जो स्वयं पंचाचार पालें, अन्य से पलवावते।
छत्तीस गुण धारें सदा, निज आत्मा को ध्यावते।।
ऐसे परम आचार्यवर, भवसिंधु से भवि तारते।
इस हेतु उनकी अर्चना, हित हम हृदय में धारते।।1।।
ॐ ह्री णमो आइरियाणं श्रीआचार्यपरमेष्ठिसमूह! अत्र
अवतर अवतर संवौषट् आह्नाननं।
ॐ ह्री णमो आइरियाणं श्रीआचार्यपरमेष्ठिसमूह! अत्र
तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्री णमो आइरियाणं श्रीआचार्यपरमेष्ठिसमूह! अत्र
मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टकं-भुजंगप्रयात छंद
पयोराशि का नीर निर्मल भराऊँ।
गुरू के चरण तीन धारा कराऊँ।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।1।।
ॐ ह्री णमो आइरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्यः जन्मजरामृत्यु-
विनाशनाय जलं—-।
सुगंधीत चंदन लिये भर कटोरी।
जगत्तापहर चर्चहूँ हाथ जोरी।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।2।।
ॐ ह्री णमो आइरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्यः संसारताप-
विनाशनाय चन्दनं—।
धुले श्वेत अक्षत लिये थाल भर के।
धरूँ पुंज तुम पास बहु आश धर के ।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।3।।
ॐ ह्री णमो आइरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्यः अक्षयपद-
प्राप्तये अक्षतं—।
जुही केतकी पुष्प की माल लाऊँ।
सभी व्याधि हर आप चरणों चढ़ाऊँ।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।4।।
ॐ ह्री णमो आइरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्यः कामबाण-
विध्वंसनाय पुष्पं—–।
सरस मिष्ट पक्वान्न अमृत सदृश ले।
परम तृप्ति हेतू चढ़ाऊँ तुम्हें मैं।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।5।।
ॐ ह्री णमो आइरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्यः क्षुधारोग-
विनाशनाय नैवेद्यं—–।
शिखा दीप की जगमगाती भली है।
जजत ही तुम्हें ज्ञान ज्योती जली है।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।6।।
ॐ ह्री णमो आइरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्यः मोहान्धकार-
विनाशनाय दीपं——।
अगुरु धूप खेते उड़े धूम्र नभ में।
दुरित कर्म जलते गुरू भक्ति वश तें।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।7।।
ॐ ह्री णमो आइरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्यः अष्टकर्म-
दहनाय धूपं—।
अनन्नास नींबू बिजौरा लिये हैं।
तुम्हें अर्पते सर्व वांछित लिये हैं।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।8।।
ॐ ह्री णमो आइरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्यः मोक्षफल-
प्राप्तये फलं—–।
लिये थाल में अर्घ्य है भक्ति भारी।
गुरू अर्चना है सदा सौख्यकारी।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।9।।
ॐ ह्री णमो आइरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्यः अनर्घ्यपद-
प्राप्तये अर्घ्यं—।
गुरु पद में धारा करूँ, चउसंघ शांती हेत।
शांतीधारा जगत में, आत्यंतिक सुख हेतु।।10।।
शान्तये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ प्रत्येक अर्घ्य (36 अर्घ्य)
स्वयं आचारें नित्य, पंचाचार इसीलिये।
कहलावें आचार्य, पर को आचरवावते।।1।।
इति मंडलस्योपरि तृतीय दले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
आठ भेद संयुत धरे, ज्ञानाचार महान।
उन आचार्य प्रधान को, पूजूँ श्रद्धा ठान।।1।।
ॐ ह्री ज्ञानाचारगुणसहित आचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
आठ अंग युत मोक्ष का, मूल दर्शनाचार।
इस गुणयुत आचार्य को, जजूँ भक्ति उरधार।।2।।
ॐ ह्री दर्शनाचारगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—–।
तेरह भेद समेत है, शुभ चारित्रचार।
इस गुण भूषित सूरि को, प्रणमूँ बारंबार।।3।।
ॐ ह्री चारित्रचारगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
