नाथ! त्रिभुवनपती, पाई पंचमगती, इन्द्र आये।
भक्ति से आपको शिर झुकायें।।टेक.।।
आठ कर्मों को तुमने विनाशा, आठ गुण को स्वयं में प्रकाशा।
मारा यमराज को, पाया शिवराज्य को, भव मिटाये।
इन्द्र सब मिलके उत्सव मनायें।।नाथ.।।१।।
आपमें गुण अनंतों भरे हैं, आप मुक्तीरमा को वरें हैं।
आप वंदन करें, पापखंडन करें, सौख्य पायें।।
दु:ख संकट तुरत ही भगायें। नाथ.।।२।।
आप आह्वान करते विधी से, पूजते पाद पंकज रुची से।
अष्टमी भूमि पे, आप जाके बसे, कीर्ति गायें।।
कर्म बंधन कटें मुक्ति पायें।।नाथ.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
(तर्ज-ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी)
सिद्धों की शरण में आये हैं, तन मन धन अर्पण कर देंगे।
भगवान्-भगवान् तेरी भक्ती के लिए, जीवन भी समर्पण कर देंगे-२।।टेक.।।
तिहुँजग का नीर पिया, नहिं प्यास बुझा पाए।
तुम पद धारा देने, सुरगंगा जल लाए।।
निज आत्मा की शांति के लिए, जलधार समर्पण कर देंगे।।भग.।।१।।
अगणित सुरगण आके, प्रभु पूजन करते हैं।
गणधर गुरु मुनिगण भी, नित वंदन करते हैं।।
हम तेरे पावन चरणों को, निज मन दर्पण में रख लेंगे।।भग.।।२।।
समरस जल मिल जावे, इस हेतू जल पूजा।
इच्छित फल देने में, नहिं तुम सम है दूजा।।
हम प्रभु पद का आराधन कर, भव दु:ख को विसर्जन कर देंगे।।भग.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सम्यक्त्वज्ञानदर्शनवीर्यसूक्ष्मअवगाहन-अगुरुलघु-अव्याबाध-अष्टगुणसमन्विताय सिद्धाधिपतये जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धों की शरण में आये हैं, तन मन धन अर्पण कर देंगे।
भगवान्-२ तेरी भक्ती के लिए, जीवन भी समर्पण कर देंगे-२।।टेक.।।
चंदन चंदा किरणें, नहिं शीतल कर सकते।
तुम पद अर्चा करते, केशर चंदन घिसके।।
भवताप शांत करने के लिये चरणों में चर्चन कर देंगे।।भग.।।१।।
श्रावकगण मिल करके, जिनमंदिर आते हैं।
मिथ्यात्व अंधेर भगा, समकित रवि पाते हैं।।
हम विषयों की इच्छाओं को, चरणों में तर्पण कर देंगे।।भग.।।२।।
प्रभु तुम वचनामृत से, मन शीतल होता है।
मन वच तन पावन हो, सुख झरना झरता है।।
प्रभु तुम पद की पूजा करके, स्वात्मा का दर्शन कर लेंगे।।भग.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सूक्ष्मअवगाहन-अगुरुलघु-अव्याबाध-अष्टगुणसमन्विताय सिद्धाधिपतये चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धों की शरण में आये हैं, तन मन धन अर्पण कर देंगे।
भगवान्-२ तेरी भक्ती के लिये, जीवन भी समर्पण कर देंगे-२।।टेक.।।
निज सुख के खंड हुये, नहिं अक्षय पद पाये।
सित अक्षत ले करके, तुम पास प्रभो! आये।।
अविनश्वर सुख पाने के लिए, सित पुंज समर्पण कर देंगे।।भग.।।१।।
चारण ऋषि निशदिन ही, हृदयाम्बुज में ध्याते।
सुरगण विद्याधर भी, वंदन कर हरषाते।।
निज को निज में ध्याने के लिये, रागादि विसर्जन कर देंगे।।भग.।।२।।
तुम भक्ति अकेली ही, दुर्गति वारण करती।
संपूर्ण सौख्य भरके, शिवमारग में धरती।।
