श्री सिद्ध परमेष्ठी अनन्तानन्त त्रैकालिक कहे।
त्रिभुवन शिखर पर राजते, वह सासते स्थिर रहें।।
वे कर्म आठों नाश कर, गुण आठ धर कृतकृत्य हैं।
कर थापना मैं पूजहूँ, उनकों नमें नित भव्य हैं।।1।।
ॐ ह्री णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्नाननं।
ॐ ह्री णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः
स्थापनं।
ॐ ह्री णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भवभव
वषट् सन्निधीकरणं।
अनादि से तृषा लगी न नीर से बुझी कभी।
अतः प्रभो त्रिधार देय नीर से जजूँ अभी।।
अनन्त सिद्धचक्र की सदा उपासना करूँ।
स्व जन्म मृत्यु मल्ल जीत सिद्धि अंगना वरूँ।।1।।
ॐ ह्री णमोसिद्धाण् श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यः जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं—।
अनंत काल राग आग दाह में जला दिया।
उसी कि शांति हेतु गंध लाय चर्ण चर्चिया।।
अनन्त सिद्धचक्र की सदा उपासना करूँ।
स्व जन्म मृत्यु मल्ल जीत सिद्धि अंगना वरूँ।।2।।
ॐ ह्री णमोसिद्धाण् श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं-।
क्षणेक सुक्ख हेतु मैं नमा सभी कुदेव को।
अखंड सौख्य हेतु शालि से जजूँ सुदेव को।।
अनन्त सिद्धचक्र की सदा उपासना करूँ।
स्व जन्म मृत्यु मल्ल जीत सिद्धि अंगना वरूँ।।3।।
ॐ ह्री णमोसिद्धाण् श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं—-।
सुगन्ध पुष्पहार ले जजूँ समस्त सिद्ध को।
रतीश मल्ल जीत के लहूँ निजात्म सिद्धि को।।
अनन्त सिद्धचक्र की सदा उपासना करूँ।
स्व जन्म मृत्यु मल्ल जीत सिद्धि अंगना वरूँ।।4।।
ॐ ह्री णमोसिद्धाण् श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं—।
पियूष पिंड के समान मोदकादि लेय के।
निजात्म सौख्य हेतु मैं जजूँ प्रमाद खोय के।।
अनन्त सिद्धचक्र की सदा उपासना करूँ।
स्व जन्म मृत्यु मल्ल जीत सिद्धि अंगना वरूँ।।5।।
ॐ ह्री णमोसिद्धाण् श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं—।
सुवर्ण दीप लेय नाथ पाद अर्चना करूँ।
समस्त मोह ध्वांत नाश ज्ञान ज्योति को भरूँ।।
अनन्त सिद्धचक्र की सदा उपासना करूँ।
स्व जन्म मृत्यु मल्ल जीत सिद्धि अंगना वरूँ।।6।।
ॐ ह्री णमोसिद्धाण् श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं—-।
सुगन्ध धूप लेय अग्नि पात्र में प्रजालिये।
कलंक पंक ज्वाल के निजात्म को उजालिये।।
अनन्त सिद्धचक्र की सदा उपासना करूँ।
स्व जन्म मृत्यु मल्ल जीत सिद्धि अंगना वरूँ।।7।।
ॐ ह्री णमोसिद्धाण् श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यः अष्टकर्मदहनाय धूपं—-।
अनार सेब संतरादि सत्फलों को लाइये।
स्व तीन रत्न हेतु नाथ पाद में चढ़ाइये।।
अनन्त सिद्धचक्र की, सदा उपासना करूँ।
स्व जन्म मृत्यु मल्ल जीत, सिद्धि अंगना वरूँ।।8।।
ॐ ह्री णमोसिद्धाण् श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं—-।
सुरत्न को मिलाय अर्घ, लेय थाल में भरे।
अनन्त शक्ति हेतु आप, चर्ण अर्चना करे।।
अनन्त सिद्धचक्र की, सदा उपासना करूँ।
स्व जन्म मृत्यु मल्ल जीत, सिद्धि अंगना वरूँ।।9।।
ॐ ह्री णमोसिद्धाण् श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं—–।
प्रभु पद में धारा करूँ, चउसँघ शांती हेत।।
शांतीधारा जगत में, आत्यंतिक सुख हेतु।।10।।
शान्तये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार बहु, पुष्प सुगन्धित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
‘सिद्ध’ मात्र दो शब्द के उच्चारण से जान।
सर्व कार्य की सिद्धि हो क्रमशः पद निर्वाण।।1।।
इति मंडलस्योपरि द्वितीयदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
मोह कर्म को नाश, समकित शुद्ध लह्यो है।
लोक शिखर अधिवास, शाश्वत काल कियो है।।
जल गंधादिक लेय, पूजूँ अर्घ चढ़ा के।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।1।।
ॐ ह्री मोहनीयकर्मरहितसम्यक्त्वगुणसहितसिद्धपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
ज्ञानावरण विघात, ज्ञान अनन्त लिया है।
लोकालोक समस्त, युगपत जान लिया है।।
जल गंधादिक लेय, पूजूँ अर्घ चढ़ा के।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।2।।
ॐ ह्री ज्ञानावरणकर्मरहितानंतज्ञानगुणसहितसिद्धपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
दर्शन के आवर्ण, नवविध सर्व विनाशे।
इक क्षण में सब विश्व, देखें निजगुण भासें।।
