सोरठा
समवसरण प्रभु आप, त्रिभुवन की लक्ष्मी धरे।
पूजूँ तुम चरणाब्ज, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।१।।
।।इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
चाल-पूजों पूजों श्री……….
‘वृहद्वृहस्पति’ प्रभु नाम है। सुरपति के गुरू सरनाम हैं।
पूजते ही मिले मोक्ष धाम है। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर नामा। जिससे पावें निजातम धामा।
सर्व कर्मों का होवे खातमा। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।१।।
ॐ ह्रीं बृहद्वृहस्पतिगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वाग्मी’ तुम्हीं त्रिभुवन में। शुभवचन द्वादशों गण में।
पूजते पाप नश जाय क्षण में। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२।।
ॐ ह्रीं वाग्मिन् गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वाचस्पती’ आप जग में। वचनों के स्वामि सहज में।
नाम लेते मिले शांति मन में। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।३।।
ॐ ह्रीं वाचस्पतिगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम नाम ‘उदारधी’ है। ज्ञानदान का मूल वही है।
पूजते आप सुख की मही हैं। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।४।।
ॐ ह्रीं उदारधीगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘मनीषी’ कहाये। केवलज्ञान सदबुद्धि पाये।
शत इंद्र सदा गुण गायें। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।५।।
ॐ ह्रीं मनीषीगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आपको ही ‘धिषण’ साधु कहते। सर्वज्ञानैक बुद्धी धरते।
भक्त पूजत स्वपर ज्ञान लहते। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।६।।
ॐ ह्रीं धिषणगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘धीमान्’ त्रैलोक्य में हैं। ज्ञान पंचम धरें श्रेष्ठ ही हैं।
भक्त भी स्वात्म ज्ञानी बने हैं। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर नामा। जिससे पावें निजातम धामा।
सर्व कर्मों का होवे खातमा। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।७।।
ॐ ह्रीं धीमान्गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शेमुषीश’ आप ही हैं। सर्व ही ज्ञान के नाथ ही हैं।
दीजिये अब मुझे सुमती है। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।८।।
ॐ ह्रीं शेमुषीशगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘गिरांपति’ जग में। सर्वभाषामयी ध्वनि भवि में।
हो सत्य महाव्रत मुझमें। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।९।।
ॐ ह्रीं गिरांपतिगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘नैकरूप’ मुनिगण में। विष्णु ब्रह्म महेश्वर सच में।
भक्त नाशें करमरिपु क्षण में। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१०।।
ॐ ह्रीं नैकरूपगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘नयोत्तुंग’ मानें। सब नयों से श्रेष्ठ बखानें।
मन अनेकांत सरधाने। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।११।।
ॐ ह्रीं नयोत्तुंगगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नैकात्मा’ तुम्हीं त्रिभुवन में। गुण बहुते धरें प्रभु निजमें।
गुण पूर्ण भरूँ मैं निज में। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१२।।
ॐ ह्रीं नैकात्मागुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘नैकधर्मकृत्’ तुम हो। बहुधर्म वस्तु के कह हो।
