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राजा दशरथ को वैराग्य

October 23, 2013स्वाध्याय करेंShreya Jain

राजा दशरथ को वैराग्य


 (१५)
इक दिवस सुनो राजा दशरथ, पूजन में तत्पर होते हैं।
अष्टान्हिक महापर्व तक के, उपवास आठ वे रखते हैं।।
चारों रानी के साथ—साथ, वे महामहिम उत्सव करते ।
मंगलवाद्यों की ध्वनियों से, गुणगान सदा किन्नर करते।।

(१६)
जब आठ दिनों के बाद सभी, रानी अंत:पुर पहुँच गयी।
तब राजा दशरथ ने भेजा, गंधोदक अतिशय पुण्यमयी।।
तीनों रानी के पास समय से, पहुँच गया वह गंधोदक ।
पर छोटी रानी के सम्मूख नहिं पहँचा था कुछ समयों तक।।

(१७)
क्रोधित हो रानी विष पीकर, तैयार हुई थी मरने को।
पर तभी आ गये दशरथ जी, समझाया प्रिये नहीं रूठो।।
आने दो पापी विंकर को, पूछूँगा कहाँ देर कर दी।
तुम कहो प्रिये दंडित करके ,उसको भेजूँ मैं और कहीं।।

(१८)
पर तभी वृद्ध किंकर आकर, बोला हे राजन ! माफ करो।
इसमें है दोष नहीं मेरा, ये जरा बुढ़ापा को समझो।।
चलने में बड़ा कष्ट होता, ये कमर झुक गयी मेरे नाथ!।
सब आंख कान बेकार हुए, अब जाऊँगा मैं कहाँ तात!।

(१९)
उस वृद्ध कंचुकी की बातें, राजन के दिल में उतर गयीं।
और देख बुढ़ापे के दुख को, भोगों से तुरत विरक्ति हुई।।
यह देख भरत भी बोल उठे, इन भोगों में क्या रखा है ?।
जो मार्ग आपने चुना तात, मैं साथ चलूँ यह इच्छा है।।

Tags: jain ramayan
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