मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ प्रभु पद में।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं चैत्रकृष्णनवम्यां श्रीऋषभदेवतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
छह मास योग के बाद प्रभू, मुनिचर्या बतलाने निकले।
गजपुर में अक्षयतृतिया को, आहार दिया श्रेयांस मिले।।
इक सहस वर्ष तप तपने से, केवलज्ञानी होकर चमके।
दिव्यध्वनि से जग संबोधा, फाल्गुन वदि एकादशि तिथि के।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं फाल्गुनकृष्णाएकादश्यां श्रीऋषभदेवतीर्थंकरकेवलज्ञान-कल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह विध सभा बनी सुंदर, मुनि आर्या सुरनर पशुगण थे।
प्रभु समवसरण में वृषभसेन, आदिक चौरासी गणधर थे।।
तीजे युग में त्रय वर्ष सार्ध, अरु मास शेष अष्टापद से।
चौदह दिन योग निरुद्ध माघ, वदि चौदश के प्रभु मुक्ति बसे।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं माघकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीऋषभदेवतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
–दोहा-
परम चिदंबर चित्पुरुष, चिदानंद भगवान्।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य अमलान।।१।।
अथ मंडलस्योपरि प्रथमकोष्ठके पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
ॐ ह्रीं युगादिपुरुषगुणविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं अनादिनिधनगुणान्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं वियद्गामिगुणविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं जागरूकगुणविशिष्टाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्रियगुणविकसिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं अनन्तर्द्धिगुणधारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यर्द्धिगुणप्राप्ताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं अमेयर्द्धिगुणप्राप्ताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
ॐ ह्रीं परार्घ्यगुणधारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
ॐ ह्रीं मौनिगुणनिधानाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
ॐ ह्रीं धुर्यगुणधारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
ॐ ह्रीं भटगुणप्रकटिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
ॐ ह्रीं शूरगुणविवर्द्धकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
ॐ ह्रीं सार्थवाहगुणविधायकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
ॐ ह्रीं शिवाध्वगुणविधायकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
ॐ ह्रीं मोक्षसाधनोपायप्रदर्शक-साधुगुणनिधानाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
ॐ ह्रीं द्वादशगणवेष्टित-गणिगुणविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
ॐ ह्रीं सुताधारगुणसमन्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
ॐ ह्रीं पाठकगुणसमन्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्रियार्थदृग्गुणविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
ॐ ह्रीं आदीशगुणविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
ॐ ह्रीं आदिभूभर्तृगुणविधानाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
ॐ ह्रीं आदिमगुणविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
ॐ ह्रीं आदिजिनेश्वरगुणसमन्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
ॐ ह्रीं आदितीर्थंकरगुणविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५।
ॐ ह्रीं आदिसृष्टिकृद्गुणविकसिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६।।
ॐ ह्रीं आदिदेशकगुणविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७।।
ॐ ह्रीं आदिब्रह्मगुणप्राप्ताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८।।
ॐ ह्रीं आदिनाथगुणधारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९।।
ॐ ह्रीं अर्च्चगुणप्राप्ताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०।।
ॐ ह्रीं आदिषट्कर्मदेशकगुणान्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१।।
ॐ ह्रीं आदिधर्मविधातृगुणान्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२।।
ॐ ह्रीं आदिधर्मराजगुणप्रकटिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३।।
ॐ ह्रीं अग्रजगुणसमन्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४।।
ॐ ह्रीं अग्रिमगुणविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५।।
