सीकर मेें संघ का चातुर्मास- यहाँ चातुर्मास में दंग की नशिया में ही सारा संघ ठहरा हुआ था। पांडाल में प्रतिदिन पहले अन्य मुनियों का, अनंतर आचार्यश्री का उपदेश होता था। एक बार पं. बाबूलालजी जमादार यहाँ आये हुए थे, उस समय आचार्यश्री के पास यह चर्चा आई कि- ‘‘ये विद्वान् सुधारक हैं।’’
आचार्यश्री ने मुझे बुलाया और कहा- ‘‘ज्ञानमती जी! देखो, ये विद्वान् जाति-व्यवस्था और यज्ञोपवीत संस्कार नहीं मानते हैं, इन्हें यथोचित प्रमाण दिखा देना और मध्यान्ह में उपदेश भी तुम्हें ही करना है।’’
मध्यान्ह में पहले पंडितजी बोले, अनंतर मेरा उपदेश हुआ पश्चात् आचार्यश्री का उपदेश हुआ अनंतर पंडितजी ने सराग-वीतराग सम्यक्त्व पर मुझसे चर्चा की, मैंने श्लोकवार्तिक आदि
ग्रंथों से इन दोनों का स्पष्टीकरण किया जिससे पंडितजी बहुत ही प्रसन्न हुए पुनः यज्ञोपवीत के प्रमाण व जातिव्यवस्था के प्रमाण भी मैंने दिखाये। त्रिलोकसार में एक गाथा है, जिसे गुरुदेव आचार्यश्री वीरसागर जी ने मुझे दिखाया था-
दुब्भावअसुइसूदकपुफ्फवईजाइसंकरादीहिं।
कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते।।९२४।।
दुर्भाव, अशुचि, सूतक, पुष्पवती-रजस्वला स्त्री तथा जाति संकर आदि दोष से दूषित पुरुष यदि दान देते हैं अथवा जो कुपात्रों को दान देते हैं वे सब कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं। इस गाथा में जो ‘जातिसंकर’ शब्द आया है वह जाति के अस्तित्व को और भिन्नत्व को सूचित करता है अन्यथा ‘जातिसंकर’ दोष भला कैसे हो सकता है?
ये जातियाँ गुलाब के फूल, आम्रफल, चावल आदि के समान हैं। जैसे इन फूल, फल व धान्य की अनेकों जातियाँ हैं, वैसे ही प्रत्येक वर्ण में भी अनेकों जातियाँ हैं। उनमें संबंध कर देना ही संकर दोष है। जैसे कि अग्रवाल, खंडेलवाल,पद्मावतीपुरवाल आदि यद्यपि ये नाम सादि हैं फिर भी ये जातियाँ अनादि ही हैं।
ये पंडित बाबूलाल जी उस समय तो प्रभावित हुए ही थे, आगे सन् १९७४ से ये मेरी प्रेरणा से संस्थापित दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान से ऐसे जुड़े कि उसके एक अंग ही बन गये और मेरे प्रति इनकी श्रद्धा अगाध थी। मेरी आज्ञा का पालन करते हुए शिविरों का संचालन और ‘जंबूद्वीपज्ञानज्योति’ का भी कई माह तक सफल संचालन किया है।
कैलाशचन्द को पुनः दर्शन
घर में प्रायः जब भी आर्यिका ज्ञानमती माताजी की चर्चा चलती, तभी पिता के मन में मोह जाग्रत होता और दर्शन करने की उत्कंठा होती किन्तु वे इस डर से कुछ नहीं कहते कि अब की बार भी जो जायेगा, माताजी उसे ही रोक लेंगी।
उधर मनोवती तो घर में जब भी अपने विवाह की चर्चा सुनती, रोने लगती और कहती- ‘‘मुझे माताजी के पास भेज दो, मैं दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करूँगी।’’ माता मोहिनी का हृदय पिघल जाता किन्तु मोह का उदय तथा पतिदेव का बंधन उन्हें भी मजबूर किए हुए था। सन् १९६१ में सीकर में आचार्य शिवसागर जी के संघ का चातुर्मास हो रहा था, वहीं संघ में मैं भी थी।
एक दिन माता मोहिनी ने अपने पति से मेरे दर्शनार्थ चलने के लिए बहुत ही आग्रह किया किन्तु सफलता न मिलने पर लाचार हो अपने बड़े पुत्र कैलाशचन्द से बोलीं- ‘‘बेटे कैलाश! तुम बहू चन्दा को लेकर सीकर चले जाओ और आर्यिका ज्ञानमती माताजी के दर्शन कर आओ।