निजधर्म अनंत मुझे हों। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१३।।
ॐ ह्रीं नैकधर्मकृतगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अविज्ञेय’ ही हो। जन जानन योग्य नहीं हो।
मुझे आत्म स्वभाव प्रगट हो। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१४।।
ॐ ह्रीं अविज्ञेयगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अप्रतर्क्यात्मा’। न तर्कादि गोचर महात्मा।
मुझे कीजे तुरत अंतरात्मा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१५।।
ॐ ह्रीं अप्रतर्क्यात्मगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘कृतज्ञ’ कहे हो। सभी कृत्य तुम्हीं जानते हो।
नाथ! मुझमें यही गुण प्रगट हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१६।।
ॐ ह्रीं कृतज्ञगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृतलक्षण’ आप भुवन में। वस्तु लक्षण कहते हो ध्वनि में।
मैं धारूँ सुलक्षण हृदय में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१७।।
ॐ ह्रीं कृतलक्षणगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘ज्ञानगर्भ’ तुमही हो। सब ज्ञेय सुज्ञान मही हो।
मेरा भी ज्ञान सही हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१८।।
ॐ ह्रीं ज्ञानगर्भगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘दयागर्भ’ त्रिभुवन में। तुम दयासिंधु भविजन में।
मैं धरूँ दया निजपर में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१९।।
ॐ ह्रीं दयागर्भगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘रत्नगर्भ’ मुनिनाथा। रत्न वर्षे पंचदश मासा।
मैं नमूँ नमाकर माथा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२०।।
ॐ ह्रीं रत्नगर्भगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘प्रभास्वर’ ही हो। त्रैलोक्य प्रकाशि रवी हो।
मुझ हृदय ज्ञान ज्योती हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर नामा। जिससे पावें निजातम धामा।
सर्व कर्मों का होवे खातमा। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नितही।।२१।।
ॐ ह्रीं प्रभास्वरगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पद्मगर्भ’ तुम सच में। रहे कमलाकार गरभ में।
लहूँ गर्भ प्रभो! तुम सम मैं। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२२।।
ॐ ह्रीं पद्मगर्भगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘जगद्गर्भ’ तुम भासें। तुम ज्ञान में जग प्रतिभासे।
हो ज्ञान मेरा तम नाशे। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२३।।
ॐ ह्रीं जगद्गर्भगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘हेमगर्भ’ तुम ही हो। गर्भ बसत स्वर्णमय भू हो।
मुझ रोग शोक हर तुम हो। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२४।।
ॐ ह्रीं हेमगर्भगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुदर्शन’ मानें। तुम दर्शन सुखकर जानें।
पूजत सब संकट हानें। श्रीधर्मनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२५।।
ॐ ह्रीं सुदर्शनगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-प्रहरनकलिका छंद-
प्रभु तुम ‘लक्ष्मीवन्’ भुवि गुरू हो।
अन्तर बहि संपद धर जिन हो।।
तुम जजत सुनाम सकल सुख हो।
दुख दरिद विनाश, अतुलनिधि हो।।२६।।
ॐ ह्रीं लक्ष्मीवन्गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘त्रिदशअध्यक्ष’ सुर गणपति हो।
