सानंद लाडनूं का चातुर्मास संपन्न होने के बाद संघ का विहार होना निश्चित हो गया। मैंने आचार्यश्री शिवसागरजी से सम्मेदशिखर यात्रा जाने के लिए आज्ञा माँगी किन्तु आचार्यश्री एकदम उठकर खड़े हो गये और बोले- ‘‘चलो, मैं भी साथ चलता हूँ ।’’
मैं चुप हो गई, संघ के साथ विहार कर ‘नावा’ तक आ गई। अब यहाँ पुनः मैंने मुनिश्री श्रुतसागरजी से निवेदन किया- ‘‘महाराजजी! आप मुझे जैसे-तैसे भी सम्मेदशिखर यात्रा के लिए आचार्य श्री से आज्ञा दिला दीजिये। मुनिश्री ने भी आचार्य श्री से निवेदन किया पुनः मैंने प्रार्थना की, तब आचार्य श्री ने स्वीकृति दे दी।
जब मैं यात्रा के लिए निकलते समय आचार्यश्री का आशीर्वाद लेने गई और आचार्यश्री के चरण स्पर्श किये तब मेरी आँखोें में आँसू आ गये, उस समय का दृश्य इतना रोमांचकारी बन गया कि और तो क्या आचार्यश्री के भी नेत्र सजल हो आये। उस समय माँगीलाल पांड्या, जो कि वयोवृद्ध थे, वो बोले- ‘‘महाराजजी! आपको ऐसा करना शोभा नहीं देता ।’’
महाराजजी बोले- ‘‘भैया! तुम जब अपनी पुत्री को विदा करते हो तो कैसा लगता है? यह भी हमारा परिवार है, इन्हें विदा करते हुए आज हमारा दिल टूट रहा है ।’’
आचार्यश्री का मंगल आशीर्वाद लेकर हम सभी आर्यिकाओं ने मुनिश्री श्रुतसागर जी व मुनिश्री अजितसागर जी के दर्शन किये। उन्होंने भी खिन्नमना होेते हुए विदाई दी। हम सभी ने सर्व आर्यिकाओं से मिल कर यथायोग्य वंदामि प्रतिवंदामि कर नावा के जिनमंदिर का दर्शन कर वहाँ से फुलेरा की ओर विहार कर दिया।
लाडनूँ व नावा के अनेक श्रावक-श्राविकायें कुछ दूर तक पहुँचाने के लिए आये। यहाँ से फुलेरा आदि होते हुए मैं जयपुर आ गई। मेरे साथ में आर्यिका पद्मावती, आर्यिका जिनमती, आर्यिका आदिमती और क्षुल्लिका श्रेयांसमती जी ये चार साध्वियाँ थीं। आ. चंद्रमती जी चलने में कमजोर थीं अतः ये संघ में ही रह गई थीं।
ब्र. सुगनचंदजी प्रमुख थे, उनके साथ उनकी बहन ब्र. गल्कूबाई थीं और ब्र. मूलीबाई थीं। कु. मनोवती के साथ एक ब्र. भंवरीबाई थीं। जयपुर में सरदारमल श्रावक संघ के साथ जुड़ गये। ये सेठ रामचंद्रजी कोठारी की प्रेरणा से आये थे। दादी हो कि बाबा?- अतिशय क्षेत्र महावीर जी के रास्ते में एक मजेदार घटना हुई।
मार्ग में विहार करते हुए मेरे साथ चार साध्वियाँ चलती थीं। तब गूजानी महिलायें पूछने लगतीं-‘‘आप दादी हो कि बाबा?’’ इस प्रश्न से मेरे साथ चलती हुई जिनमती, आदिमती आर्यिकायें खूब हँसतीं। उन महिलाओं को हम लोगों को देखकर यह भ्रम होता था कि हम लोगों के शिर में केश नहीं हैं और सफेद साड़ी महिलाओं जैसी है इसलिए ये गूजरनी ऐसा प्रश्न कर देती थीं। एक दिन सायंकाल में सूर्य डूबते-डूबते मेरे साथ आदिमती जी धीरे-धीरे चल रही थीं अतः हम दोनों पीछे रह गर्इं।