जल गंधादिक लेय, पूजूँ अर्घ चढ़ा के।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।3।।
ॐ ह्री दर्शनावरणकर्मरहितानंतदर्शनगुणसहितसिद्धपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं–।
अंतराय को चूर, शक्ति अनन्ती पायी।
करो विघ्न घन दूर, मैं पूजूँ हरसायी।।
जल गंधादिक लेय, पूजूँ अर्घ चढ़ा के।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।4।।
ॐ ह्रीअंतरायकर्मरहितानंतवीर्यगुणसहितसिद्धपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
नाम कर्म को नाश, देहादिक से छूटें।
गुण सूक्ष्मत्व विकास, निज आतम सुख लूटें।।
जल गंधादिक लेय, पूजूँ अर्घ चढ़ा के।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।5।।
ॐ ह्री नामकर्मरहितसूक्ष्मत्वगुणसहितसिद्धपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
आयू कर्म विनाश, पूर्ण स्वतन्त्र भये हैं।
गुण अवगाहन पाय, जग से मुक्त भये हैं।।
जल गंधादिक लेय, पूजूँ अर्घ चढ़ा के।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।6।।
ॐ ह्री आयुकर्मरहितावगाहनगुणसहितसिद्धपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
गोत्र कर्म कर दूर, अगुरुलघूगुण पायो।
गणधर मुनिगण इन्द्र, तुमको शीश नमायो।।
जल गंधादिक लेय, पूजूँ अर्घ चढ़ा के।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।7।।
ॐ ह्री गोत्रकर्मरहितागुरुलघुगुणसहितसिद्धपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
किया वेदनी घात, निज में तृप्त हुए हैं।
अव्याबाध अनन्त, सुख में लीन हुए हैं।।
जल गंधादिक लेय, पूजूँ अर्घ चढ़ा के।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।8।।
ॐ ह्री वेदनीयकर्मरहिताव्याबाधसुखसहितसिद्धपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
अष्ट करम कर चूर, आठ प्रमुख गुण पायो।
अष्टम पृथ्वी शीश, जाकर थिरता पायो।।
भूत भविष्यत काल, वर्तमान के सिद्धा।
पूरण अर्घ चढ़ाय, पूजूँ विश्व प्रसिद्धा।।9।।
ॐ ह्री अष्टकर्मरहिताष्टगुणसहितसिद्धपरमेष्ठिभ्यः पूर्णार्घ्यं—-।
शान्तये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य-¬ॐ ह्री अर्हत्सिद्धाचार्याेपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य
चैत्यालयेभ्यो नमः।
पुद्गल के संबंध से, हीन स्वयं स्वाधीन।
नमूँ नमूँ सब सिद्ध को, तिन पद भक्ति अधीन।।1।।
चाल-हे दीन—————-
जय जय अनंत सिद्ध वंद मुक्ति के कंता।
जय जय अनंत भव्यवृंद सिद्धि करंता।
जय जय त्रिलोक अग्रभाग ऊर्ध्व राजते।
जय नाथ! आप में हि आप नित्य राजते।।1।।
ज्ञानावरण के पाँच भेद को विनाशिया।
नव भेद दर्शनावरण को सर्व नाशिया।।
दो वेदनीय आठ बीस मोहनी हने।
चउ आयु नामकर्म सब तिरानबे हने।।2।।
दो गोत्र अंतराय पाँच सर्व नाशिया।
सब इक सौ अड़तालीस कर्म प्रकृति नाशिया।।
ये आठ कर्मनाश मुख्य आठ गुण लिये।
फिर भी अनंतानंत सुगुणवंृद भर लिये।।3।।
इन ढाई द्वीप मध्य से ही मुक्ति पद मिले।
अन्यत्र तीन लोक में ना पूर्ण सुख खिले।।
सब ही मनुष्य मुक्त होते कर्मभूमि से।
अन्यत्र से भी मुक्त हों उपसर्ग निमित्त से।।4।।
पर्वत नदी समुद्र गुफा कंदराओं से।
वन भोगभूमि कर्मभू और वेदिकाओं से।।
जो मुक्त हुए हो रहे औ होयेंगे आगे।
उन सर्व सिद्ध को नमूँ मैं शीश झुका के।।5।।
नर लोक पैंतालीस लाख योजनों कहा।
उतना प्रमाण सिद्ध लोक का भी है रहा।।
अणुमात्र भी जगह न जहाँ मुक्त ना हुए।
अतएव सिद्धलोक सिद्धगण से भर रहे।।6।।
उत्कृष्ट सवा पांच सौ धनु का प्रमाण है।
जघन्य साढ़े तीन हाथ का ही मान है।।
मध्यम अनेक भेद से अवगाहना कही।
उन सर्व सिद्ध को नमूँ वे सौख्य की मही।।7।।
निज आत्मजन्य निराबाध सौख्य भोगते।
निज ज्ञान से ही लोकालोक को विलोकते।।
निज में सदैव तृप्त सदाकाल रहेंगे।
आगे कभी भी वे न पुनर्जन्म लहेंगे।।8।।
उन सर्व सिद्ध की मैं सदा वंदना करूँ।
सर्वार्थसिद्धि हेतु सदा अर्चना करूँ।।
तुम नाममात्र भी निमित्त सर्व सिद्धि में।
अतएव नमँ बार-बार सर्व सिद्ध मैं।।9।।
भूत भविष्यत संप्रती, तीन काल के सिद्ध।
उनकी पूजा जो करें, लहें ‘ज्ञानमति’ निद्ध।।10।।
ॐ ह्री ह्री णमो सिद्धाणं श्रीसर्वसिद्धपरमेष्ठिभ्यः जयमाला पूर्णार्घ्यं—-।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
जो भक्ति से नवदेवता विधान करेंगे।
वे भव्य नवो निधि से भंडार भरेंगे।।
कैवल्य ‘ज्ञानमति’ से नवलब्धि वरेंगे।
फिर मोक्षमहल में अनंतसौख्य भरेंगे।।1।।
।। इत्याशीर्वादः ।।