त्रिभुवन धन भाने अतुल रवि हो।।तुम.।।२७।।
ॐ ह्रीं त्रिदशाध्यक्षगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अतुल ‘द्रढ़ीयन्’ इस जग में।
निंह तुम सम हो दृढ़ मुनि जग में।।तुम.।।२८।।
ॐ ह्रीं द्रढ़ीयन्गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब त्रिभुवन ईश तुमहि ‘इन’ हो।
मुझ सब अघ नाशत सुखप्रद हो।।तुम.।।२९।।
ॐ ह्रीं इनगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समरथयुत ‘ईशित’ तुमहि कहे।
मुझ अहित निवारण तुम पद हैं।।तुम.।।३०।।
ॐ ह्रीं ईशितृगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘मनोहर’ त्रिभुवन में।
हरि हर परब्रह्म न तुम सम हैं।।तुम.।।३१।।
ॐ ह्रीं मनोहरगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु सुभग ‘मनोज्ञांग’ अतिशय ही।
भवि जपत तुम्हें दुख विनशत ही।।तुम.।।३२।।
ॐ ह्रीं मनोज्ञांगगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय धृति ‘धीर’ भविक गण में।
तुम जपत हि पीर टरत क्षण में।।तुम.।।३३।।
ॐ ह्रीं धृतिगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय ‘गम्भीर शासन’ जग में।
शिवपद कर धर्म शरण जग में।।तुम.।।३४।।
ॐ ह्रीं गम्भीरगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभय ‘धरमयूप’ शुभ धरम हो।
सुर सुखप्रद नाथ! मुकति गृह हो।।
तुम जजत सुनाम सकल सुख हो।
दुख दरिद विनाश, अतुलनिधि हो।।३५।।
ॐ ह्रीं धर्मयूपगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहिं ‘दयायाग’ सुखप्रद हो।
सब अशुभ हरो सुअभयप्रद हो।।तुम.।।३६।।
ॐ ह्रीं दयायागगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुखद ‘धरमनेमि’ जिनवर हो।
इस जग मधि आप, धरम धुरि हो।।तुम.।।३७।।
ॐ ह्रीं धरमनेमिगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘मुनिश्वर’ मुनिपति हो।
सब गुण मणि भूषित सुखनिधि हो।।तुम.।।३८।।
ॐ ह्रीं मुनीश्वरगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘धरमचक्रायुध’ यम अरि हो।
तुम दरसन से मुझ अघ क्षय हो।।तुम.।।३९।।
ॐ ह्रीं धर्मचक्रायुधगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजगुणरत ‘देव’ सुरगप्रद हो।
मुझ गुणमणि देव परमगति हो।।तुम.।।४०।।
ॐ ह्रीं देवगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुखद ‘करमहा’ अघरिपु हन हो।
समरस सुखदा शिवतियपति हो।।तुम.।।४१।।
ॐ ह्रीं कर्महागुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुमहि ‘धरमघोषण’ शिव भरता।
अतिशय शिव के गुणमति करता।।तुम.।।४२।।
ॐ ह्रीं धर्मघोषणगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘अमोघवच’ जगत में।
तुम विरथ न वाक्य कबहुँ सच में।।तुम.।।४३।।
ॐ ह्रीं अमोघवाचगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भुवन मधि ‘अमोघाज्ञ’ तुमहि हो।
निष्फल नहिं आज्ञा सुर शिर धरयो।।तुम.।।४४।।
ॐ ह्रीं अमोघाज्ञगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु जिनवर ‘निर्मल’ शुचिकर हो।
मल विरहित कर्म रहित शिव हो।।तुम.।।४५।।
ॐ ह्रीं निर्मलगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर सु ‘अमोघशासन’ तुम हो।
नहिं निष्फल शासन कबहुंक हो।।तुम.।।४६।।
ॐ ह्रीं अमोघशासनगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘सुरूप’ असुर सुर में।
नहिं तुम सम रूप दिखत जग में।।तुम.।।४७।।
ॐ ह्रीं सुरूपगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम ‘सुभग’ महाप्रभु अतिशय हो।