तुम चरणों शीश झुका करके, स्वात्मा को पावन कर लेंगे।।भग.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सम्यक्त्वज्ञानदर्शनवीर्यसूक्ष्मअवगाहन-अगुरुलघु-अव्याबाध-अष्टगुणसमन्विताय सिद्धाधिपतये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धों की शरण में आये हैं, तन मन धन अर्पण कर देंगे।
भगवान्-२ तेरी भक्ती के लिये, जीवन भी समर्पण कर देंगे।।टेक.।।
प्रभु कामदेव नृप ने, त्रिभुवन को वश्य किया।
इससे बचने हेतू, बहु सुरभित पुष्प लिया।।
निज आत्मगुणों की सुरभि हेतु, पुष्पों को समर्पण कर देंगे।।भग.।।१।।
सुर अप्सरियाँ आके, प्रभु के गुण गाती हैं।
वीणा को बजा करके, बहु पुण्य कमाती हैं।।
शुभ पुण्यार्जन करने के लिये, पापों का विसर्जन कर देंगे।।भग.।।२।।
निज आत्म रसास्वादी, मुनिगण ब्रह्मचर्य धरें।
वे परमानंद मगन, नि:शंक सदा विहरें।।
निज आत्म सुरभि पाने के लिये, दुर्भाव विसर्जन कर देंगे।।भग.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सूक्ष्म-अवगाहन-अगुरुलघु-अव्याबाध-अष्टगुणसमन्विताय सिद्धाधिपतये पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धों की शरण में आये हैं, तन मन धन अर्पण कर देंगे।
भगवान्-२ तेरी भक्ती के लिये, जीवन भी समर्पण कर देंगे-।।टेक.।।
बहुविध पक्वान्न चखे, नहिं भूख मिटा पाये।
इस हेतू चरु लेकर, तुम निकट प्रभो! आये।।
निजआत्मा की तृप्ती के लिये, नैवेद्य समर्पण कर देंगे।।भग.।।१।।
ज्ञानामृत भोजन से, मुनिगण संतृप्त हुये।
उपवास विविध करके, मन से अतिपुष्ट हुये।।
परमामृत भोजन के ही लिये, निज मन को पावन कर लेंगे।।भग.।।२।।
नानाविध व्याधि व्यथा, तन मन को कृश करती।
हे देव! तेरी पूजा, अतिशय शक्ती भरती।।
निजपरमामृत पाने के लिये, इन्द्रिय सुख तर्पण कर देंगे।।भग.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सूक्ष्म-अवगाहन-अगुरुलघु-अव्याबाध-अष्टगुणसमन्विताय सिद्धाधिपतये नैवेद्यंं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धों की शरण में आये हैं, तन मन धन अर्पण कर देंगे।
भगवान्-२ तेरी भक्ती के लिये, जीवन भी समर्पण कर देंगे।।टेक.।।
त्रिभुवन में अंधेरा है, अज्ञान तिमिर छाया।
इस हेतू दीपक ले, प्रभु पास अभी आया।।
निज ज्ञान ज्योति पाने के लिये, आरति अवतारण कर लेंगे।।भग.।।१।।
श्रुतज्ञानज्योतिधारी, मुनि वंदन करते हैं।
खेचर विद्याधरियाँ, बहु नर्तन करते हैं।।
हम निज शांति पाने के लिये, अज्ञान विसर्जन कर देंगे।।भग.।।२।।
श्रुतज्ञान परोक्ष कहा, फिर भी त्रिभुवन जाने।
भक्ती से मिल जावे, मुनि इससे भव हाने।।
कैवल्य किरण पाने के लिये, स्वात्मा का चिंतन कर लेंगे।।भग.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सूक्ष्म-अवगाहन-अगुरुलघु-अव्याबाध-अष्टगुणसमन्विताय सिद्धाधिपतये दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धों की शरण में आये हैं, तन मन धन अर्पण कर देंगे।
भगवान्-२ तेरी भक्ती के लिये, जीवन भी समर्पण कर देंगे।।टेक.।।
कर्मो ने दु:ख दिया, तुम कर्म रहित स्वामी।
अतएव धूप लेके, हम आये जगनामी।।