दो वर्ष का समाचार भी ले आओ, उनका स्वास्थ्य कैसा चल रहा है? मेरी जानने की तीव्र ही उत्कण्ठा हो रही है।’’ इतना सुनते ही कैलाशचन्द जी को प्रसन्नता हुई। उन्होंने पिता से आज्ञा ली और अपनी पत्नी चन्दा को साथ लेकर सीकर आ गये।
यहाँ आकर इन दोनों ने आचार्य संघ के दर्शन किये और मेरा भी शुभाशीर्वाद प्राप्त किया। चन्दा की गोद में नन्हा सा बालक था। कैलाश ने कहा- ‘‘माताजी! इस नन्हें-मुन्ने का नाम रख दो।’’ मैंने उसका नाम जम्बू कुमार रख दिया।
कैलाशचन्द कई दिनों तक वहाँ रहे। संघ में गुरुओं के उपदेश सुने, आहार देखा और मेरी दैनिक चर्या का सूक्ष्मता से अवलोकन किया। यद्यपि मेरा स्वास्थ्य कमजोर चल रहा था फिर भी मैं सतत ज्ञानाभ्यास में लगी रहती थी।
उस समय मैं प्रातः संघस्थ कई एक आर्यिकाओं को लब्धिसार ग्रंथ का स्वाध्याय करा रही थी, उसकी सूक्ष्म चर्चा बहुत ही गहन थी तथा मध्यान्ह में अपनी प्रिय शिष्या क्षुल्लिका जिनमतीजी को प्रमेयकमलमार्तण्ड पढ़ा रही थी जो कि न्याय का उच्चतर ग्रंथ है। मध्यान्ह में कभी-कभी मेरा सभा में उपदेश भी होता रहता था तथा ४ बजे करीब मेरे पास कई एक महिलाएँ अध्ययन करती रहती थीं।
कैलाशचन्द को सीकर की समाज का बहुत ही स्नेह मिला। प्रायः प्रतिदिन कोई न कोई श्रावक उन्हें अपने घर जिमाने के लिए बुलाने आ जाया करते थे। जब ये टिकैतनगर जाने के लिए तैयार हुए तभी एक महिला जो कि इन्हें बहुत ही आदर से देखती थीं और चन्दा को मानों वह अपनी ही बहू समझती थीं, वे एक साड़ी ले आयीं, साथ ही नन्हे मुन्ने के लिए भी एक जोड़ी वस्त्र थे।
चन्दा घबराई और बोली- ‘‘अम्माजी! मैं यहाँ माताजी के दर्शन करने आई हूँ, यदि ये कपड़े भेंट में ले जाऊँगी तो सासु जी मेरे से बहुत नाराज होंगी, इसलिए मैं क्षमा चाहती हूँ मैं कतई यह भेंट नहीं लूँगी।’’
उस महिला के बहुत आग्रह करने के बावजूद भी चन्दा ने वस्त्र नहीं लिये और बार-बार यही उत्तर दिया- ‘‘अम्माजी! आपका आशीर्वाद ही हमें बहुत कुछ है। आपकी उत्तम भावना से मैं प्रसन्न हूँ ।’’
जाते समय कैलाश सभी गुरुओं का तथा मेरा शुभाशीर्वाद लेकर घर आ गये। आते ही मनोवती ने बड़े भाई और भावज को घेर लिया तथा रोने लगी- ‘‘भाई साहब! आप मुझे भी माताजी के पास क्यों नहीं ले गये?’’
कैलाश ने मनोवती को समझाने की चेष्टा की किन्तु मनोवती को संतोष नहीं हुआ। सभी ने संघ के कुशल समाचार पूछे और मेरे द्वारा किये जा रहे उच्चतम ग्रंथों के स्वाध्याय की चर्चा सुनकर गद्गद हो गये।
दीक्षा महोत्सव पर श्रीमती का आगमन
मेरे हर्ष का पार नहीं था क्योंकि आज मेरी शिष्यायें दीक्षा ले रही हैं। ब्र. राजमलजी भी मुनि दीक्षा लेने वाले हैं। मैंने इन ब्र. जी को मुनि दीक्षा लेने के लिए भी बहुत ही प्रेरणा दी थी। इस समय जो महिलाएँ आर्यिका दीक्षा लेंगी उनको मंगल स्नान कराया जा रहा है।
चार महिलाएँ चार कोनों पर खड़ी होकर कपड़े का छोर पकड़ कर कपड़े से मर्यादा किये हुए हैं। एक छोर पर खड़ी एक महिला एक हाथ से पर्दे को पकड़े हुए हैं किन्तु उसकी दृष्टि बार-बार अपने नन्हें-मुन्ने की तरफ जा रही है, इस कारण पर्दा कुछ नीचा हो गया।
तभी मैंने उस अपरिचित महिला को फटकारा- ‘‘तुम्हें विवेक नहीं है, पर्दा ठीक से पकड़ो। इधर-उधर क्या देख रही हो?’’ इसके बाद मैंने जब पुनः उसकी ओर देखा तो वह महिला रो रही थी। मैंने कहा-‘‘अरे! तुम्हें इतना भी सहन नहीं हुआ , जरा सी बात में रोने लगी?’’
