अथ स्थापना—नरेन्द्र छंद
चौबीसों तीर्थंकर प्रभु के, समवसरण में शोभें।
आठ भूमियाँ सुदंर उसमें, पहली के वीथी में।।
तीर्थंकर ऊँचाई से ये, बारह गुणिते ऊँचे।
मानस्तंभ बने अतिसुंदर, समवसरण को पूजें।१।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—भुजंगप्रयात छंद
पयोराशि को नीर निर्मल भराके।
करूँ धार जिनपाद भक्ती बढ़ाके।।
समवसरण पूजूं भवातापहारी।
सु चौबीस ये तीर्थकर सौख्यकारी।।१।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
घिसा गंध केशर लिया पात्र में है।
चरण चर्चते नाथ के सौख्य हो है।।समवसरण.।।२।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धुले शालि तंदुल भरा थाल लाया।
चढ़ा पुंज सन्मुख प्रभू को रिझाया।।समवसरण.।।३।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही केवड़ा मल्लिका मोगरा ले।
चढ़ाऊँ चरण में सुगुण कीर्ति पैले।।
समवसरण पूजूं भवातापहारी।
सुचौबीस ये तीर्थंकर सौख्यकारी।।४।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
जलेबी इमरती पुआ पात्र भरके।
चढ़ाऊँ तुम्हें स्वात्मसुख हेतु रुचि से।।समवसरण.।।५।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रजत पात्र में दीप घृत का जलाऊँ।
करूँ आरती मोह तम को भगाऊँ।।समवसरण.।।६।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशांगी सुरभि धूप खेऊँ अगनि में।
जले कर्म सब धूम्र पैâले गगन में।।समवसरण.।।७।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस संतरा आम अंगूर लाऊॅँ।
मधुर फल प्रभो आपको मैं चढ़ाउँ।।समवसरण.।।८।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलादी वसू द्रव्य ले अर्घ कीना।
चढ़ाऊँ तुम्हें हों अशुभ कर्म छीना।।समवसरण.।।९।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
सीतानदि को नीर, सुवरण झारी में भरूँ।
मिले भवोदधि तीर, शांतिधारा त्रय किये।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला वकुल गुलाब, चंप चमेली ले घने।
पुष्पांजलि को आप, चरण चढ़ाते यश बढ़े।।११।।
दिव्य पुष्पाँजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
-सोरठा-
तीर्थंकर मुनिनाथ, अतुल गुणों के तुम धनी।
नमूँ नमाकर माथ, गाऊँ गुणमणिमालिका।।१।।
-नरेन्द्र छंद-
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, गणधर मुनिगण वंदे।
जय जय समवसरण परमेश्वर, वंदत मन आनंदे।।
प्रभु तुम समवसरण अतिशायी, धनपति रचना करते।
बीस हजार सीढ़ियों ऊपर, शिला नीलमणि धरते।।२।।
धूलिसाल परकोटा सुंदर, पंचवर्ण रत्नों के।
मानस्तंभ चार दिश सुंदर, अतिशय ऊँचे चमकें।।
उनके चारों दिशी बावड़ी, जल अति स्वच्छ भरा है।
आसपास के कुंड नीर में, पग धोती जनता है।।३।।
प्रथम चैत्यप्रासाद भूमि में, जिनगृह अतिशय ऊँचे।
खाई लताभूमि उपवन में, पुष्प खिलें अति नीके।।
वनभूमी के चारों दिश में, चैत्यवृक्ष में प्रतिमा।
कल्पभूमि सिद्धार्थ वृक्ष को, नमूँ नमूँ अति महिमा।।४।।
ध्वजा भूमि की उच्च ध्वजाएँ, लहर लहर लहरायें।
भवनभूमि के जिनबिम्बों को, हम नित शीश झुकायें।।
श्रीमंडप में बारह कोठे, मुनिगण सुरनर बैठे।
पशुगण भी उपदेश श्रवण कर, शांतचित्त वहाँ बैठे।।५।।
गणधर गुरुवर मुनिगण लाखों, चौबीसों जिनवर के।
गणिनी मात आर्यिकायें भी, समवसरण में बैठें।।
श्रावक और श्राविका, लाखों वहां प्रभू भक्तीरत।
असंख्यात थे देव देवियाँ, सिंहादिक बहु तिर्यक्।।६।।
गंधकुटी के मध्य सिंहासन, जिनवर अधर विराजें।
प्रातिहार्य की शोभा अनुपम, कोटि सूर्य शशि लाजें।।
सौ इन्द्रों से पूजित जिनवर, त्रिभुवन के गुरु मानें।
नमूँ नमूँ मैं हाथ जोड़कर, मेरे भवदु:ख हानें।।७।।
-दोहा-
चिन्मय चिंतामणि प्रभो! चिंतित फल दातार।
ज्ञानमती सुख संपदा, दीजे निजगुण सार।।८।।
शरणागत के सर्वथा, तुम रक्षक भगवान।
त्रिभुवन की अविचल निधी, दे मुझ करो महान।।९।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—शेर छंद—
जो भव्य प्रभु समवसरण की अर्चना करें।
संपूर्ण अमंगल व रोग, शोक, दुख हरें।।
निज आत्म के गुणों को संचित किया करें।
‘सज्ज्ञानमती’ से ही, जीवन सफल करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।