सब कर्म जलाने के ही लिये, यह धूप दहन हम कर देंगे।।भग.।।१।।
मुनिगण ध्यानाग्नी में, सब कर्म जलाते हैं।
श्रावक भक्ती नद में, पापों को बहाते हैं।।
समकित निधि पाने के ही लिये, मिथ्यात्व विसर्जन कर देंगे।।भग.।।२।।
बारह विध तप तप के, प्रभु तुम ही शुद्ध हुए।
कर्मांजन को धोके, प्रभु सिद्ध प्रसिद्ध हुये।।
हम आठ गुणों की पूजा कर, स्वात्मा का दर्शन कर लेंगे।।भग.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सूक्ष्म-अवगाहन-अगुरुलघु-अव्याबाध-अष्टगुणसमन्विताय सिद्धाधिपतये धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धों की शरण में आये हैं, तन मन धन अर्पण कर देंगे।
भगवान्-२ तेरी भक्ती के लिये, जीवन भी समर्पण कर देंगे।।टेक.।।
बहुविध के फल खाये, नहिं रसना तृप्त हुई।
ताजे फल ले करके, प्रभु पूजें बुद्धि हुई।।
इच्छाओं की पूर्ती के लिये, तुम ढिग फल अर्पण कर देंगे।।भग.।।१।।
सुरपति नरपति पूजें, इच्छित फल पाते हैं।
ऋषिगण चित में ध्याते, शिवपद पा जाते हैं।।
हम उत्तम फल पाने के लिए, विधिवत प्रभु अर्चन कर लेंगे।।भग.।।२।।
परमामृत के इच्छुक, प्रभु अर्चा करते हैं।
शुद्धात्मा बनने को, तुम चर्चा करते हैं।।
निज परमानंद सौख्य हेतू, प्रभु गुण यश कीर्तन कर लेंगे।।भग.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सूक्ष्म-अवगाहन-अगुरुलघु-अव्याबाध-अष्टगुणसमन्विताय सिद्धाधिपतये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धों की शरण में आये हैं, तन मन धन अर्पण कर देंगे।
भगवान्-२ तेरी भक्ती के लिये, जीवन भी समर्पण कर देंगे।।टेक.।।
मिथ्या अविरति वश हो, अरु कषाय योगों से।
कर्मों का आस्रव भी, प्रतिक्षण हो आत्मा में।।
हम आस्रव के रोधन के लिये, प्रभु अर्घ्य समर्पण कर देंगे।।भग.।।१।।
रत्नत्रय निधि स्वामी, मुनिगण तुम गुण गाते।
सम्यक्त्वरत्नधारी, सुरगण पूजें आके।।
हम रत्नत्रय प्राप्ती के लिये, तुम गुणमणि कीर्तन कर लेंगे।।भग.।।२।।
प्रभु तुम गुण की अर्चा, भवतारणहारी है।
भवदधि डूबे जन को, अवलंबनकारी है।।
संसार जलधि तिरने के लिये, प्रभु का अवलंबन ले लेंगे।।भग.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सूक्ष्म-अवगाहन-अगुरुलघु-अव्याबाध-अष्टगुणसमन्विताय सिद्धाधिपतये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप वच पवित्र गंगधार हैं।
अवगाहते जो उसमें वो भव से पार हैं।।
तुम वचनगंग से यहाँ कुछ बूंद हम भरें।
प्रभुपदकमल में धार दें संसार से तिरें।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हे नाथ! श्रुतस्कंध बगीचा महान है।
बहुविध के खिले पुष्प से अनुपम निधान है।।
कुछ पुष्प चुन के प्रभु चरण पुष्पांजलि करें।
निज गुण सुगंधि से समस्त विश्व को भरें।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
प्रभु अनंत गुण के धनी, शुद्ध सिद्ध भगवंत।
मुख्य आठ गुण को नमूँ, पुष्पांजलि विकिरंत।।१।।
अथ मंडलस्योपरि प्रथमवलये (प्रथमदले) पुष्पांजलिं क्षिपेत्।(तर्ज—आवो बच्चों तुम्हें दिखायें…..)