तभी उस महिला ने कहा- ‘‘नहीं माताजी! मैं आपके गुस्सा करने से नहीं रो रही हूंँ किन्तु आज पहली बार मैंने आपके दर्शन किये हैं, इसलिए रोना आ गया।’ तब मैंने उस महिला को सिर से पैर तक एक बार देखा और कुछ भी न पहचान पाने से पुनः पूछा-‘‘तुम कौन हो? कहाँ से आई हो?’’ उसने कहा-‘‘मैं श्रीमती हूँ, बहराइच से आई हूँ। मैं टिकैतनगर के लाला छोटेलालजी की पुत्री हूँ।’’
तब मुझे बहुत आश्चर्य हुआ और मैंने कहा- ‘‘तुम्हें मैंने जब छोड़ा था, तब तुम दस-ग्यारह वर्ष की होगी। अब तो तुम बड़ी हो गयी हो, तुम्हारी शादी भी हो गयी है, भला मैं कैसे पहचान पाती?’’ इतना सुनते ही श्रीमती को और भी रोना आ गया।
वह सिसक-सिसक कर रोने लगी। पास में खड़ी महिलाओं ने उसे सान्त्वना दी, शांत किया पुनः उनका परिचय मिलने के बाद समाज के लोगों ने उन्हें वहीं दंग की नशिया में एक कमरे में ठहरा दिया। साथ में उनके पति प्रेमचन्द्र जी आये हुए थे और श्रीमती की गोद में छोटा मुन्ना था, जिसका नाम प्रदीपकुमार था।
श्रीमती ने उस दीक्षा समारोह को बड़े ही चाव से देखा और अपने भाग्य को सराहा कि मैं अच्छे मौके पर आ गयी जो कि इतना बड़ा महोत्सव देखने को मिल गया। उस समय ब्रह्मचारी राजमल जी ने बहुत ही विस्तार से उपदेश दिया। तदनन्तर सबके द्वारा प्रार्थना हो जाने के बाद महाराज जी की आज्ञा से सभी दीक्षार्थी चावल से बने हुए स्वस्तिक पर, जिस पर नया कपड़ा बिछा हुआ था, उस पर क्रम-क्रम से बैठ गये।
महाराज जी ने मंत्र पढ़ते हुए दीक्षा के संस्कार शुरू कर दिये। उस समय मंच पर मैं भी थी। मैं क्षुल्लिका जिनमती, ब्र. अंंगूरीबाई आदि के केशलोंच, दीक्षा संस्कार आदि करा रही थी। आचार्यश्री ने सबको दीक्षा देकर पिच्छी, कमण्डलु दिये, शास्त्र दिये पुनः उनके नाम सभा में घोषित कर दिये। मुनि का नाम अजितसागर रखा गया।
क्षुल्लिका जिनमती और संभवमती के आर्यिका दीक्षा में भी वे ही नाम रहे। ब्र. अँगूरी का आर्यिका में आदिमती नाम रखा गया और ब्र. रतनीबाई की क्षुल्लिका दीक्षा हुई उनका नाम श्रेयांसमती रखा गया।
प्रेरणा का सुफल
गिरनारक्षेत्र की यात्रा के मध्य मैं आचार्यश्री शिवसागरजी महाराज की आज्ञा से ब्रह्मचारी राजमल को अनेक बार मुनिदीक्षा के लिए प्रेरणा दिया करती थी। आचार्यमहाराज भी चाहते थे कि ये ब्र. राजमलजी मुनि बन जावें, उधर संघ के सभी मुनिगण उन्हें प्रेरणा दिया ही करते थे।
संघ के प्रमुख ब्रह्मचारी सूरजमल जी को, ब्र. राजमलजी को और ब्र. कजोड़मलजी को उनकी योग्यता, भक्ति, ज्ञानाराधना आदि देख-देख कर सभी मुनि-आर्यिकायें इन लोगों को मुनि होने के लिए एवं संघस्थ ब्रह्मचारिणियों को आर्यिका बनने के लिए प्रेरणायें देते ही रहते थे। फिर भी मेरे प्रति विशेष भक्ति होने के कारण मैं ब्रह्मचारी राजमल को दीक्षा हेतु बहुत ही प्रेरणा दिया करती थी।
ब्यावर में राजवार्तिक का अध्ययन कराते समय मध्य-मध्य में मेरा प्रयास चालू ही रहता था। अजमेर और सुजानगढ़ के चातुर्मास में भी मैंने बहुत ही उपाय किये थे। ब्रह्मचारी श्रीलालजी मेरी इस प्रेरणा से कभी-कभी मेरी हंसी भी बनाया करते थे।
सीकर चातुर्मास में ब्रह्मचारी चांदमलजी नागौर वाले आये हुए थे, उनसे भी मेरा निकटतम संपर्क रहता था। एक दिन वार्तालाप के प्रसंग में मैंने कहा- ‘‘बाबाजी! आप भी ब्रह्मचारी राजमलजी को मुनि बनने के लिए प्रेरणा दीजिए ।’’
ऐसे ही प्रेरणाओं के वातावरण में एक दिन आठ बजे मेरे कमरे में आकर सिद्धमती माताजी ने कहा- ‘‘ज्ञानमतीजी! ब्रह्मचारी राजमलजी ने दीक्षा के लिए नारियल चढ़ा दिया है, आपको पता नहीं चला क्या?।’’
