-अथ स्थापना (गीता छंद)-
श्री पुष्पदंतनाथ जिनेन्द्र त्रिभुवन, अग्र पर तिष्ठें सदा।
तीर्थेश नवमें सिद्ध हैं, शतइन्द्र पूजें सर्वदा।।
चउज्ञानधारी गणपती, प्रभु आपके गुण गावते।
आह्वान कर पूजें यहाँ, प्रभु भक्ति से शिर नावते।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक (नरेन्द्र छंद)-
सरयू नदि का शीतल जल ले, जिनपद धार करूँ मैं।
साम्य सुधारस शीतल पीकर, भव भव त्रास हरूँ मैं।।
पुष्पदंत जिन पद पंकज को, पूजत निज सुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र नशाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर चंदन घिस, जिनपद में चर्चूं मैं।
मानस तनु आगंतुक त्रयविध, ताप हरो अर्चूं मैं।।पुष्प.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती सम उज्ज्वल अक्षत से, प्रभु ढिग पुंज चढ़ाऊँ।
निज गुणमणि को प्रगटित करके, फेर न भव में आऊँ।।पुष्प.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही मोगरा सेवंती, वासंती पुष्प चढ़ाऊँ।
कामदेव को भस्मसात् कर, आतम सौख्य बढ़ाऊँ।।पुष्प.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर फेनी लड्डू पेड़ा, रसगुल्ला भर थाली।
तुम्हें चढ़ाऊँ क्षुधा नाश हो, भरे मनोरथ खाली।।पुष्प.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णदीप में ज्योति जलाऊँ, करूँ आरती रुचि से।
मोह अंधेरा दूर भगे सब, ज्ञान भारती प्रगटे।।पुष्प.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला चंदन कर्पूरादिक, मिश्रित धूप सुगंधी।
जिन सन्मुख अग्नी में खेऊँ, धूम उड़े दिश अंधी।।पुष्प.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आडू लीची सेव संतरा, आम अनार चढ़ाऊँ।
सरस मधुर फल पाने हेतू, शत शत शीश झुकाऊँ।।पुष्प.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादिक अर्घ्य बनाकर, सुवरण पुष्प मिलाऊँ।
केवल ज्ञानमती हेतू मैं, प्रभु को अर्घ्य चढ़ाऊँ।।पुष्प.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
यमुना सरिता नीर, प्रभु चरणों धारा करूँ।
मिले निजात्म समीर, शांतीधारा शं करे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरभित खिले सरोज, जिन चरणों अर्पण करूँ।
निर्मद करूँ मनोज, पाऊँ जिनगुण संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-रोला छंद-
प्राणत स्वर्ग विहाय, काकंदीपुर आये।
इंद्र सभी हर्षाय, गर्भकल्याण मनाये।।
पिता कहे सुग्रीव, जयरामा जगमाता।
नवमी फागुन कृष्ण, जजत मिले सुखसाता।।१।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णानवम्यां श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर एकम शुक्ल, जन्म लिया तीर्थंकर।
रुचकवासिनी देवि, जातकर्म में तत्पर।।
शची प्रभू को गोद, ले स्त्रीलिंग छेदा।
जन्म महोत्सव देव, करके भव दुख भेदा।।२।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाप्रतिपदायां श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उल्का गिरते देख, प्रभु विरक्त अपराण्हे।
मगसिर शुक्ला एक, तप लक्ष्मी को वरने।।
पालकि रविप्रभ बैठ, पुष्पकवन में पहुँचे।
जजूँ आज शिर टेक, तपकल्याणक हित मैं।।३।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाप्रतिपदायां श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक शुक्ला दूज, सायं पुष्पक वन में।
घाति कर्म से छूट, नागवृक्ष के तल में।।
केवल रवि प्रगटाय, समवसरण में तिष्ठे।
स्वात्म निधी मिल जाय, इसीलिए हम पूजें।।।४।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाद्वितीयायां श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकरकेवलज्ञान-कल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भादों शुक्ला आठ, सायं सहस मुनी ले।
सकल कर्म को काट, गिरि सम्मेद शिखर से।।
पुष्पदंत भगवंत, सिद्धिरमा के स्वामी।
जजत मिले भव अंत, बनूँ स्वात्म विश्रामी।।५।।
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाअष्टम्यां श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
पुष्पदंत जिननाथ की, भक्ति भवोदधि सेतु।
पूर्ण अर्घ्य अर्पण करूँ, पूजा शिवसुख हेतु।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकरपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—सोरठा—