बाकी तीन साध्वियाँ और साथ में ब्र. सरदारमल आगे बढ़ गये, जिस गाँव में रात्रि में ठहरना था वहाँ पहुँच गये। निकट एक गाँव में प्रवेश कर मैंने पूछा-यह गाँव कौन सा है? उसका नाम कुछ बताया पुनः जहाँ पहुँचना था, उसका नाम पूछने पर मालूम पड़ा कि वह गाँव एक मील आगे है, मैंने देखा- अब वहाँ पहुँचना शक्य नहीं, अतः इसी गाँव में एक चबूतरे पर बैठ गई। गाँव के कुछ लोग इकट्ठे हो गये, उन्होंने पूछा मैंने कहा-‘‘आज रात्रि में यहीं ठहर कर सुबह विहार कर आगे जाऊँगी।’’
वहाँ के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति ने निवेदन कर अपने घर में अलग एक कमरे में ठहरा दिया, वह गोबर से लिपा-पुता साफ था। इसके बाद उसके घर की महिलाएँ आ गर्इं और वे शंकास्पद दृष्टि से देखकर बार-बार पूछने लगीं-‘‘तुम लोग दादी हो या बाबा?’’ हम दोनों प्रतिक्रमण कर रही थीं। एक बार समझा दिया फिर बार-बार उनके प्रश्न के उत्तर में सिरपच्ची समझ मौन ले लिया।
अब वे महिलायें आपस में खुसुर-फुसुर करने लगीं- ‘‘हाँ! देखो-देखो, ये कोई ठग दिखते हैं, भेष बना-बना कर घूम रहे हैं…..।’’ महिला ने अपने पति से कहा-‘‘इन्हें घर से निकाल दो ।’’ आपस में पति-पत्नी झगड़ने लगे। मैंने देखा पुरुष तो कहता है-‘‘ये साधुनी हैं ऐसी-ऐसी महावीरजी में बहुत बार मैंने देखी हैं।’’
किंतु महिला कहती थी कि-‘‘ये कोई ठग पुरुष हैं।’’ अब मैंने कुछ सोचकर कहा कि- ‘‘हम दोनोें यहाँ घर में न रहकर सामने जो खेत दिख रहा है वहीं पर रात्रि में रहेंगी।’’ ऐसा सुनकर पुरुष बहुत घबराया और बोला- ‘‘ना ना, ऐसा नहीं होगा। वहाँ खुले में ठंडी बहुत है।’’ किसी ने कहा-‘‘कंबल दे दो।’’ मैंने कहा कि ‘‘मैं घास के सिवाय कुछ भी नहीं लूँगी। ऐसे ही एक साड़ी में ही सर्दी में भी रहती हूँ। अतः कुछ लोगों ने बाहर नहीं जाने दिया।
तब मैंने कोठरी के अंदर से सांकल लगा लिया और हम दोनों सामायिक पर बैठ गर्इं। उधर से ब्र. सरदारमल जी हल्ला मचाते हुए, ढॅूंढते हुए आ गये और कहने लगे- ‘‘माताजी! कहाँ हैं? कहाँ हैं?’’ उनसे उन महिलाओं ने पूछा- ‘‘क्या ये तुम्हारी माँ हैं?’’ सरदारमल ने समझाया-‘‘ये साध्वियाँ हैं, जगत् की माता हैं।’’
फिर प्रश्नोत्तर में ब्र. जी ने समझाया कि ‘‘ये केशों को उखाड़कर केशलोच करती हैं, महिलाएं हैं, इन्हें बड़े-बड़े करोड़पति भी पूजते हैं। ये जमीन पर मात्र चावल की घास बिछाकर ही सोती हैं, भयंकर ठंड में भी कुछ नहीं लेती हैं। यदि कोई धर्मशाला या मकान आदि में ठहरा दे तो ठीक, अन्यथा ये खुले में भी सो जाती हैं। सुनकर वे महिलाएं बहुत प्रभावित हुर्इं और जो ‘दादी बाबा’ के भ्रम थे, वे दूर हो गये, अब वे पश्चाताप करने लगीं।