मैं सुनते ही एकदम अवाव् रह गई- ‘‘ऐं!! क्या यह बात सच है?..।’’ इसी बीच ब्र. श्रीलालजी काव्यतीर्थ ने आकर कहा- ‘‘अरे! इन्हें इतनी जल्दी यह समाचार क्यों सुना दिया?’’ मैंने कहा-‘‘क्यों?’’ तब ब्रह्मचारीजी बोले-‘‘माताजी! कभी-कभी अति खुशी के समाचारों से भी एकदम दिल या दिमाग में असर हो जाता है अतः हम लोगों ने ऐसा निर्णय किया था कि आपको यह खुशी का समाचार दो दिन बाद शांति से बताया जावे।’’ ‘‘मैं हँस पड़ी।’’
बाद में ब्र. राजमलजी ने भी आकर बड़ी विनय से नमस्कार कर अपने दीक्षा के भावों की शुभ सूचना दी। कई वर्षों से किया जाने वाला मेरा पुरुषार्थ सफल होने जा रहा है, तो भला खुशी का क्या ठिकाना? और अब तो दीक्षा लेकर ब्र. राजमल मुनिश्री अजितसागर जी बन चुके थे।
ये मुनि बनने के बाद भी मुझे अपनी माता के रूप में ही देखते थे। ऐसे ही क्षुल्लिका जिनमती को भी मैंने अनेकों बार आर्यिका बनने की प्रेरणा दी थी, वह प्रेरणा भी इस समय सफल हो गई थी। इसी प्रकार अँगूरीबाई को घर से निकालने में और दीक्षा की प्रेरणा देने में जो पुरुषार्थ किया था, वह भी बहुत ही विशेष था, साथ ही संभवमती, जो कि हुलासीबाई थीं, उन्हें पहले मैंने ही क्षुल्लिका दीक्षा दिलायी थी।
रतनीबाई को अभी फतेहपुर से ही साथ लाई थी। दोनों बाइयों को दीक्षा के लिए तैयार करने पर आचार्यमहाराज ने कई बार कहा था कि ‘‘ज्ञानमती जी! कुछ दिन तुम इन्हें ब्रह्मचारिणी बनकर ही रहने दो, सेवा करना सिखाओ, जल्दी मत करो, तुम्हारे पास कोई ब्रह्मचारिणी नहीं है इत्यादि, फिर भी मैंने इन सभी को आत्महित में आगे बढ़ने की ही प्रेरणायें दी थीं, अपना स्वार्थ नहीं देखा था।
इन सभी को उस दिन दीक्षित देखकर मेरा हृदय फूला नहीं समाया था। वास्तव में विचार करके देखा जाये तो अनादिकालीन कर्तृत्वबुद्धि के निमित्त से ही ऐसी भावनाएं होती हैं कि- ‘‘मेरा प्रयास सफल हो गया ।’’
प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना पुण्य ही ऐसे-ऐसे प्रसंगों में काम आता है, अन्य प्रेरक व्यक्ति चाहे गुरु हो चाहे कोई भी, कैसे ही परमहितैषी क्यों न हों? वे तो सभी निमित्तमात्र ही हैं। भला यदि हम लोगों की प्रेरणा से ही कोई दीक्षा लेने लगे तो हम जैसे साधु शायद किसी सज्जातीय मनुष्य को बिना दीक्षा के रहने ही न दें अतः कहना पड़ता है
कि हर एक व्यक्ति का, चाहे वह पुरुष हो या महिला, उसका अपना पुण्योदय, आसन्नभव्यता-निकटसंसार आदि होना ही चाहिए, तभी गुरुओं की प्रेरणायें काम आती हैं, यही कारण है कि गुरुजन बाह्यनिमित्त कहलाते हैं न कि अंतरंगनिमित्त।
यहाँ दीक्षा सम्पन्न होने के बाद मुझे विशेष प्रसन्नता थी और आज भी उन प्रसंगों को याद कर प्रसन्नता होती है-फिर भी मैं तत्त्वज्ञान के बल से अपनी कर्तृत्वबुद्धि को हटाने का पुरुषार्थ करना ही अपना सबसे बड़ा पुरुषार्थ समझती हूँ। यहाँ सीकर में आहार के समय का दृश्य देखते ही बनता था।
सब साधु एक के पीछे एक ऐसे क्रम से निकलते थे। बाद में सभी आर्यिकायें एक के पीछे एक क्रम से निकलती थीं। यह दृश्य चतुर्थकाल के समान बड़ा अच्छा लगता था। श्रीमती ने अपने पति के साथ यहाँ शुद्धजल पीने का नियम लेकर सभी साधुओं को आहारदान दिया बाद में अपने घर चली गई।
