स्थापना-स्रग्विणी छन्द
अर्चना मैं करूं श्री समयसार की, वंदना मैं करूं श्री समयसार की।
शुद्ध अध्यात्मपथ है समयसार ही, सार में सार है यह समयसार ही।।टेक.।।
तत्त्व आश्रव व संवर कहा निर्जरा, बंध के साथ संबंध सबका कहा।
चार अधिकार क्रम से ये माने गये, इन सहित पूजा कर लूँ समयसार की।।१।।
इक सौ इकतालीस गाथाएं इसमें कहीं, जो कि तीजे वलय में बताई गईं।
इनकी पूजन में आह्वान स्थापना, करके पूजन करूँ मैं समयसार की।।२।।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसारग्रंथराज!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसारग्रंथराज!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसारग्रंथराज!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अथ अष्टक-स्रग्विणी छन्द
अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की, वंदना मैं करूँ श्री समयसार की।
शुद्ध अध्यात्मपथ है समयसार ही, सार में सार है यह समयसार ही।।
जल की झारी ले पूजन में धारा करूँ, जन्म मृत्यू विनाशन की आशा करूँ।
चार अधिकार युत श्री समयसार की, अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की।।१।।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय जन्मजरामृत्यु-
विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा!
अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की, वंदना मैं करूँ श्री समयसार की।
शुद्ध अध्यात्मपथ है समयसार ही, सार में सार है यह समयसार ही।।
गंध कर्पूरमय शुद्ध केशर लिया, भाव से भव का आतप विनाशन किया।
चार अधिकार युत श्री समयसार की, अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की।।२।।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय संसारताप-
विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की, वंदना मैं करूँ श्री समयसार की।
शुद्ध अध्यात्मपथ है समयसार ही, सार में सार है यह समयसार ही।।
मोतियों के सदृश शुभ्र अक्षत लिया, अक्षयपद प्राप्ति की भावना मन किया।
चार अधिकार युत श्री समयसार की, अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की।।३।।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय अक्षयपद-
प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की, वंदना मैं करूँ श्री समयसार की।
शुद्ध अध्यात्मपथ है समयसार ही, सार में सार है यह समयसार ही।।
ताजे पुष्पों को ला थाल में भर लिया, भावों से काम विध्वंस मैंने किया।
चार अधिकार युत श्री समयसार की, अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की।।४।।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय कामबाण-
विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की, वंदना मैं करूँ श्री समयसार की।
शुद्ध अध्यात्मपथ है समयसार ही, सार में सार है यह समयसार ही।।
व्यंजनों से भरा थाल कर में लिया, पूजा करके क्षुधारोग नाशन किया।
चार अधिकार युत श्री समयसार की, अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की।।५।।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय क्षुधारोग-
विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की, वंदना मैं करूँ श्री समयसार की।
शुद्ध अध्यात्मपथ है समयसार ही, सार में सार है यह समयसार ही।।
रत्नदीपक जला मैंने आरति किया, मोह के नाश का भाव मन में लिया।
चार अधिकार युत श्री समयसार की, अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की।।६।।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय मोहांधकार-
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की, वंदना मैं करूँ श्री समयसार की।
शुद्ध अध्यात्मपथ है समयसार ही, सार में सार है यह समयसार ही।।
अग्नि में धूप की गंध मैंने किया, कर्मनाशन का शुभ भाव मन में लिया।
चार अधिकार युत श्री समयसार की, अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की।।७।।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय अष्टकर्मदहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की, वंदना मैं करूँ श्री समयसार की।
शुद्ध अध्यात्मपथ है समयसार ही, सार में सार है यह समयसार ही।।
आम अंगूर का थाल भर के लिया, मोक्षफल प्राप्ति की आश मन में किया।
चार अधिकार युत श्री समयसार की, अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की।।८।।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय मोक्षफल-
प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की, वंदना मैं करूँ श्री समयसार की।
शुद्ध अध्यात्मपथ है समयसार ही, सार में सार है यह समयसार ही।।
आठों द्रव्यों से युत अर्घ्य का थाल है, ‘‘चन्दनामति’’ झुका श्रुत के प्रति भाल है।
चार अधिकार युत श्री समयसार की, अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की।।९।।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय अनर्घ्यपद-
प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
स्वर्ण कलशे से मैं जल की धारा करूँ, आत्मशांती निमित प्रार्थना मैं करूँ।
चार अधिकार युत श्री समयसार की, अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की।।१०।।
शांतये शांतिधारा
मालती पुष्प की अंजुली मैं भरूँ, आत्मगुणपुष्प की प्रार्थना मैं करूँ।
चार अधिकार युत श्री समयसार की, अर्चना मैं करूँ श्री समयसार की।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:
-चौबोल छन्द-
समयसार मण्डल विधान में, तृतिय वलय के निकट चलो।
इसमें इक सौ इकतालीस, गाथाओं को तुम स्मरण करो।।
आस्रव संवर और निर्जरा, बंध चार अधिकार कहे।
इन्हें अर्घ्य अर्पण से पहले, पुष्पांजलि करना है हमें।।१।।
इति श्रीसमयसारमण्डलविधानस्य तृतीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(1)
मिच्छत्तं अविरमणं, कसायजोगा य सण्णसण्णा दु।
बहुविहभेया जीवे, तस्सेव अणण्णपरिणामा।।१७४।।
-शंभु छंद-
मिथ्यात्व तथा अविरति कषाय, अरु योग बंध के कारण हैं।
जो चेतन और अचेतन में, बनते आस्रव के कारण हैं।।
चैतन्य विकारी भाव जीव में, बहुत भेद युत होते हैं।
वे ही अभेद परिणाम जीव में, निश्चयनय से होते हैं।।१७४।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं आश्रवभेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(2)
णाणावरणादीयस्स, ते दु कम्मस्स कारणं होंति।
तेसिंपि होदि जीवो, य रागदोसादिभावकरो।।१७५।।
वे प्रत्यय होते हैं ज्ञाना-वरणादिक कर्मों के कारण।
रागद्वेषादि भावसंयुत, आत्मा होता उनका कारण।।
संसारी आत्मा इन कर्मों का, आस्रव प्रतिक्षण करता है।
शुद्धात्मस्वरूप मग्न होते ही, वह संवर कर सकता है।।१७५।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं रागद्वेषादिभावास्रवप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(3)
णत्थिदु आसवबंधो, सम्मादिट्ठिस्स आसवणिरोहो।
संते पुव्वणिबद्धे, जाणदि सो ते अबंधंतो।।१७६।।
निश्चय सम्यग्दृष्टि के नहिं, नूतन कर्मों का बन्ध कहा।
वह तो कर्मों का ही निरोध, करता निज आतम लीन रहा।।
बस पूर्वबद्ध सत्तास्वरूप, कर्मों को जाना करता है।
लेकिन नवीन कर्मों का नहिं, वह बन्ध स्वयं कर सकता है।।१७६।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं ज्ञानिनां आश्रवाभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(4)
भावो रागादिजुदो, जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो।
रायादिविप्पमुक्को, अबंधगो जाणगो णवरिं।।१७७।।
रागादियुक्त अज्ञानभाव ही, कर्म नवीन बंधाता है।
रागादिरहित जो ज्ञानभाव, नहिं नये कर्म बंधवाता है।।
वह तो केवल ज्ञायक स्वरूप, पर का संसर्ग नहीं उसमें।
चैतन्यचमत्कारी आत्मा है, शुद्ध न किंचित् दुख उसमें।।१७७।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं रागादिभावरहितज्ञायकभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(5)
पक्के फलह्मि पडिए, जह ण फलं बज्झए पुणो विंटे।
जीवस्स कम्मभावे, पडिए ण पुणोदयमुबेई।।१७८।।
जैसे फल के पक जाने पर, जब वह तरु से गिर जाता है।
तब पुन: वृक्ष की डाली से, संबंध नहीं जुड़ पाता है।।
वैसे ही कर्म भाव पककर, जब आत्मा से झड़ जाते हैं।
वे पुन: उदय को प्राप्त न हों, निर्जरा तत्त्व कहलाते हैं।।१७८।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं पक्वफलपतनवत्कर्मनिजराप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(6)
पुढवीपिंडसमाणा, पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स।
कम्मसरीरेण दु, ते बद्धा सव्वेपि णाणिस्स।।१७९।।
उस वीतराग सम्यग्दृष्टी ने, पूर्व कर्म जो बांधे हैं।
वे पृथ्वीपिंड सदृश अकार्य-कारी प्रत्यय हो जाते हैं।।
जो यथाख्यात चारित्रयुक्त, ज्ञानी आत्मा बन जाते हैं।
उनके कार्माण शरीर रूप से, कर्म सभी रह जाते हैं।।१७९।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं पृथ्वीपिण्डवत्ज्ञानिनां द्रव्यकर्मास्रवाभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(7)
चहुविह अणेयभेयं, बंधंते णाणदंसणगुणेहिं।
समये समये जह्मा, तेण अबंधोत्ति णाणी दु।।१८०।।
मिथ्यात्व तथा अविरति कषाय, अरु योग बन्ध के कारण हैं।
आत्मा के दर्शन ज्ञान गुणादिक, कर्मबन्ध निरवारण हैं।।
प्रति समय समय पर नव कर्मों को, जीव बांधता रहता है।
ज्ञानी तो स्वयं अबंधक है, इसलिये कर्म नहिं बंधता है।।१८०।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं ज्ञानदर्शनगुणाभ्यां निरास्रवभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(8)
जह्मा दु जहण्णादो, णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि।
अण्णत्तं णाणगुणो, तेण दु सो बंधगो भणिदो।।१८१।।
जीवात्मा का गुण ज्ञान जघन्य, अवस्थाजब तक पाता है।
नहिं यथाख्यात चारित्र मिला, अन्यान्य रूप बन जाता है।।
गुणथान दशम तक वही जीव, कर्मों का बन्ध किया करता।
फिर यथाख्यात चारित पाकर, कर्मों से मुक्त हुआ करता।।१८१।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं कर्माश्रवकारणजघन्यज्ञानगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(9)
दंसणणाणचरित्तं, जं परिणमदे जहण्णभावेण।
णाणी तेण दु बज्झदि, पुग्गलकम्मेण विविहेण।।१८२।।
संज्ञानी के दर्शन सुज्ञान, चारित्र जघन्य जहाँ तक हैं।
रत्नत्रय की संपूर्ण अवस्था, प्राप्त न होती तब तक है।।
इस कारण ज्ञानी आत्मा के, पौद्गलिक कर्म बंधते रहते।
बिन यथाख्यात चारित्र हुए, मुनि आत्मसौख्य वंचित रहते।।१८२।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं सरागचारित्रसहितजघन्यभावपरिणतज्ञानगुणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(10)