ज्ञान चेतनारूप, परमेष्ठी चिद्रूप हैं।
पुष्पांजलि से पूज, सकल दु:ख दारिद हरूँ।।१।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजिंल क्षिपेत्।
—अनुष्टुप् छंद—
स्वामी ‘त्रिकालदर्शी’ हो, सभी पदार्थ देखते।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।१।।
ॐ ह्रीं त्रिकालदर्शिने श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘लोकेश’ माने हो, तीन लोक प्रभु कहे।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।२।।
ॐ ह्रीं लोकेशाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘लोकधाता’ तुम्हीं माने, तीनों जगत् पोषते।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।३।।
ॐ ह्रीं लोकधात्रे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘दृढव्रत’ व्रतों में, स्थैर्य धारते।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।४।।
ॐ ह्रीं दृढव्रताय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वलोकातिग’ स्वामिन्! सभी जग में श्रेष्ठ हो।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।५।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकातिगाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा के योग्य हो स्वामिन्! ‘पूज्य’ माने सभी सदा।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।६।।
ॐ ह्रीं पूज्याय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभीष्ट में पहुँचाते, ‘सर्वलोवैकसारथी’।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकैकसारथये श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्राचीन सबमें ही हो, माने ‘पुराण’ आपको।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८।।
ॐ ह्रीं पुराणाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणों को श्रेष्ठ आत्मा के, पाया ‘पुरुष’ आप हैं।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।९।।
ॐ ह्रीं पुरुषाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व प्रथम होने से ‘पूर्व’ माने तुम्हीं प्रभो!।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।१०।।
ॐ ह्रीं पूर्वाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंग पूर्वादि विस्तारे, ‘कृतपूर्वांग-विस्तर:’।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।११।।
ॐ ह्रीं कृतपूर्वांगविस्तराय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देवों में मुख्य होने से, ‘आदिदेव’ तुम्हीं कहे।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।१२।।
ॐ ह्रीं आदिदेवाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुराणाद्य’ प्रभो! माने, प्राचीन धर्म को कहा।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।१३।।
ॐ ह्रीं पुराणाद्याय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुरुदेव’ तुम्हीं माने, श्रेष्ठ देव महान हो।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।१४।।
ॐ ह्रीं पुरुदेवाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देवों के देव होने से, तुम्हीं हो ‘अधिदेवता’।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।१५।।
ॐ ह्रीं अधिदेवतायै श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगमुख्य’ युगादी के, मार्गदर्शक आप हैं।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मले।।१६।।
ॐ ह्रीं युगमुख्याय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगज्येष्ठ’ कहे स्वामी, तीर्थंकर जग श्रेष्ठ हो।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।१७।।
ॐ ह्रीं युगज्येष्ठाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगादिस्थितिदेशक’ सम, दिव्यध्वनि आपकी।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।१८।।
ॐ ह्रीं युगादिस्थितिदेशकाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्याणवर्ण’ कांती से, सुवर्ण सम हो तुम्हीं।।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।१९।।
ॐ ह्रीं कल्याणवर्णाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘कल्याण’ भव्यों के, हितकर्ता प्रसिद्ध हो।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।२०।।