टिकैतनगर में इन समाचारों को श्रीमती के मुख से सुनकर घर में छोटी बहन मनोवती बोली- ‘‘हे भगवन्! मुझे ऐसी माताजी के दर्शनों का सौभाग्य कब मिलेगा? मैंने पूर्वजन्म में पता नहीं कौन-सा ऐसा पाप किया था कि जो ४-५ वर्ष हो गये, मैं उनके दर्शनों के लिए तरस रही हूँ ।’’
इस प्रसंग में माता मोहिनी के भाव भी मेरे दर्शनों के लिए हो उठे किन्तु पिता ने कहा- ‘‘अगले चातुर्मास में चलेंगे।’’ प्रमेयकमलमार्तंड का अध्यापन- ‘‘मैंने श्री जिनेंद्रदेव को हृदय में धारण कर, नौ बार महामंत्र का जाप कर, जिनमती को प्रमेयकमलमार्तंड पढ़ाना शुरू कर दिया। आश्चर्य इस बात का था कि मैं बिना पढ़े भी इस ग्रंथ का अर्थ समझते हुए जिनमती को समझा देती थी।
उस समय मुझे वह गूढ़ ग्रंथ भी सरल ही प्रतीत हो रहा था। कुछ ही दिनों में मैंने उस प्रमेयकमलमार्तंड को जिनमती को पढ़ाते हुए स्वयं पढ़ लिया, मुझे बहुत ही आत्मसंतुष्टि हुई।’’ चातुर्मास समाप्ति के बाद संघ के विहार हेतु चर्चा चलती ही रहती थी।
जिनमती के उपवास
आर्यिका जिनमती जी ने र्काितक शुक्ला अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन का उपवास किया। तीन-चार उपवास के बाद इनका स्वास्थ्य बहुत कमजोर हो चुका था किन्तु बहुत समझाने पर भी ये नहीं मानीं।
अंत में दो उपवास इतने कठिन निकले कि-ये स्वयं घबरा गर्इं। ऐसा लगा कि अब इनकी समाधि हो जायेगी। पारणा के दिन मना करने पर भी ये लघुशंका के लिए बाहर जाने लगीं, ये रजस्वला हो गई थीं, इस दिन इनका तीसरा दिन था।
बाहर जाते समय एकदम गिर गर्इं और मूर्छित हो गर्इं। मैं घबरा गई ऐसा प्रतीत हुआ कि ये खतम हो गर्इं। आर्यिका चंद्रमतीजी ने व मैंने इन्हें संभाला, होश में आने के बाद शुद्धि कराकर पाटे पर लिटा कर आहार को ले जाया गया। जैसे-तैसे जरा-सी उकाली, धनिया, सोंठ आदि का काढ़ा पेट में गया। कई दिन बाद इनका स्वास्थ्य सुधार में आया। तब इनके शरीर में शून्यता सी आ गई थी।
आकस्मिक मेरा विहार
मैंने कई एक वैद्यों के परामर्श से जिनमती जी की चिकित्सा कराई, जैसे ही कुछ लाभ मालूम पड़ा, पन्द्रह दिन ही हुए थे पुनः इन्होंने चौदश का उपवास आचार्यश्री से माँगा, तब एकदम से घबड़ा कर मैं बोल पड़ी- ‘‘महाराज जी! अभी इन्हें उपवास नहीं देना, अभी ये पूर्ण स्वस्थ नहीं हो पाई हैं।’’
इतना सुनते ही आचार्यश्री पता नहीं क्यों? एकदम आवेश में आ गये और बोले- ‘‘हाँ, हाँ, तुम्हें अनुशासन करना आता है निकल जावो संघ से ।’’ मैं सुनकर एकदम अवाक् रह गई, जिनमती ने उपवास तो ले ही लिया। इधर आचार्यश्री के यह शब्द- ‘‘निकल जावो संघ से ।’’
इन शब्दों ने मेरे मन को झकझोर दिया। मैं कभी बड़ों को उत्तर नहीं देती थी अतः वहाँ तो कुछ बोली नहीं। वहाँ से आकर सोचने लगी-एक बार आचार्यश्री वीरसागर जी के पास आर्यिका पद्मावती भादों के माह में एकांतर उपवास से व्रत लेने गर्इं थीं, आचार्यश्री ने उसी क्षण कहा, जावो अपनी गुर्वानी ज्ञानमती जी को साथ लेकर आवो, तब मैं व्रत देऊँगा।
जब वे मेरे साथ आचार्यश्री वीरसागर जी के समक्ष पहुँची, आचार्यश्री ने मुझसे पूछा-इन्हें एकांतर का व्रत देऊँ क्या? ये तुम्हारे पास रहती हैं, इनके स्वास्थ्य का तुम्हें पता है। मैंने कहा-महाराजजी। ये हमेशा करती हैं अतः दे दीजिये।
पुनः आचार्यश्री ने कहा-देखो! तुम्हारे पास जो रहती हैं उन्हें तुम अपने साथ लाकर ही व्रत दिलाया करो क्योंकि कभी-कभी कोई शिष्यायें भावावेश में भी व्रत करने लगती हैं अतः उनकी योग्यता की जानकारी तो उनकी गुर्वानी को ही रहती है पुनः पद्मावती को व्रत देकर कहा- ‘‘देखो, बाई! तुम कभी भी कोई व्रत लेना चाहो तो इनके साथ ही मेरे पास आना।’’ यह बात मुझे पुनः याद आ गई।