सव्वे पुव्वणिबद्धा, दु पच्चया संति सम्मदिट्ठिस्स।
उवओगप्पाओगं, बंधंते कम्मभावेण।।१८३।।
जो पूर्वबद्ध प्रत्यय ज्ञानी के, निज सत्ता में रहते हैं।
उपयोग युक्त यदि होते वे, तो कर्म रूप से बंधते हैं।।
लेकिन केवल सत्ता कर्मों का, बन्ध नहीं करवा सकती।
रागादि भाव नहिं होने से, कर्मों की स्थिति नहिं पड़ती।।१८३।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं पूर्वनिबद्धकर्मभावेन उपयोगप्रयोगरूपबंधप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(11)
संति दु णिरुवभोज्जा, बाला इत्थी जहेव पुरिसस्स।
बंधदि ते उवभोज्जे, तरुणी इत्थी जह णरस्स।।१८४।।
जैसे बाला स्त्री नर के, नहिं भाव विकारी कर सकती।
वैसे सत्ता में पड़े कर्म को, आत्मा नहिं अनुभव करती।।
लेकिन जैसे तरुणी स्त्री, नर को बन्धन में करती है।
वैसे ही उदय अवस्था कर्मों, के बन्धन को करती है।।१८४।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं अनुपभोग्यकन्यावत्सत्त्वस्थितकर्मप्रत्ययप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(12)
होदूण णिरुवभोज्जा, तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा।
सत्तट्ठविहा भूदा, णाणावरणादिभावेहिं।।१८५।।
जो वीतराग सम्यग्दृष्टी, वह कर्मबन्ध नहिं करता है।
जो है सराग सम्यग्दृष्टी, वह कर्मबन्ध नित करता है।।
यह जीव नित्य ज्ञानावरणादिक, सात कर्म बांधा करता।
अरु आयुबन्ध के समय अष्टविध, कर्म स्वयं बांधा करता।।१८५।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं उपभोग्यतरुणीस्त्रीवत्उदयागतकर्मप्रत्ययप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(13)
एदेण कारणेण दु, सम्मादिट्ठी अबंधगो होदि (भणिदो)।
आसवभावाभावे, ण पच्चया बंधगा भणिदा।।१८६।।
रागादि भाव का जब अभाव, जीवात्मा में हो जाता है।
तब प्रत्यय बंध नहीं करते, नहिं आश्रव भी हो पाता है।।
इस कारण वीतराग सम्यग्दृष्टी बंधक नहिं कहलाता।
आस्रव भावों के नहिं होने से, सदा अबन्धक कहलाता।।१८६।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं रागादिभावरहितसम्यग्दृष्टिजीवप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(14)
रागो दोषो मोहो, य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स।
तह्मा आसवभावेण, विणा हेदू ण पच्चया होंति।।१८७।।
सम्यग्दृष्टी के राग द्वेष, अरु मोह भाव भी नहिं होते।
क्योंकि आस्रव के बिना सभी, प्रत्यय भी बंधक नहिं होते।।
जब तक जीवात्मा में राग-द्वेषादि भाव आते रहते।
तब तक वे जीव सरागी हैं, नहिं वीतरागि कहला सकते।।१८७।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं आश्रवभावरहितकर्मबंधाभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(15)
हेदू चदुव्वियप्पो, अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं।
तेसिं पि य रागादी, तेसिमभावे ण बज्झंति।।१८८।।
मिथ्यात्व तथा अविरति कषाय, अरु योग चार ये बन्ध हेतु।
ये ही ज्ञानावरणादि आठ, कर्मों के होते बन्ध हेतु।।
क्योंकि ये प्रत्यय रागहेतु, रागादि बिना नहिं बंधते हैं।
देखो वैसा विधि का विधान, ये बिना निमित्त नहिं बंधते हैं।।१८८।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं मिथ्यात्वादिप्रत्ययनिमित्तेनोत्पन्नाष्ट कर्मप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(16)
जह पुरिसेणाहारो, गहिओ परिणमइ सो अणेयविहं।
मंसवसारुहिरादी, भावे उयरग्गिसंजुत्तो।।१८९।।
जैसे कोई नर भोजन को, सर्वांश ग्रहण जब करता है।
जठराग्नी का सुयोग पाकर, वह नानाविध परिणमता है।।
वह भोजन मांस रुधिर वसादि, रस रूप स्वयं बन जाता है।
जिसके द्वारा पुरुषार्थशील, नर को पहचाना जाता है।।१८९।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं गृहीताहारनिमित्तेन विविधरसपरिणमनवत्कर्माहारप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(17)
तह णाणिस्स दु पुव्वं, जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं।
बज्झंते कम्मं ते, णयपरिहीणा उ ते जीवा।।१९०।।
वैसे ही ज्ञानी संसारी, ने पूर्वकर्म जो बाँधे हैं।
मिथ्यात्व आदि प्रत्यय अनेक, जीवात्मा के संग आते हैं।।
वे जीव शुद्ध नय से विरहित, नूतनकर्मों से बंधते हैं।
इसलिए उन्हें सर्वज्ञदेव, अज्ञानी प्राणी कहते हैं।।१९०।।
सोरठा- यह आश्रव अधिकार, कुन्दकुन्द गुरु ने कहा।
तज इसको सुखसार, लहूँ अर्घ्य श्रुत को चढ़ा।।
ॐ ह्रीं पूर्वकर्मवशात्नूतनकर्मबन्धभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(18)
उवओए उवओगो, कोहादिसु णत्थि कोवि उवओगो।
कोहे कोहो चेव हि, उवओगे णत्थि खलु कोहो।।१९१।।
-शंभु छंद-
उपयोग में ही उपयोग कहा, क्रोधादि में नहिं उपयोग कहा।
क्रोधादि में ही क्रोधादि रहें, उपयोग में नहिं क्रोधादि कहा।।
यद्यपि व्यवहार नयाश्रय से, उपयोग में ही क्रोधादि रहें।
लेकिन निश्चयनय कहता है, दोनों ही भिन्न स्वरूप लहें।।१९१।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं कर्मनिरोधकारणसंवरतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(19)
अट्ठवियप्पे कम्मे, णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो।
उवओगह्मि य कम्मं, णोकम्मं चावि णो अत्थि।।१९२।।
नहिं कर्म और नोकर्मों में भी, होता है उपयोग कभी।
उपयोग में भी नहिं होते हैं, वे कर्म और नोकर्म कभी।।
यह शुद्धात्मा की कथनी है, उसमें न कर्म नोकर्म रहें।
लेकिन संसारी आत्मा का, उपयोग कर्म के संग रहे।।१९२।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं शुद्धाशुद्धात्मनो: कर्मनोकर्मव्यवस्थाप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(20)
एयं तु अविवरीदं, णाणं जइया उ होदि जीवस्स।
तइया ण किंचि कुव्वदि, भावं उवओगसुद्धप्पा।।१९३।।
ऐसा सत्यार्थ ज्ञान जब जिस, भव्यात्मा में हो जाता है।
तब वह परभावों को भी नहिं, करता निज में खो जाता है।।
ऐसी शुद्धात्म अवस्था मुनि को, क्षपक श्रेणि में लाती है।
इससे विपरीत धारणा प्राणी, को भव भ्रमण कराती है।।१९३।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं संसारावस्थाछेदकशुद्धोपयोगभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(21)
जह कणयमग्गितवियं, पि कणयहावं ण तं परिच्चयइ।
तह कम्मोदयतविदो, ण जहदि णाणी उ णाणित्तं।।१९४।।
ज्यों अग्नि में तपकर सोना, असली सोना बन जाता है।
स्वर्णत्व भाव को नहिं तजने से, सोना ही कहलाता है।।
त्यों ही कर्मोदय से पीड़ित, ज्ञानी यदि ज्ञान न तजता है।
तब ही वह सच्चा ज्ञानी है, नहिं कर्म बंध फिर करता है।।१९४।।
सोरठा– है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं तप्तायमानस्वर्णमिव कर्मोदयतप्तात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(22)
एवं जाणइ णाणी, अण्णाणी मुणदि रायमेवादं।
अण्णाणतमोच्छण्णो, आदसहावं अयाणंतो।।१९५।।
ज्ञानी यह भली भांति जानें, अज्ञानी रागयुक्त होता।
वह तो पर में ही निज बुद्धि, करके निज आत्मा को खोता।।
अज्ञान तिमिर से अन्ध सदृश, अज्ञानी की परिणति होती।
आत्मस्वभाव को जाने बिन नहिं, संवर की परिणति होती।।१९५।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं संवरतत्त्वं प्रति-अज्ञानिज्ञानिनो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(23)
सुद्धं तु वियाणंतो, सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो।
जाणंतो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहइ।।१९६।।
शुद्धात्मतत्त्व के ज्ञाता ही, निज शुद्धात्मा को पाते हैं।
वे कर्मों का संवर करते, आश्रव को दूर भगाते हैं।।
लेकिन जो अज्ञानी अशुद्ध, आत्मा को ही जाना करते।
वे उस अशुद्ध आत्मा को ही, पाते आस्रव में रत रहते।।१९६।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं शुद्धात्मोपलब्धिरूपसंवरतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(24)
अप्पाणमप्पणा रुंधि-ऊण दो पुण्णपावजोएसु।
दंसणणाणह्मि ठिदो, इच्छाविरओ य अण्णह्मि।।१९७।।
जो प्राणी आत्मा को आत्मा के द्वारा पाप क्रियाओं से।
छुड़वाता पुण्यक्रिया को भी रत हो चैतन्य क्रियाओं में।।
दर्शन ज्ञानावस्थित होकर पर में नहिं वांछा करता है।
आस्रव को तजकर वही मुनी संवर सुतत्त्व आचरता है।।१९७।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं ज्ञानावस्थितमुने: संवरतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(25)
जो सव्वसंगमुक्को, झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा।
णवि कम्मं णोकम्मं, चेदा चेयेइ एयत्तं।।१९८।।
जो सर्वपरिग्रह को तजकर, निज आत्मा को ही ध्याते हैं।
वे मुनि आत्मा के द्वारा ही, आत्मानंदामृत पाते हैं।।
जो कर्म और नोकर्मों के भी, नहिं कर्ता कहलाते हैं।
वे चेतन सुख के उपभोक्ता, एकत्व अवस्था पाते हैं।।१९८।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं सर्वपरिग्रहरहितमुने: चैतन्यसुखप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(26)
अप्पाणं झायंतो, दंसणणाणमओ अणण्णमओ।
लहइ अचिरेण अप्पाण-मेव सो कम्मपविमुक्कं।।१९९।।
वे दर्शनज्ञानमयी अनन्य, आत्मीय ध्यान को करते हैं।
इसलिए अन्य द्रव्यादिक में, परिणमन नहीं वे करते हैं।।
शीघ्रातिशीघ्र वे कर्मरहित, आत्मा की प्राप्ति करते हैं।
ऐसे परिणामों से संयुत, मुनिवर ही संवर करते हैं।।१९९।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं शीघ्रमेव आत्मतत्त्वप्रापकसंवरतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(27)
उवदेसेण परोक्खं, रूवं जह पस्सिदूण णादेदि।
भण्णदि तहेव धिप्पदि, जीवो दिट्ठो य णादो य।।२००।।
जैसे परोक्ष उपदेशों से, रूपादिज्ञान हो जाता है।
मानों उसको ही देख लिया, ऐसा अनुभव हो जाता है।।
बस उसी तरह यह जीवतत्त्व, वचनों के द्वारा कहलाता।
उसको ही चेतन जीव समझ, उस पर विश्वास किया जाता।।२००।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं परोक्षउपदेशात् रूपादिज्ञानवत्चैतन्यभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(28)
कोविदिदच्छो साहू, संपडिकाले भणिज्ज रूवमिणं।
पक्चक्खमेव दिट्ठं, परोक्खणाणे पवट्ठंतं।।२०१।।
क्या वर्तमान में आत्म तत्त्व, छद्मस्थ प्राप्त कर सकते हैं।
क्या कोई ज्ञानवान साधू, यह प्रतिपादन कर सकते हैं।।
क्योंकि इसका साक्षात्कार, वैवल्यज्ञान में होता है।
केवल परोक्ष संवेदन से, कुछ ज्ञान उसे भी होता है।।२०१।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं परमज्ञानिसाधुना परोक्षसंवेदनज्ञानप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(29)
तेसिं हेऊ भणिदा, अज्झवसाणाणि सव्वदरसीहिं।