बहुविध शुभ ऐश्वर गुण युत हो।।तुम.।।४८।।
ॐ ह्रीं सुभगगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कुछ पर त्याग वनन विचरें।
जिनवर तुम ‘त्यागि’ सुरन उचरें।।तुम.।।४९।।
ॐ ह्रीं यागि गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वपर समय जानकर शिव भये।
अनुपम प्रभु ‘ज्ञातृ’ शिवप्रद भये।।तुम.।।५०।।
ॐ ह्रीं ज्ञातृगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-इन्द्रवङ्काा-
स्वामी ‘समाहित’ सुसमाधि ध्यानी।
प्राणी समाधान लहें तुम्हीं से।।
श्री धर्म तीर्थंकर को जजूं मैं।
मोहारिशत्रू क्षण में नशेगा।।५१।।
ॐ ह्रीं समाहितगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘सुस्थित’ सुख से निवासा।
मुक्तीरमा आप स्वयं वरे हैं।।श्री.।।५२।।
ॐ ह्रीं सुस्थितगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरोग्य आत्मा प्रभु ‘स्वास्थ्यभाक्’ हो।
संसार व्याधी निंह पूर्णस्वस्था।।श्री.।।५३।।
ॐ ह्रीं स्वास्थ्यभाक्गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘स्वस्थ’ स्वामी भवरोग नाहीं।
आत्मस्थ हो सर्वविकार शून्या।।श्री.।।५४।।
ॐ ह्रीं स्वस्थगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नीरजस्को’ निंह कर्मधूली।
मेरे प्रभो! कर्म समूल नाशो।।श्री.।।५५।।
ॐ ह्रीं नीरजस्कोगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘निरुद्धव’ जग में कहाते।
संपूर्ण ही उत्सव इंद्र कीने।।श्री.।।५६।।
ॐ ह्रीं निरुद्धवगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी तुम्हीं कर्म ‘अलेप’ मानें।
मेरे सभी लेप हटाय दीजे।।श्री.।।५७।।
ॐ ह्रीं अलेपगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘निष्कलंकात्मन्’ इन्द्र पूजें।
मैं भी सदा शीश नमाय वंदूँ।।श्री.।।५८।।
ॐ ह्रीं निष्कलंकात्मन्गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वीतरागी’ गतराग द्वेषा।
रागादि मेरे मन से हटा दो।।श्री.।।५९।।
ॐ ह्रीं वीतरागीगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘गतस्पृह’ तुम ही यहाँ पे।
इच्छा निवारी जग के गुरू हो।।श्री.।।६०।।
ॐ ह्रीं गतस्पृहगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सु ‘वश्येन्द्रिय’ आप ही हैं।
पाँचों ही इन्द्री वश में किया था।।श्री.।।६१।।
ॐ ह्रीं वश्येंद्रियगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानें ‘विमुक्तात्मन्’ आप ही हो।
कर्मारि बन्धन तुम काट डाले।।श्री.।।६२।।
ॐ ह्रीं विमुक्तात्मन्गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नि:सपत्ना’ नहिं शत्रु कोई।
सम्पूर्ण प्राणी तुम मित्र मानें।।श्री.।।६३।।
ॐ ह्री नि:सपत्नगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जीता स्व इन्द्रीय ‘जितेन्द्रिय’ हो।
जीतूं स्व इन्द्री प्रभु शक्ति देवो।।श्री.।।६४।।
ॐ ह्रीं जितेंद्रियगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्पूर्ण शांतीश ‘प्रशांत’ माने।
वंदूँ तुम्हें शान्ति मिले मुझे भी।।श्री.।।६५।।
ॐ ह्रीं प्रशांतगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘आनन्तधामर्षि’ ऋषि गणों में।
तेजस्विता आप अनन्त धारो।।श्री.।।६६।।
ॐ ह्रीं अनन्तधामर्षिगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी यहाँ ‘मंगल’ आप ही हैं।
नाशो अमंगल भवि प्राणियों के।।श्री.।।६७।।
ॐ ह्रीं मंगलगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पापारि नाशा ‘मलहा’ कहाये।
सम्पूर्ण धोये मल कर्म जैसे।।