ॐ ह्रीं कल्याणाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्य’ नीरोग होने से, तत्पर मुक्ति हेतु हो।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।२१।।
ॐ ह्रीं कल्याय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लक्षण हितकारी हैं, अत: ‘कल्याणलक्षण:’।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।२२।।
ॐ ह्रीं कल्याणलक्षणाय श्री पुष्पदंतनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्याणप्रकृती’ स्वामी, हो कल्याण स्वभाव ही।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।२३।।
ॐ ह्रीं कल्याणप्रकृतये श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णवत् प्रभु दीप्तात्मा, ‘दीप्रकल्याणआतमा’।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।२४।।
ॐ ह्रीं दीप्रकल्याणात्मने श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विकल्मष’ तुम्हीं स्वामी, कालिमाकर्म शून्य हो।
पुष्पदंत! तुम्हें पूजूं, आत्म सौख्य सुधा मिले।।२५।।
ॐ ह्रीं विकल्मषाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—चंपकमाला छंद—
कर्म कलंकादी निरमुक्ता, हो ‘विकलंका’ कर्म हरो मे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।२६।।
ॐ ह्रीं विकलंकाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देह कला से हीन रहे हो ,नाथ! ‘कलातीते’ जग में हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।२७।।
ॐ ह्रीं कलातीताय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘कलिलघ्न’ तुम्हीं अघ हीना, पाप हमारे क्षालन कीजे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।२८।।
ॐ ह्रीं कलिलघ्नाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘कलाधर’ सर्व कला से, पूर्ण तुम्हीं हो सर्व गुणों से।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।२९।।
ॐ ह्रीं कलाधराय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘देवदेव’ हो तीन जगत् में, नाथ! सुदेवों के अधिदेवा।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।३०।।
ॐ ह्रीं देवदेवाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जगन्नाथा’ जगस्वामी, जन्म मरण के दु:ख हरोगे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।३१।।
ॐ ह्रीं जगन्नाथाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘जगद्बंधू’ भवि बंधू, भव्यजनों के पूर्ण हितैषी।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।३२।।
ॐ ह्रीं जगद्बंधवे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘जगद्विभु’ तीन भुवन में, पालक हो सामर्थ्य समेता।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।३३।।
ॐ ह्रीं जगद्विभवे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगत्’ हितैषी तीन जगत में, सर्वजनों को सौख्य दिया है।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।३४।।
ॐ ह्रीं जगद्धितैषिणे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप कहे ‘लोकज्ञ’ जगत् को, जान लिया है पूर्ण तरह से।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।३५।।
ॐ ह्रीं लोकज्ञाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वग’ तीनों लोक सभी में, व्याप्त हुये ये ज्ञान किरण से।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।३६।।
ॐ ह्रीं सर्वगाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘जगदग्रज’ ज्येष्ठ जगत में, सर्व दुखों को दूर करोगे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।३७।।
ॐ ह्रीं जगदग्रजाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘चराचरगुरु’ कहे हो, स्थावर त्रस के पालक भी हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।३८।।
ॐ ह्रीं चराचरगुरवे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गोप्य’ मुनी रक्खें मन में ही, नाथ! करो रक्षा अब मेरी।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।३९।।
ॐ ह्रीं गोप्याय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभु ‘गूढ़ात्मा’ तुम आत्मा, गोचर इन्द्री के नहिं होती।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।४०।।