मिच्छत्तं अण्णाणं, अविरयभावो य जोगो य।।२०२।।
उन रागद्वेष अरु मोह रूप, आस्रव के हेतु बताए हैं।
मिथ्यात्व और अज्ञान अविरती, योग चार कहलाए हैं।।
ये चारों अध्यवसान जीव में, आस्रव को करवाते हैं।
इनके बिन आस्रव नहिं होता, सर्वज्ञदेव बतलाते हैं।।२०२।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं मिथ्याविरतिआदिहेत्वभावे प्रगटमानसंवरतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(30)
हेउ अभावे णियमा, जायदि णाणिस्स आसवणिरोहो।
आसवभावेण विणा, जायदि कम्मस्स वि णिरोहो।।२०३।।
हेतू बिन ज्ञानी के अवश्य, आस्रव निरोध हो जाता है।
आस्रवभावों के बिना कर्म, का भी निरोध हो जाता है।।
कर्मों के रुकते ही प्राणी, निज में निज को पा जाता है।
नूतन कर्मों का बंध नहीं, होता संवर कहलाता है।।२०३।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं अहेतुभावेन आश्रवनिरोधरूपसंवरतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(31)
कम्मस्साभावेण य, णोकम्माणं पि जायइ णिरोहो।
णोकम्मणिरोहेण य, संसारणिरोहणं होइ।।२०४।।
जब कर्मनिरोध हुआ तब ही, नोकर्मों का रोधन होता।
नोकर्म रोध हो जाने से, संसार भ्रमण रोधन होता।।
ऐसे क्रम से संवर करके, इक दिन परमात्मा बन जाता।
इस संवर के बल से आत्मा, निर्जरा मोक्ष भी प्रगटाता।।२०४।।
सोरठा- है संवर अधिकार, कहा छठा गुरुदेव ने।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, पाऊँ आतमदेव मैं।।
ॐ ह्रीं नोकर्मनिरोधरूपसंवरतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(32)
उवभोज्जमिंदियेहिं, दव्वाणमचेदणाणमिदराणं।
जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं।।२०५।।
-शंभु छंद-
जो सम्यग्दृष्टि इन्द्रियों से, चेतन व अचेतन द्रव्यों का।
उपभोग किया करता तो भी, वह कर्म निर्जरा को करता।।
उस वीतरागि सम्यग्दृष्टी को, रागद्वेष मोहादि नहीं।
इसलिए निमित्तादिक मिलने पर, भी उसको निर्जरा कही।।२०५।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दृष्टिजीवानां निर्जरानिमित्तप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(33)
दव्वे उवभुज्जंते, णियमा जायदि सुहं च दुक्खं च।
तं सुहदुक्खमुदिण्णं, वेददि अथ णिज्जरं जादि।।२०६।।
उपभोग द्रव्य का करने से, सुख-दुख उत्पन्न नियम से हों।
उन उदय प्राप्त सुख-दु:खों को, अनुभव करता स्वयमेव अहो।।
इसके पश्चात् वही सुख-दुख, निर्जरा रूप हो जाते हैं।
सम्यग्ज्ञानी के सभी भाव, बिन बन्धन के झड़ जाते हैं।।२०६।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं भावनिर्जराप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(34)
जह विसमुवभुज्जंता, विज्जा पुरिसा ण मरणमुवयंति।
पुग्गलकम्मस्सुदयं, तह भुंजदि णेव वज्झदे णाणी।।२०७।।
जैसे इक वैद्य पुरुष विष को, खाने पर भी नहिं मरता है।
क्योंकि विष एक रसायन बन, मारण शक्ति को हरता है।।
बस इसी तरह ज्ञानी आत्मा, पुद्गलकर्मों को भोक्ता है।
विरती भावों से कर्म भोगकर, भी उनसे नहिं बँधता है।।२०७।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानसामर्थ्यप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(35)
जह मज्जं पिवमाणो, अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो।
दव्वुवभोगे अरदो, णाणी वि ण वज्झदि तहेव।।२०८।।
ज्यों अरतिभाव से कोई पुरुष, औषधि में मदिरा पान करे।
तो भी मतवाला नहिं होता, यह विरति भाव महात्म्य अरे।।
वैसे ही ज्ञानी विरत भाव से, अशनपान आदिक करता।
वह मुनि विरक्ति की शक्ति से, कर्मों का बन्ध नहीं करता।।२०८।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं ज्ञानिनां वैराग्यसामर्थ्यप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(36)
सेवंतो वि ण सेवदि, असेवमाणो वि सेवगो कोवि।
पगरणचेट्ठा कस्सवि, ण य पायरणोत्ति सो होदि।।२०९।।
कोई तो विषयों का सेवन, करने पर भी सेवक नहिं है।
कोई सेवन नहिं करने पर भी, सेवक संज्ञा से युत है।।
प्रकरण के भी अनुसार किसी की, कार्यचेष्टा दिखती है।
फिर भी स्वामित्व भाव नहिं होने, से विरक्ति ही रहती है।।२०९।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निर्विकारस्वसंवेदकवैराग्यशक्तिस्वरूपप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(37)
उदयविवागो विविहो, कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं।
ण दु ते मज्झ सहावा, जाणगभावो दु अहमिक्को।।२१०।।
कर्मों का उदय विपाक जिनेश्वर, ने है विविध प्रकार कहा।
मेरे स्वभाव वे भी नहिं हैं, मैंने तो सहज स्वभाव लहा।।
मैं तो बस एक मात्र ज्ञायक, चैतन्यरूप परमात्मा हूँ।
ज्ञानी ऐसा चिन्तन करता, मैं कर्मरहित शुद्धात्मा हूँ।।२१०।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं कर्मोदयफलेष्वपि ज्ञायकभावस्वरूपप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(38)
पुग्गलकम्मं रागो, तस्स विवागोदओ हवदि एसो।
ण दु एस मज्झ भावो, जाणगभावो दु अहमिक्को।।२११।।
सम्य्ाग्दृष्टी निज पर के भेद, ज्ञान में तत्पर रहता है।
है पुद्गल कर्म राग उसका, फल उदय स्वयं अनुभवता है।।
फिर भी ये मेरे भाव नहीं, नहिं इन भावों का कर्त्ता मैं।
मैं ज्ञायक एक स्वभावी हूँ, अगणित गुणमणि का भर्त्ता मैं।।२११।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयेन अहमिक्कोजाणगभावोगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(39)
पुग्गलकम्मं कोहो, तस्स विवागोदयो हवदि एसो।
ण दु एस मज्झ भावो, जाणगभावो दु अहमिक्को।।२१२।।
सम्यग्दृष्टी निज पर के भेद, ज्ञान में तन्मय रहता है।
है पुद्गलकर्म क्रोध उसका, फल उदय स्वयं अनुभवता है।।
फिर भी ये भाव न आत्मा के, नहिं इन भावों का कर्ता है।
वह ज्ञायक एक स्वभावी है, अगणित गुणमणि का भर्ता है।।२१२।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया क्रोधभावरहितशुद्धज्ञायकभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(40)
कह एस तुज्झ ण हवदि, विविहो कम्मोदयफलविवागो।
परदव्वाणुवओगो, ण दु देहो हवदि अण्णाणी।।२१३।।
नाना कर्मोदय फलविपाक, तेरे स्वभाव वैâसे नहिं हैं ?
तू ही तो उनका कर्त्ता है, तो भोक्ता भी वैâसे नहिं है ?
ऐसा पूछे जाने पर ज्ञानी, सब पर को जड़ कहता है।
सारे औपाधिक भाव और, निज तन को भी पर कहता है।।२१३।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं नानाकर्मोदयफलानि आत्मद्रव्यात्पृथक्प्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(41)
एवं सम्माइट्ठी, अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं।
उदयं कम्मविवागं, य मुअदि तच्चं वियाणंतो।।२१४।।
यों सम्यग्दृष्टि निजात्मा को, ज्ञायक स्वभाव मय जान रहा।
वह वस्तु तत्त्व के यथारूप को, जान रहा अरु मान रहा।।
इस ज्ञान के प्रतिफल में वह कर्म, विपाक आदि भी तज देता।
तत्त्वों का ज्ञाता हो करके, निज सहज रूप को वर लेता।।२१४।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं आत्मस्वभावज्ञायकसम्यग्दृष्टिजीवस्य ज्ञानवैराग्यप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(42)
परमाणुमित्तयंपि य, रागादीणं तु विज्जदे जस्स।
णवि सो जाणदि अप्पा-णयं तु सव्वागमधरोवि।।२१५।।
जिस प्राणी के रागादि भाव का, लेशमात्र भी रहता है।
वह सर्वागम का ज्ञानी भी, आत्मा को नहिं लख सकता है।।
आगम का ज्ञान मात्र उसका, कल्याण नहीं कर सकता है।
आत्मा में ही रम जाने पर, वह वीतराग बन सकता है।।२१५।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं परमाणुमात्रमपि रागीसर्वागमधरोऽपि अज्ञानीइतिप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(43)
अप्पाणमयाणंतो, अणप्पयं चेव सो अयाणंतो।
कह होदि सम्मदिट्ठी, जीवाजीवे अयाणंतो।।२१६।।
निज आत्मा को जो नहिं जाने, वह पर को नहिं लख सकता है।
निज पर को जाने बिन सम्यग्दृष्टि वैâसे बन सकता है।।
पर द्रव्य और परभावों से, जो भिन्न स्वयं को जान रहा।
वह ही सच्चा सम्यग्दृष्टी, भगवान स्वयं को ध्याय रहा।।२१६।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयेन रागीजीवस्य सम्यक्त्वाभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(44)
आदह्मि दव्वभावे, अथिरे मोत्तूण गिण्ह तव णियदं।
थिरमेगमिमं भावं, उपलब्भंतं सहावेण।।२१७।।
आत्मा के अपद द्रव्यभावों, को तज निज भाव ग्रहण कर ले।
निश्चित सुस्थिर वह एक तथा, स्वाभाविक भाव प्राप्त कर ले।।
प्रत्यक्ष रूप अनुभव गोचर, चैतन्यमात्र आत्मा भजले।
हे भव्य! यही तेरा पद है, बस इस पद में ही तू रम ले।।२१७।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं स्थिरपरमात्मपदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(45)
आभिणिसुदोहिमणकेवलं, च तं होदि एक्कमेव पदं।
सो एसो परमट्ठो, जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि।।२१८।।
जो मति श्रुत अवधि मन:पर्यय, केवल ये पाँच ज्ञान भी हैं।
इन सभी भेद से युक्त ज्ञान, बस एक ज्ञान पद युत ही है।।
ऐसा वह जो परमार्थ ज्ञान, वह मोक्ष प्राप्त करवाता है।
वास्तव में आत्मा और ज्ञान जब, एक रूप बन जाता है।।२१८।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं परमार्थज्ञानप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(46)
णाणगुणेहिं विहीणा, एदं तु पदं बहूवि ण लहंति।
तं गिण्ह सुपदमेदं, जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं।।२१९।।
हे भव्य! ज्ञानगुण हीन कोई, इस पद को प्राप्त न कर सकते।
तुम उसको निश्चित ग्रहण करो, यदि चाहो मुक्ती कर्मों से।।
इस ज्ञान रहित बहु प्राणीगण, कितने ही पुण्य कर्म करते।
लेकिन शुद्धात्म ध्यान के बिन, परमातम पद को नहिं वरते।।२१९।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं ज्ञानगुणविहीनप्राणिनां परंपदप्राप्तियोग्यताऽभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(47)
एदह्मि रदो णिच्चं, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदह्मि।
एदेण होहि तित्तो, होहदि उत्तमं सुक्खं।।२२०।।
इस ज्ञान में ही रत हो जाओ, संतुष्ट इसी से हो जाओ।
इसमें ही तृप्त सदा होकर, निज में ही सुस्थिर हो जाओ।।
बस उत्तम सुख तो यह ही है, जिसके पश्चात् न दु:ख आता।
ज्ञानात्मा में रम जाने पर, जग से न रहा तेरा नाता।।२२०।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं उत्तमसौख्यप्राप्तिहेतुज्ञानगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(48)
को णाम भणिज्ज बुहो, परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं।
अप्पाणमप्पणो, परिग्गहं तु णियदं वियाणंतो।।२२१।।
है कौन सुधी ऐसा जो पर, द्रव्यों को अपना कह सकता ?
