द्वार गाथा—
इअ गिहलक्खण भावं भणिय भणामित्थ बिंबपरिमाणं।
गुणदोसलक्खणाइं सुहासुहं जेण जाणिज्जा१।।१।।
छत्तत्तयउत्तारं भावकवोलाओ सवणनासाओ।
सुहयं जिणचरणग्गे नवग्गहा जक्खजक्खिणिया।।२।।
बिंबपरिवारमज्जे सलस्स य वण्णसंकरं न सुहं।
समअंगुलप्पमाणं न सुंदरं हवइ लहहयासि….।।३।।
‘‘हृदये मस्तके भाले अंशयो: कर्णयोर्मुखे।
उदरे पृष्ठसंलग्ने हस्तयो: पदयोरपि।।
एतेष्वङ्गेषु सर्वेषु रेखा लाञ्छननीलिका।
बिम्बानां यत्र दृश्यन्ते त्यजेत्तानि विचक्षण:।।
अन्यस्थानेषु मध्यस्था त्रासफाटविवर्जिता।
निर्मलस्निग्घशांता च वर्णसारूप्यशालिनी:।।
भालं नासा वयण गीव हियय नाहि गुज्झ जाणू अ।
आसीण बिंबमानं पुव्वविही अंकसंखाई।।८।।
‘‘तालमात्रं मुखं तत्र ग्रीवाधश्चतुरंगुलम्।
कण्ठतो हृदयं यावद् अंतरं द्वादशांगुलम्।।
तालमात्रं ततो नाभि-र्नाभिर्मेढ्रान्तरं मुखम्।
मेढ्रजान्वंतरं तज्ज्ञै-र्हस्तमात्रं प्रकीत्र्तितम्।।
वेदागुलं भवेज्जानु-र्जानुगुल्फान्तरंकर:।
वेदांगुलं समाख्यातं गुल्फपादतलान्तरम्।।
‘‘रादशांगुलविस्तीर्ण—मायतं द्वादशांगुलम्।
मुखं कुर्यात् स्वकेशांतं त्रिधा तच्च यथाक्रमम्।।
वेदांगुलमायतं कुर्याद् ललाटं नासिकां मुखम्।
‘‘केशस्थानं जिनेन्द्रस्य प्रोत्तं पंचांगुलायतम्।
उष्णीषं च ततो ज्ञेय-मंगुलद्वयमुन्नतम्।।
‘‘ऊध्र्वस्थितस्य मानाद्र्ध-मुत्सेधं परिकल्पयेत्।
पर्यज्र्मपि तावत्तु तिर्यगायामसंस्थितम्।।
मुहक्तमलु चउदसंगुलु कन्नंतरि वित्थरे दहग्गीवा।
छत्तीस-उरपएसो सोलहकडि सोलतणु पिडं।।९।।
कन्नु दह तिन्नि वित्थरि हिट्ठि इक्कु आधारे।
केसंतवड्ढु समुसिरु सोयं पुण नयणरेहसमं।।१०।।
नक्कसिहागब्भाओ एगंतरि चक्खु चउरदीहत्ते।
दिवड्ढुदइ इक्कु डोलइ दुभाइ भउ हट्ठु छद्दीहे।।११।।
नक्कु तिवित्थरि दुदए पिंडे नासग्गि इक्कु अद्धु सिहा।
पण भाय अहर दीहे वित्थरि एगंगुलं जाण।।१२।।
पण-उदइ चउ-वित्थरि सिरिवच्छं बंभसुत्तमज्झम्मि।
दिवड्ढंगुलु थणवट्टं वित्थरं उंडत्ति नाहेगं।।१३।।
सिरिवच्छ सिहिणकक्खंतरम्मि तह मुसल छपण अट्ठ कमे।
मुणि-चउ-रवि-वसु-वेया कुहिणी मणिबंधु जंघ जाणु पयं।।१४।।
थणसुत्तअहोभाए भुयबारसअंस उवरि छहि कंधं।
