सिद्धा: सिद्ध्यंति सेत्स्यंति, त्रैकाल्ये ये नरोत्तमा:।
सर्वार्थसिद्धिदातार:, ते न: कुर्वन्तु मंगलम्।।१।।
जो भव्य सिद्ध हो चुके होते हैं होवेंगे।
वे सब अनंतानंत काल सौख्य सेवेंगे।।
उन सर्व सिद्ध की सदैव वंदना करें।
सब कार्य सिद्ध करके स्वात्म सौख्य को भरें।।२।।
एक एक सिद्ध के अनंतानंत गुण कहें।
ऐसे अनंतानंत सिद्ध मोक्ष में रहें।।
एक एक सिद्ध में अनंतानंत सिद्ध हैं।
इनको अनंतानंत बार मम नमोस्तु है।।३।।
श्रीसिद्धचक्रमहायज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपारि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
नमोस्तु सिद्धचक्रविधानपूजारंभक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं श्रीमत्सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवच्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।
चतारि मंगलं—अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा—अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारि सरणं पव्वज्जामि—अरिहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
अड्ढाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु जाव अरहंताणं भयवंताणं आदियराणं तित्थयराणं जिणाणं जिणोत्तमाणं केवलियाणं, सिद्धाणं, बुद्धाणं, परिणिव्वुदाणं, अन्तयडाणं, पारयडाणं, धम्माइरियाणं, धम्मदेसियाणं, धम्मणायगाणं, धम्मवरचाउरंगचक्कवट्टीणं, देवाहिदेवाणं, णाणाणं, दंसणाणं चरित्ताणं सदा करेमि किरियम्मं।
करेमि भंते! सामाइयं सव्वसावज्जजोगं पच्चक्खामि जावज्जीवं तिविहेण मणसा वचसा कायेण ण करेमि ण कारेमि कीरंतं पि ण समणुमणामि। तस्स भंते! अइचारं पच्चक्खामि णिंदामि गरहामि अप्पाणं, जाव अरहंताणं, भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि ताव कालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि।
(९ बार महामंत्र का जाप्य)
ढाई द्वीप अरु दो समुद्र गत, पन्द्रह कर्म भूमियों में।
जो अर्हत भगवंत आदिकर, तीर्थंकर जिन जितने हैं।।१।।
तथा जिनोत्तम केवलज्ञानी, सिद्ध शुद्ध परिनिर्वृत देव।
पूज्य अंतकृत, भवपारंगत, धर्माचार्य धर्मदेशक।।२।।
धर्म के नायक धर्मश्रेष्ठ, चतुरंग चक्रवर्ती श्रीमान।
श्री देवाधिदेव अरु, दर्शन, ज्ञान चरित गुणश्रेष्ठ महान।।३।।
करूँ वंदना मैं कृतिकर्म, विधी से ढाई द्वीप के देव।
सिद्ध चैत्य गुरुभक्ति पठन कर, नमूँ सदा बहुभक्ति समेत।।४।।
भगवन्! सामायिक करता हूँ, सब सावद्य योग तजकर।
यावज्जीवन वचन काय मन, त्रिकरण से न करूँ दु:खकर।।५।।
नहीं कराऊँ नहिं अनुमोदूं, हे भगवन्! अतिचारों को।
त्याग करूँ निंदू गर्हूं अपने को, मम आत्मा शुचि हो।।६।।
जब तब भगवत् अर्हद्देव की, करूँ उपासना हे जिनदेव।
तब तक पापकर्म दुश्चारित, का मैं त्याग करूँ स्वयमेव।।७।।
थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवलि अणंतजिणे।
णरपवरलोयमहिए, विहुयरयमले महप्पण्णे।।१।।