जो आत्मा को ही आत्मपरिग्रह, मान उसी में रम सकता।।
पर को अपना कहने वाला, ज्ञानी पण्डित नहिं हो सकता।
शुद्धात्मध्यान में लीन साधु ही, पर भावों को खो सकता।।२२१।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं ज्ञानिआत्मना परद्रव्यग्रहणाभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(49)
मज्झं परिग्गहो जइ, तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज।
णादेव अहं जह्मा, तह्मा ण परिग्गहो मज्झ।।२२२।।
यदि अन्य परिग्रह मेरा हो, तो वैâसे जीव कहाऊँगा।
मैं खुद अजीवपन को पाकर, जड़ता को ही पा जाऊँगा।।
अतएव परिग्रह नहिं मेरा, क्योंकी मैं ज्ञाता दृष्टा हूँ।
ज्ञायक स्वभाव में ही रमकर, परद्रव्य ग्रहण नहिं करता हूँ।।२२२।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं परद्रव्यग्रहणाभावरूपज्ञातादृष्टागुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(50)
छिज्जदु वा भिज्जदु वा, णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं।
जह्मा तह्मा गच्छदु, तहावि ण परिग्गहो मज्झ।।२२३।।
छिद जावे भिद जावे अथवा, कोई भी उसको ले जावे।
हो नष्ट किसी भी तरह कहीं भी, किन्हीं युक्ति से हो जावे।।
तो भी उन पर द्रव्यों को मैं, कथमपि स्वीकार न कर सकता।
प्रत्येक द्रव्य निज सत्ता तज, परद्रव्य-रूप नहिं परिणमता।।२२३।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं शुद्धनिश्चयनयापेक्षया अच्छेद्य-अभेद्यस्वात्मगुणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(51)
अपरिग्गहो अणिच्छो, भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्मं।
अपरिग्गहो दु धम्मस्स, जाणगो तेण सो होदि।।२२४।।
ज्ञानी विराग सम्यग्दृष्टी ने, पूर्ण परिग्रह त्याग दिया।
मनवचनकाय से परिग्रह की, इच्छा का भी परित्याग किया।।
इस ही कारण उस ज्ञानी के, नहिं धर्म परिग्रह की इच्छा।
बस मात्र धर्म का ज्ञायक जो, वह ही जग में ज्ञानी सच्चा।।२२४।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं शुद्धज्ञायकभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(52)
अपरिग्गहो अणिच्छो, भणिदो णाणी य णिच्छदि अहम्मं।
अपरिग्गहो अधम्मस्स, जाणगो तेण सो होदि।।२२५।।
उस इच्छा रहित तपोधन ने, सम्पूर्ण परिग्रह त्याग दिया।
उस तत्त्वज्ञानि ने अधर्ममय, विषयों का भी परित्याग किया।।
वह तो बस मात्र अधर्म विषय, का ज्ञायक एक स्वभावी है।
अज्ञानी इनमें रमता है, ज्ञानी सबमें समभावी है।।२२५।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयेन अपरिग्रहगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(53)
धम्मच्छि अधम्मच्छी, आयासं सुत्तमंगपुव्वेसु।
संगं च तहा णेयं, देवमणुअत्तिरियणेरइयं।।२२६।।
ज्ञानी के धर्म अधर्म और, आकाश परिग्रह भी नहिं हैं।
श्रुतज्ञान अंग पूरब संयुत, बाह्याभ्यंतर परिग्रह नहिं हैं।।
नहिं देव मनुज तिर्यञ्च और, नरकादि परिग्रह भी उसके।
आत्मा तो ज्ञायक भाव मात्र, उसके न परिग्रह कह सकते।।२२६।।
सोरठा– सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं धर्मास्तिकायादिसमस्तज्ञेयपरिग्रहत्यागभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(54)
अपरिग्गहो अणिच्छो, भणिदो असणं च णिच्छदे णाणी।
अपरिग्गहो दु असणस्स, जाणगो तेण सो होदि।।२२७।।
उस आत्मलीन सम्यग्ज्ञानी ने, सभी परिग्रह त्याग दिया।
उस शुद्धातम ज्ञानी ने भोजन, की गृद्धी का त्याग किया।।
वह तो बस ज्ञानामृत भोजन से, तृप्त सदा ही रहता है।
वह युक्ताहार विहारी मुनि, उसका ज्ञायक ही रहता है।।२२७।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं भोजनपरिग्रहरहितज्ञानगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(55)
अपरिग्गहो अणिच्छो, भणिदो पाणं तु णिच्छदे णाणी।
अपरिग्गहो दु पाणस्स, जाणगो तेण सो होदि।।२२८।।
जो इच्छा रहित तपोधन है, वह सर्वपरिग्रह मुक्त कहा।
जल आदिक पीने की इच्छा का, उसके नहिं सद्भाव रहा।।
इस कारण पानक का परिग्रह, ज्ञानी के कभी न होता है।
उसका बस ज्ञायक ही होकर, शुद्धातम ध्यानी होता है।।२२८।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं पानकपरिग्रहरहितज्ञानगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(56)
इच्चादिए दु विविहे, सव्वे भावे य णिच्छदे णाणी।
जाणगभावो णियदो, णीरालंबो दु सव्वत्थ।।२२९।।
पूर्वोक्त कथित ये विविध भाव, ज्ञानी के हुआ न करते हैं।
सबसे विरक्त होकर वे इनकी, इच्छा भी नहिं करते हैं।।
क्योंकी आत्मा तो नियमरूप से, ज्ञायक भाव कहाता है।
आलम्बन में भी रह करके वह, निरालम्ब कहलाता है।।२२९।।
सोरठा– सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निरालम्बभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(57)
उप्पण्णोदयभोगे, वियोगबुद्धीय तस्स सो णिच्चं।
कंखामणागदस्स य, उदयस्स ण कुव्वदे णाणी।।२३०।।
उत्पन्न हुआ जो उदय भोग, ज्ञानी नित भोगा करता है।
वह सदा हेयबुद्धी से उस, फल रूप वर्तना करता है।।
आगामी कर्म उदय की वह, आकांक्षा कभी न करता है।
इसलिए अतीत अनागत कर्म, परिग्रह नहिं वह रखता है।।२३०।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं भोगाकांक्षाविरहितज्ञानिभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(58)
जो वेददि वेदिज्जदि, समए समए विणस्सदे उहयं।
तं जाणगो दु णाणी, उभयं पि ण कंखदि कयावि।।२३१।।
जो वेद्य और वेदक स्वरूप, आत्मा में भाव उपजते हैं।
वे हैं वैभाविक भाव अत:, निज समय समय में नशते हैं।।
ज्ञानी इन दोनों भावों में, ज्ञायक स्वरूप ही रहता है।
वह नहीं कदाचित् भी दोनों, भावों की कांक्षा करता है।।२३१।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं ज्ञानीजीवस्य वेद्यवेदकभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(59)
बंधुवभोगणिमित्तं, अज्झवसाणोदयेसु णाणिस्स।
संसारदेहविसएसु, णेव उप्पज्जदे रागो।।२३२।।
जग में जो बन्ध निमित्त और, उपभोग निमित्त भाव आते।
संसार देह के विषयों में, अध्यवसानादि उदय आते।।
ज्ञानी तो उनमें रागभाव, उत्पन्न न होने देता है।
अज्ञानी रागभाव करके, निजकर्म बंध कर लेता है।।२३२।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं बंधोपभोगनिमित्तेषु अध्यवसानप्रति रागभावरहितज्ञानिगुणप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(60)
णाणी रागप्पजहो, सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो।
णो लिप्पदि कम्मरएण दु, कद्दममज्झे जहा कणयं।।२३३।।
शुद्धातम ज्ञानी सब द्रव्यों का, राग छोड़कर रहता है।
वह कर्मों के संग रहकर भी, उस रज से लिप्त न रहता है।।
जैसे कीचड़ में पड़े हुये, सोने में जंग न लगता है।
जग में रहकर जग से अलिप्त, योगी भी बन्ध न करता है।।२३३।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं कर्दममध्ये कनकवत्ज्ञानिजीवरजसा अलिप्तभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(61)
अण्णाणी पुण रत्तो, सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो।
लिप्पदि कम्मरएण दु, कद्दममज्झे जहा लोहं।।२३४।।
लेकिन अज्ञानी का स्वभाव, विपरीत सदा ही रहता है।
वह सब द्रव्यों का रागी हो, पर में ही रमता रहता है।।
जैसे कीचड़ में पड़े हुए, लोहे में जंग लग जाता है।
वैसे ही अज्ञानी के भी, कर्मों का बंधन होता है।।२३४।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं कर्दममध्ये लोहवत्अज्ञानिजीवरजसा लिप्तभावप्रतिपादकसमय-
साराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(62)
णागफणीए मूलं, णाइणितोएण गब्भणागेण।
णागं होइ सुवण्णं, धम्मंतं भच्छवाएण।।२३५।।
इक नागफणी का मूल नागिनी१, जल को युक्त क्रियाओं से।
सिन्दूर द्रव्य सीसा धातू, इनको अग्नी में तपाने से।।
यदि पुण्य कर्म का उदय हुआ, तो स्वर्ण रूप बन जाता है।
इन सभी द्रव्य के मिलने से, स्वर्णत्व अवस्था पाता है।।२३५।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं सुवर्णनिर्माणसामग्रीवत्मोक्षतत्त्वसामग्रीप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(63)
कम्मं हवेइ किट्टं, रागादी कालिया अह विभाओ।
सम्मत्तणाणचरणं, परमोसहमिदि वियाणाहि।।२३६।।
संसारी प्राणी के संग में जो, द्रव्य कर्म हैं लगे हुए।
वे तो हैं कीट तथा रागादिक, भाव कालिमा कहे गए।।
सम्यग्दर्शन अरु ज्ञान चरण, ये तो परमौषधि कहलाते।
इनके ही बल पर भेद ज्ञान, करके अभेदमय बनजाते।।२३६।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचरणपरमौषधिना अभेदमयज्ञायकभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(64)
झाणं हवेइ अग्गी, तवयरणं भत्तली समक्खादो।
जीवो हवेइ लोहं, धमियव्वो परमजोईहिं।।२३७।।
सम्यक्समाधिमय ध्यान अग्नि, लोहा आसन्न भव्य माना।
तपरूप धौकिनी से वायू का, योग मिले जब मनमाना।।
सोना बनने के सदृश ही, योगी जब ध्यान लीन होते।
तब मोक्ष स्वभाव प्रगट करके, वैभाविक परिणति को खोते।।२३७।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं ध्यानाग्निना आत्मतत्त्वरूपस्वर्णत्वभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(65)
भुंजंत्तस्सवि विविहे, सच्चित्ताचित्तमिस्सिये दव्वे।
संखस्स सेदभावो, णवि सक्कदि किण्हगो कादुं।।२३८।।
ज्यों शंख नामका जीव सचित्ताचित्त मिश्र द्रव्यों को भी।
भक्षण कर लेता है परन्तु, नहिं कृष्णरूप होता तो भी।।
जब श्वेत शंख को कोई भी, नर काला नहीं कर सकता है।
तब ज्ञानी आत्मा में बोलो, अज्ञान कहाँ रह सकता है।।२३८।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं श्वेतशंखवत्आत्मभावकर्ममलीमसकृताभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(66)
तह णाणिस्स दु विविहे, सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे।
भुंजंत्तस्सवि णाणं, णवि सक्कदि रागदो णेदुं।।२३९।।
ज्ञानी भी विविध प्रकार सचित्तााfचत्त मिश्र द्रव्यों का भी।
उपभोग आदि करते करते, तन्मय वह कभी न होता भी।।
क्योंकी ज्ञानी का ज्ञान कभी, अज्ञान नहीं बन सकता है।
अज्ञानरूप यदि हो जावे, तो ज्ञानी नहिं रह सकता है।।२३९।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं शुद्धनिश्चयनयापेक्षया अज्ञानभावाग्राहकज्ञानीजीवगुणप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(67)
जइया स एव संखो, सेदसहावं सयं पजहिदूण।
गच्छेज्ज किण्हभावं, तइया सुक्कत्तणं पजहे।।२४०।।
जब कभी शंख अपने स्वभाव के, श्वेतवर्ण को तजता है।
कालेपन की परिणति में वह, वैभाविक परिणति करता है।।
शुक्लत्व भाव को स्वयं छोड़कर, कृष्णरूप बन जाता है।।
परद्रव्यों के निमित्त से भी, वह शंख कृष्ण बन जाता है।।२४०।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं कृष्णवर्णसमन्वितश्वेतशंखवत्अशुद्धजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(68)
जह संखो पोग्गलदो, जइया सुक्कत्तणं पजहिदूण।
गच्छेज्ज किण्हभावं, तइया सुक्कत्तणं पजहे।।२४१।।
निर्जीव शंख जब इसी तरह से, श्वेतपने को तज देता।
वह कृष्णरूप में परिणत हो, निज को ही कृष्ण बना लेता।।
परद्रव्य निमित्तों के कारण, इतना अधीन हो जाता है।
खुद छोड़ स्वयं की सत्ता भी, निज को पर रूप बनाता है।।२४१।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं अज्ञानभावपरिणतज्ञानिनां अज्ञानभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(69)
तह णाणी विय जइया, णाणसहावत्तयं पजहिदूण।
अण्णाणेण परिणदो, तइया अण्णाणदं गच्छे।।२४२।।
बस इसी तरह से ज्ञानी भी, जब निज स्वभाव को तजता है।
निज आतमा में नहिं रम करके, जब ज्ञानभाव को तजता है।।
तब ज्ञानभाव अज्ञानरूप, परिणमित स्वयं हो जाता है।
अपनी अज्ञान क्रिया से वह, अज्ञान अवस्था पाता है।।२४२।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं परद्रव्यनिमित्तेन अज्ञानभावप्राप्तजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(70)
पुरिसो जह कोवि इह, वित्तिणिमित्तं तु सेवदे रायं।
तो सोवि देदि राया, विविहे भोए सुहुप्पादे।।२४३।।
जैसे जग में कोई मानव, राजा की सेवा करता है।
अपनी जीविका चलाने को, स्वीकार दासता करता है।।
तब राजा भी निज सेवक को, अनुकूल वस्तुएं देता है।
सेवा के बदले में सेवक, निज सेव्य वस्तुएं लेता है।।२४३।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं नृपसेवकप्राप्तसुखवत्जीवात्मान: क्षणिकसुखप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(71)
एमेव जीवपुरिसो, कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं।
तो सो वि कम्मरायो, देदि सहुप्पादगे भोगे।।२४४।।
ऐसे ही जीवात्मा नामक, इक पुरुष कर्मराजा सेता।
सुख के निमित्त सेवा करने के, बदले वह सुख को लेता।।
वे कर्मराज भी निजसेवक को, भोगवस्तुएं देते हैं।
अपना साम्राज्य दिखा करके, सारे जग को छल लेते हैं।।२४४।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं जीवात्मा कर्मनृपस्य सेवकभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(72)
जह पुण सो चेव णरो, पुरिसो वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं।
तो सो ण देदि राया, विविह सुहुप्पादगे भोगे।।२४५।।
लेकिन जैसे जब वही पुरुष, नृप की सेवा नहिं करता है।
निज जीवन पालन के निमित्त, भूपति का काम न करता है।।
तब राजा भी उस मानव को, नानाविध वस्तु न देता है।
सेवा नहिं करने से सेवक, निज भोग्य वस्तु नहीं लेता है।।२४५।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं भोग्यवस्तुअप्राप्तसेवकवत्ज्ञानिभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(73)
एमेव सम्मदिट्ठी, विसयत्तं सेवदे ण कम्मरयं।
तो सो ण देदि कम्मं, विविहे भोगे सुहुप्पादे।।२४६।।
ऐसे ही सम्यग्दृष्टि पुरुष, नहिं कर्मराज को सेता है।
विषयों की इच्छा से न कभी, वह विषयसुखों को लेता है।।
तब कर्मराज भी उसे भला, क्यों भोग्य वस्तुएं दे सकते?