आवो हम सब करें अर्चना, सिद्धचक्र भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन।।टेक.।।
दर्शनमोहनी है त्रयविध, चार अनंतानूबंधी।
मोहकर्म को नाश जिन्होंने, पाया क्षायिक समकित भी।।
इस गुण से अगणित गुण पाये, उन गुणमणि श्रीमान की।
सिद्धशिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन।।१।।
वर्ण स्पर्श गंध रस विरहित, शुद्ध अमूर्तिक आत्मा है।
जिनने प्रगट किया निज गुण को, वे प्रबुद्ध परमात्मा हैं।।
गुणगाथा हम गायें निशदिन, ज्योतिपुंज महान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन।।२।।
ॐ ह्रीं सम्यक्त्वगुणसहित-अनाहतपराक्रमाय सकलकर्ममुक्तसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
आवो हम सब करें अर्चना, सिद्धचक्र भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।टेक.।।
ज्ञानावरण कर्म को नाशा, पूर्णज्ञान प्रगटाया है।
युगपत् तीन लोक त्रयकालिक, जान ज्ञानफल पाया है।।
शत इन्द्रोें से वंद्य सदा जो, उन आदर्श महान की।
सिद्धशिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।१।।
चौदह गुणस्थान से विरहित, शुद्ध निरंजन आत्मा हैं।
जिनने निज का ध्यान किया है, वे विशुद्ध परमात्मा हैं।।
मुनियों से भी वंद्य सदा हैं, उन प्रभु ज्योतिर्मान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।२।।
ॐ ह्रीं ज्ञानगुणसहित-अनाहतपराक्रमाय सकलकर्ममुक्तसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
आवो हम सब करें अर्चना, सिद्धचक्र भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।टेक.।।
सर्व दर्शनावरण घात कर, केवलदर्शन प्रगट किया।
युगपत् तीन लोक त्रैकालिक, सब पदार्थ को देख लिया।।
जिनको गणधर गुरु भी ध्याते, उन दृष्टा भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।१।।
चौदह जीवसमास सहित ये, संसारी जीवात्मा हैं।
इनसे विरहित नित्य निरंजन, शुद्ध बुद्ध परमात्मा हैं।।
योगीश्वर भी वंदन करते, सर्वदर्शि भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।२।।
ॐ ह्रीं दर्शनगुणसहित-अनाहतपराक्रमाय सकलकर्ममुक्तसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
आवो हम सब करें अर्चना, सिद्धचक्र भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।टेक.।।
अंतराय शत्रू के विजयी, शक्ति अनंती प्रगटाई।
काल अनंतानंते तक भी, तिष्ठ रहे प्रभु श्रम नाहीं।।
हम भी करते नित उपासना, अनंत शक्तीमान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।१।।
दशों द्रव्य प्राणों से प्राणी, जन्म मरण नित करता है।
निश्चयनय से शुद्ध चेतना, प्राण एक ही धरता है।।
एक प्राण के हेतु वंदना, शुद्धचेतनावान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंतगुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।२।।
ॐ ह्रीं वीर्यगुणसहित-अनाहतपराक्रमाय सकलकर्ममुक्तसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४।।
आवो हम सब करें अर्चना, सिद्धचक्र भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।टेक.।।
सूक्ष्मत्व गुण पाया जिनने, नामकर्म का नाश किया।