लोयस्सुज्जोययरे, धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे।
अरहंते कित्तिस्से, चउवीसं चेव केवलिणो।।२।।
उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च, सुमइं च।
पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे।।३।।
सुविहं च पुप्फयंतं, सीयल सेयं च वासुपुज्जं च।
विमलमणंतं भयवं, धम्मं संतिं च वंदामि।।४।।
कुंथुं च जिणविंरदं, अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं।
वंदामि रिट्ठणेमिं, तह पासं वड्ढमाणं च।।५।।
एवं मए अभित्थुआ, विहुय-रयमला पहीणजरमरणा।
चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु।।६।।
कित्तिय वंदिय महिया, एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा।
अरोग्गणाणलाहं, दिंतु समाहिं च मे बोहिं।।७।।
चंदेहिं णिम्मलयरा, आइच्चेहिं अहियपहासत्ता।
सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु।।८।।
स्तवन करूँ जिनवर तीर्थंकर, केवलि अनंतजिन प्रभु का।
मनुज लोक से पूज्य कर्मरज, मल से रहित महात्मन् का।।१।।
लोकोद्योतक धर्म तीर्थंकर, श्री जिन का मैं नमन करूँ।
जिन चउवीस अर्हंत तथा, केवलि गण का गुणगान करुँ।।२।।
ऋषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमतिनाथ का कर वंदन।
पद्मप्रभ जिन श्री सुपार्श्व प्रभु, चन्द्रप्रभ का करूँ नमन।।३।।
सुविधि नामधर पुष्पदंत, शीतल श्रेयांस जिन सदा नमूँ।
वासुपूज्य जिन विमल अनंत, धर्म प्रभु शांतिनाथ प्रणमूँ।।४।।
जिनवर कुन्थ अरह मल्लि प्रभु, मुनिसुव्रत नमि को ध्याऊँ।
अरिष्ट नेमि प्रभु श्री पारस, वर्धमान पद शिर नाऊँ।।५।।
इस विध संस्तुत विधुत रजोमल, जरा मरण से रहित जिनेश।
चौबीसों तीर्थंकर जिनवर, मुझ पर हों प्रसन्न परमेश।।६।।
कीर्तित वंदित महित हुए ये, लोकोत्तम जिन सिद्ध महान।
मुझको दें आरोग्यज्ञान अरु, बोधि समाधि सदागुणखान।।७।।
चन्द्र किरण से भी निर्मलतर, रवि से अधिक प्रभाभास्वर।
सागर सम गंभीर सिद्धगण, मुझको सिद्धी दें सुखकर।।८।।
अट्ठविह-कम्ममुक्के, अट्ठ-गुणड्ढे अणोवमे सिद्धे।
अट्ठमपुढवि-णिविट्ठे, णिट्ठिय-कज्जेय वंदिमो णिच्चं।।१।।
तित्थयरे-दरसिद्धे, जल-थल आयासणिव्वुदे सिद्धे।
अंतयडे-दरसिद्धे, उक्कस्म-जहण्ण-मज्झिमोगाहे।।२।।
उड्ढ-मह-तिरियलोए, छव्विह-काले य णिव्वुदे सिद्धे।
उवसग्ग-णिरुवसग्गे, दीवोदहि-णिव्वुदे य वंदामि।।३।।
पच्छायडेय सिद्धे, दुग-तिग-चदुणाण-पंच चदुर-जमे।
परिपडिदा-परिपडिदे, संजम-सम्मत्त-णाण-मादीहिं।।४।।
साहरणा-साहरणे, सम्मुग्घादेदरे य णिव्वादे।
ठिदपल्यंक-णिसण्णे, विगयमले परमणाणगे वंदे।।५।।
पुंवेदं वेदंता, जे पुरिसा खवगसेढि मारुढा।
सेसोदयेण वि तहाज्झाणु-वजुत्ता य ते हु सिज्झंति।।६।।
पत्तेयसयंबुद्धा, बोहियबुद्धा, य होंति ते सिद्धा।
पत्तेयं पत्तेयं, समये समयं पणिवदामि सदा।।७।।
पण-णव-दु अट्ठवीसा चउतिय-णवदी य दोण्णि पंचेव।
