लाडनू की ओर विहार-अजमेर से विहार कर संघ पुष्कर पहुँचा। यहाँ नदी के निमित्त से ठंडी बहुत थी। यहाँ से विहार कर संघ नागौर की ओर चला। मार्ग में एक ऐलक आनंदसागर को ठंड विशेष लग जाने से निमोनिया हो गई। वे मेड़तारोड़ गाँव में ही अधिक अस्वस्थ हो गये, संघ को कुछ दिन रुकना पड़ा।
इन ऐलक जी को सन्निपात हो गया और समाधि हो गई। इसी पुष्कर से विहार के समय आर्यिका सुमतिमती माताजी को भी ठंड लग गई थी, ये भी अस्वस्थ चल रही थीं तथा कफ जकड़ गया, खांसी का प्रकोप हो गया था। धीरे-धीरे संघ मेड़तासिटी, नागौर, डेह होते हुए लाडनू पहुँच गया, वहाँ प्रतिष्ठा की तैयारियाँ जोरदार चल रही थीं।
प्रकाश का वापस घर जाना
अजमेर चातुर्मास के बाद संघ का विहार लाडनू की तरफ हो गया। रास्ते में मेड़तारोड, नागौर, डेह होते हुए संघ लाडनू आ गया। वहाँ पर चन्द्रसागर भवन बनाया गया था, उसमें भगवान् महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमाजी को विराजमान किया था तथा आचार्य शांतिसागर जी, आचार्य वीरसागरजी और आचार्य कल्प चन्द्रसागर जी की प्रतिमायें विराजमान की गयी थीं।
इस स्मारक भवन में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कराने के लिए वहाँ के भक्त श्रावक आचार्य शिवसागर जी महाराज को संघ सहित वहाँ पर लाये। वहीं पर आर्यिका सुमतिमती माताजी का स्वास्थ्य अस्वस्थ होने से उनकी सल्लेखना चल रही थी। एक दिन रात्रि में पिछले भाग में लगभग ३-३० बजे महामंत्र सुनते हुए पूज्य माताजी ने शरीर का त्याग कर दिया था।
उसी दिन प्रातः कैलाशचंद वहाँ आ गये, माताजी की अन्त्येष्टि में भाग लिया पुनः मुझसे बोले- ‘‘पिताजी बहुत ही अस्वस्थ हैं’’ अतः प्रकाश को भेजना बहुत जरूरी है। मैं लेने के लिए ही आया हूँ। यद्यपि मुझे मालूम था कि पिता की अस्वस्थता तो बहाना मात्र है। ये लोग प्रकाश को संघ में न रहने देकर, एक दो वर्ष में गृहस्थाश्रम के बंधन में बाँध देंगे। मैंने बहुत कुछ समझाया-बुझाया परन्तु कैलाशचन्द जी नहीं माने, आखिरकार प्रकाशचन्द को रोते हुए अपने साथ लिवा ले आये।
जब प्रकाशचन्द घर आ गये, पिता के साथ ही भाई-बहनों की भी खुशी का पार नहीं रहा। सबने उन्हें घेर लिया और संघ के संस्मरण सुनने के लिए उत्सुकता से बैठ गये। पुनः पिता बोले-‘‘माताजी के दर्शन करके वहाँ एक महीना रहकर अच्छा तो खूब लगा किन्तु जो वे किसी को भी संघ में रखने के लिए पीछे पड़ जाती हैं सो यह उनकी आदत अच्छी नहीं लगी।’’
तब प्रकाश बोले- ‘‘यह तो उनका कुछ स्वभाव ही है। उन्होंने म्हसवड़ चातुर्मास में आर्यिका पद्मावती और जिनमती को कैसे निकाला है। कितने संघर्षों के आने पर भी कितने पुरुषार्थ से उन्होंने उन दोनों को दीक्षा दिलाई है। संघ में मुझे श्री चंद्रमती आर्यिका ने स्वयं यह बात बताई है। वे सौ. सोनुबाई के यहाँ जब आहार को जाती थीं, तब उनके पति को कहती ही रहती थीं कि ‘‘तुम्हारी धर्मपत्नी को हम ले जायेंगे।’’
उनके पुत्र, पुत्रवधू आदि भी जब-जब दर्शन करने आते माताजी हर किसी को भी कहती रहतीं- ‘‘तुम्हारी माँ को हम ले जायेंगे।’’ पहले तो ये लोग खुशी से कह देते-‘‘बहुत अच्छा है! आप ले जाइये, ये जगत पूज्य माताजी बन जायेंगी।’’ किन्तु जब साथ ले आर्इं तो उनके पति लालचन्द ने दो-तीन जगह आकर सोनुबाई को ले जाना चाहा, हल्ला-गुल्ला भी मचाया किन्तु माताजी भी दृढ़ रहीं और हँसती रहीं तथा सोनुबाई भी पक्की रहीं, आज वे ही आर्यिका पद्मावती जी हैं।