श्री धर्म तीर्थंकर को जजूं मैं।
मोहारिशत्रू क्षण में नशेगा।।६८।।
ॐ ह्रीं मलहागुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘अनघ’ पाप निमूल नाशा।
कीजे सभी पाप विनाश मेरा।।श्री.।।६९।।
ॐ ह्रीं अनघगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हुये ‘अनीदृक्’ निंह आप जैसा।
इन्द्रादि वन्दे रुचि से तुम्हें ही।।श्री.।।७०।।
ॐ ह्रीं अनीदृक्गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘उपमाभुत’ इन्द्र भी तो।
दें आपकी तो उपमा तुम्हीं से।।श्री.।।७१।।
ॐ ह्रीं उपमाभूतगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो भव्य भाग्योदय हेतु स्वामी।
‘दिष्टी’ कहाते जग में इसी से।।श्री.।।७२।।
ॐ ह्रीं दिष्टिगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘दैव’ प्राणी शुभ भाग्य होते।
वंदूँ तुम्हें दैव समस्त नाशूँ।।श्री.।।७३।।
ॐ ह्रीं दैवगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कैवल्यज्ञानी नभ में विहारी।
होते ‘अगोचर’ नहिं सर्व जानें।।श्री.।।७४।।
ॐ ह्रीं अगोचरगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रूपादि से शून्य ‘अमूर्त’ स्वामी।
आत्मा अमूर्तीक मिले मुझे भी।।श्री.।।७५।।
ॐ ह्रीं अमूर्तगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सुखमा-छंद-
‘मूर्तीमन्’ की पूजा करिये।
नाहीं मन में शंका धरिये।।
धर्मनाथ को पूजूँ नित ही।
व्याधी तन से भागे झट ही।।७६।।
ॐ ह्रीं मूर्तिमन्गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘एक’ तुम्हें ही साधू कहते।
दूजा निंह कोई भी तुमसे।।धर्म.।।७७।।
ॐ ह्री एकगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नानागुण की पूर्ती तुम में।
स्वामी तुम ही ‘नैक’ जगत में।।धर्म.।।७८।।
ॐ ह्रीं नानैकगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नानैकतत्त्वदृक्’ तुम ही।
आत्मा तज ना देखे कुछ ही।।धर्म.।।७९।।
ॐ ह्रीं नानैकतत्त्वदृक्गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अध्यातमगम्या’ हो प्रभु जी।
आत्म ग्रंथ से जाने मुनि जी।।धर्म.।।८०।।
ॐ ह्रीं अध्यात्मगम्यगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माने ‘अगम्यात्मा’ तुम हो।
मिथ्यादृश ना जाने तुम को।।धर्म.।।८१।।
ॐ ह्रीं अगम्यात्मागुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘योगविद्’ की जो शरणे।
मुक्तीतिय को निश्चित परणे।।धर्म.।।८२।।
ॐ ह्रीं योगविद्गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ् ‘योगिवंदित’ हो जग में।
योगि जन ध्याते भी मन में।।।धर्म.।।८३।।
ॐ ह्रीं योगिवंदितगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वत्रग’ व्यापा त्रै जग को।
सो ही ज्ञान अपेक्षा समझो।।
धर्मनाथ को पूजूँ नित ही।
व्याधी तन से भागे झट ही।।८४।।
ॐ ह्रीं सर्वत्रगगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘सदाभावी’ हो जग में।
तिष्ठो नित ना नाश स्वप्न में।।धर्म.।।८५।।
ॐ ह्रीं सदाभावीगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘त्रिकालविषयार्थ’ सुदृक् ही।
त्रैकालिक जाना सब कुछ ही।।धर्म.।।८६।।
ॐ ह्रीं त्रिकालविषयार्थगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शंकर’ भी भव्यन सुख दो।
नाशो मुझ दोषादी दुख को।।धर्म.।।८७।।
ॐ ह्रीं शंकरगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शंवद’ शं सौख्यं कर ही।
तीनों जग में वंदे मुनि भी।।धर्म.।।८८।।