नाना विध तप को तपें, आतमशुद्धी हेतु।
तप आचारी सूरि को, पूजूँ भक्ति समेत।।4।।
ॐ ह्री तपाचार गुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—–।
पाँच भेद संयुत कहा, वीर्याचार विशेष।
इस गुण को जो धारते, पूजूँ उन्हें हमेश।।5।।
ॐ ह्री वीर्याचार गुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—–।
क्रोध निमित्त मिलें, फिर भी समता गहें।
अंतरंग में क्षमा धार, सब कुछ सहें।।
ऐसे गुरु आचार्य, जजूँ मन लायके।
रत्नत्रय निधि लहूँ, कृपा तुम पायके।।6।।
ॐ ह्री उत्तमक्षमागुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
मृदुता गुण को लहें, मान शठ मार के।
भवि जन शरणा गहें, जगत से हार के।।
ऐसे गुरु आचार्य, जजूँ मन लायके।
रत्नत्रय निधि लहूं, कृपा तुम पायके।।7।।
ॐ ह्री उत्तममार्दवगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
माया दुर्गति सखी, त्याग आर्जव गहें।
मन वच तन को सरल करें, शिवसुख लहें।।
ऐसे गुरु आचार्य, जजूँ मन लायके।
रत्नत्रय निधि लहूं, कृपा तुम पायके।।8।।
ॐ ह्री उत्तमार्जवगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
अप्रिय कटुक कठोर, असत्य निवारते।
दशविध पालें सत्य, परम सुख पावते।।
ऐसे गुरु आचार्य, जजूँ मन लायके।
रत्नत्रय निधि लहूं, कृपा तुम पायके।।9।।
ॐ ह्री उत्तमसत्यगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
लोभ पाप का मूल, दूर से छोड़ते।
परम शौच धर शिव से, नाता जोड़ते।।
ऐसे गुरु आचार्य, जजूँ मन लायके।
रत्नत्रय निधि लहूं, कृपा तुम पायके।।10।।
ॐ ह्री उत्तमशौचधर्मसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
जीव दया धर इन्द्रिय, का निग्रह करें।
द्वादशविध संयम धर, वे भवदधि तरें।।
ऐसे गुरु आचार्य, जजूँ मन लायके।
रत्नत्रय निधि लहूं, कृपा तुम पायके।।11।।
ॐ ह्री उत्तमसंयमधर्मसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
पर से इच्छा रोकें, उत्तम तप करें।
निज आत्मा को निर्मल, कर शिवतिय वरें।।
ऐसे गुरु आचार्य, जजूँ मन लायके।
रत्नत्रय निधि लहूं, कृपा तुम पायके।।12।।
ॐ ह्री उत्तमतपोधर्मसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
उत्तम त्याग करें, रत्नत्रय दान दें।
भव्यों को चउविध दें, दान उबारते।।
ऐसे गुरु आचार्य, जजूँ मन लायके।
रत्नत्रय निधि लहूं, कृपा तुम पायके।।13।।
ॐ ह्री उत्तमत्यागधर्मसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
किंचित् भी नहिं मम, यह आकिंचन्य है।
इस गुण से त्रिभुवनपति, होते धन्य हैं।।
ऐसे गुरु आचार्य, जजूँ मन लायके।
रत्नत्रय निधि लहूं, कृपा तुम पायके।।14।।
ॐ ह्री उत्तमाकिंचन्यधर्मसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
ब्रह्मरूप निज आतम, में चर्या करें।
त्रिभुवन पूजित ब्रह्मचर्य, गुण को धरें।।
ऐसे गुरु आचार्य, जजूँ मन लायके।
रत्नत्रय निधि लहूं, कृपा तुम पायके।।15।।
ॐ ह्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
चतुराहार त्याग करके मुनि, बहु उपवास करे हैं।
बेलादिक से छह महिने तक, जल भी नहीं ग्रहे हैं।।
अनशन तप से भूषित वे गुरु, कर्मेंधन को दहते।
उनकी भक्ती पूजन करके, अतुल शक्ति हम चहते।।16।।
ॐ ह्री अनशनतपोगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
बत्तिस ग्रास पूर्ण भोजन में, एक ग्रास कम करते।
एक ग्रास लें एक सिक्थ1 लें, जो भी हो कम करते।।
अवमौदर्य करें जो सूरी, सभी प्रमाद नशावें।
उनकी भक्ती पूजन करके, हम आलस्य भगावें।।17।।
ॐ ह्री अवमौदर्यतपोगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
चर्या समय वस्तु या घर का, नियम अटपटा करते।
यदि नहिं मिले रहें उपवासी, रंच खेद नहिं करते।।
वृत्तपरीसंख्या इस तप को, करके कर्म प्रजालें।
उनकी भक्ती पूजा करके, हम निज ज्योति जगालें।।18।।