बाद में मैं मुनि श्रीश्रुतसागरजी के पास पहुँची और यह समाचार सुना दिया। महाराज जी भी आश्चर्यचकित हो गये और बोले- ‘‘अरे! यह क्या? ना कुछ बात में आचार्यश्री ने ऐसे शब्द कैसे कह दिये?.।’’
मैंने महाराजजी से कहा कि- ‘‘मैं तो अभी सामायिक के बाद ही विहार कर जाऊँगी।’’ महाराज जी मौन रहे। मैंने आकर अपने पास की सभी आर्यिकाओं को कह दिया कि- ‘‘मैं सामायिक के बाद विहार करूँगी।’’ सभी आर्यिकाओं ने क्षणभर में अपने-अपने शास्त्रों को झोले में रख लिया।
सामायिक के बाद हम सभी ने जाकर आचार्यश्री को, सर्वमुनियों को और सर्वआर्यिकाओं को नमोऽस्तु, वंदामि किया और आचार्यश्री के समक्ष निवेदन कर दिया कि- ‘‘मैं यहां से विहार कर दूजोद जा रही हूँ।’’ मैं एक दो श्रावकों को साथ लेकर दूजोद पहुँच गई, वहाँ के श्रावकों ने स्वागत किया।
क्षणभर में सारी व्यवस्था बन गई। इस समय मेरे साथ में आर्यिका चंद्रमती, आर्यिका पद्मावती, आर्यिका जिनमती, आर्यिका आदिमती व क्षुल्लिका श्रेयांसमती थीं। ब्रह्मचारिणी कोई भी नहीं थी। वहाँ मेरे पाँच-सात दिन धर्माराधन पूर्वक व्यतीत हो गये।
आचार्य संघ का आगमन
तभी मैंने एक दिन सुना कि- ‘‘आचार्यश्री पूरे संघ सहित दूजोद पधार रहे हैं।’’ मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, श्रावकों को बुलाकर सूचना दी। लोगों ने छोटे गाँव के अनुसार भी बैण्ड बाजों के साथ एक मील आगे जाकर आचार्यश्री का स्वागत किया।
मैंने भी अपने संघ सहित आगे जाकर आचार्यश्री का स्वागत किया। संघ आकर यहाँ ठहरा। कई दिनों तक बहुत ही प्रसन्नता का वातावरण रहा। आचार्यश्री हंसकर बोले- ‘‘माताजी! आपके लिए मुझे यहाँ आना पड़ा है।’’ मैंने कहा- ‘‘यह तो आपकी बहुत बड़ी कृपा हुई है।’’
पुनः एक दिन मध्यान्ह में मुनिश्री श्रुतसागरजी ने कहा- ‘‘माताजी! आपके विहार कर जाने के बाद मेरा मन बहुत ही विक्षिप्त रहा। मुनि श्री अजितसागर जी को तो इतना धक्का लगा कि वे कहने लगे- ‘‘यह क्या हो गया? मेरी माता का इतना बड़ा अपमान मैं कैसे देखता रहा?
अंततोगत्वा इन्होंने कहा-कुछ भी हो, आचार्यश्री को ससंघ दूजोद ले चलना है। मैंने भी पुरुषार्थ किया और आचार्यश्री को राजी कर लिया, चूँकि आचार्यश्री के मन में तो आपके प्रति कोई कषाय नहीं थी अकस्मात् आवेश में उनके मुख से वैसा निकल ही गया।
असल बात यह थी कि यहाँ सीकर चातुर्मास में एक मुनि जातिव्यवस्था को न मानते हुए कभी-कभी आगमविरुद्ध शब्द बोल जाते थे। उस निमित्त से संघ में प्रबुद्ध और वृद्ध आर्यिकायें चिढ़ जाती थीं। एक दिन आहार के बाद एक वृद्धा आर्यिका ने आकर कहा- ‘‘महाराजजी! वे मुनि सज्जातीयत्व के विरोध में ऐसा-ऐसा बोल रहे हैं, उन पर नियंत्रण कीजिये।’’
महाराजजी ने कहा-‘‘माताजी! शांति रखो, हम लोगों की नजर में सब कुछ है कि क्या हो रहा है? ‘ठण्डा करके खाना चाहिए, गरम-गरम खाने से मुँह जल जाता है।’’
यह आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज की सूक्ति थी। इसके बाद भी वे वृद्धा आर्यिका पुनः एक-दो बार बोलीं, तभी आचार्य महाराज ने उन्हें जरा जोर से फटकार दिया। इस पर उनके पास रहने वाली दूसरी आर्यिका तमक कर बोलीं- ‘‘महाराजजी! आप मेरी माताजी को कुछ भी नहीं कह सकते हैं, वे तो आगम का ही पक्ष ले रही हैं।’’
इस पर आचार्य महाराज चुप हो गये पुनः दूसरे दिन उन वृद्धा माताजी के उद्वेग को देखकर मुझे फटकारते हुए बोले- ‘‘ज्ञानमतीजी! प्रतिदिन एक ही बात मत कहा करो ।’’