वावण्णहीण-वियसय-पयडिविणासेण होंति ते सिद्धा।।८।।
अहसय-मव्वावाहं, सोक्ख-मणंतं अणोवमं परमं।
इंदियविसयातीदं, अप्पत्तं अच्चवं च ते पत्ता।।९।।
लोयग्ग-मत्थयत्था, चरम-सरीरेण ते हु किंचूणा।
गयसित्थ-मूसगब्भे, जारिस-आयार तारिसायारा।।१०।।
जर-मरण-जम्मरहिया, ते सिद्धा मम सुभत्ति-जुत्तस्स।
दिंतु वरणाण-लाहं, बहुयण-परिपत्थणं परमसुहं।।११।।
किच्चा काउस्सग्गं, चउरट्ठय-दोसविरहियं सुपरिसुद्धं।
अइभत्ति-संपउत्तो, जो वंदइ लहु लहइ परमसुहं।।१२।।
इच्छामि भंते! सिद्धभक्ति-भक्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं सम्मणाणसम्मदंसण सम्मचारित्तजुत्ताणं, अट्ठविह-कम्मविप्पमुक्काणं अट्ठगुण-संपण्णाणं उड्ढलोय-मत्थयम्मि पयट्ठियाणं, तवसिद्धाणं णयसिद्धाणं, संजमसिद्धाणं चरित्तसिद्धाणं, अतीताणागद-वट्टमाणकालत्तयसिद्धाणं, सव्वसिद्धाणं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
श्री सिद्धचक्र सब आठ कर्म, विरहित औ आठ गुणों युत हैं।
अनुपम हैं सब कार्य पूर्ण कर, अष्टम पृथ्वी पर स्थित हैं।।
ऐसे कृतकृत्य सिद्धगण का, हम नितप्रति वंदन करते हैं।
मन वचन काय की शुद्धी से, शिरसा अभिनन्दन करते हैं।।१।।
तीर्थंकर होकर सिद्ध हुए, बिन तीर्थंकर जो सिद्ध हुए।
जल से थल से जो सिद्ध हुये, जो भी आकाश से सिद्ध हुए।।
जो हुए अंतकृत केवलि या, बिन हुए सिद्धि को प्राप्त हुए।
उत्तम जघन्य मध्यम तनु की, अवगाहन धर जो सिद्ध हुए।।२।।
जो ऊर्ध्वलोक औ अधोलोक, औ तिर्यक् लोक से सिद्ध हुए।
उत्सर्पिणि अवसर्पिणि के भी, छह कालों से जो सिद्ध हुए।।
उपसर्ग सहन कर सिद्ध हुए, उपसर्ग बिना भी सिद्ध हुए।
उन सबको वंदू ढाई द्वीप, दो समुद्र से जो सिद्ध हुए।।३।।
मति श्रुत से केवलज्ञान प्राप्त, या तीन ज्ञान या चार सहित।
केवलज्ञानी हो सिद्ध हुए, पाँचों संयम या चार सहित।।
संयम समकित ज्ञानादि से च्युत हो, पुन: ग्रहणकर सिद्ध हुए।
जो संयम समकित ज्ञान आदि, से बिना पतित हो सिद्ध हुए।।४।।
जो साधु संहरण सिद्ध बिना, संहरण प्राप्त हो सिद्ध हुए।
जो समुद्घात कर सिद्ध हुए, बिन समुद्घात भी सिद्ध हुए।।
खड्गासन और पर्यंकासन से, कर्म नाश कर सिद्ध हुए।
उन परम ज्ञानयुत सिद्धों को, मैं वंदूँ त्रिकरण शुद्धि किये।।५।।
जो भाव पुरुषवेदी मुनिवर वर, क्षपक श्रेणि चढ़ सिद्ध हुए।
जो भावनपुंसक वेदी भी, ये पुरुष ध्यान धर सिद्ध हुए।।
जो भाववेद स्त्री होकर, भी द्रव्य पुरुष अतएव उन्हें।
हो शुक्लध्यान सिद्धि जिससे, सब कर्म नाश कर सिद्ध बने।।६।।
प्रत्येक बुद्ध और स्वयंबुद्ध, औ बोधित बुद्ध सुसिद्ध बने।
उन सबको पृथक्-पृथक् प्रणमूँ, औ एक साथ भी नमूँ उन्हें।।
पण नव दो अट्ठाईस-चार, तेरानवे दो औ पाँच प्रकृति।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, सब सिद्ध हुए प्रणमूं नितप्रति।।७।।
जो अतिशय अव्याबाध सौख्य, औ अनंत अनुपम परम कहा।
इन्द्रिय विषयों से रहित पूर्व, अप्राप्त ध्रौव्य को प्राप्त किया।।