ॐ ह्रीं शंवदगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! चित्त अश्व को जीता।
‘दांत’ कहाये धर्म समेता।।धर्म.।।८९।।
ॐ ह्रीं दांतगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! ‘दमी’ इंद्रियाँ दमते।
पूरी मन की इच्छा करते।।धर्म.।।९०।।
ॐ ह्रीं दमिन्गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षान्तिपरायण’ मानें तुमही।
ध्याते तुम को मृत्यु नशे ही।।धर्म.।।९१।।
ॐ ह्री क्षान्तिपरायणगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘अधिप’ बखाने जग में।
इंद्रादिक पूजें आनन्द में।।धर्म.।।९२।।
ॐ ह्रीं अधिपगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘परमानंद’ तृप्त हो।
आत्मा मुझ आनंद मगन हो।।धर्म.।।९३।।
ॐ ह्रीं परमानंदगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो नाथ! ‘परात्मज्ञ’ अतुल ही।
जाना पर को आत्मा निज भी।।धर्म.।।९४।।
ॐ ह्रीं परात्मज्ञगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो आप ‘परात्पर’ भी जग में।
श्रेष्ठो मधि श्रेष्ठाधिप सब में।।धर्म.।।९५।।
ॐ ह्रीं परात्परगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘त्रिजगद्वल्लभ’ तुम हो।
तीनों जग के मनभावन हो।।धर्म.।।९६।।
ॐ ह्रीं त्रिजगद्वल्लभगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी तुम ‘अभ्यर्च्य’ सुरन से।
सौ इंद्रन से साधू गण से।।धर्म.।।९७।।
ॐ ह्रीं अभ्यर्च्यगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘त्रिजगन्मंगलोदय’ हो।
तीनों जग में मंगल कर हो।।धर्म.।।९८।।
ॐ ह्रीं त्रिजगन्मंगलोदयगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्री’ तुम हो।
सौ इंद्रन से पूज्य चरण हो।।धर्म.।।९९।।
ॐ ह्रीं त्रिजगन्पतिपूज्यांघ्रिगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकरायअर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रीलोकाग्रशिखामणि’ जिन हो।
लोक शिखर से चूड़ामणि हो।।धर्म.।।१००।।
ॐ ह्रीं त्रिलोकाग्रशिखामणिगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अंतकृत’ दु:ख को नाशिया।
जनम मृत्यु का भी समापन किया।।
जजूं धर्मेतीर्थेश को भक्ति से।
पियूं आत्म पीयूष भी युक्ति से।।१०१।।
ॐ ह्रीं अंतकृत्गुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘कांतगू’ श्रेष्ठ वाणी धरो।
मुझे हो वचोसिद्धि ऐसा करो।।जजूँ.।।१०२।।
ॐ ह्रीं कांतगुगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महारम्य सुंदर प्रभो! ‘कांत’ हों।
त्रिलोकीपती साधु में मान्य हो।।जजूँ.।।१०३।।
ॐ ह्रीं कांतगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘चिंतामणी’ रत्न हो।
सभी इच्छती वस्तु देते सदा।।जजूँ.।।१०४।।
ॐ ह्रीं चिंतामणिगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अभीष्टद’ अभीप्सित लहें भक्त ही।
मुझे दीजिये नाथ! मुक्ती मही।।जजूँ.।।१०५।।
ॐ ह्रीं अभीष्टदगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
न जीते गये हो ‘अजित’ आप हो।
प्रभो! मोह जीतूँ यही शक्ति दो।।जजूँ.।।१०६।।
ॐ ह्रीं अजितगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘जितकामअरि’ लोक मेंं।
विषय काम क्रोधादि जीता तुम्हीं।।जजूँ.।।१०७।।
ॐ ह्रीं जितकामारिगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमित’ माप होता नहीं आपका।
अनंते गुणों की खनी आप हो।।जजूँ.।।१०८।।
ॐ ह्रीं अमितगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-शंभु छंद-