फल इच्छा बिन कर्मों के सेवन, से नहिं फल को ले सकते।।२४६।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं विषयाशारहितवीतरागसम्यग्दृष्टिभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(74)
सम्मादिट्ठी जीवा, णिस्संका होंति णिब्भया तेण।
सत्तभयविप्पमुक्का, जह्मा तह्मा दु णिस्संका।।२४७।।
नि:शंक कहे सम्यग्दृष्टी, अतएव सदा निर्भय रहते।
मरणादि रूप सातों प्रकार के, भय से भी विरहित रहते।।
नि:शंक अवस्था का ऐसा ही, अर्थ बताया जाता है।
पांडववत् निश्चल रहते वे, उपसर्ग भले ही आता है।।२४७।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निश्चयनि:शंकितनिर्भयगुणसमन्वितसम्यग्दर्शनप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(75)
जो चत्तारिवि पाए, छिंददि ते कम्ममोहबाधकरे।
सो णिस्संको चेदा, सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।२४८।।
मिथ्यात्व तथा अविरति कषाय, अरु योग चार ये मुख्य कहे।
इन चारों पायों को एवं, जो मोह कर्म को नष्ट करे।।
वह चेतयिता ही नि:शंकित, सम्यग्दृष्टी कहलाता है।
वह आत्मविषय में शंकाकृत, नहिं बंध कभी कर पाता है।।२४८।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं मिथ्यात्वादिकर्मबंधनिमित्तछेदकनि:शंकसम्यग्दृष्टिलक्षणप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(76)
जो ण करेदि दु कंखं, कम्मफले तहय सव्वधम्मेसु।
सो णिक्कंखो चेदा, सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।२४९।।
जो प्राणी कर्मों के फल की, इच्छा न कदाचित् करता है।
वह सभी तरह के धर्मों में, वांछा न कदापी करता है।।
बस वही जीव नि:कांक्षित, सम्यग्दृष्टी पद को पाता है।
उसके वांछा से जनित कर्म का, बन्ध नहीं हो पाता है।।२४९।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निश्चयनि:कांक्षितगुणसमन्वितसम्यग्दर्शनप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(77)
जो ण करेदि दुगुंछं, चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं।
सो खलु णिव्विदिगिंछो, सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।२५०।।
जो प्राणी सभी वस्तुओं के, धर्मों में ग्लानि न करता है।
विचिकित्सा दोष रहित होकर, वह सम्यग्दृष्टी बनता है।।
उसके परवस्तू द्वेष निमित्तक, बन्ध न होने पाता है।
पूर्वोपार्जित कर्मों को वह, निर्जीर्ण सदा करवाता है।।२५०।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निश्चयनिर्विचिकित्सागुणसमन्वितसम्यग्दर्शनप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(78)
सो हवदि असम्मूढो, चेदा सव्वेसु कम्मभावेसु।
सो खलु अमूढदिट्ठी, सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।।२५१।।
जो चेतन आत्मा सब भावों में, मूढ़ कभी नहिं होता है।
सब कर्मोदय भावों के प्रति भी, सम्मोहित नहिं होता है।।
वह अंग अमूढ़दृष्टि का पालक, सम्यग्दृष्टि कहा जाता।
निश्चय से यह सम्यग्दृष्टी ही, समयसारमय बन जाता।।२५१।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निश्चयअमूढदृष्टिगुणसमन्वितसम्यग्दर्शनप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(79)
जो सिद्धभत्तिजुत्तो, उवगूहणगो दु सव्वधम्माणं।
सो उवगूहणकारी, सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।२५२।।
सिद्धों की भक्ति सहित ज्ञानी, सब धर्मों का उपगूहक है।
इसलिए उसी सम्यग्दृष्टि के, हुआ अंग उपगूहन है।।
वह दोष प्रगट करने स्वरूप, कर्मों का बन्ध न करता है।
प्रत्युत पूर्वोपार्जित कर्मों की, सतत निर्जरा करता है।।२५२।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निश्चयउपगूहनगुणसमन्वितसम्यग्दर्शनप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(80)
उम्मग्गं गच्छंतं, सिवमग्गे जो ठवेदि अप्पाणं।
सो ठिदिकरणेण जुदो, सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।२५३।।
जो जीव स्वयं को उन्मारग में, जाते समय बचाता है।
पर को व निजात्मा को भी, जिनमारग की राह दिखाता है।।
वह स्थितिकरण अंग का धारी, सम्यग्दृष्टी ज्ञानी है।
उसके न कर्म का बन्ध किन्तु, निर्जरा कहे जिनवाणी है।।२५३।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निश्चयस्थितिकरणगुणसमन्वितसम्यग्दर्शनप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(81)
जो कुणदि वच्छलत्तं, तिण्हे साधूण मोक्खमग्गम्मि।
सो वच्छलभावजुदो, सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।२५४।।
जो सभी मुक्ति पथिकों के प्रति, वात्सल्यभाव नित रखता है।
आचार्य साधु पाठक तीनों की, निश्चय भक्ति करता है।।
वह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव, वात्सल्य अंग पालन करता।
वात्सल्य रहित नहिं बन्ध उसे, अतएव निर्जरा ही करता।।२५४।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निश्चयवात्सल्यगुणसमन्वितसम्यग्दर्शनप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(82)
विज्जारहमारूढो, मणोरहरएसु हणदि जो चेदा।
सो जिणणाणपहावी, सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।२५५।।
आत्मानुभूति में रत प्राणी, जब विद्यारथ पर चढ़ता है।
मनरूपी रथ के पथ पर चल, निज शुद्धातम में रमता है।।
वह ज्ञानी मुनि जिनज्ञान प्रभावक, सम्यग्दृष्टि कहा जाता।
समभाव सारथी ध्यान खड्ग से, वह स्वराज को पा जाता।।२५५।।
सोरठा- सप्तम है अधिकार, कर्म निर्जरा के लिए।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आय, निजसुख पाने के लिए।।
ॐ ह्रीं निश्चयप्रभावनागुणसमन्वितसम्यग्दर्शनप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बंधाधिकार की गाथाओं के अर्घ्य
(83)
जह णाम कोवि पुरुसो, णेहभत्तो दु रेणुबहुलम्मि।
ठाणम्मि ठाइदूण य, करेदि सत्थेहिं वायामं।।२५६।।
-कुसुमलता छंद-
जैसे कोई पुरुष तेल से, निज शरीर अवलिप्त करे।
पुन: धूलिसंयुत प्रदेश को, जा करके संस्पर्श करे।।
नाना शस्त्रों के माध्यम से, वह व्यायाम किया करता।
धूली को अपने शरीर में, वह स्थान दिया करता।।२५६।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं तैलस्निग्धशरीरवत्बंधतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(84)
छिंददि भिंददि य तहा, तालीतलकदलिवंसपिंडीओ।
सच्चित्ताचित्ताणं, करेदि दव्वाणमुवघादं।।२५७।।
ताड़ बांस कदली वृक्षों का, छेदनभेदन भी करता।
वह व्यायामी पुरुष वहाँ, शारीरिक चेष्टा ही करता।।
वृक्षों के आश्रित जीवों का, भी उपघात किया करता।
वह सजीव निर्जीव द्रव्य का, घात स्वयं करता रहता।।२५७।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध आfधकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं सचित्ताचित्तद्रव्याणामुपघातगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(85)
उवघादं कुव्वंतस्स, तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं।
णिच्छयदो चिंतिज्ज दु, किं पच्चयगो दु तस्स रयबंधो।।२५८।।
इस प्रकार नाना कार्यों, द्वारा उपघात हुआ जो भी।
धूलि धूसरित मलिन रूप को, प्राप्त किया करता वो ही।।
घात और उपघात से जो, धूली शरीर में लगती है।
सोचो उस मानव के धूली, किस हेतू से लगती है।।२५८।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं निश्चयापेक्षया रजोबंधकारणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(86)
जो सो दु णेहभावो, तह्मि णरे तेण रयबंधो।
णिच्छयदो विण्णेयं ण, कायचेट्ठाहिं सेसाहिं।।२५९।।
सुनो प्रश्न का उत्तर यह, आगम की भाषा मान रहा।
तेल लगे नर के इस कारण, से कर्मों का बन्ध कहा।।
निश्चय ही उस रजोबंध में, तेल निमित्त हुआ करता।
मात्र काय की चेष्टा से नहिं, धूल धूसरित रह सकता।।२५९।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं रजोबंधस्य तैलनिमित्तवत्कर्मबंधकारणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(87)
एवं मिच्छादिट्ठी, वट्टन्तो बहुविहासु चेट्ठासु।
रागादी उवओगे, कुव्वंतो लिप्पदि रयेण।।२६०।।
ऐसे ही जब मिथ्यादृष्टी, विविध क्रियाएं करता है।
व्रत विरहित नाना प्रकार, शारीरिक चेष्टा करता है।।
वह रागादिक परिणामों से, कर्मधूलि से लिपता है।
रागद्वेष नहिं होवें यदि तो, बन्ध नहीं हो सकता है।।२६०।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं कर्मबंधेषु रागादिनिमित्तप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(88)
जह पुण सो चेव णरो, णेहे सव्वह्मि अवणिये संते।
रेणुबहुलम्मि ठाणे, करेदि सत्थेहिं वायामं।।२६१।।
जैसे जब वही पुरुष समस्त, तैलादि पदार्थ अलग करके।
धूल भरी क्षिति में करता, व्यायाम शस्त्र को लेकर के।।
नाना शस्त्रों के माध्यम से, कितना ही श्रम करता है।
तो भी वह अपने शरीर में, रजोबन्ध नहिं करता है।।२६१।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं तैलरहितशरीरवत्अबंधकभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(89)
छिंददि भिंददि य तहा, तालीतलकदलिवंसपिंडीओ।
सच्चित्ताचित्ताणं, करेदि दव्वाणमुवघादं।।२६२।।
ताड़ बांस कदली वृक्षों का, छेदनभेदन भी करता।
वह व्यायामी पुरुष वहाँ, शारीरिक चेष्टा ही करता।।
वृक्षों के आश्रित जीवों का, भी उपघात किया करता।
वह सजीव निर्जीव द्रव्य का, घात स्वयं करता रहता।।२६२।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं सचित्ताचित्तद्रव्याणामुपघातरहितगुणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(90)
उवघादं कुव्वतंस्स, तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं।
णिच्छयदो चिंतिज्ज हु, किंपच्चयगो ण तस्स रयबंधो।।२६३।।
इस प्रकार नाना कार्यों, द्वारा उपघात हुआ जो भी।
धूलिधूसरित मलिन रूप को, नहीं प्राप्त करता तो भी।।
घात और उपघात से भी, जब धूल ग्रहण नहिं करता है।
तब सोचो किस हेतू से वह, रजोबन्ध नहिं करता है।।२६३।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया रजोबंधरहितगुणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(91)
जो सो दुणेहभावो, तह्मि णरे तेण तस्स रयबंधो।
णिच्छयदो विण्णेयं, ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं।।२६४।।
सुनो प्रश्न का उत्तर यह, श्री कुन्दकुन्द आचार्य कहें।
जब शरीर में तेल नहीं तो, धूल कहो क्यों जीव गहे।।
निश्चित ही बिन तेल निमित्त के, रजोबन्ध नहिं कर सकता।
मात्र काय की चेष्टा से नहिं, धूल धूसरित हो सकता।।२६४।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं तैलनिमित्ताभावे रजोबन्धरहितवत्अबंधकगुणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(92)
एवं सम्मादिट्ठी, वट्टंतो बहुविहेसु जोगेसु।
अकरंतो उवओगे, रागादी णेव बज्झदि रयेण।।२६५।।
ऐसे ही सम्यग्दृष्टी भी, विविध क्रियाएं करता है।
व्रत संयुत नाना प्रकार, शरीरिक चेष्टा करता है।।
रागादिक परिणाम बिना, नहिं कर्मधूलि से लिपता है।
बिना रागद्वेषादिक के वह, बन्ध नहीं कर सकता है।।२६५।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं रागादिपरिणामरहितवीतरागसम्यग्दृष्टिअबंधकभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(93)
जो मण्णदि हिंसामि य, हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं।
सो मूढो अण्णाणी, णाणी एत्तो दु विवरीदो।।२६६।।
पर जीवों का वध करता मैं, ऐसा जो मानव मान रहा।
पर से मेरा वध होता है, ऐसा अज्ञाानी जान रहा।।
जिनके ऐसे परिणाम हुए, वह मोही आत्मा कहलाता।