सूक्ष्म और अंतरित दूरवर्ती, पदार्थ को जान लिया।।
योगीश्वर के ध्यानगम्य जो, अचिन्त्य महिमावान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।१।।
आहारेन्द्रिय आयू श्वासोच्छ्वास वचन मन पर्याप्ती।
इनसे विरहित शुद्ध चिदात्मा, में असंख्य गुण की व्याप्ती।।
मुनि के हृदय कमल में तिष्ठें, उन गुणरत्न निधान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।२।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मगुणसहित-अनाहतपराक्रमाय सकलकर्ममुक्तसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
आवो हम सब करें अर्चना, सिद्धचक्र भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।टेक.।।
आयु कर्म से शून्य जिन्होंने , अवगाहन गुण पाया है।
जिनमें सिद्ध अनंतानंतों, ने अवगाहन पाया है।।
भविजन कमल खिलाते हैं जो, उन अतुल्य भास्वान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।१।।
संज्ञा हैं आहार व भय, मैथुन परिग्रह संसार में।
इनसे शून्य सिद्ध परमात्मा, तृप्त ज्ञान आहार में।।
सिद्धों का वंदन जो करते, मिले राह कल्याण की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।२।।
ॐ ह्रीं अवगाहनगुणसहित-अनाहतपराक्रमाय सकलकर्ममुक्तसिद्धपर-मेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
आवो हम सब करें अर्चना, सिद्धचक्र भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।टेक.।।
ऊँच नीच विध गोत्रकर्म को, ध्यान अग्नि में भस्म किया।
अगुरुलघू गुण से अनंत युग, तक निज में विश्राम किया।।
त्रिभुवन के गुरु माने हैं जो, उन अविचल गुणवान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।१।।
चतुर्गती के नाना दु:खों, से जो जन अकुलाये हैं।
वे ही पूजा भक्ती करने, चरण शरण में आये हैं।।
मैं भी भक्ती करके छूटूं, उन श्रीसिद्ध महान की।
सिद्धशिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।२।।
ॐ ह्रीं अगुरूलघुगुणसहित-अनाहतपराक्रमाय सकलकर्ममुक्तसिद्धपर-मेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
आवो हम सब करें अर्चना, सिद्धचक्र भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।टेक.।।
सात असाता द्विविध वेदनी, ध्यान अग्नि से जला दिया।
अव्याबाध सुखामृत पीकर, निज से निज को तृप्त किया।।
भक्ति नाव से भव्य तिरें जो, उन शुद्धात्म महान की।
सिद्धशिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।१।।
शारीरिक मानस आगंतुक, नाना दु:ख उठाये हैं।
जो इन दु:खों से विरहित हैं, शरण उन्हीं की आये हैं।।
स्वात्म सुखामृत पीने हेतू, शरण सिद्ध भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।२।।
ॐ ह्रीं अव्याबाधगुणसहित-अनाहतपराक्रमाय सकलकर्ममुक्तसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
आवो हम सब करें अर्चना, सिद्धचक्र भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन…….।।टेक.।।
शुक्लध्यान की अग्नि जलाकर, आठ कर्म को भस्म किया।
केवलज्ञान सूर्य को पाकर, आठ गुणोें को व्यक्त किया।।
सिद्धों का जो वंदन करते, मिले राह कल्याण की।