लोकाग्रशिखर पर स्थित वे, अंतिम तनु से किंचित् कम हैं।
गल गया मोम सांचे अंदर, आकार सदृश आकृति धर हैं।।८।।
वे जन्म मरण औ जरा रहित, सब सिद्ध भक्ति से नुति उनको।
बुधजन प्रार्थित औ परम शुद्ध, वर ज्ञानलाभ देवो मुझको।।
बत्तिस दोषों से रहित शुद्ध, जो कायोत्सर्ग विधी करके।
अतिभक्तीयुत वंदन करते, वे तुरतहिं परम सौख्य लभते।।९।।
हे भगवन्! श्री सिद्ध भक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसका।
आलोचन करना चाहूँ, जो सम्यग्रत्नत्रय युक्ता।।
अठविध कर्मरहित प्रभु ऊर्ध्वलोक मस्तक पर संस्थित जो।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, सुसंयम सिद्ध चरित सिध जो।।१०।।
भूत भविष्यत् वर्तमान, कालत्रय, सिद्ध सभी सिद्धा।
नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ भक्ति युक्ता।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।११।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
ऊर्ध्वाधोरयुतं सविंदु सपरं ब्रह्मस्वरावेष्टितम् ।
वर्गापूरित-दिग्गताम्बुजदलं तत्संधितत्त्वान्वितम्।।१।।
अंत: पत्रतटेष्वनाहतयुतं ह्रींकारसंवेष्टितम्।
देवं ध्यायति य: स मुक्तिसुभगो वैरीभकंठीरव:।।२।।
अथ सिद्धचक्र यंत्र स्थापना
श्री सिद्धयंत्र का बीजाक्षर र्ह्रं ऊर्ध्व अधो में रेफ सहित।
यह बिंदु सहित है ब्रह्मस्वरों, से वेष्टित अठदल कमलाकृति।।
स्वर कवर्ग चटतपवर्गा, यरलव शषसह क्रम से अठ दिश में।
णमो अरिहंताणं कमलसंधि में ॐ ह्रीं पद दल तट में।।१।।
यह यंत्र ह्रीं से लेकर क्रौं, सुपद तक वेष्टित अति सुंदर।
इसी यंत्र से सिद्धों का, मुनि ध्यान करें निज मन अंदर।।
वे कर्मशत्रु का नाश करें, वर सिंह समान प्रसिद्ध यहाँ।
मुक्तिश्री के पति सिद्ध बनें, सिद्धों की महिमा सिद्ध यहाँ।।२।।
अथ यंत्र स्थापना—इति सिद्धचक्रयंत्रस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
श्री सिद्ध कर्म संबंध नाश, कर सूक्ष्म नित्य सब रोग रहित।
संपूर्ण उपद्रव रहित अमूर्तिक, परमात्मा को वंदूँ नित।।
ज्ञानामृत पीकर तृप्त स्वयं, निज भावरूप शत इन्द्र वंद्य।
कर्माग्निदाह में मेघ सदृश, मैं नमूँ नमूँ हे सिद्ध वृंद।।१।।
आह्वानन स्थापना, करके पूजूँ नाथ।
आवो आवो सिद्धप्रभु, मुझको करो सनाथ।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
गंगानदी सुनीर, धार देत कलिमल हरे।
पाऊँ भवदधितीर, सिद्धयंत्र पूजूँ सदा।।१।।
ॐ ह्रीं अनाहतपराक्रमाय सिद्धचक्रयंत्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीतिस्वाहा।
चंदन केशर पीत, चर्चत मन शीतल करे।
मिले स्वात्म नवनीत, सिद्धयंत्र पूजूँ सदा।।२।।
ॐ ह्रीं अनाहतपराक्रमाय सिद्धचक्रयंत्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत उज्जवल धौत, पूजत अक्षय निधि भरें।
मिले सौख्य कलधौत, सिद्धयंत्र पूजूँ सदा।।३।।