मैं आश्चर्यचकित हो गई और मौन से चुपचाप चली आई क्योंकि मैंने तो कुछ कहा ही नहीं था पुनः दूसरे दिन महाराजजी ने, जब मैं आहार के बाद दर्शन करने पहुँची तब कहा- ‘‘ज्ञानमतीजी! मैंने कल तुम्हें अकारण ही फटकार दिया था बुरा नहीं मानना। बात यह है कि ‘घर में माँ जब बहू को नहीं डाट पाती है तब कभी-कभी बेटी को डांट देती है कि जिससे बहू पुनः वैसी गलती न करे।’’
इतना कहकर आचार्य महाराज हँस पड़े, मैं भी हँसी और आचार्य महाराज के दर्शन कर वापस चली आई थी। इसी प्रकार से उन दिनों उन आगमविरुद्ध बोलने वाले मुनि के प्रति संघ में ऐसी ही चर्चा चल रही थी कि इन्हें संघ से अलग विहार करने के लिए कहा जाये। आचार्यश्री का मस्तिष्क उस समय कुछ विक्षिप्त सा था अतः वह आवेश मुझ पर उतर गया था।
संघ में कभी भी यदि कोई साधु जाने लगे या कोई आर्यिकायें ही जाने लगेंं तो आपस में कोई न कोई साधु-साध्वियाँ उन्हें अवश्य ही रोक लेते थे किन्तु उस दिन तो सवा ग्यारह बजे आचार्य महाराज ने मुझे आवेश में कहा और मैं वहाँ से आकर साढ़े ग्यारह बजे से साढ़े बारह बजे तक सामायिक समाप्त कर एकदम एक बजे ही निकल गई।
यह घटना डेढ़ घंटे मात्र में ही हो गई अतः सभी साधु-साध्वियाँ प्रायः न कुछ समझ पाये और न बोले ही। यहाँ आचार्य महाराज के ससंघ आने के बाद और उनका वात्सल्य मिलने के बाद मैं भी सोचने लगी- ‘‘ठंडा करके खाना चाहिए गरम-गरम खाने से मुंह जल जाता है।’’
यह आचार्य महाराज की सूक्ति कितनी सुन्दर है, मैंने भी आवेश में ही जल्दी से विहार कर दिया यदि एक दिन रुक कर शांति से विहार करने का सोचती तो शायद स्थिति ही साफ हो जाती और विहार करने का प्रसंग ही न आता।
वहाँ सीकर से मुनिश्री ज्ञानसागरजी महाराज संघ के साथ नहीं आये थे, वे वहीं रुक गये थे। इसके बाद वे संघ से पृथक ही विहार करने लगे थे। यहाँ दूजोद में कई दिनों तक पूरा संघ रहा, छोटा गाँव होते हुए भी श्रावकों की भक्ति अच्छी थी अतः हर्षोल्लास का वातावरण रहा, संघ में स्वाध्याय और धर्मचर्चा चलती रहती थी। मैं कई बार इन घटनाओं के याद आ जाने पर सोचा करती हूँ -‘‘
आज भी जिन संघों में आर्यिकाओं का अनुशासन प्रमुख आर्यिका संभालती हैं, वहाँ शांति रहती है और समुचित मर्यादा बनी रहती है किन्तु जिस संघ में हर एक आर्यिकाओं की छोटी-छोटी बातें आचार्यों तक पहुँचती हैं, वहाँ शांति और व्यवस्था दोनों ही भंग हो जाती है क्योंकि अतिनिकटता से महिलाओं का संरक्षण और संपोषण महिलायें ही कर सकती हैं, आचार्य तो स्थूलरूप से ही मार्गदर्शन दे सकते हैं।
दूसरी बात यह भी है कि जब आर्यिकाओं में प्रमुख आर्यिका के प्रति गुरु या माता जैसा भाव रहता है तथा कदाचित्-बीमारी आदि के प्रसंग में एक-दूसरे की वैयावृत्ति का सौहार्द रहता है, माता-पुत्री जैसा एक-दूसरे को संभालती हैं अन्यथा संकट व बीमारी के समय बड़ों की उपेक्षा से नव दीक्षिताओें का जीवन आदर्श नहीं बन पाता है प्रत्युत् उनके संयम की हानि की संभावना भी देखी जाती है।
अतः आचार्यश्री वीरसागरजी की आज्ञानुसार आर्यिकाओं को प्रधान आर्यिका की आज्ञानुसार ही प्रवृत्ति करना चाहिए। यह दूजोद गाँव बहुत ही छोटा था, पानी बहुत गहराई में था, सौ हाथ से अधिक रस्सी कुंएँ से पानी भरने में लगती थी इत्यादि। इन सब समस्याओं को देखकर पुनः यहाँ यही निर्णय लिया गया कि-