वृहद्वृहस्पति आदि नाम सौ, भक्ति भाव से नित मैं पूजूँ।
सर्व अमंगल दोष नशाकर, आधि व्याधि संकट से छूटूँ।।
भूत प्रेत डाकिनि शाकिनि भी, तुम भक्तों से दूर भगे हैं।
नित नव मंगल संपति संतति यश भाग्योदय श्रेष्ठ जगे हैं।।१।।
ॐ ह्रीं वृहद्वृहस्पत्यादिअष्टोत्तरशतगुणसमन्विताय श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय नम:।
(108 बार सुंगधित पुष्प या लवंग से जाप्य करना)
-दोहा-
लोकोत्तर फलप्रद तुम्हीं, कल्पवृक्ष जिनदेव।
धर्मनाथ तुमको नमूँ, करूँ भक्ति भर सेव।।१।।
-गीता छंद-
जय जय जिनेश्वर धर्म तीर्थेश्वर जगत विख्यात हो।
जय जय अखिल संपत्ति के, भर्ता भविकजन नाथ हो।।
लोकांत में जा राजते, त्रैलोक्य के चूड़ामणी।
जय जय सकल जग में तुम्हीं, हो ख्यात प्रभु चिंतामणी।।२।।
एकेन्द्रियादिक योनियों में, नाथ! मैं रुलता रहा।
चारों गती में ही अनादी, से प्रभो! भ्रमता रहा।।
मैं द्रव्य क्षेत्र रु काल भव, औ भाव परिवर्तन किये।
इनमें भ्रमण से ही अनंतानंत काल बिता दिये।।३।।
बहुजन्म संचित पुण्य से, दुर्लभ मनुज योनी मिली।
तब बालपन में जड़ सदृश, सज्ज्ञान कलिका ना खिली।।
बहुपुण्य के संयोग से, प्रभु आपका दर्शन मिला।
बहिरातमा औ अंतरात्मा, का स्वयं परिचय मिला।।४।।
तुम सकल परमात्मा बने, जब घातिया आहत हुए।
उत्तम अतीन्द्रिय सौख्य पा, प्रत्यक्ष ज्ञानी तब हुए।।
फिर शेष कर्म विनाश करके, निकल परमात्मा बने।
कल-देहवर्जित निकल अकल, स्वरूप शुद्धात्मा बने।।५।।
हे नाथ! बहिरात्मा दशा को, छोड़ अंतर आतमा।
होकर सतत ध्याऊँ तुम्हें, हो जाऊँ मैं परमात्मा।।
संसार का संसरण तज, त्रिभुवन शिखर पे जा बसूँ।
निज के अनंतानंत गुणमणि, पाय निज में ही बसूँ।।६।।
प्रभु के अरिष्टसेन आदिक, तेतालीस गणीश हैं।
व्रत संयमादिक धरें चौंसठ, सहस श्रेष्ठ मुनीश हैं।।
सुव्रता आदिक आर्यिका, बासठ सहस चउ सौ कहीं।
दो लाख श्रावक श्राविका, चउलाख जिनगुणभक्त ही।।७।।
इक शतक अस्सी हाथ तनु, दश लाख वर्षायू कही।
प्रभु वज्रदंड सुचिन्ह है, स्वर्णिम तनू दीप्ती मही।।
मैं भक्ति से वंदन करूँ, प्रणमन करूँ शत-शत नमूँ।
निज ‘‘ज्ञानमति’’ कैवल्य हो, इस हेतु ही नितप्रति नमूँ।।८।।
—दोहा-
तुम प्रसाद से भक्तगण, हो जाते भगवान।
अतिशय जिनगुण पायके, हो जाते धनवान।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्य धर्मनाथ का विधान करेंगे।
जिनधर्म प्राप्त करके वे भवसिंधु तिरेंगे।।
संपूर्ण रोग शोक दु:ख दूर करेंगे।
सज्ज्ञानमती पूर्ण कर शिव सौख्य भजेंगे।।१।।
-दोहा-
तीर्थंकर चक्री मदन, त्रयपद धारी ईश।
शांतिनाथ भगवान को, नमूँ-नमूँ नत शीश।।१।।
कुंथुनाथ-अरनाथ प्रभु, तीन-तीन पद नाथ।
इनके श्री चरणाब्ज को, नमूँ नमाकर माथ।।२।।
वर्तमान में वीर प्रभु, शासनपति भगवान।
इनके शासन में हुये, बहु आचार्य महान।।३।।
मूल-संघ में कुंदकुंद गुरु, अन्वय सरस्वति गच्छ।
बलात्कार गण में हुए , सूरि नमूँ मन स्वच्छ।।४।।
सदी बीसवीं के प्रथम, गुरु दिगंबराचार्य।
चरित चक्रवर्ती श्री, शांतिसागराचार्य।।५।।
इनके शिष्योत्तम श्री, वीरसागराचार्य।
पहले पट्टाचार्य गुरु, नमूँ भक्ति उर धार्य।।६।।
वीर अब्द पच्चीस सौ, चालीस जगत्प्रसिद्ध ।
पौष शुक्ल पूर्णातिथी, हस्तिनागपुर तीर्थ।।७।।
मैंने गणिनी ज्ञानमती, किया विधान प्रपूर्ण।
धर्मनाथ विधान यह, भरे सौख्य संपूर्ण।।८।।
जब तक जम्बूद्वीप की, कीर्ति जगत् में व्याप्त।
तब तक ‘‘ज्ञानमती’’ कृती, रहे विश्व विख्यात।।९।।
(इति श्रीधर्मनाथविधानं संपूर्णं ।)
वर्द्धतां जिनशासनं ।