नाहीउ किरइ वट्टं वंधाओ केसअंताओ।।१५।।
कर-उयर-अंतरेगं चउ-हिवत्थरि नंददीहि उच्छंगं।
जलवहु दुदय तिवित्थरि कुहुणी कुच्ंिदतरे तिन्नि।।१६।।
बंभसुत्ताउ पिंडिय छ-गीव दह-कन्नु दु-सिहण दु-भालं।
दुचिबुक सत्त भुजोवरि भुयसंघी अट्ठपयसारा।।१७।।
जाणुअमुहसुत्ताओ चउदस सोलस अढारपइसारं।
समसुत-जाव-नाही पयकंकण-जाव छब्भायं।।१८।।
दीहंगुलीय सोलस चउदसि भाए कणिट्ठिया।।१९।।
करयलगब्भाउ कमे दीहंगुलि नंदे अट्ठ पक्खिमिया।
छच्च कणिट्ठिय भणिया गीवुदए तिन्नि नायव्वा।।२०।।
मज्झि महत्थंगुलिया पणदीहे पक्खिमी अ चउ चउरो।
लहु-अंगुलि-भयतियं नह-इक्किक्वं ति-अंगुट्ठं।।२१।।
अंगुट्ठसहियकरयलवट्टं सत्तंगुलस्स वित्थारो।
चरणं सोलसदीहे तयद्धि वित्थिन्न चउरुदए।।२२।।
गीव तह कन्न अंतरि खणे य वित्थरि दिवड्ढु उदइ तिगं।
अंचलिय अट्ठ वित्थरि गद्दिय मुह जाव दीहेण।।२३।।
केसंतसिहा गद्दिय पंचट्ठ कमेण अंगुलं जाण।
पउमुड्ढरेहचक्वं करचरण-विहूसियं निच्चं।।२४।।
नक्क सिरिवच्छ नाही समगब्भे बंभसुतु जाणेह।
तत्तो अ सलयमाणं परिगरबिंबस्स नायव्वं।।२५।।
सिंहासणु बिंबाओ दिवड्ढओं दीहि वित्थरे अद्धो।
पिंडेण पाउ घडियो रूवग नव अहव सत्त जुओ।।२६।।
उभयदिसि जक्खजक्खिणि केसरिगय चमर मज्झि-चक्कधरी।
चउदस बारस दस तिय छ भाय कमि इअ भवे दीहं।।२७।।
चक्कधरी गरुडंका तस्साहे धम्मचक्क-उभयदिसं।
हरिणजुअं रमणीयं गद्दियमज्झम्मि जिणचिण्हं।।२८।।
चउ कणइ दुन्नि छज्जइ बारस हत्थिहिं दुन्नि अह कणए।
अड अक्खरवट्टीए एयं सीहासणस्सुदयं।।२९।।
गद्दियसम-वसु-भाया तत्तो इगतीस-चमरधारी य।
तोरणसिरं दुवालस इअ उदयं पक्खवायाण।।३०।।
सोलसभाए रूवं थुंभुलिय-समेय छहि वरालीय।
इअ बितरि बावीसं सोलसपिंडेण पखवायं।।३१।।
छत्तद्धं दसभायं पंकयनालेग तेरमालधरा।
दो भाए थंथुलिए तहट्ठ वंसधर-वीणधरा।।३२।।
तिलयमज्झम्मि घंटा दुभाय थंभुलिय छच्चि मगरमुहा।
इअ उभयदिसे चुलसी-दीहं डउलस्स जाणेह।।३३।।
चउवीसि भाइ छत्तो बारस तस्सुदइ अट्ठि संखधरो।
छहि वेणु पत्तवल्ली एवं डउलुदये पन्नासं।।३४।।
छत्तत्तयवित्थारं वीसंगुल निग्गमेण दह-भायं।
भामंडलवित्थारं बावीसं अट्ठ पइसारं।।३५।।