ॐ ह्री वृत्तपरिसंख्यानतपोगुण्स हिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
दूध दही घी नमक मधुर रस, सब त्यागें या कुछ को।
रसपरित्याग करन से प्रगटें, रस ऋद्धी भी उनको।।
फिर भी निज आतम अनुभव रस, अमृत स्वाद चखे हैं।
उनकी भक्ती पूजा करके, हम निज आत्म लखे हैं।।19।।
ॐ ह्री रसपरित्यागतपोगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
आर्त रौद्र दुर्ध्यान छोड़कर, धर्मध्यान करते हैं।
अतः शुद्ध एकांत जगह, स्थान शयन करते हैं।।
इस विविक्त शयनासन तप से, सब विकल्प परिहारें।
उनकी भक्ती पूजा करके, निर्विकल्प पद धारें।।20।।
ॐ ह्री विविक्तशयनासनतपोगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
नानाविध से आसन करते, तन में क्लेश बढ़े हैं।
आतापन आदिक तप तपते, निश्चल होय खडे़ हैं।।
सुखियापन तज कायक्लेश तप, करके कर्म झड़ावें।
उनकी पूजा भक्ती करके, हम निज शक्ति बढ़ावें।।21।।
ॐ ह्री कायक्लेशतपोगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—–।
अतिक्रम व्यतिक्रम अतीचार, औ अनाचार व्रत में हों।
अंतरंग तप प्रायश्चित से, शोधन सब व्रत के हों।।
गुरु के पास पाप शोधन कर, आतम शुद्ध करे हैं।
उनकी भक्ती पूजा करके, हम सब पाप हरें हैं।।22।।
ॐ ह्री प्रायश्चित्ततपोगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—–।
दर्शन ज्ञान चरित तप का जो, नितप्रति विनय करे हैं।
नित पंचम उपचार विनय से, गुरु में राग धरे हैं।।
मोक्ष महल का द्वार खोलते, वे भविजन सुविधा से।
उनकी भक्ती पूजा करके, निजपद पाऊँ तासे।।23।।
ॐ ह्री विनयतपोगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
सूरी पाठक साधूगण की, सेवा आदि करे हैं।
सर्वशक्ति से संयतजन की, वैयावृत्ति करे हैं।।
तीर्थंकर समपुण्य प्रकृति भी, संपादन कर लेते।
उनकी भक्ती पूजा करके, भवजल को जल देते।।24।।
ॐ ह्री वैयावृत्तितपोगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
अर्हत् भाषित सूत्र ग्रन्थ का, नित पठनादिक करते।
वाचन पृच्छन अनुप्रेक्षण, आम्नाय देशना करते।।
अंतस्तप स्वाध्याय पंचविध, करें करावें रुचि से।
उनकी भक्ती पूजा करके, ज्ञान बढ़ावें मुद से।।25।।
ॐ ह्री स्वाध्यायतपोगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
अंतर बाहर उपाधि त्यागकर, तप व्युत्सर्ग धरे हैं।
आतमलीन सहज वैरागी, मन का मैल हरे हैं।।
इन तपधारी संयत जन को, सुरपति शीश नमावें।
उनकी भक्ती पूजा करके, संयम निधि हम पावें।।26।।
ॐ ह्री व्युत्सर्गतपोगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
अशुभ ध्यान तज धर्मध्यान धर, निज परिणाम संभारें ।
शुक्लध्यान के हेतु निरंतर, ध्यानाभ्यास विचारें।।
चिच्चैतन्य सुधारस पीकर, अजरामर पद पावें।
उनकी भक्ती पूजा कर हम, सब दुर्ध्यान नशावें।।27।।
ॐ ह्री ध्यानतपोगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
जो इन्द्रिय के अवश, आवश्यक उन किरिया।
षट् भेदों में आदि, समता नामक चर्या।।
रागद्वेष में साम्य, सामायिक त्रय काले।
उनको अर्घ चढ़ाय, मैं पूजूँ त्रय काले।।28।।
ॐ ह्री समतावश्यकगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
तीर्थंकर चौबीस, उनकी नामादिक से।
करते स्तवन विनीत, स्तव आवश्यक ये।।
जो मुनि करें सदैव, अतिशय पुण्य कमावें।
उनको अर्घ चढ़ाय, हम भी पाप नशावें।।29।।
ॐ ह्री चतुर्विंशतिस्तवावश्यकगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
अर्हत् सिद्ध मुनीश, या उनकी हो प्रतिमा।
किन्हीं एक का नित्य, रुचिधर वंदन करना।।
आवश्यक सुखकार, वंदन नित्य करें जो।
उनको अर्घ चढ़ाय, पाऊँ लोक शिखर को।।30।।
ॐ ह्री वंदनावश्यकगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
व्रत में हों जो दोष, प्रतिक्रमण से शोधें।
दैनिक रात्रिक आदि, विधि से मल को धोते।।
भूतकाल के दोष, जो मुनि दूर करे हैं।
उनको अर्घ चढ़ाय, हम निज दोष हरे हैं।।31।।