ॐ ह्रीं गूढ़ात्मने श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गूढ़ सुगोचर’ गूढ़ तुम्हीं हो, योगिजनों के गम्य तुम्हीं हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।४१।।
ॐ ह्रीं गूढ़गोचराय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभु ‘सद्योजात’ कहे हो, तत्क्षण जन्में रुप रहे हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।४२।।
ॐ ह्रीं सद्योजाताय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘प्रकाशात्मा’ मुनि मानें, ज्ञान सुज्योता रूप बखानें।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।४३।।
ॐ ह्रीं प्रकाशात्मने श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘ज्वलज्ज्वलनसप्रभ’ हो, अग्निप्रभा सी कांति धरे हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।४४।।
ॐ ह्रीं ज्वलज्ज्वलनसप्रभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रविव्रत् ‘आदित्यवरण’ स्वामी, हो प्रभु तेजस्वी जग नामी।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।४५।।
ॐ ह्रीं आदित्यवर्णाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण छवी ‘भर्माभ’ कहाये, देह दिपे भास्वत् शरमाये।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।४६।।
ॐ ह्रीं भर्माभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुप्रभ’ शोभे कांति तुम्हारी, सूर्य शशी क्रोड़ों लजते हैं।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।४७।।
ॐ ह्रीं सुप्रभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘कनकप्रभ’ स्वर्ण प्रभा सी, कांति दिखे उत्तुंग तनु हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।४८।।
ॐ ह्रीं कनकप्रभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘सुवर्णवर्ण’ सुर गायें, देह सुवर्णी दीप्ति धराये।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।४९।।
ॐ ह्रीं सुवर्णवर्णाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप प्रभो! ‘रुक्माभ’ कहाये, स्वर्ण छवी सी दीप्ति करो मे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।५०।।
ॐ ह्रीं रुक्माभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—मंदाक्रांता छंद—
‘सूर्यकोटिसमप्रभ’ विभो! क्रोड़ सूरज लजाते।
दीप्ती ऐसी तुम तनु विषे आत्मदीप्ती अनोखी।।
पूजूँ भक्ती से नित प्रभो! सर्वव्याधी निवारो।
ज्ञानज्योति प्रगटित करो मोहशत्रू भगाके।।५१।।
ॐ ह्रीं सूर्यकोटिसमप्रभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप्ते सोने सदृश ‘तपनीयनिभ’ दीप्ती धरे हो।
कर्मों का भी मल सब हटा स्वात्म निर्मल किया है।।पूजूँ.।।५२।।
ॐ ह्रीं तपनीयनिभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऊँचीदेही धर कर विभो! ‘तुंग’ माने गये हो।
ऊँचे भावों सहित तुमही मोक्ष प्रासाद पाया।।पूजूँ.।।५३।।
ॐ ह्रीं तुंगाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बालार्काभो’ प्रभु तनु धरा ऊगते सूर्य कांती।
मेरी आत्मा सुवरण करो कर्म पंकील१धो दो।।पूजूँ.।।५४।।
ॐ ह्रीं बालार्काभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा शुद्ध्या ‘अनलप्रभ’ हो अग्नि कांती सदृश हो।
मेरी आत्मा निरमल करो श्रेष्ठ तप से तपाके।।पूजूँ.।।५५।।
ॐ ह्रीं अनलप्रभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संध्यालाली सदृश छवि है नाथ!‘संध्याभ्रबभ्रू’।
भक्ती लाली शुभ तम रहे नाथ मेरे हृदय में।।पूजूँ.।।५६।।।
ॐ ह्रीं संध्याभ्रबभ्रवे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा निर्मल सुवरण तनू आप ‘हेमाभ’ मानें।
रागादी को हृदयगृह से दूर कीजे अभी ही।।पूजूँ.।।५७।।
ॐ ह्रीं हेमाभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तप्ताचामीकरप्रभ’ तपे स्वर्ण जैसी प्रभा है।
मेरी आत्मा अतिशय धुला कर्म से मुक्त होवे।।पूजूँ.।।५८।।
ॐ ह्रीं तप्तचामीकरप्रभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्धात्मा हो जिनवृषभ! ‘निष्टप्तकनकच्छाय’ हो।
कांती धारी अद्भुत महादीप्त त्रैलोक्य स्वामी।।पूजूँ.।।५९।।
ॐ ह्रीं निष्टप्तकनकच्छायाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देदीप्यात्मा जिनवर ‘कनत्कांचनासन्निभ’ देही।
वैâवल्यात्मा चमचम करे नाथ! कीजे अबे ही।।पूजूँ.।।६०।।