मालधर सोलसंसे गइंद अट्ठारसम्मि ताणुवरे।
हरिणिंदा उभयदिसं तओ अ दुदुहि असंखीय।।३६।।
बिंबद्धि डउलपिंडं छत्तसमेयं हवइ नायव्वं।
थणसुत्तसमादिट्ठी चामरधारीण कायव्वा।।३७।।
जइ हुंति पंच तित्था इमेिह भाएहिं तेवि पुण कुज्जा।
उस्सग्गियस्स जुअलं िबबजुगं मूलबिंवेगं।।३८।।
वरिससयाओं उड्ढं जं बिंबं उत्तमेहिं संठवियं।
विअलंगु वि पूइज्जइ तं बिंबं निप्फलं न जओ।।३९।।
मुह-नक्क-नयण-नाणी-कडिभंगे मूलनायगं चयह।
आहरण-वत्थ-परिगर-चिण्हायुहभंगि पूइज्जा।।४०।।
धाउलेवाइबिंबं विअलंगं पुण वि कीरए सज्जं।
कट्ठरयणसेलमयं न पुणो सज्जं च कईयावि।।४१।।
‘‘धातुलेप्यमयं सर्व व्यङ्गं सस्कारमर्हति।
काष्ठपाषाणनिष्पन्नं संस्कारार्ह पुनर्नहिं।।
प्रतिष्ठिते पुनर्बिम्बे संसकार: स्यान् कर्हिचित्।
संस्कारे च कृते कार्या प्रतिष्ठा ताद्दशी पुन:।
संस्कृते तुलिते चैव दुष्टस्पृष्टे परीक्षिते।
हृते बिम्बे च तिङ्गे च प्रतिष्ठा पुनरेव हि।।’’
पाहाणलेवकट्ठा दंतमया चित्तलिहिय जा पडिमा।
अप्परिगरमाणाहिय न सुंदरा पूयमाणगिहे।।४२।।
‘‘मल्ली नेमी वीरो गिहभवणो सावए ण पूइज्जइ।
इगवीसं तित्थयरा संतगरा पूइया वंदे।।’’
कहा है कि—
‘‘नेमिनाथो वीरमल्ली-नाथौ वैराग्यकारका:।
त्रयो वै भवने स्थाप्या न गृहे शुभदायका:।।’’
इक्वंगुलाइ पडिमा इक्कारस जाव गेहि पूइज्जा।
उड्ढं पासाइ पुण इअ भणियं पुव्वसूरीहिं।।४३।।
नह-अंगुलीअ-बाहा-नासा-पय-भंगिणु क्कमेण फलं।
सत्तुभयं देसभंगे बंधण-कुलनास-दव्वक्खयं।।४४।।
पयपीढचिण्हपरिगर-भंगे जनजाणभिच्चहाणिकमे।
छत्तसिरिवच्छसवणे लच्छी-सुह-बंधवाण खयं।।४५।।
बहुदुक्ख वक्कनासा हस्संगा खयंकरी य नायव्वा।
नयणनासा कुनयणा अप्पमुहा भोगहाणिकरा।।४६।।
हीणासणरिद्धिहया धणक्खया हीणकरचरगा।।४७।।
अहोमुहा य सचिंता विदेसगा हवइ नीचुच्चा।।४८।।
हीणाहियंगपडिमा सपक्खपरपक्खकट्ठकरा।।४९।।
पडिमा रउद्द जा सा कारावयं हंति सिप्पि अहियंगा।
दुब्बलदव्वविणासा किसोअरा कुणइ दुब्भिक्खं।।५०।।
उड्ढमुही धणनासा अप्पूया तिरिअदिट्ठि विन्नेया।
अइघट्टदिट्ठि असुहा हवइ आहेदिाट्ठ विग्घकरा।।५१।।
चउभवसुराण आयुह हवंति केसंत उप्परे जइ ता।
करणकरावणथप्पणहाराण प्पाणदेसहया।।५२।।