ॐ ह्रीं श्रेयान्गुणसमन्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६।।
ॐ ह्रीं श्रेयस्करगुणसमन्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७।।
ॐ ह्रीं श्रेयोगुणसमन्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८।।
ॐ ह्रीं श्रेयोऽग्रणीगुणनिधानाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९।।
ॐ ह्रीं सुखावहगुणान्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०।।
ॐ ह्रीं श्रेयोद्गुणविकसिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१।।
ॐ ह्रीं श्रेयवाराशिगुणान्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२।।
ॐ ह्रीं श्रेयवान्गुणसमन्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३।।
ॐ ह्रीं श्रेयसंभवगुणमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४।।
ॐ ह्रीं नाभेयगुणनिधानाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५।।
ॐ ह्रीं आदियोगीन्द्रगुणप्राप्ताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६।।
ॐ ह्रीं मनुगुणप्रधानाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७।।
ॐ ह्रीं आद्यगुणविशिष्टाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८।।
ॐ ह्रीं कुलकरगुणसनाथाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९।।
ॐ ह्रीं सन्मतिप्रियगुणान्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०।।
ॐ ह्रीं संस्कृतगुणसमन्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५१।।
ॐ ह्रीं प्राकृतगुणसमन्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५२।।
ॐ ह्रीं प्राज्ञगुणनिधानाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५३।।
ॐ ह्रीं जिनाद्याद्यगुणप्राप्ताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५४।।
-पूर्णार्घ्य-
मात-पिता कुल उभय पक्ष की, शुद्धी सज्जाती है।
सम्यग्दर्शन सहित भव्य को, निश्चित मिल जाती है।।
सज्जाति स्थान प्रदाता, प्रभु को नित्य भजूँ मैं।
ऋषभदेव को अष्टद्रव्य ले, हर्षित भाव जजूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय नम:।
-दोहा-
तीर्थंकर गुण रत्न को, गिनत न पावें पार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।१।।
-शंभु छंद-
श्री वृषभसेन आदिक चौरासी, गणधर मुनि चौरासि सहस।
ब्राह्मी गणिनी त्रय लाख पचास, हजार आर्यिका व्रतसंयुत।।
त्रय लाख सुश्रावक पाँच लाख, श्राविका प्रभू का चउ संघ था।
आयू चौरासी लाख पूर्व, वत्सर व पाँच सौ धनु तनु था।।२।।
-अनंगशेखर छंद-
जयो जिनेन्द्र! आपके महान दिव्य ज्ञान में,
त्रिलोक और त्रिकाल एक साथ भासते रहे।
जयो जिनेन्द्र! आपका अपूर्व तेज देखके,
असंख्य सूर्य और चंद्रमा भि लाजते रहे।।१।।
जयो जिनेन्द्र! आपकी ध्वनी अनच्छरी खिरे,
तथापि संख्य भाषियों को बोध है करा रही।
जयो जिनेन्द्र! आपका अचिन्त्य ये महात्म्य देख,
सुभक्ति से प्रजा समस्त आप आप आ रही।।२।।
जिनेश! आपकी सभा असंख्य जीव से भरी,
अनंत वैभवों समेत भव्य चित्त मोहती।
जिनेश! आपके समीप साधु वृंद औ गणीन्द्र,
केवली मुनीन्द्र और आर्यिकायें शोभतीं।।३।।
सुरेन्द्र देवियों की टोलियाँ असंख्य आ रही,
खगेश्वरों की पंक्तियाँ अनेक गीत गा रहीं।
सुभूमि गोचरी मनुष्य नारियाँ तमाम हैं,
पशू तथैव पक्षियों कि टोलियाँ भी आ रहीं।।४।।
सुबारहों सभा स्वकीय ही स्वकीय में रहें,
असंख्य भव्य बैठ के जिनेश देशना सुनें।
सुतत्त्व सात नौ पदार्थ पाँच अस्तिकाय और,
द्रव्य छह स्वरूप को भले प्रकार से गुनें।।५।।
निजात्म तत्त्व को संभाल तीन रत्न से निहाल,
बार-बार भक्ति से मुनीश हाथ जोड़ते।
अनंत सौख्य में निमित्त आपको विचार के,
अनंत दु:ख हेतु जान कर्मबंध तोड़ते।।६।।
स्वमोह बेल को उखाड़ मृत्युमल्ल को पछाड़,
मुक्ति अंगना निमित्त लोक शीश जा बसें।
प्रसाद से हि आपके अनंत भव्य जीव राशि,
आपके समान होय आप पास आ लसें।।७।।
असंख्य जीव मात्र दृष्टि समीचीन पायके,
अनंतकाल रूप पंच परावर्त मेटते।
सुभक्ति के प्रभाव से असंख्य कर्म निर्जरा,
करें अनंत शुद्धि से निजात्म सौख्य सेवते।।८।।
-दोहा-
वृषभ चिन्ह स्वर्णिम तनू, प्रथम तीर्थंकर आप।
‘ज्ञानमती’ सुख शांति दे, करो हमें निष्पाप।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो सप्तपरमस्थान तीर्थंकर विधान सदा करें।
वे भव्य क्रम से सप्तपरमस्थान की प्राप्ती करें।।
संसार के सुख प्राप्त कर फिर सिद्धिकन्या वश करें।
सज्ज्ञानमति रविकिरण से भविमन कमल विकसित करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलि:।।