ॐ ह्रीं कनत्कांचनसन्निभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तीकांतावर प्रभु ‘हिरण्यवर्ण’ इंद्रादि गायें।
दीजे शक्ती निजसम खिले चित्तपंकज सुहाये।।पूजूँ.।।६१।।
ॐ ह्रीं हिरण्यवर्णाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोने जैसी छवि तुमहिं ‘स्वर्णाभ’ साधु जनों में।
व्याधी हीना मुझ तनु बने रत्नत्रै साध लूँ मैं।।पूजूँ.।।६२।।
ॐ ह्रीं स्वर्णाभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव्यों को भी करत शुचि भो! ‘शांतकुंभनिभप्रभ’ हो।
मेरी आत्मा स्वपर विद हो ज्ञानज्योति जला दो।।पूजूँ.।।६३।।
ॐ ह्रीं शांतकुंभनिभप्रभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुन्दर सोने सदृश तनु है आप ‘द्युम्नाभ’ स्वामी।
दीजे सिद्धी निजसुख मिले ना पुनर्भव कभी हो।।पूजूँ.।।६४।।
ॐ ह्रीं द्युम्नाभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्में जैसे विकृति रहिते ‘जातरूपाभ’ स्वामी।
रागादी मुझ विकृति हरिये दीजिये मुक्ति लक्ष्मी।।
पूजूँ भक्ती से नित प्रभो! सर्वव्याधी निवारो।
ज्ञानज्योति प्रगटित करो मोहशत्रू भगाके।।६५।।
ॐ ह्रीं जातरूपाभाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तप्तजाम्बुनदद्युति’ प्रभो! श्रेष्ठ स्वर्णिम शरीरी।
दीजे शक्ती द्विदश तपसे आत्म शुद्धी करूँ मैं।।पूजूँ.।।६६।।
ॐ ह्रीं तप्तजाम्बूनदद्युतये श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धोये उज्ज्वल कनक से हो पाप क्षालो हमारे।
दीपे आत्मा जिनवर ‘सुधौतकलधौतश्री’ हो।।पूजूँ.।।६७।।
ॐ ह्रीं सुधौतकलधौतश्रिये श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपे देही जिनरवि ‘प्रदीप्त’ आप लोकाग्र राजें।
जो भी पूजें सकल दुख भी नाशते सौख्य देते।।पूजूँ.।।६८।।
ॐ ह्रीं प्रदीप्ताय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी हो ‘हाटकद्युति’ तनू स्वर्ण दीप्ती लजाते।
मैं भी ध्याऊँ हृदय धरके आपको शीश नाऊँ।।पूजूँ.।।६९।।
ॐ ह्रीं हाटकद्युतये श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सौ भी सुरपति जजें आप ‘शिष्टेष्ट’ मानें।
प्रीती से शिष्ट जन सब तुम्हें इष्ट भगवान् मानें।।पूजूँ.।।७०।।
ॐ ह्रीं शिष्टेष्टाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्टी कर्ता त्रिभुवन जनों आप ‘पुष्टिद’ कहे हो।
स्वामिन्! पोषो दुखित मुझको पास आया इसी से।।पूजूँ.।।७१।।
ॐ ह्रीं पुष्टिदाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमौदारिक तनुधर प्रभो! ‘पुष्ट’ हो सौख्यभृत हो।
मेरी पुुष्टी तुरत करिये रोग शोकादि हरके।।पूजूँ.।।७२।।
ॐ ह्रीं पुष्टाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानी युगपत् तुम्हीं लोक को जानते हो।
कर्मों का मुझ तुरत क्षय हो ‘स्पष्ट’ स्वामी तुम्हीं से।।पूजूँ.।।७३।।
ॐ ह्रीं स्पष्टाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वाणी प्रभु की विशद अतिशै ‘स्पष्टाक्षर’ इसी से।
मेरी वाणी हितकर करो दिव्यवाणी बने भी।।
पूजूँ भक्ती से नित प्रभो! सर्वव्याधी निवारो।
ज्ञानज्योति प्रगटित करो मोहशत्रू भगाके।।७४।।
ॐ ह्रीं स्पष्टाक्षराय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सामर्थ्यात्मा प्रभु ‘क्षम’ तुम्हीं मोह शत्रू हना है।
शत्रू मृत्यू अति दुख दिया नाथ! नाशो इसे ही।।पूजूँ.।।७५।।
ॐ ह्रीं क्षमाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—आर्या छंद—
कर्म शत्रु को मारा, इसीलिये ‘शत्रुघ्न’ सुरेंद्र कहें।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।७६।।
ॐ ह्रीं शत्रुघ्नाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अप्रतिघ’ तुम्हीं हो, शत्रु न कोई रहा यहाँ जग में।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।७७।।
ॐ ह्रीं अप्रतिघाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अमोघ’ हो नित ही, स्वयं सफल हो किया सफल सबको।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।७८।।
ॐ ह्रीं अमोघाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रशास्ता’ तुम हो, सर्वोत्तम उपदेश दिया तुमने।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।७९।।
ॐ ह्रीं प्रशास्त्रे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो ‘शासिता’ तुमही, रक्षा करते सदैव भक्तों की।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८०।।