रात्रि में मैंने इन लोगों को अंदर नहीं आने दिया। थकान भी थी, विश्राम चाहिए था। प्रातः विहार के समय उन सबको थोड़ा सा धर्मोपदेश सुनाकर आगे गाँव के लिए विहार कर गई किन्तु उन गूजरनी महिलाओं के ‘‘दादी हो कि बाबा?’’ प्रश्न वाक्य आज भी स्मृतिपथ में आ जाते हैं और विचार आता है कि- ‘‘देखो! आज इधर-उधर भेष बदलकर अनेक ठग फिरते रहते हैं अतः बेचारी भोली महिलाएँ सहसा अपरिचित भेष को देखकर डरने लगती हैं किन्तु जब उन्हें वास्तविकता मालूम पड़ती है तो कितनी भक्ति प्रदर्शित करती हैं।’’
कई महिलाओं ने, पुरुषों ने प्रातः दूध लेने के लिए बहुत आग्रह किया तब सरदारमल ने समझाया-ये माताजी १० बजे के समय विधिवत् पड़गाहन होने पर अपने ‘करपात्र’ में ही दूध, रोटी, दाल, चावल आदि भोजन लेती हैं, बार-बार नहीं लेती हैं, इनकी चर्या बहुत ही कठोर है। सुनकर वे सब ग्रामीण लोग आश्चर्य करते हुए समझने लगे कि ‘आज मेरे गाँव में कोई निधि ही आ गई थी, हम लोग धन्य हो गये।’ जिस घर के कोठे में मैं सोयी थी उस व्यक्ति ने कहा-‘‘मेरा घर मंदिर बन गया, सफल हो गया, अब मेरे घर में कोई कमी नहीं रहेगी ।’’
इसी प्रकार विहार करते हुए पद्मपुरी में भगवान् पद्मप्रभु के दर्शन करके आगे बढ़ते हुए हम लोग महावीर जी आ गये।
क्षेत्रों के दर्शन
भगवान् महावीर की अतिशयपूर्ण प्रतिमा के दर्शन किये। यहाँ ब्र. श्रीलालजी ने अच्छी व्यवस्था की पुनः शांतिवीर नगर के मंदिर के, आश्रम के, मंदिरों के, दर्शन कर वहाँ से विहार कर कुछ दिन बाद मथुरा आ गई। मथुरा में जंबूस्वामी के चरणों की वंदना की। यहाँ ३-४ दिन रहने का विचार था।
इसी बीच सेठ हीरालालजी निवाई वाले आ गये। इन्होंने लाडनूं में अनेक बार कहा था कि- ‘‘माताजी! आप शिखर जी की यात्रा कीजिये, पूरी व्यवस्था मेरी रहेगी, ब्रह्मचारी सुगनचंदजी आपके साथ में रहेंगे।’’ इन शब्दों से मैंने यही अर्थ निकाला था कि चौके की व्यवस्था ब्र. सुुगनचंद करेंगे और उनके लिए अर्थ की व्यवस्था शिखर जी पहुँचने तक हीरालालजी करेंगे।’’ ‘‘मैं साध्वी हूँ अतः इन प्रपंचों में क्यों पडूँ’’? ऐसा सोचकर मैंने कुछ भी विशेष नहीं पूछा था।
अब यहाँ आकर उन्होंने ब्र. जी से कुछ वार्तालाप किया। उसके बाद ब्र. जी ने मेरे पास आकर कहा-‘‘माताजी! अभी तक तो हीरालालजी ने कहा था, शिखर जी पहुँंचने तक पूरा खर्चा मेरा रहेगा, आज वे कह रहे हैं कि मैं कुछ नहीं करूँगा।’ मैंने पूछा-‘‘क्यों?’’ तब ब्र. जी ने कोई छोटी सी बात बतायी।
मुझे सुनकर आश्चर्य हुआ कि यह गलती तो ना कुछ है, सुधारी जा सकती है। फिर भी मैंने सोचा-‘‘अब पुनः इनसे क्या कहना?’’ ‘‘मुझे भी अपने भाग्य पर भरोसा है। क्या दीक्षा लेते समय मैंने किसी का अवलंबन लिया था? पुनः भला आहार की व्यवस्था में अपने मुख से किसी को कुछ क्यों कहना?’’ हीरालालजी ने मुझसे कोई बात नहीं की, बोले-‘‘मैं जा रहा हूँ।’’