ॐ ह्री प्रतिक्रमणावश्यकगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं–।
भाविदोष कर त्याग, प्रत्याख्यान धरें जो।
कर अहार तत्काल, चतुराहार तजें जो।।
अथवा बहुविध वस्तु, या कुछ त्याग करे हैं।
उनको अर्घ चढ़ाय, हम निज पाप हरे हैं।।32।।
ॐ ह्री प्रत्याख्यानावश्यकगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
तन से ममत निवार, कायोत्सर्ग करें जो।
क्षण मुहूर्त या वर्ष, तक भी ध्यान धरें जो।।
वे आचार्य सदैव, भविजन को सुखदाता।
उनको अर्घ चढ़ाय, मैं पूजूँ नत माथा।।33।।
ॐ ह्री कायोत्सर्गावश्यकगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
त्रयगुप्ती में मनगुप्ती, जो अधिक कठिन से निभती।
मनरोध करें शुभ माहीं, उन पूजूँ अर्घ चढ़ाहीं।।34।।
ॐ ह्री मनोगुप्तिगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
बहि अंतर जल्प निवारें,अथवा नहिं अशुभ उचारें।
वचि गुप्ती धर सूरीश्वर, मैं पूजूँ धर्मरुचीधर।।35।।
ॐ ह्री वचोगुप्तिगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
तन सुस्थिर ध्यान धरे जो,या अशुभ क्रिया न करें जो।
वे कायगुप्ति ऋषि पालें, उन पूजत हम भव टालें।।36।।
ॐ ह्री कायगुप्तिगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
जो पंचाचार धर्म दशविध, द्वादशविध तप को नित करते।
षट् आवश्यक त्रयगुप्ति सहित,छत्तिस गुण को निज में धरते।।
वे स्वयं तरें तारें पर को, आचार्य परम गुरु माने हैं।
हम उनकी पूजा कर करके, निज आतम को पहिचानें हैं।।37।।
ॐ ह्री षट्त्रिंशत्गुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः पूर्णार्घ्यं—-।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य-ॐ ह्री अर्हत्सिद्धाचार्याेपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य
चैत्यालयेभ्यो नमः।
भववारिधि में भव्य के, कर्णधार आचार्य।
गाऊँ तुम गुणमालिका, होवो मम आधार्य।।1।।
-ड्डग्विणी छंद-
मैं नमूँ मैं नमूँ मैं नमूँ सूरि को।
पाप संताप मेरा सबे दूर हो।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।1।।
शिष्य का आप संग्रह करें चाव से।
नित्य उनपे अनुग्रह करें भाव से।।
दोष लख आप निग्रह करें युक्ति से।
दण्ड दे शुद्ध करते निजी शक्ति से।।2।।
मेरुसम धीर गम्भीर हो सिन्धु सम।
सूर्य सम तेजधृत् सौम्य हो चन्द्र सम।।
मातृवत् रक्षते पितृवत् पालते।
धर्म उपदेश दे भव्य अघ टालते।।3।।
कृष्ण नीलादि लेश्या नहीं आप में।
पीत पद्मादि लेश्या रहें पास में।।
देश कुल जाति से शुद्ध हो श्रेष्ठ हो।
चार विध संघ स्वामी सदा इष्ट हो।।4।।
जन्म व्याधी हरण आप ही वैद्य हो।
कष्ट उपसर्ग से आप नहिं भेद्य हो।।
सर्व साधूगणों से सदाराध्य हो।
इन्द्रशत वंद्य भविवृंद आराध्य हो।।5।।
मूलगुण और उत्तर गुणों को धरो।
सर्व परिषह सहो मोक्ष में दृग धरो।।
नग्न मुद्रा यथाजात गुरुवर्य जी।
वस्त्र श्रृंगार विरहित धरमधुर्य जी।।6।।
रत्नत्रय युक्त फिर भी अकिंचन्य हो।
मोहग्रन्थी रहित आप निर्ग्रंथ हो।
हो कृपा सिन्धु आनन्द भंडार हो।
कर्मवन दग्ध करने को अंगार हो।।7।।
ब्रह्मचारी रहो फिर भी तुम पास में।
सर्वदा है तपस्या रमा साथ में।।
ऋद्धियाँ सिद्धियाँ तुम चरण चूमतीं।
मुक्ति लक्ष्मी सदा पास में घूमती।।8।।
जो तुम्हारे चरण की करें अर्चना।
फेर होवे कभी भी उन्हें जनम ना।।
नाथ! मैं भी करूँ भक्ति इस हेतु से।
हे गुरो! अब छुड़ावो जगत् क्लेश से।।9।।
सूरीवर गुणगण,अगणित गुणमणि, जो भविजन शिर पर धरते।
वे दुर्गति परिहर, सुगति रमावर, केवल ‘ज्ञानमती’ वरते।।10।।
ॐ ह्री णमो आयरियाणं श्रीआचार्यपरमेष्ठिभ्यः जयमाला पूर्णार्घ्यं—-।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
जो भक्ति से नवदेवता विधान करेंगे।
वे भव्य नवो निधि से भंडार भरेंगे।।
कैवल्य ‘ज्ञानमति’ से नवलब्धि वरेंगे।
फिर मोक्षमहल में अनंतसौख्य भरेंगे।।1।।
।। इत्याशीर्वादः ।।