ॐ ह्रीं शासित्रे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वभू’ स्वयं जन्मे हो, मात पिता बस निमित बने सच में।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८१।।
ॐ ह्रीं स्वभुवे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शांतिनिष्ठ’ प्रभु तुम हो, पूर्ण शांति को पाया पाप हना।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८२।।
ॐ ह्रीं शांतिनिष्ठाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘मुनिज्येष्ठ’ कहाते, गणधर मुनि में बड़े तुम्हीं माने।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८३।।
ॐ ह्रीं मुनिज्येष्ठाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शिवताति’ जगत में, सब कल्याण परंपरा देते।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८४।।
ॐ ह्रीं शिवतातये श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शिवप्रद’ नाथ तुम्हीं हो, भविजन को सब सुख शिवसुख भी देते।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८५।।
ॐ ह्रीं शिवप्रदाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शांतिद’ नाथ सभी को, शांति दिया है सुख भरपूर दिया।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८६।।
ॐ ह्रीं शांतिदाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘शांतिकृत्’ जग में, शांति करो मुझको भी शांति करो।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७।।
ॐ ह्रीं शांतिकृते श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘शांति’ हो जगमें, त्रिभुवन में भी शांति करो भगवन्।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८।।
ॐ ह्रीं शांतये श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कांतिमान्’ प्रभु मानें, सर्व कांतियुत सभामध्य तेजस्वी।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९।।
ॐ ह्रीं कांतिमते श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कामितप्रद’ भगवंता, भक्तों के मनरथ पूर्ण किया है।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९०।।
ॐ ह्रीं कामितप्रदाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रेयोनिधि’ जिनराजा, भविजन के हित तुम सब सुख के दाता।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९१।।
ॐ ह्रीं श्रेयोनिधये श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अधिष्ठान’ तुमही हो, त्रिभुवन में दयाधर्म आधारा।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९२।।
ॐ ह्रीं अधिष्ठानाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्रतिष्ठ’ हो भगवन्! परकृत बिना प्रतिष्ठा के पूजित हो।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९३।।
ॐ ह्रीं अप्रतिष्ठाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रतिष्ठित’ जग में, नर सुरगण में महायशस्वी हो।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९४।।
ॐ ह्रीं प्रतिष्ठिताय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुस्थिर’ त्रिभुवन में, अतिशय थिरता मिली तुम्हें निज में।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९५।।
ॐ ह्रीं सुस्थिराय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ! तुम्हीं ‘स्थावर’ हो, समवसरण में गमन रहित राजें।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९६।।
ॐ ह्रीं स्थावराय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘स्थाणु’ कहाये, अचल रूपधर यहीं विराजे हो।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९७।।
ॐ ह्रीं स्थाणवे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रथीयान्’ प्रभु मानें, अतिशय विस्तृत कहें सुरासुर भी।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९८।।
ॐ ह्रीं प्रथीयसे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘प्रथित’ तुम्हीं हो, त्रिभुवन में भी प्रसिद्ध अतिशायी।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९९।।
ॐ ह्रीं प्रथिताय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पृथु’ ज्ञानादि गुणों से, गणि मुनिगण में महान हो प्रभुजी।