‘‘कुछ दिन आर्यिकायें दो समुदाय में अलग-अलग विहार कर लेवें पुनः माघ मास तक लाडनूँ पहुंचना है। वहाँ मानस्तम्भ तैयार हो चुका है, उसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पूषराज केशरीचंद के परिवार के लोग कराना चाहते हैं वे प्रार्थना कर चुके थे और आचार्यश्री ने स्वीकृति दे दी थी।’’
मैंने भी आचार्यश्री की आज्ञा लेकर यहाँ से मूँडवाड़ा की तरफ विहार कर दिया। कभी-कभी तो आचार्यश्री का मेरे प्रति बहुत ही वात्सल्य दिखता था। एक बार सीकर में ब्र. राजमलजी आदि की दीक्षाओं के बाद जयपुर से आये सेठ रामचन्द्रजी कोठारी ठहरे हुए थे। आचार्यश्री उन्हें घर त्याग करने की और दीक्षा लेने की प्रेरणा दे रहे थे। मैं वहाँ पहुंची, वे सहसा बोले- ‘‘कोठारी जी! आप मेरी एक बात मानो, बस एक माह आर्यिका ज्ञानमतीजी के निकट रह जावो ।
बस तुम्हें स्वयं वैराग्य हो जायेगा मुझे अधिक प्रेरणा देनी ही नहीं पड़ेगी।’’ सेठ रामचन्द्रजी मेरी ओर देखकर बहुत ही खुश हुये और पुराने संस्मरण याद कर बार-बार मेरी प्रशंसा करने लगे। मैं उस समय कुछ भी नहीं बोली, मात्र अपनी प्रशंसा सुनकर नीचे माथा किये बैठी रही पुनः रामचंद्र जी द्वारा बहुत विनय आदि के बाद मैं बोली-
‘‘जो आज कुछ भी मेरे में ज्ञान का लेश है वह सब गुरुदेव आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज के आशीर्वाद का ही फल है।’’ मूँडवाड़ा में मैं आर्यिका चंद्रमती आदि के साथ कुछ दिनों तक रही। गाँव में लोगों की अच्छी भक्ति थी पुनः यहाँ से ‘कूकनवाली’ आदि गाँवों में विहार किया।
जब आचार्यश्री का संघ लाडनू पहुँच गया, तब मेरे पास भी मांगीलालजी आदि द्वारा भेजे गये चौथमलजी आदि श्रावक आ गये और मैंने भी उस तरफ विहार कर दिया।
लाडनूं आगमन
मैं लाडनूं के निकट ५-६ मील पूर्व में ठहरी थी। आर्यिका आदिमती के कमर में वायु का दर्द हो जाने से उन्हें चलना कठिन हो गया था अतः मैं रास्ते में ठहर गई थी। वहीं आहार कराकर पुनः डोली में उन आदिमती को लेकर जाना था।
वहीं अकस्मात् माता मोहिनी जी आ पहुँचीं, वे कुचामन उतर कर इधर-उधर मुझे ढूंढ़ते हुए यहाँ आ गई। मेरे दर्शन कर प्रसन्न हुर्इं। वहाँ आहारदान देकर भोजन आदि किया। मैं भी विहार कर सायंकाल में लाडनूं आ गई। इधर सन् १९६२ की फरवरी में यहाँ मानस्तंभ के जिनबिंबों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा थी।
मैं आदिमती का स्वास्थ्य खराब होने से प्रतिष्ठा के स्थल पर कदाचित् ही पहुँच पाती थी। इनकी वैयावृत्ति और संभाल में ही लगी रहती थी क्योंकि संघ में यदि कोई साधु या साध्वी अस्वस्थ हो और यदि बड़े ही वैयावृत्ति न करें तो छोटे साधु-साध्वी भी उपेक्षा कर देते हैं
तथा बड़े को वैयावृत्ति करते देखकर सभी साधु-साध्वी प्रेम से सेवा शुशूषा करने लगते हैं अतः बड़ों को यह गुण अपने में लाकर छोटे साधु-साध्वियों को सदा वैयावृत्ति करने की शिक्षा और प्रेरणा देते रहना चाहिए। वास्तव में वैयावृत्ति भी एक तप है और इसका अपना विशेष ही महत्त्व है।
व्यवहार में भी देखा जाता है कि वैयावृत्ति करने से आपस में वात्सल्य-धर्मप्रेम बढ़ता है और परस्पर में सौहार्द बने रहने से संघ में शांति, धर्माराधना, ज्ञानाराधना आदि विशेष गुण वृद्धिंगत होते रहते हैं अतः मुझे वैयावृत्ति करने की प्रारंभ से ही रुचि रही थी।
अब तो अपना शरीर स्वयं ही ठीक तरह से काम नहीं करता है तो अन्य की वैयावृत्ति भी हाथों से नहीं हो पाती है। इन आर्यिका आदिमती की वैयावृत्ति तो मैंने श्रवणबेलगोल में भी खूब ही की थी अभी ये आचार्यकल्प श्रुतसागर जी के संघ में रह रही हैं।