ॐ ह्रीं अनाहतपराक्रमाय सिद्धचक्रयंत्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला कुंद सरोज, पूजत भव पीड़ा हरें।
नशता मनसिज रोग,सिद्धयंत्र पूजूँ सदा।।४।।
ॐ ह्रीं अनाहतपराक्रमाय सिद्धचक्रयंत्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू बरफी मिष्ट, क्षुधा व्याधि हर पूजते।
मिटते सर्व अनिष्ट, सिद्धयंत्र पूजूँ सदा।।५।।
ॐ ह्रीं अनाहतपराक्रमाय सिद्धचक्रयंत्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योति अमंद, पूजत भ्रम तम को हरे।
प्रगटे ज्ञान अमंद, सिद्धयंत्र पूजूँ सदा।।६।।
ॐ ह्रीं अनाहतपराक्रमाय सिद्धचक्रयंत्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
खेउँ धूप रुचि धार, कर्म भस्म कर शिव करें।
मिले स्वात्म गुण सार, सिद्धयंत्र पूजूँ सदा।।७।।
ॐ ह्रीं अनाहतपराक्रमाय सिद्धचक्रयंत्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल अंगूर अनार, जजत ऋद्धि सिद्धी करें।
भरें सौख्य भंडार, सिद्धयंत्र पूजूँ सदा।।८।।
ॐ ह्रीं अनाहतपराक्रमाय सिद्धचक्रयंत्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसुविधि अर्घ्य सजाय, अर्पत अनुपम सुख मिले।
नशें व्याधि दुखदाय, सिद्धयंत्र पूजूँ सदा।।९।।
ॐ ह्रीं अनाहतपराक्रमाय सिद्धचक्रयंत्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धचक्र वर यंत्र, जलधारा से पूजते।
स्वात्म सिद्धि का मंत्र, मिले त्रिजग में शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, सुरभित करते दश दिशा।
मिले निजातम लाभ, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
स्वर के बिना व्यंजन समूह अर्धमात्रिका।
उन सोलहों स्वर से समेत यंत्र सिद्ध का।।
मैं पूजहूँ अनाहत विद्या अपूर्व है।
इस पूर्वदिश में अर्घ्य धरूँ उदित सूर्य है।।१।
ॐ ह्रीं अ आ इ ई उ ऊ ॠ ॠृ ऌ लृृ¸ ए ऐ ओ औ अं अ: अनाहतविद्यायै पूर्वदिशि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह यंत्र अनाहत कवर्ग वर्ण समेता।
आग्नेय दिश में पूजते हों सद्गुणोपेता।।
जल गंध अक्षतादि अष्ट द्रव्य चढ़ाऊँ।
भव अग्नि शांति के लिये मैं शीश नमाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं क ख ग घ ङ अनाहतविद्यायै आग्नेयदिशि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
च वर्ग से समेत अनाहत महान है।
दक्षिण दिशा में अर्घ्य की पूजा प्रधान है।।
जल गंध आदि थाल भर के पूजते यहाँ।
यमराज कष्ट को हरूँ पाऊँ स्वपद महा।।३।।
ॐ ह्रीं च छ ज झ ञ अनाहतविद्यायै दक्षिणदिशि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ट वर्ग युक्त अनाहत विद्या प्रसिद्ध है।
नैऋत्यकोण में जजूँ करती समृद्धि ये।।
प्रभु सिद्ध सदृश मेरी आत्मा विशुद्ध है।
पूजन करे से आत्मा होगी सुसिद्ध है।।४।।
ॐ ह्रीं ट ठ ड ढ ण अनाहतविद्यायै नैऋत्यदिशि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त वर्ग सहित अनाहत वर मंत्र श्रेष्ठ है।
पश्चिम दिशा में पूजते जो वे भी श्रेष्ठ है।।
