रत्नों के खंभों पर सुस्थित, मुक्तामालाओं से सुंदर।
श्रीमंडपभूमी के आगे त्रयकटनी हैं दिखती मनहर।।
सबसे ऊपर है गंधकुटी, कमलासन पर जिनवर शोभें।
हम उनका इत आह्वानन कर, पूजत ही भवदुख से छूटें।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आहृवाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरण् ।
यमुना नदि का शुचि नीर, झारी पूर्ण भरूँ।
मैं पाऊँ भवदधि तीर, तुम पद धार करूँ।।
तीर्थंकर केवलज्ञान, कल्याणक पूजूँ।
हो स्वपर भेद विज्ञान, कर्मों से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन सार, गंध सुगंध करे।
चर्चूं जिनपद सुखकार, मन की तपन हरे।।
तीर्थंकर केवलज्ञान, कल्याणक पूजूँ।
हो स्वपर भेद विज्ञान, कर्मों से छूटूँ।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वलवर अक्षय लाय, पुंज चढ़ाऊँ मैं।
निज अक्षय पद को पाय, यहाँ न आऊँ मैं।।
तीर्थंकर केवलज्ञान, कल्याणक पूजूँ।
हो स्वपर भेद विज्ञान, कर्मों से छूटूँ।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला मचकुंद गुलाब, चुन चुन के लाऊँ।
अर्पूं प्रभु के पादाब्ज, निज सुख यश पाऊँ।।
तीर्थंकर केवलज्ञान, कल्याणक पूजूँ।
हो स्वपर भेद विज्ञान, कर्मों से छूटूँ।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं लड्डू मोतीचूर, थाली भर लाऊँ।
हो क्षुधा वेदनी दूर, अर्पत सुख पाऊँ।।
तीर्थंकर केवलज्ञान, कल्याणक पूजूँ।
हो स्वपर भेद विज्ञान, कर्मों से छूटूँ।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतमय दीपक की ज्योति, जग अंधेर हरे।
मुझ मोह तिमिर हर ज्योति, ज्ञान उद्योत करे।।
तीर्थंकर केवलज्ञान, कल्याणक पूजूँ।
हो स्वपर भेद विज्ञान, कर्मों से छूटूँ।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप , खेऊँ अग्नी में।
उड़ती दशदिश में धूम्र, पैâले यश जग में।।
तीर्थंकर केवलज्ञान, कल्याणक पूजूँ।
हो स्वपर भेद विज्ञान, कर्मों से छूटूँ।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अंगूर अनार, श्रीफल भर थाली।
अर्पूं जिन आगे सार, मनरथ नहिं खाली।।
तीर्थंकर केवलज्ञान, कल्याणक पूजूँ।
हो स्वपर भेद विज्ञान, कर्मों से छूटूँ।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल आदिक अर्घ बनाय, उसमें रत्न मिला।
जिन आगे नित्य चढ़ाय, पाऊँ सिद्ध शिला।।
तीर्थंकर केवलज्ञान, कल्याणक पूजूँ।
हो स्वपर भेद विज्ञान, कर्मों से छूटूँ।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर परमेश, तुम पद पंकज में सदा।
जग में शांती हेत, शांतीधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, सुरभित करते दश दिशा।
तीर्थंकर पादाब्ज, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
ज्ञाननेत्र से लोकते, लोक अलोक समस्त।
चौबीसों जिनराज सम, शिवपथ करो प्रशस्त।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाएकादश्यां ऋषभदेवकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लाएकादश्यां अजितनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाचतुर्थ्यां संभवनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लाचतुर्दश्यां अभिनंदनजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाएकादश्यां सुमतिनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लापूर्णिमायां पद्मप्रभजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाषष्ठ्यां सुपार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णासप्तम्यां चंद्रप्रभजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाद्वितीयायां पुष्पदंतनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाचतुर्दश्यां शीतलनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाअमावस्यां श्रेयांसनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वितीयायां वासुपूज्यजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाषष्ठ्यां विमलनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाअमावस्यायां केवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लापूर्णिमायां धर्मनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लादशम्यां शांतिनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लातृतीयायां कुंथुनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाद्वादश्यां अरनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं िनर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाद्वितीयायां मल्लिनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णानवम्यां मुनिसुव्रतनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाएकादश्यां नमिनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाप्रतिपदायां नेमिनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाचतुर्दश्यां पार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लादशम्यां महावीरजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
केवलज्ञानी के श्री विहार, उपदेश क्रिया स्वयमेव घटें।
बिन इच्छा प्रभु की ध्वनि खिरती, भव्यों का हो पुण्य जबें।।
भूख तृषादिक बाधा नहिं, अतएव न कवलाहार उन्हें।
भक्ति भाव से मैं नित पूजूँ, केवलज्ञान कल्याण दिने।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं केवलज्ञानकल्याणकसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो: नम:।
अतिअद्भुत लक्ष्मी धरें, समवसरण प्रभु आप।
तुम धुनि सुन भविवृन्द नित, हरें सकल संताप।।१।।
जय जय त्रिभुवन पति का वैभव, अन्तर का अनुपम गुणमय है।
जो दर्श ज्ञान सुख वीर्य रूप, आनन्त्य चतुष्टय निधिमय है।।
बाहर का वैभव समवसरण, जिसमें असंख्य रचना मानी।
जब गणधर भी वर्णन करते, थक जाते मनपर्यय ज्ञानी।।२।।
यह समवसरण की दिव्य भूमि, इक हाथ उपरि पृथ्वी तल से।
द्वादश योजन उत्कृष्ट कही, इक योजन हो घटते क्रम से।।
यह भूमि कमल आकार कही, जो इंद्रनीलमणि निर्मित है।
है गंधकुटी इस मध्य सही, जो कमल कर्णिका सदृश है।।३।।
पंकज के दल सम बाह्य भूमि, जो अनुपम शोभा धारे है।
इस समवसरण का बाह्य भाग, दर्पण तल सम रुचि धारे है।।
सब बीस हजार हाथ ऊँचा, यह समवसरण अति शोभे है।
एकेक हाथ ऊँची सीढ़ी, सब बीस हजार प्रमित शोहै।।४।।
पंगू अंधे रोगी बालक, औ वृद्ध सभी जन चढ़ जाते।
अंतर्मुहूर्त के भीतर ही, यह अतिशय जिन आगम गाते।।
इसमें शुभ चार दिशाओं में, अति विस्तृत महावीथियाँ हैं।
वीथी में मानस्तंभ कहे, जिनकी कलधौत पीठिका हैं।।५।।
इक योजन से कुछ अधिक तुँग, बारह योजन से दिखते हैं।
इनमें है दो हजार पहलू, स्फटिक मणि के चमके हैं।।
उनमें चारों दिश में ऊपर, सिद्धोें की प्रतिमाएँ राजें।
मानस्तंभों की सीढ़ी पर लक्ष्मी की मूर्ति अतुल राजें।।६।।
ये अस्सी कोशों तक सचमुच, अपना प्रकाश पैâलाते हैं।
जो इनका दर्शन करते हैं, वे निज अभिमान गलाते हैं।।
मानस्तंभों के चारों दिश, जल पूरित स्वच्छ सरोवर हैं।
जिनमें अति सुन्दर कमल खिलें, हंसादि रवों से मनहर हैं।।७।।
ये प्रभु का सन्निध पा करके, ही मान गलित कर पाते हैं।
अतएव सभी अतिशय भगवन्! तेरा ही गुरुजन गाते हैं।।
मैं भी प्रभु तुम सन्निध पाकर, सम्पूर्ण कषायों को नाशूँ।
प्रभु ऐसा वह दिन कब आवे, जब निज में निज को परकाशूँ।।८।।
जिननाथ! कामना पूर्ण करो, निज चरणों में आश्रय देवो।
जब तक नहिं मुक्ति मिले मुझको, तब तक ही शरण मुझे लेवो।।
तब तक तुम चरण कमल मेरे, मन में नित स्थिर हो जावें।
जब तक नहिं केवल ‘ज्ञानमती’, तब तक मन मन तुम पद ध्यावे।।९।।
तीर्थंकर गुणरत्न को, गिनत न पावें पार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।१०।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो पंचकल्याणक महापूजा महोत्सव को करें।
वे पंचपरिवर्तन मिटाकर पंच लब्धी को धरें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप हो मुक्तिकन्या वश करें।
‘सुज्ञानमति’ रविकिरण से भविजन कमल विकसित करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।