इससे विपरीत भाव वाला, ज्ञानी शुद्धात्मा कहलाता।।२६६।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं अज्ञानमोहभावयुक्तहिंसाहिंस्यभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(94)
आउक्खयेण मरणं, जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं।
आउं ण हरेसि तुमं, कह ते मरणं कदं तेसिं।।२६७।।
अपनी आयू के क्षय से ही, सब जीव मरण को करते हैं।
ऐसे जिनवर के वचन भला, मिथ्या वैसे हो सकते हैं?।।
तुम आयुकर्म नहिं हर सकते, तब पर का मरण किया वैसे।
अज्ञानभाव के कारण कर्मबन्ध को स्वयं किया वैसे।।२६७।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं जिनवरप्रज्ञप्तनिश्चयनयापेक्षया मरणाद्यभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(95)
आउक्खयेण मरणं, जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं।
आउं न हरंति तुहं, कह ते मरणं कयं तेहिं।।२६८।।
जीवों का मरण आयु क्षय से, होता यह जिनवरदेव कहा।
सो मैं पर जीवों से मारा, जाता हूँ यह अज्ञान महा।।
पर जीव तेरे आयू कर्मों का, हरण नहीं कर सकते हैं।
फिर उनके द्वारा मरण तेरा, ज्ञानी वैसे कह सकते हैं।।२६८।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं वीतरागविज्ञानापेक्षया आयुहरणादिरहितभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(96)
जो मण्णदि जीवेमि य, जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं।
सो मूढो अण्णाणी, णाणी एत्तो दु विवरीदो।।२६९।।
पर को मैं जीवित रखता हूँ, ऐसा अज्ञानी जान रहा।
पर जीव मुझे जीवित रखते, ऐसा जो प्राणी मान रहा।।
जिनके ऐसे परिणाम हुए, वह मोही आत्मा कहलाता।
इससे विपरीत भाव वाला, ज्ञानी शुद्धात्मा बन जाता।।२६९।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं शुद्धनयेन परजीवजीवनादिअभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(97)
आउउदयेण जीवदि, जीवो एवं भणंति सव्वण्हू।
आउं च ण देसि तुमं, कहं तए जीविदं कदं तेसिं।।२७०।।
निज आयु उदय के ही बल पर, सब प्राणी जीवित रहते हैं।
ऐसे जिनवर के वचन भला, मिथ्या वैसे हो सकते हैं?।।
तुम पर को आयु न दे सकते, तो जीवित वैसे कर सकते।
अज्ञान भाव के कारण ही, तुम अहंकार करते रहते।।२७०।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं आयुकर्मोदयेन जीवितं जीवनदानरूपअहंकारभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(98)
आऊदयेण जीवदि, जीवो एवं भणंति सव्वण्हू।
आउं च ण दिंति तुहं, कहं णु ते जीवियं कयं तेहिं।।२७१।।
जीना तो आयु उदय से हो, ऐसी जिनवर की वाणी है।
मैं पर जीवों को जिला रहा, यह भाव करे अज्ञानी है।।
पर जीव तेरी बांधी आयू को, बढ़ा कभी नहिं सकते हैं।
फिर उनसे जीवितपना तेरा, ज्ञानी वैâसे कह सकते हैं।।२७१।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं आयुकर्मोदयेन जीवितं आयुवृद्धिकारकअहंभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(99)
जो अप्पणो दु मण्णदि, दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेति।
सो मूढो अण्णाणी, णाणी एत्तो दु विवरीदो।।२७२।।
मैं पर को सुखी दु:खी करता, जो जीव मानता है ऐसा।
पर जीव मुझे सुख दु:ख देते, जो अध्यवसाय करे ऐसा।।
वह मूढात्मा अज्ञानपने से, मिथ्यादृष्टी कहलाता।
ज्ञानी इससे विपरीत भावकर, सम्यग्दृष्टी कहलाता।।२७२।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं सुखदु:खकर्तृ-अकर्तृभावकारकमिथ्यादृष्टिसम्यग्दृष्टिजीवप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(100)
कम्मणिमित्तं सव्वे, दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सत्ता।
कम्मं च ण देसि तुमं, दुक्खिदसुहिदा कहं कदा ते।।२७३।।
सब अपने अपने कर्म उदय, से ही सुख दु:ख को पाते हैं।
अपने सुख दु:ख फल के कारण, वे सुखी दु:खी कहलाते हैं।।
कर्मों का यह सिद्धान्तअटल, तू कर्म उन्हें नहिं दे सकता।
तो हे भाई! तू उन जीवों को, सुखी दु:खी वैसे करता।।२७३।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं कर्मोदयेन दु:खितसुखितजीवप्रति दु:खसुखप्रदायककर्ताभाव
निवारणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(101)
कम्मणिमित्तं सव्वे, दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सत्ता।
कम्मं च ण देसि तुमं, कह तं सुहिदो कदो तेसिं।।२७४।।
सब जीव स्वयं के कर्मोदय से, सुखी दु:खी होते रहते।
वे जीव तुझे कर्मों के देने, में सक्षम नहिं हो सकते।।
तो उनके द्वारा तू वैसे, दु:खरूप अवस्था पा सकता।
व्यवहार भले कह दे ऐसा, पर निश्चयनय नहिं कह सकता।।२७४।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनिश्चयनयापेक्षया कर्मोदयेन दु:खितसुखितजीवप्रति दु:ख-
सुखप्रदायककर्तृअकर्तृभावनिवारणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(102)
कम्मोदएण जीवा, दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे।
कम्मं च ण देसि तुमं, कह तं दुहिदो कदो तेसिं।।२७५।।
जब निज कर्मोदय से ही सब, जीवों को सुख दु:ख मिलता है।
वे तुझको कर्म न दे सकते, यह ही निष्कर्ष निकलता है।।
तो उनके द्वारा तू अपने को, वैâसे सुखी बना सकता।
अपनी आत्मा का सच्चा सुख, शुद्धातम ध्यानी पा सकता।।२७५।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं सुखदु:खप्रदायककर्महेतुप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(103)
जो मरदि जो य दुहिदो, जायदि कम्मोदयेण सो सव्वो।
तह्मा दु मारिदो दे, दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।।२७६।।
इस जग में जो प्राणी मरते, या दु:खी कभी भी होते हैं।
निज कर्मोदय के कारण ही, वे मोहनींद में सोते हैं।।
इस कारण मारा गया दु:खी, वह किया गया मेरे द्वारा।
ऐसा कहना मिथ्या ही है, इसलिए मिले नहिं शिवद्वारा।।२७६।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं कर्मोदयेन दु:खितजीवप्रति मिथ्याविकल्पप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(104)
जो ण मरदि ण य दुहिदो, सोवि य कम्मोदयेण जीवो।
तह्मा ण मारिदो दे, दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।।२७७।।
जो जीव नहीं मरते न दु:खीr, होते वह भी कर्मोदय से।
संसारचक्र में परिवर्तन, करते हैं निज कर्मोदय से।।
इस कारण मारा नहीं दु:खी, नहिं किया गया ऐसा कहना।
मिथ्या ही है अतएव कर्म-बन्धन को पड़ता है सहना।।२७७।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं परमारणदु:खकरणादिभावनिवारणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(105)
एसा दु जा मदी दे, दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेति।
एसा दे मूढमदी, सुहासुहं बंधदे कम्मं।।२७८।।
यदि तेरी मति ऐसी है मैं, जीवों को सुखी दु:खीr करता।
इस मोहितमति के द्वारा तू, शुभ अशुभ बन्ध करता रहता।।
ऐसा जो अध्यवसाय भाव, मिथ्यादृष्टी के होता है।
इससे वह प्राणी वीतराग, सम्यग्दृष्टी नहिं होता है।।२७८।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं शुभाशुभकर्मबंधप्रति मोहितमरूपमिथ्यात्वभावनिवारणप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(106)
दुक्खिदसुहिदे सत्ते, करेमि जं एवमज्झवसिदं ते।
तं पावबंधगं वा, पुण्णस्स व बंधगं होदि।।२७९।।
मैं पर को दु:खीr सुखी करता, ऐसा जो अध्यवसाय तेरा।
पापों का बन्ध किया करता, यदि दु:ख देने का भाव तेरा।।
यदि सुखी किसी को करने का, तेरा परिणाम हुआ करता।
तो पुण्य कर्म का बन्धक बन, रागी ही सदा बना रहता।।२७९।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं पुण्यपापकर्मबन्धप्रति मिथ्यात्वभावनिवारणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(107)
मारेमि जीवावेमि य, सत्ते जं एव मज्झवसिदं ते।
तं पावबंधगं वा, पुण्णस्स व बंधंगं होदि।।२८०।।
मारूँ या जीवन देऊँ ये, जब भाव तेरे हो जाते हैं।
तो पाप पुण्य के योग्य कर्म भी, स्वयं बंध हो जाते हैं।।
सविकल्प अवस्था में ही, अज्ञानी इन भावों को करता।
अविकल्प अवस्था में ज्ञानी, शुद्धात्म भावना में रमता।।२८०।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं पुण्यपापकर्मबन्धप्रति विकल्परहितशुद्धात्मभावनाप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(108)
अज्झवसिदेण बंधो, सत्ते मारेहि मा व मारेहि।
एसो बंधसमासो, जीवाणं णिच्छयणयस्स।।२८१।।
जीवों को मारो अथवा मत, मारो यह निज की परिणति है।
मन के परिणामों के बल पर, कर्मों की स्थिति पड़ती है।।
निश्चयनय के मत में तो जीवों, का ऐसा ही विवरण है।
परभाव ग्रहण करने वाला, व्यवहार नयाश्रित प्रकरण है।।२८१।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया बंधभावनिवारणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(109)
एवमलिये अदत्ते, अबंभचेरे परिग्गहे चेव।
कीरदि अज्झवसाणं, जं तेण दु बज्झदे पावं।।२८२।।
ऐसे ही झूठ बोलने में, चोरी आदिक में भी जानो।
अब्रह्मचर्य व परिग्रह में, कर्ता के भाव प्रमुख मानो।।
यह अध्यवसान भाव ही तो, पापों का बन्ध कराता है।
इनसे छुटते ही शुद्धातम, ज्ञानी का पद पा जाता है।।२८२।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं व्यवहारापेक्षया पापाध्यवसानप्रति कर्ताभावनिवारणप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(110)
तह य अचोज्जे सच्चे, बंभे अपरिग्गहत्तणे चेव।
कीरदि अज्झवसाणं, जं तेण दु बज्झदे पुण्णं।।२८३।।
यूं ही जो सत्य अचौर्य अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य पालन करता।
इन सभी व्रतों के पालन का, शुभ भाव हृदय में है धरता।।
व्न्रत पालन के परिणामों से ही, पुण्यबन्ध हो जाता है।
निश्चय नय तक पहुँचाने में, यह कारण भी हो जाता है।।२८३।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं व्यवहारापेक्षया सत्यअचौर्यब्रह्मचर्यअपरिग्रहादिव्रतपालनरूप-
शुभभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(111)
वत्थुं पडुच्च जं पुण, अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं।
ण हि वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोत्थि।।२८४।।
पर वस्तू के अवलंबन से, जो भाव जीव के होते हैं।
उनको ही अध्यवसान कहा, वे बंध हेतु ही होते हैं।।
सद्भाव वस्तु का होने से, परिणाम रागमय बनते हैं।
परिणामों से ही बन्ध अत:, मुनि बाह्यवस्तुएं तजते हैं।।२८४।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया बाह्यपरवस्तुबंधकारणाभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(112)
दुक्खिदसुहिदे जीवे, करेमि बंधामि तह विमोचेमि।
जा एसा तुज्झ मदी, णिरत्थया सा हु दे मिच्छा।।२८५।।
मैं दु:खीr सुखी करता जीवों को, ऐसा जो अनुभव करता।
मैं बंधवाता छुड़वाता हूँ, जो ऐसा अहंभाव धरता।।
ऐसी तेरी मति मूढ़ निरर्थक, निश्चय से मिथ्या ही है।
आकाशपुष्प के सदृश यही, परभाव सदा मिथ्या ही है।।२८५।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं बंधहेतुरागादिभावनिवारणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(113)
अज्झवसाणणिमित्तं, जीवा बज्झंति कम्मणा जदि हि।
मुच्चंति मोक्खमग्गे, ठिदा य ते किं करोसि तुमं।।२८६।।
यदि सचमुच जीव स्वयं परिणामों, से कर्मों का बंध करें।
कर्मों से स्वयं छूट करके, शिवमारग में जाकर ठहरें।।
तब ऐसी सुदृढ़ व्यवस्था में, तू क्या कर सकता है प्राणी ?