मैंने भी खुशी-खुशी आशीर्वाद दे दिया, वे चले गये, उसके बाद मैंने मंदिरजी में ब्र. सुगनचंद और ब्रह्मचारिणी कु. मनोवती को बुलाया तथा पूछा- ‘‘अब आप लोगों ने सम्मेदशिखर की यात्रा कराने के लिए क्या सोचा? मेरी समझ में तो अब यात्रा स्थगित कर दी जाये, धीरे-धीरे इस गाँव से उस गाँव विहार करते हुए कुछ दिनों में यात्रा हो जायेगी।’’ ब्र. जी ने कहा-‘‘माताजी! हम लोग आपको यात्रा करायेंगे।
हम दोनों लोग अपने-अपने चौके की व्यवस्था संभालेंगे और चाहिए क्या? हाँ! आप इतनी आज्ञा दे दो कि इस गाँव से अगले गाँव तक हम लोग बैलगाड़ी की व्यवस्था श्रावकों से करा लें।’’ मैंने कहा-ठीक है, साथ ही तुम दोनों लोग यह नियम लो कि- ‘‘शिखर जी पहुँचने तक मार्ग में किसी श्रावक से पैसे नहीं माँगना और यदि कोई देवे भी, तो नहीं लेना, कह देना मेरा नियम है किसी से रुपये-पैसे नहीं लेना है।’’
उसी समय खुशी-खुशी ब्र. सुगनचंद ने और कु. मनोवती ने यह नियम ले लिया। तब हमें बड़ी प्रसन्नता हुई। मेरा कहना यही था कि जैसे कोई साधु यात्रा करने के निमित्त से श्रावकों से रुपये पैसे की माँग करते हैं या उनके संघ के ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणी याचना करते देखे जाते हैं, वैसा मुझे इष्ट नहीं है, भले ही यात्रा न हो अतः मेरी आज्ञा के अनुसार इन ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों ने नियम कर लिया। इसके बाद मनोवती ने मुझसे आज्ञा लेकर अपने घर एक पत्र भाई प्रकाशचंद को आने के लिए डाल दिया।
मथुरा क्षेत्र
यह मथुरा पवित्रतीर्थ माना गया है-
महुराये अहिछित्ते, वीरं पासं तहेव वंदामि।
जंबुमुणिंदो वंदे, णिव्वुइं पत्तोवि जंबुवणगहणे।।
मथुरा के भगवान् महावीर और अहिच्छत्र के भगवान् पाश्र्वनाथ की वंदना करता हूँ तथा महान जंबूवन से निर्वाण प्राप्त करने वाले जंबू मुनिराज की वंदना करता हूँ।
मथुरा शूरसेन जनपद की राजधानी थी, शूरसेन जनपद में महावीर भगवान् का समवसरण आया था और उनके उपदेशों को सुनकर नगरसेठ जिनदत्त के पुत्र अर्हदास, मथुरा के नरेश उदितोदय, उनके मंत्री, राज्याधिकारी और अनेक नागरिक भगवान् महावीर के धर्मानुयायी बन गये । अनुबद्ध केवलियों में श्रीगौतमस्वामी के मोक्ष जाने के बाद उसी दिन श्री सुधर्माचार्य को केवलज्ञान हुआ और इनके मुक्ति प्राप्त करने के दिन ही श्रीजंबूस्वामी को केवलज्ञान हुआ था।
ये जंबूस्वामी यहाँ मथुरा के जंबूवन से मोक्ष गये हैं। प्राचीन काल में मथुरा में चौरासी वन थे। इनमेें १२ तो बड़े थे और ७२ छोटे थे। ये मथुरा के चारों ओर दूर-दूर तक फैले हुए थे। इन वनों में से कुछ वनों के नाम पर आज नगर बस गये हैं।
जैसे वृंदावन, विधिवन, महावन, मधुवन, तालवन आदि। बहुत से वन समय के प्रभाव से नष्ट हो गये हैं और उनके स्थान पर खेती होने लगी अथवा गाँव-नगर बस गये। इन चौरासी वनों में एक जंबूवन भी था, वहाँ जामुन के वृक्षों की बहुलता थी, वहाँ से जंबूस्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया था। यहाँ चौरासी नामक प्राचीन स्थान पर एक मंदिर है। इस मंदिर में नव वेदियाँ और एक चरण युगल है। प्रतिमाओं की कुल संख्या ६८ है। इनमें २० पाषाणप्रतिमायें और शेष धातुप्रतिमाएं हैं। चौरासी का यह मंदिर दिल्ली-मथुरा ‘बाईपास’ तथा मथुरा-गोवर्धन सड़क के किनारे बना हुआ है।