सिद्धों की भक्ति से बने भगवान आतमा।
इस हेतु मैं पूजूँ प्रभो! मैं अंतरातमा।।५।।
ॐ ह्रीं त थ द ध न अनाहतविद्यायै पश्चिमदिशि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प वर्ग युक्त यंत्र अनाहत सदा जजूँ।
वायव्यदिश में अर्घ्य चढ़ाके प्रभो भजूँ।।
व्यवहार नय से आतमा जग में अशुद्ध है।
तुम को हृदय में ध्यावते आत्मा विशुद्ध है।।६।।
ॐ ह्रीं प फ ब भ म अनाहतविद्यायै वायव्यदिशि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंतस्थ य र ल व सहित विद्या अनाहती।
उत्तरदिशा में अर्घ्य लेके जजते शुभमती।।
इस यंत्र की आराधना से मन पवित्र हो।
सिद्धों की अर्चना से आत्मा भी सिद्ध हो।।७।।
ॐ ह्रीं य र ल व अनाहतविद्यायै उत्तरदिशि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऊष्माण श ष स ह समेत यंत्र अनाहत।
ईशान दिश में पूजते ही होते अनाहत।।
आत्मा विशुद्ध चित्स्वरूप गुण निधान है।
जो सिद्धयंत्र को जजें लें मुक्तिधाम वे।।८।।
ॐ ह्रीं श ष स ह अनाहतविद्यायै ईशानदिशि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर व्यंजन भी पूज्य हैं, वर्णमातृका सिद्ध।
द्रव्य भावश्रुत हेतु मैं, जजूँ यंत्र को नित्य।।१।।
ॐ ह्रीं षोडशस्वरत्रयस्त्रिंशद्व्यंजनसमन्वितायै अनाहतविद्यायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जय सिद्धचक्र यंत्र, सर्वविघ्न को हरे।
जय सिद्धचक्र यंत्र, सर्व संपदा भरे।।
जय सिद्धचक्र यंत्र, स्वर्ण रत्न को देवे।
जय सिद्धचक्र यंत्र, श्रेष्ठ नवनिधी देवे।।१।।
अ आदि सोलह वर्ण स्वर से जग प्रसिद्ध हैं।
क वर्ग आदि पाँच वर्ग व्यंजनादि हैं।।
अंतस्थ यरलवा औ ऊष्माण शषसहा।
स्वर के बिना ये तेतिस हलंत श्रुत कहा।।२।।
ये सर्व वर्णमातृका श्रुत में प्रधान हैं।
संपूर्ण विद्याओं के मूल जड़ समान हैं।।
संपूर्ण मंत्र यंत्र तंत्र के निदान हैं।
इन पूजते हो वचन सिद्धि ये महान हैं।।३।।
व्यंतर पिशाच भूत डाकिनी पिशाचिनी।
इस यंत्र के प्रभाव से बाधा नशें घनी।।
कोई भी सुर असुर कभी ना कष्ट दे सकें।
इस यंत्र के प्रभाव शत्रु मित्र बन सकें।।४।।
इस यंत्र के प्रभाव पुत्र पौत्र संतती।
कुल वंशवृद्धि हो, मिले कुलांगना सती।।
सज्जाति प्रभृति सात परमस्थान प्राप्त हों।
स्वर्गों के दिव्य सुख मिलें फिर मोक्ष प्राप्त हो।।५।।
वर सिद्धयंत्र न्हवन नीर, शीश पर धरें।
कुुष्ठादि महारोग, दूर हों व्यथा टरें।।
अविलंब स्वास्थ्य लाभ हो संपूर्ण सौख्य हो।
इस यंत्र के प्रभाव से, इष्टार्थ सिद्ध हों।।६।।
सिद्धचक्र वर यंत्र को, नमूँ नमूँ नत भाल।
‘ज्ञानमती’ ज्योति जगे, होवें भक्त निहाल।।७।।
ॐ ह्रीं अनाहतपराक्रमाय सिद्धचक्रयंत्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो पूजें धर प्रीति, सिद्धयंत्र को भक्ति से।
मिले स्वात्म नवनीत, ध्यान धरें शिवतिय वरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।