िंकचित् निमित्त बनने से ही, तू कर्ता बनता अज्ञानी।।२८६।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं अध्यवसाननिमित्तेन बंधमोक्षप्राप्तजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(114)
कायेण दुक्खवेमिय, सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि।
सव्वावि एस मिच्छा, दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।।२८७।।
मैं निजशरीर से परजीवों को, दुख पहुंचाता रहता हूँ।
निज अशुभकाय की चेष्टा से, मैं सबको वश में रखता हूँ।।
यह तेरी मति मिथ्या ही है, तू पर का कुछ नहिं कर सकता।
जो जीव दु:खीr होते हैं उनका, कर्म निमित्त बना करता।।२८७।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं कायेन सत्त्वान् प्रति सुखदु:खदायकरूपमिथ्याकर्ताभावनिवारण-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(115)
वाचाए दुक्खवेमिय, सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि।
सव्वावि एस मिच्छा, दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।।२८८।।
मैं निजवचनों से परजीवों को, दु:ख पहुँचाता रहता हूँ।
निज वचनचतुरता से सबको, संतप्त किया मैं करता हूँ।।
यह भी तेरी मति मिथ्या है, तू पर का क्या कर सकता है?।
दुख पाने वाले जीवों का, निज कर्मोदय ही रहता है।।२८८।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं वचसा सत्त्वान् प्रति सुखदु:खदायकरूपमिथ्याकर्ताभावनिवारण-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(116)
मणसाए दुक्खवेमिय, सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि।
सव्वावि एस मिच्छा, दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।।२८९।।
मैं मेरे मन से परजीवों को दुख पहुँचाता रहता हूँ।
निज मानस चिन्तन से पर को सन्तापित करता रहता हूँ।।
यह तेरा चिन्तन मिथ्या है तू पर का क्या कर सकता है?
क्योंकी दुखप्राप्त जीव का तो निजकर्मोदय ही रहता है।।२८९।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं मनसा सत्त्वान् प्रति सुखदु:खदायकरूपमिथ्याकर्ताभावनिवारण-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(117)
सच्छेण दुक्खवेमिय, सत्ते एवं तुं जं मदिं कुणसि।
सव्वावि एस मिच्छा, दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।।२९०।।
मैं शस्त्रों के द्वारा परजीवों को दुख देता रहता हूँ।
घातक शस्त्रों को दिखा दिखा मैं सबको पीड़ित करता हूँ।।
यह तेरी मति मिथ्या ही है तू पर का क्या कर सकता है?
निज पापोदय के कारण ही प्राणी जग में दुख सहता है।।२९०।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं शस्त्रै: सत्वान् प्रति सुखदु:खदायकरूपमिथ्याकर्ताभावनिवारण-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(118)
कायेण च वाया वा, मणेण सुहिदे करेमि सत्तेति।
एवंपि हवदि मिच्छा, सुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।।२९१।।
वैसे ही यदि जग के प्राणी, इन्द्रिय भोगों से सुखी दिखें।
निजकर्मोदय से प्राप्त सुखों में, तेरा मिथ्या मान दिखे।।
मन वच काया से पर को, सुख देने का भ्रम तू करता है।
यह भी तेरी मति मिथ्या है, तू पर का क्या कर सकता है।।२९१।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं मनोवच:कायै: सत्वान् प्रति सुखदु:खदायकरूपमिथ्याकर्ताभाव-
निवारणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(119)
सव्वे करेदि जीवो, अज्झवसाणेण तिरियणेरयिए।
देवमणुवेपि सव्वे, पुण्णं पावं च णेयविहं।।२९२।।
निज अध्यवसानों से प्राणी, जग में सब कुछ करता रहता।
पशु नारक देव मनुज नानाविध, पुण्यपाप करता रहता।।
उदयागत कर्म अवस्था में, निज को तन्मय अनुभव करता।
परमार्थ रूप का ज्ञान नहीं, अतएव उन्हें अपना कहता।।२९२।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं अध्यवसानेन चतुर्गतिकारकमिथ्याभावनिवारणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(120)
धम्माधम्मं च तहा, जीवाजीवे अलोयलोगं च।
सव्वे करेदि जीवो, अज्झवसाणेण अप्पाणं।।२९३।।
ऐसे ही धर्म-अधर्म जीव, पुद्गल को भी निज मान रहा।
त्रैलोक अलोकाकाश सभी, परद्रव्यों में अज्ञान कहा।।
निज अध्यवसान भाव से सबको, आत्मरूप ही कहता है।
सबकी स्वतन्त्र सत्ता न समझ, ममकार भाव ही करता है।।२९३।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं अध्यवसानेन धर्म-अधर्म-जीव-पुद्गल-लोक-अलोकादिकारकमिथ्या-
भावनिवारणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(121)
एदाणि णत्थि जेसिं, अज्झवसाणाणि एवमादीणि।
ते असुहेण सुहेण य, कम्मेण मुणी ण लिप्पंति।।२९४।।
ये पूर्व कथित परिणाम तथा, इस तरह अन्य भी और कहे।
जो अध्यवसान विभाव भाव, जिन मुनिवर के वे कुछ नहिं हैं।।
वे मुनिवर अशुभ तथा शुभ कर्मों, से नहिं लिप्त हुआ करते।
जो निज स्वरूप में रहते हैं, वे पर में नहीं रमा करते।।२९४।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं अध्यवसानेन समस्तविभावभावविरहितमुनिवरस्य अलिप्तभाव-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(122)
जा संकप्पवियप्पो, ता कम्मं कुणदि असुहसुहजणयं।
अप्पसरूवा रिद्धी, जाव ण हियए परिप्फुरदि।।२९५।।
जब तक यह आत्मा बाह्य वस्तुओं, में संकल्प विकल्प करे।
तब तक ही वह प्राणी निज में, शुभ अशुभ कर्म का बंध करे।।
तब तक अनन्तज्ञानादिरूप, ऋद्धी जो आत्मा की मानी।
निज में प्रस्फुरित नहीं होवे, ऐसा कहते हैं मुनिज्ञानी।।२९५।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं शुभाशुभजनकं संकल्पविकल्परहितआत्मस्वरूपऋद्धिप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(123)
बुद्धी ववसाओवि य, अज्झवसाणं मदी य परिणामो।
इक्कट्ठमेव सव्वं, चित्तं भावो य परिणामो।।२९६।।
व्यवसाय बुद्धि अथवा जो, अध्यवसान नाम से कहलाता।
विज्ञान चित्त परिणाम भाव, मति नामों से जाना जाता।।
इन सबका अर्थ एक ही है, एकार्थवाचि ये कहलाते।
परिणमनशील परिणामों से ही, सभी भाव ये बन जाते।।२९६।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं बुद्धिव्यवसायादिविविधनामधारक-अध्यवसानभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(124)
एवं ववहारणओ, पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण।
णिच्छयणयसल्लीणा, मुणिणो पावंति णिव्वाणं।।२९७।।
इस तरह पूर्व में जो व्यवहार, नयाश्रित वर्णन आया है।
निश्चय नय के द्वारा आगम में, उसे निषिद्ध बताया है।।
पहले व्यवहार नयाश्रय से, जो तत्त्वज्ञान कर लेते हैं।
निश्चय नय के आश्रित वे मुनि, निर्वाण प्रााप्त कर लेते हैं।।२९७।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया व्यवहारनिषिद्धभावसहितमुनिधर्मपूर्वकनिर्वाणपद-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(125)
वदसमिदीगुत्तीओ, सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं।
कुव्वंतोवि अभव्वो, अण्णाणी मिच्छदिट्ठीओ।।२९८।।
श्री जिनवर ने जो आगम में, व्रत समिति गुप्तियाँ बतलाईं।
तप तथा शील की सतत, भावनाएं अभव्य ने भी भाईं।।
इन सबको धारण करके भी, वह भव्य नहीं बन सकता है।
वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टी नहिं, भेद ज्ञान कर सकता है।।२९८।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं व्रतादिसहितअभव्यजीवस्य मिथ्यात्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(126)
मोक्खं असद्दहंतो, अभवियसत्तो दु जो अधीयेज्ज।
पाठो ण करेदि गुणं, असद्दहंतस्स णाणं तु।।२९९।।
जो मोक्षशास्त्र की श्रद्धा नहिं, करता अभव्य कहलाता है।
वह शास्त्रों को पढ़कर भी सम्यग्ज्ञानी नहिं बन पाता है।।
बिन ज्ञानभाव भी श्रद्धा के, शास्त्रों का पठन न गुण करता।
एकादशांग ज्ञानी अभव्य, मुक्तीलक्ष्मी को नहिं वरता।।२९९।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं एकादशांगश्रुतज्ञानसमन्वितोऽपि अभव्यजीवमोक्षाभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(127)
सद्दहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणोवि फासेदि।
धम्मं भोगणिमित्तं, ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं।।३००।।
जग में अभव्य यदि कभी धर्म की, श्रद्धा रुचि करता भी है।
कभि धर्म प्रेम से जिनशासन में, उसका मन झुकता भी है।।
सांसारिक भोगों के निमित्त ही, उसको धर्म सुहाता है।
नहिं कर्मनाश के हेतु कभी, शुद्धात्मध्यान कर पाता है।।३००।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं भोगनिमित्तधर्मधारकजीवस्य कर्मक्षयाभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(128)
आयारादी णाणं, जीवादी दंसणं च विण्णेयं।
छज्जीवाणं रक्खा, भणदि चरित्तं तु ववहारो।।३०१।।
आचारांगादिक शास्त्रों का, पढ़ना ही ज्ञान कहाता है।
जीवादि पदार्थों की श्रद्धा, करना दर्शन कहलाता है।।
षट्जीवनिकायों की रक्षा, चारित व्यवहार कहा जाता।
वैरागी मुनियों के द्वारा यह, रत्नत्रय पाला जाता।।३०१।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयेन आचारांगादिशास्त्रज्ञानतत्त्वश्रद्धानरूपसम्यग्दर्शन-
जीवरक्षणरूपचारित्रप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(129)
आदा खु मज्झ णाणे, आदा मे दंसणे चरित्ते च।
आदा पच्चक्खाणे, आदा मे संवरे जोगे।।३०२।।
पर निश्चयनय से तो मेरा, आत्मा ही ज्ञान कहाता है।
आत्मा ही दर्शन है मेरा, आत्मा चारित्र कहाता है।।
आत्मा ही प्रत्याख्यान तथा, आत्मा ही संवर कहलाता।
आत्मा ही योग समाधिरूप, योगी उस आत्मा को ध्याता।।३०२।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया ज्ञानदर्शनचारित्ररूपआत्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(130)
जह फलियमणिविसुद्धो, ण सयं परिणमदि रायमादीहिं।