मैं यहीं धर्मशाला में ठहरी थी। मथुरा शहर में चार दिगम्बर जैन मंदिर और एक चैत्यालय है। एक दिगम्बर जैन मंदिर वृन्दावन में है, जो मथुरा शहर से लगभग चार मील है। यह हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ है। नारायण श्रीकृष्ण की लीला भूमि रहा है। यहाँ ४-५ दिन रहकर मैंने जंबूस्वामी के चरणों की वंदना करके स्तुति की।
मुझे जंबूस्वामी के चरित से बहुत ही प्रेम रहा था, वह यहाँ द्विगुणित हो गया। मुझे घर की एक बात स्मरण हो गई कि एक दिन रात्रि में दीपक के टिमटिमाते प्रकाश में मैं जो जंबूस्वामी चरित मंदिर से लाई थी, उसे प़ढ़ने बैठ गई, विषय इतना अच्छा लगा कि मैं पढ़ती ही रही। पिताजी बार-बार जगकर बोलते- ‘‘बेटी! सो जावो, बहुत रात हो गई है, कल पढ़ लेना ।’’
माँ ने भी कई बार जगकर कहा फिर भी मैं यही कहती गई- ‘‘हाँ, हाँ, अभी सो रही हूँ अभी जा रही हूँ।’’ और पढ़ती ही गई, अंत में रात्रि के लगभग १-२ बजे इस चरित को पढ़कर ही सोयी थी, इसमें जंबूस्वामी के वैराग्य का वर्णन कितना सुन्दर है कि दीक्षा लेने के लिए उत्सुक जंबूस्वामी का माता-पिता ने आग्रह करके शाम को ही चार कन्याओं से विवाह कर दिया जबकि जंबूस्वामी कह चुके थे कि मैं प्रातः काल निश्चित ही दीक्षा ले लूँगा।
माता-पिता ने समझा था कि विवाह होने के बाद रात्रि में निश्चित ही यह स्त्रियों के मोहपाश में बंध जायेगा किन्तु विवाह के बाद इन पत्नियों से जंबूस्वामी की रात्रि भर जो राग-विराग की चर्चा चलती रही, वह रोमांचकारी है। आखिर राग पर विराग ने विजय पाई और जंबूस्वामी के साथ माता-पिता, पत्नी और पाँच सौ चोरों ने भी दीक्षा ले ली।’’
मेरे लिए यह चरित ऐसा ही हुआ था जैसे कि अग्नि को अधिक संधुक्षित करने के लिए हवा। पहले पद्मनंदिपंचविंशतिका से मेरे हृदय में वैराग्य का अंकुर तो फूट ही चुका था पुनः इस चरित के पढ़ने से वैराग्य बढ़ता ही गया था। यहाँ भी मैंने जंबूस्वामी से प्रार्थना की- ‘‘भगवन्! मुझे सम्मेदशिखर आदि तीर्थक्षेत्रों की वन्दना की इच्छा है किन्तु जब तब रास्ते में चलने से स्वास्थ्य गड़बड़ हो जाता है, आपकी भक्ति के प्रसाद से यात्रा सम्पन्न हो ।’’
वहाँ से निकलकर सम्मेदशिखर पहुँचने तक मेरा स्वास्थ्य सामान्य रहा। अब तक जैसे चलने से संग्रहणी बढ़ जाती थी सो नहीं हुआ अतः मैं निर्विघ्न सम्मेदशिखर आ गई थी। इसी से मथुरा तीर्थ और जंबूस्वामी के प्रति मेरी श्रद्धा अधिक बढ़ गई। इसी श्रद्धावश मैंने श्रवणबेलगोल में स्तुतिरचनाओं में एक जंबूस्वामी की भी संस्कृत में स्तुति बनाई थी, जो छप चुकी है पुनः सम्यग्ज्ञान में इनका चरित भी संस्कृत में छपाया था।
