श्री धर्मनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में मघवा चक्रवर्ती हुए हैं, ये तृतीय चक्रवर्ती थे। इनके पूर्वभव का वर्णन इस प्रकार है- श्री वासुपूज्य भगवान के तीर्थकाल में ‘नरपति’ नाम के राजा ने राज्य, भोगों से विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। घोरातिघोर तप करके मध्यम ग्रैवेयक में अहमिंद्र हो गए। वहाँ की सत्ताईस सागर की आयु में दिव्य सुखों का अनुभव कर अंत में वहाँ से च्युत होकर अयोध्यापुरी के इक्ष्वाकुवंश महाराजा सुमित्र की भद्रारानी से ‘मघवा’ नाम के पुत्र हुए। इनकी पाँच लाख वर्ष की आयु थी, साढ़े चालीस धनुष ऊँचा शरीर था। इनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हो गया, तब इन्होंने दिग्विजय करके छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर सार्वभौम एकछत्र शासन किया। एक समय मनोहर उद्यान में ‘‘श्री अभयघोष’’ केवली का आगमन हुआ। उनकी गंधकुटी में पहुँचकर भक्तिपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर वन्दना, स्तुति, भक्ति, पूजा करके चक्रवर्ती ने केवली भगवान का दिव्य उपदेश सुना, पुन: विरक्तमना होकर अपने पुत्र प्रियमित्र को राज्य देकर स्वयं जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। निर्दोष संयम का पालन करते हुए अंत में शुक्लध्यान से घातिया कर्मों का नाशकर दिव्य केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। गंधकुटी की रचना देवों के द्वारा की गई। बहुत काल तक श्रीविहार कर चक्रवर्ती केवली भगवान ने असंख्य भव्यों को धर्मामृत पान से तृप्त किया। अनंतर चतुर्थ शुक्लध्यान से सम्पूर्ण अघातिया कर्मों का नाशकर निर्वाणधाम को प्राप्त किया है। ऐसे ये मघवा चक्रवर्ती अनंत-अनंतकाल तक सिद्धशिला के ऊपर विराजमान रहेंगे। इनके श्रीचरणों में मेरा कोटि-कोटि वंदन है।