राइज्जदि अण्णेहिं दु, सो रत्तादीयेहिं दव्वेहिं।।३०३।।
जैसे स्फटिकमणी जो कि, स्वयमेव्ा शुद्ध निर्मल रहती।
वह रंग संग के बिना कभी, स्वयमेव रंगमय नहिं रंगती।।
बाहर की रंग उपाधी से, वह स्वयं लाल हो जाती है।
पर द्रव्यों के संबंधों से, वैभाविक परिणति आती है।।३०३।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं व्यवहारेण स्फटिकमणिवत्लालिमादिभावपरिणतजीवतत्त्व-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(131)
एवं णाणी सुद्धो, ण सयं परिणमदि रायमादीहिं।
राइज्जदि अण्णेहिं दु, सो रागादीहिं दोसेहिं।।३०४।।
ऐसे ही ज्ञानी आत्मा भी, स्वाभाविक शुद्ध कहा जाता।
लेकिन रागादिक भावों से, वह पर स्वभावमय बन जाता।।
कर्मोदय से होने वाले, रागादि दोष जो आते हैं।
वे ही आत्मा के शुद्ध भाव को, भी अशुद्ध कर जाते हैं।।३०४।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं शुद्धनयेन रागादिभावापरिणतशुद्धजीवप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(132)
ण वि रागदोसमोहं, कुव्वदि णाणी कसायभावं वा।
सयमप्पणो ण सो, तेण कारगो तेसिं भावाणं।।३०५।।
ज्ञानी अपने में रागद्वेष, मोहादि भाव नहिं करता है।
वह स्वयं निजात्मा में कषाय का, भाव न किंंचित् करता है।।
इस कारण वह ज्ञानी उन भावों, का कर्ता नहिं कहलाता।
शुद्धात्म ध्यान में रत मुनि ही, इस शुद्ध अवस्था को पाता।।३०५।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं शुद्धात्मध्यानरतमुने: रागद्वेषाद्यभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(133)
रागह्मि य दोसह्मि य, कसायकम्मेसु चेव जे भावा।
तेहिं दु परिणममाणो, रागादी बंधदि पुणोवि।।३०६।।
जब उसी जीव के रागद्वेष, कर्मादि उदय में आते हैं।
क्रोधादि कषाय भाव आने पर, अपना रंग दिखाते हैं।।
इन उदयागत भावों से जब तक, वह तन्मय होता रहता।
तन्मय परिणति से ही आत्मा, रागादि बन्ध करता रहता।।३०६।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं क्रोधादिकषायरूपतन्मयअज्ञानीजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(134)
रागह्मि य दोसह्मि य, कसायकम्मेसु चेव जे भावा।
ते मम दु परिणमंतो, रागादी बंधदे चेदा।।३०७।।
रागद्वेषादि कषायरूप, जब कर्म उदय में आते हैं।
उन भावों से ही आत्मा के, परिणाम विकृत हो जाते हैं।।
रागादि भाव ये मेरे हैं, ऐसा वह जब तक कहता है।
तब तक रागादिक कर्मों को, वह स्वयं बांधता रहता है।।३०७।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं रागादिभावनिमित्तकर्मबंधप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(135)
अपडिक्कमणं दुविहं, अपच्चक्खाणं तहेव विण्णेयं।
एदेणुवदेसेण दु, अकारगाो वण्णिदो चेदा।।३०८।।
अप्रतिक्रमण दो भेद रूप, बतलाया है जिनशासन में।
अप्रत्याख्यान भाव भी दो ही, कहे गए परमागम में।।
इस प्रवचन से यह सिद्ध हुआ, आत्मा तो कुछ नहिं करता है।
वह दोनों कार्यों से विरहित, कर्मों का हुआ अकर्ता है।।३०८।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं द्विविधअप्रतिक्रमणअप्रत्याख्यानप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(136)
अपडिक्कमणं दुविहं, दव्वे भावे अपच्चक्खाणंपि।
एदेणुवेदसेण दु, अकारगो वण्णिदो चेदा।।३०९।।
-शंभु छंद-
यह अप्रतिक्रमण तथा अप्रत्याख्यान द्विविध जो बतलाया।
उन द्रव्य भाव दोनों को अज्ञानी करता है बतलाया।।
लेकिन शुद्धात्मध्यान युत मुनि, कर्मों के कर्ता नहिं होते।
इस परमागम के प्रवचन से, वे निर्विकल्प ध्यानी होते।।३०९।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं द्रव्यभावरूपअप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यानकर्ता-अकर्ता प्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(137)
जाव ण पच्चक्खाणं, अपडिक्कमणं तु दव्वभावाणं।
कुव्वदि आदा तावदु, कत्ता सो होदि णादव्वो।।३१०।।
जब तक यह प्राणी द्रव्यभाव-मय प्रत्याख्यान नहीं करता।
जब तक यह प्राणी द्रव्यभाव-मय अप्रतिक्रमण किया करता।।
तब तक वह परमसमाधि न पाने, से अज्ञानी रहता है।
कर्मों का कर्ता बनने से वह, बंध किया ही करता है।।३१०।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं द्रव्यभावरूपअप्रतिक्रमणअप्रत्याख्यानकर्तृत्वपरमसमाधिध्यानरूप-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(138)
आधाकम्मादीया, पुग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा।
कह ते कुव्वदि णाणी, परदव्वगुणा दु जे णिच्चं।।३११।।
आहार क्रिया में अध:कर्म, आदिक जो दोष बताए हैं।
वे शुद्धात्मा से पृथग्भूत, पुद्गल के गुण कहलाए हैं।।
निश्चयज्ञानी मुनिवर केवल, निज आत्मा में ही रमते हैं।
तो अध:कर्म आदिक दूषण, उनके वैसे लग सकते हैं।।३११।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं अध:कर्मदूषितआहाररहितशुद्धोपयोगीमुनिगणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(139)
आधाकम्मादीया, पुग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा।
कहमणुमण्णदि अण्णेण, कीरमाणा परस्स गुणा।।३१२।।
आहारक्रिया में अध:कर्म, आदिक जो दोष बताए हैं।
वे शुद्धात्मा से सदा पृथक्, पुद्गल के गुण कहलाए हैं।।
निश्चयज्ञानी मुनिवर केवल, निजआत्मा में ही रमते हैं।
तो निज अहार के बनने में वैसे अनुमोदन करते हैं।।३१२।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं अध:कर्मदूषितआहारअनुमोदनारहितनिश्चयज्ञानीपरमसमाधिरत-
मुनिगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(140)
आधाकम्मं उद्देसियं च, पोग्गलमयं इमं दव्वं।
कह तं मम होदि कदं, जं णिच्चमचेदणं वुत्तं।।३१३।।
जब अध:कर्म औद्देशिकादि, दूषण सारे पुद्गलमय हैं।
वे आत्मद्रव्य से पृथव् सदा, होने से कहे अचेतन हैं।।
तब मेरे द्वारा किये गये, वे दोष भला वैसे होंगे।
मैं चिच्चैतन्य स्वरूपी हू, ये भाव मेरे वैसे होंगे।।३१३।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं अध:कर्मऔद्देशिकदूषणरहितआहारग्राहीभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(141)
आधाकम्मं उद्देसियं च, पोग्गलमयं इमं दव्वं।
कह तं मम कारविदं, जं णिच्चमचेदणं वुत्तं।।३१४।।
जब अध:कर्म औद्देशिकादि, दूषण सारे पुद्गलमय हैं।
वे आत्मद्रव्य से पृथव्â सदा, होने से कहे अचेतन हैं।।
तब मेरे द्वारा करवाए भी, दोष भला वैसे होंगे ?
मैं चिच्चैतन्यस्वरूपी हूँ, ये दोष मेरे वैसे होंगे।।३१४।।
सोरठा- कर्मबंध की बात, कही बंध अधिकार में।
अर्घ्य चढ़ाकर आज, तजूँ बंध का द्वार मैं।।
ॐ ह्रीं अध:कर्मादिसमस्तदोषरहितआहारभावपृथक् शुद्धात्मरतमुनिगण-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (शंभु छंद)-
आस्रव-संवर-निर्जरा-बंध, चउ अधिकार समाहित हैं।
इस पूजन में चार तत्व का, सार सुचारू वर्णित है।।
कुन्दकुन्द आचार्य प्रवर ने, भेदज्ञान बतलाया है।
उसको पढ़ पूर्णार्घ्य चढ़ाने, भक्त पुजारी आया है।।१।।
ॐ ह्रीं समयसारग्रंथस्य आस्रव-संवर-निर्जरा-बंध नाम चतुरधिकारेषु वर्णित
सर्वगाथासूत्रेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं शुद्धात्मभावप्रतिपादकश्रीसमयसारग्रंथाय नम:।
-शंभु छन्द-
श्री कुन्दकुन्द आचार्य रचित, इस समयसार को नमन करो।
जयमाला पढ़कर समयसार को, अर्घ्य चढ़ा अध्ययन करो।।
मिथ्या अविरति व कषाय योग, ये चार हेतु आश्रव के हैं।
इन चारों में मिथ्यात्व भाव को, समयसार बस मुख्य कहे।।१।।
जैसे लघु बाला निरुपभोग्य, नहिं पुरुष को आकर्षित करती।
वह ही तरुणी बन तरुण पुरुष के, संग प्रेमालिंगन करती।।
बस इसी तरह मिथ्यात्व आदि भी, निरुपभोग्य जब तक रहते।
नहिं कर्मबंध करते लेकिन, उपभोग्य समय बंधते रहते।।२।।
संवर अधिकार बताता ह्रै, हम भेदविज्ञानी बन जावें।
आते कर्मों को रोक सकें, तब आत्मरूप को लख पावें।।
जैसे सुवर्ण तपने पर भी, निज स्वर्णपने को नहिं तजता।
कर्मोदय से संतप्त जीव, वैसे ही ज्ञान नहिं तजता।।३।।
शुद्धात्मा की उपलब्धि से, ही संवर भाव प्रगट होता।
हे आत्मन्! तू तो ज्ञानी है, अज्ञानी भव भव में रोता।।
जब तक शुभ अशुभ उभय भावों को, रोका नहिं जा सकता है।
तब तक बस अशुभ का त्याग करो, तब क्रम से शिव पा सकता है।। ४।।
सम्यग्दृष्टि इन्द्रिय द्वारा, चेतन व अचेतन द्रव्यों का।
उपभोग किया करता उसको, निर्जरा निमित्त कहा उनका।।
अष्टांग सहित सम्यग्दर्शन, आत्मा को शुद्ध बनाता है।
ऐसा ज्ञानी मुनि कर्म निर्जरा, कर मुक्ति श्री पाता है।।५।।
बंधाधिकार में कर्मबंध का, सूक्ष्म विवेचन मिलता है।
बंधन के कारण ही जग में, शुद्धात्मतत्त्व नहिं मिलता है।।
जैसे स्नेहिल तन में धूली, देखो शीघ्र चिपक जाती।
वैसे ही मिथ्यादृष्टि जीव में, कर्मधूलि भी बस जाती।।६।।
तन में चिकनाई नहिं हो तो, रज उसपर चिपक न पाती है।
सम्यग्दृष्टि में इसी तरह, नहिं कर्म धूलि जम पाती है।।
कर्ताबुद्धि ही जीवों के संग, कर्मबंध करवाती है।
कर्ताबुद्धि के हटते ही, सम्यक्त्व कली खिल जाती है।।७।।
आस्रव संवर निर्जरा बंध, क्रम समयसार में बतलाया।
गौतमगणधर के क्रम से ही, श्री कुंदकुंद ने समझाया।।
इनकी पूजन करके मेरे, मन में यह भाव उपज आया।
हो समयसार साकार अगर, जीवन में समझो सब पाया।।।८।।
आठों द्रव्यों का थाल सजा, पूर्णार्घ्य चढ़ाने आए हैं।
‘चन्दनामती’ श्रुतज्ञान प्राप्ति का, लक्ष्य बनाकर लाए हैं।।
इस ग्रंथराज के निकट आज, मिथ्यातम हरने आए हैं।
श्री कुंदकुंदस्वामी को भी, हम शीश झुकाने आए हैं।।९।।
ॐ ह्रीं आस्रवसंवरनिर्जराबंधाधिकारसमन्वितश्रीसमयसारमहाग्रंथाय
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
-दोहा-
समयसार का सार ही, है जीवन का सार।
शेष द्रव्य का भार है, जीवन में निस्सार।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।