कु. प्रभावती को निकालने पर तो उसकी नानी ने बहुत ही यद्वा-तद्वा बका था किन्तु माताजी ने बुरा भी नहीं माना था और घबराई भी नहीं थीं, तभी वह प्रभावती आज संघ में क्षुल्लिका जिनमती हैं। अभी ब्यावर चातुर्मास में भी माताजी ने कई एक कन्याओं को घर से निकलने की प्रेरणा दी थी। यद्यपि वे नहीं निकल सकीं, यह बात अलग है- इतना सुनकर पिताजी हँस पड़े और बोले- ‘‘सबको मूँडने में इन्हें मजा आता है’’ इत्यादि.।
आगे जब माँ मोहिनी जी लाडनू में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर आई थीं, तब प्रकाशचंद के द्वारा कही गई इन सब बातों को सुनाती रहती थीं।
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं मुनिमूर्ति की प्रतिष्ठा
यहाँ प्रतिष्ठा के अवसर पर चंद्रसागर स्मारक भवन में विशाल भगवान् महावीर स्वामी की प्रतिमा विराजमान की गई थी। उन्हीं के नीचे वेदी पर आचार्य श्री शांतिसागर जी, आचार्य श्री वीरसागर जी और आचार्यकल्प श्री चंद्रसागर जी की तदाकार प्रतिमायें विराजमान की गयी थीं, इन्हीं की प्रतिष्ठा होनी थी। प्रतिष्ठा मंडप सेठ गजराजजी गंगवाल के आश्रम के निकट बनाया गया था। प्रतिष्ठा के मध्य ही एक चर्चा उठ गई कि- ‘‘मुनियों की मूर्तियाँ नहीं होनी चाहिए।’’
आचार्यश्री की आज्ञा से पं. इन्द्रलालजी आदि आए हुए थे, वे सब आर्ष परंपरा के पक्ष का समर्थन कर रहे थे। आचार्यश्री ने मुझे भी कहा- ‘‘ज्ञानमती जी! मुनियों की मूर्ति के प्रमाण निकाल कर दो।’’ मैंने भी धवला, मूलाचार और वसुनंदि श्रावकाचार से प्रमाण निकाल कर दिये थे। धवला ग्रंथ के प्रमाण से विद्वानों को बहुत संतोष हुआ था। अन्य साधु-साध्वी व विद्वानों ने भी अनेक प्रमाण निकाले थे। इसी मध्य सेठ गजराज जी आचार्यश्री के पास अनेकों शंका-समाधान किया करते थे।
एक बार उन्होंने कहा- ‘‘समवसरण में शूद्र पशु सभी बिना भेदभाव के जाते थे, बैठते थे पुनः आज मंदिरों में शूद्रों के जाने में बंधन क्यों?’’ इस विषय पर आचार्यश्री की आज्ञा से मैंने भी तिलोयपण्णत्ति और हरिवंश पुराण आदि के अनेक प्रमाण दिये थे। उनमें कुछ उद्धरण देखिये- ‘‘संयतस्य गुणान् बुद्ध्याध्यारोप्याकृतिवति अनाकृतिवति च वस्तुनि स एवायमिति स्थापिता मूर्तिः स्थापना संयतः१।
आकारवान् अथवा अनाकारवान् वस्तु में ‘यह वही है’ ऐसा मूर्ति में संयत-मुनि के गुणों का अध्यारोप करना, इस प्रकार से स्थापित मूर्ति को स्थापना संयत कहते हैं। ‘‘सिद्धाचार्यादिप्रतिबिंबानां च स्तवनं२।’’
सिद्ध, आचार्य आदि की प्रतिमाओं का स्तवन करना, इन प्रमाणों से मुनियों की मूर्तियाँ होने की बात सिद्ध है।
समवसरण में मिथ्यादृष्टि का निषेध
मिच्छाइट्ठि अभव्वा तेसुमसण्णी ण होंति कइआइं।
तह य अणज्झवसाया संदिद्धा विविहविवरीदा३।।९३२।।
अर्थात् इन कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते हैं तथा वहाँ अनध्यवसाय से युक्त,संदेह से युक्त और विविध प्रकार की विपरीतता से सहित जीव भी नहीं होते हैं। शूद्र नहीं जाते हैं-
पापी, विरुद्धकार्य करने वाले, शूद्र, पाखंडी, नपुंसक, विकलांग, विकलेंद्रिय तथा भ्रांत चित्त के धारक मनुष्य बाहर ही प्रदक्षिणा देते रहते हैं-अंदर प्रवेश नहीं करते हैं इत्यादि। प्रतिष्ठा के बाद कुछ दिनों तक संघ यहीं ठहरा, बाद में सुजानगढ़ के श्रावकों के आग्रह से संघ यहाँ से विहार कर सुजानगढ़ आ गया। यहाँ के मुनिभक्त समाज में अच्छी धर्म प्रभावना हो रही थी अतः संघ का चातुर्मास यहीं पर हो गया।