सिद्धशिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।१।।
यह अपार भवसागर भव्यों, दु:ख नीर से भरा हुआ।
इसको पार करें हम सब जन, भक्ति नाव अवलंब लिया।।
सिद्धों का जो वंदन करते, मिले राह कल्याण की।
सिद्धशिला पर तिष्ठ रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
सिद्धों को नमन-४।।२।।
ॐ ह्रीं सम्यक्त्वज्ञानदर्शनवीर्यसूक्ष्मअवगाहन-अगुरुलघु-अव्याबाध-अष्टगुणसहित-अनाहतपराक्रमेभ्य: सकलकर्ममुक्तसिद्धपरमेष्ठिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा नम:।
हे नाथ! तुम्हारे गुणमणि की, जयमाल गूूंथ कर लाये हैं।
हम आज तुम्हारे चरणों में, यह माल चढ़ाने आये हैं।।
जय जय अतीत के सिद्धों की, जय वर्तमान के सिद्धों की।
जय जय भविष्य के सिद्धों की, सब सिद्ध अनंतानंतों की।।१।।
जैसे नर कटि पर हाथ रखे, पग फैला करके खड़ा हुआ।
वैसे यह पुरुषाकार लोक, त्रैलोक्य स्वरूप विभक्त हुआ।।
त्रिभुवन के मस्तक पर ईषत्-प्राग्भारा अष्टम पृथ्वी है।
यह पूर्वापर इक राजु सात, राजू उत्तर-दक्षिण में है।।२।।
यह योजन आठ मात्र मोटी, इस भूमि मध्य है सिद्धशिला।
योजन पैंतालिस लाख प्रमित यह गोल रजतमय सिद्धशिला।।
उत्तान कटोरे सम या धवलछत्र या अर्धचंद्रसम है।
यह मधि में मोटी अठ योजन, क्रम से घट के इक प्रदेश है।।३।।
इस ऊपर वातवलय त्रय हैं, दो कोस घनोदधि वातवलय।
घनवात वलय है एक कोस , फिर ऊपर में तनुवातवलय।।
यह चारशतक पच्चीस धनुष कम, एक कोस का माना है।
या पंद्रह सौ पचहत्तर धनु का यह तनुवात२ बखाना है।।४।।
इसके व्यवहार धनुष करने को पाँच शतक से गुणा करो।
फिर पंद्रह सौ से भाजित कर पण सौ पचीस धनु प्राप्त करो।।
यह सिद्धों की उत्कृष्ट देह, दो सहस एक सौ हाथ कहा।
सबसे लघु साढ़े तीन हाथ, मध्यम सब मध्यम भेद कहा।।५।।
लघु मध्यम उत्तम अवगाहन से, सिद्ध अनंतानंत वहाँ।
तनुवातवलय के अंत भाग में, तिष्ठ रहे हैं सतत वहाँ।।
धर्मास्तिकाय के अभाव से, ये सिद्ध न आगे जा सकते ।
त्रैलोक्य गगन में चउतरफे, बस एक अलोकाकाश बसे।।६।।
ये सिद्ध सभी रस रूप गंध, स्पर्श रहित शुद्धात्मा हैं।
चिन्मय चिंतामणि कल्पवृक्ष, पारसमणि रत्न चिदात्मा हैं।।
निश्चयनय से हम सभी शुद्ध, चिन्मूरति परम चिदंबर हैं।
व्यवहार नयाश्रित संसारी, निश्चय से शुद्ध शिवंकर हैं।।७।।
निज के गुणमणि को प्रगट करें, इसलिये अर्चना करते हैं।
सज्ज्ञानमती वैवल्य करो, बस यही याचना करते हैं।।
हे नाथ! तुम्हारे गुणमणि की, जयमाल गूंथ कर लाये हैं।
हम आज तुम्हारे चरणों में, यह माल चढ़ाने आये हैं।।८।।
सिद्ध अनंतानंत को, नमत मिटे दु:ख शोक।
‘ज्ञानमती’ कलिका खिले, सुरभित हों तिहँलोक।।९।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सम्यक्त्वज्ञानदर्शनवीर्यसूक्ष्मअवगाहन-अगुरुलघु-अव्याबाध-रूपअष्टगुणसमन्वितेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्यपुष्पांजलि:।
जो भव्य सिद्धचक्र का विधान यह करें।
वे चित्स्वरूप गुण अनंतानंत को भरें।।
त्रयरत्न से ही उनको सिद्धिवल्लभा मिले।
रवि ‘‘ज्ञानमती’’ रश्मि से, जन मन कमल खिलें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।