प्रकाशचन्द का मथुरा आना
उधर एक दिन घर में मनोवती का पत्र मिलता है। पहले पिताजी पढ़ते हैं पुनः सबको सुनाते हैं, उसमें विस्तार से लिखा हुआ था कि- ‘‘पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी का संघ सम्मेदशिखर जी की यात्रा के लिए विहार कर चुका है। संघ में आर्यिका पद्मावती जी, आर्यिका जिनमतीजी, आर्यिका आदिमतीजी, क्षुल्लिका श्रेयांसमतीजी, ऐसी चार साध्वियाँ हैं। ब्र. सुगनचन्दजी संघ की व्यवस्था में प्रमुख हैं। उनकी एक बहन ब्रह्मचारिणी भी साथ में हैं।
एक महिला मूलीबाई और ब्र. भंवरीबाई भी साथ में हैंं। जयपुर के एक श्रावक सरदारमलजी साथ में हैं। एक चौका ब्र. सुगनचन्दजी का है और एक मेरा है। हम लोग कल यहाँ मथुरा में पहुँचे हैं। संघ यहाँ से आगरा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, कन्नौज, कानपुर, लखनऊ होते हुए अयोध्या पहुँचेगा।
टिकैतनगर यद्यपि कुछ बाजू में है फिर भी मेरी इच्छा है कि संघ का पदार्पण टिकैतनगर अवश्य हो। संघ में मुझे कुछ असुविधाएँ हो जाती हैं, चूँकि सरदारमलजी माताजी के साथ चलते हैं अतः मैं चाहती हूँ कि यात्रा में भाई प्रकाशचन्द जी को आप भेज दें तो मुझे बहुत ही सुविधा रहेगी। माताजी ने सभी ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों को नियम दे दिया है कि शिखरजी पहुँचने तक रास्ते में कोई किसी श्रावक से पैसा या कोई वस्तु नहीं लेगा।
कोई कुछ देना चाहे तो कह देना कि आप संघ में दो चार दिन रहकर स्वयं कुछ कर सकते हैं, हम लोग कुछ नहीं लेंगे। मात्र बैलगाड़ी की व्यवस्था इस गांव से अगले गाँव तक गाँव वालों से ही कराने की छूट कर दी है। इसलिए मेरी सारी व्यवस्था संभालने के लिए प्रकाश का आना आवश्यक है।’’
साथ ही प्रकाशचन्द को भेजने के लिए एक तार भी आ गया है। पत्र सुनने के बाद तथा तार भी देखकर माँ ने सोचा-‘‘ये प्रकाश को क्या भेजेंगे? मैं कुछ न कुछ प्रयत्न कर भेजने का प्रयास करूँ।’’ किन्तु हुआ इससे विपरीत, पिताजी बहुत ही प्रसन्न थे और बोले- ‘‘देखो, कुछ नाश्ता-वास्ता बना दो। प्रकाश जल्दी चला जाये।
बिटिया मनोवती को रास्ते में बहुत कष्ट होता होगा।’’ माँ का हृदय गद्गद हो गया। पिताजी ने उसी समय प्रकाश को बुलाकर सारी बात समझा दी और बोले-‘‘जाओ, कुछ दिन मनोवती के साथ व्यवस्था में भाग लेवो।
बाद में व्यवस्था अच्छी हो जाने के बाद जल्दी से चले आना।’’ साथ में रुपयों की व्यवस्था भी कर दी और बोले-‘‘बेटा! अपने खेत का एक बोरी चावल लेते जाना।’’ प्रकाशचन्द मथुरा आ गये, सारी बातें बतार्इं, सुनकर खुशी हुई। यहाँ से इन्होंने ब्र. मनोवती के चौके की व्यवस्था संभाली और मेरे साथ पैदल चलने लगे।