पुष्पदंत प्रभु पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।१००।।
ॐ ह्रीं पृथवे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-तोटक छंद-
प्रभु ‘सौम्य’ तुम्हीं शशि सुंदर हो।
तुम गावत गीत पुरंदर हो।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।१०१।।
ॐ ह्रीं सौम्याय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुखदं’ सब जीव शुभंकर हो।
सुखदायि जिनेश्वर आपहि हो।।तुम.।।१०२।।
ॐ ह्रीं सुखदाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुहितं’ प्रभु सर्वहितंकर हो।
मुझको निज दास करो शिव हो।।तुम.।।१०३।।
ॐ ह्रीं सुहिताय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुहृत्’ सबके मितु हो।
मुझ चित्त बसों सब ही वश हो।।तुम.।।१०४।।
ॐ ह्रीं सुहृदे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुगुप्त’ सुरक्षित हो।
तुम भक्त सभी अरि रक्षित हों।।तुम.।।१०५।।
ॐ ह्रीं सुगुप्ताय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘गुप्तिभृता’ त्रयगुप्ति धरी।
तुम भक्ति किया मुझ धन्य घरी।।तुम.।।१०६।।
ॐ ह्रीं गुप्तिभृते श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘गोप्ता’ रक्षक हो जग के।
मुझ पे अब नाथ कृपा कर दे।।।तुम.।।१०७।।
ॐ ह्रीं गोप्त्रे श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘लोकअध्यक्ष’ त्रिलोकपती।
मुझ व्याधि उपाधि हरो जलदी।।तुम.।।१०८।।
ॐ ह्रीं लोकाध्यक्षाय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—शंभु छंद—
प्रभु त्रिकालदर्शी से इक सौ आठ मंत्र अतिशायी हैं।
गणधर मुनिगण चक्रवर्ति भी नाम जपें सुखदायी हैंं।।
सुरपति खगपति पूजन करते वदंन कर शिर नाते हैं।
हम भी पूजें अर्घ चढ़ाकर निज समकित गुण पाते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं त्रिकालदर्श्यादिअष्टोत्तरशतनाममंत्रसमन्विताय श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय नम:।
-सोरठा-
त्रिभुवन तिलक महान, पुष्पदंत तीर्थेश हैं।
नित्य करूँ गुणगान, पाऊँ भेद विज्ञान मैं।।१।।
-रोला छंद-
अहो! जिनेश्वर देव! सोलह भावन भाया।
प्रकृती अतिशय पुण्य, तीर्थंकर उपजाया।।
पंचकल्याणक ईश, हो असंख्य जन तारे।
त्रिभुवन पति नत शीश, कर्म कलंक निवारें।।२।।
नाममंत्र भी आप, सर्वमनोरथ पूरे।
जो नित करते जाप, सर्व विघ्न को चूरें।।
तुम वंदत तत्काल, रोग समूल हरे हैं।
पूजन करके भव्य, शोक निमूल करे हैं।।३।।
इन्द्रिय बल उच्छ्वास, आयू प्राण कहाते।
ये पुद्गल परसंग, इनको जीव धराते।।
ये व्यवहारिक प्राण, इन बिन मरण कहावे।
सब संसारी जीव, इनसे जन्म धरावें।।४।।
निश्चयनय से एक, प्राण चेतना जाना।
इनका मरण न होय, यह निश्चय मन ठाना।।
यही प्राण मुझ पास, शाश्वत काल रहेगा।
शुद्ध चेतना प्राण, सर्व शरीर दहेगा।।५।।
कब ऐसी गति होय, पुद्गल प्राण नशाऊँ।
ज्ञानदर्शमय शुद्ध, प्राण चेतना पाऊँ।।
ज्ञान चेतना पूर्ण, कर तन्मय हो जाऊँ।
दश प्राणों को नाश, ज्ञानमती बन जाऊँ।।६।।
गुण अनंत भगवंत, तब हों प्रगट हमारे।
जब हो तनु का अंत, यह जिनवचन उचारें।।
समवसरण में आप, दिव्यध्वनी से जन को।
करते हैं निष्पाप, नमूँ नमूँ नित तुम को।।७।।
श्रीविदर्भमुनि आदि, अट्ठासी गणधर थे।
दोय लाख मुनि नाथ, नग्न दिगम्बर गुरु थे।।
घोषार्या सुप्रधान, आर्यिकाओं की गणिनी।
त्रय लख अस्सी सहस, आर्यिकाएँ गुणश्रमणी।।८।।
दोय लाख जिनभक्त, श्रावक अणुव्रती थे।
पाँच लाख सम्यक्त्व, सहित श्राविका तिष्ठे।।
जिन भक्ती वर तीर्थ, उसमें स्नान किया था।
भव अनंत के पाप, धो मन शुद्ध किया था।।९।।
चार शतक कर तुंग, चंद्र सदृश तनु सुंदर।
दोय लाख पूर्वायु, वर्ष आयु थी मनहर।।
चिन्ह मगर से नाथ, सब भविजन पहचाने।
नमूँ नमूँ नत माथ, गुरुओं के गुरु माने।।१०।।
-दोहा-
ध्यानामृत पीकर भये, मृत्युजंय प्रभु आप।
धन्य घड़ी प्रभु भक्ति की, जजत मिटे भव ताप।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
—शम्भु छंद—
श्री पुष्पदंतजिनवर विधान, जो भक्तिभाव से करते हैं।
वे रोग शोक दु:ख संकटहर, नित सुख संपत्ती लभते हैं।।
क्रम से स्वर्गों के सौख्य पाय, निज आत्म सुधारस चखते हैं।
कैवल्य ज्ञानमति किरणों से, त्रिभुवन आलोकित करते हैं।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।