—अथ स्थापना-गीता छंद—
गणधर बिना तीर्थेश की, वाणी न खिर सकती कभी।
निज पास में दीक्षा ग्रहें, गणधर भि बन सकते वही।।
तीर्थेश की ध्वनि श्रवण कर, उन बीज पद के अर्थ को।
जो ग्रथें द्वादश अंगमय, मैं जजूँ उन गणनाथ को।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगणधरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगणधरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगणधरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—भुजंगप्रयात
पयोराशि का नीर निर्मल भराऊँ।
गुरू के चरण तीन धारा कराऊँ।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि१ को मैं।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगंधीत चंदन लिये भर कटोरी।
जगत्तापहर चर्च हूँ हाथ जोरी।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धुले श्वेत अक्षत लिये थाल भरके।
धरूँ पुंज तुम पास बहु आश धर के।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही केतकी पुष्प की माल लाऊँ।
सभी व्याधि हर आप चरणों चढ़ाऊँ।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस मिष्ट पक्वान्न अमृत सदृश ले।
परमतृप्ति हेतू चढ़ाऊँ तुम्हें मैं।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिखा दीप की जगमगाती भली है।
जजत ही तुम्हें ज्ञानज्योती जली है।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगुरु धूप खेते उड़े धूम्र नभ में।
दुरित कर्म जलते गुरूभक्ति वशतें।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अनन्नास नींबू बिजौरा लिये हैं।
तुम्हें अर्पते सर्व वांछित लिये हैं।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
लिये थाल में अर्घ है भक्ति भारी।
गुरू अर्चना है सदा सौख्यकारी।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
गणधर पदधारा करूँ, चउसंघ शांती हेत।
शांतीधारा जगत में, आत्यांतिक सुख देत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(चौरासी गणधर गुरुसेवित 84 अर्घ्य)
-दोहा-
गणधर गुरु से वंद्य नित, तीर्थंकर वृषभेश।
पुष्पांजलि से पूजते, नशते विघ्न अशेष।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
श्री ऋषभदेव के तृतिय पुत्र, मां यशस्वती के नंदन हो।
तज पुरिमतालपुर नगर राज्य, मुनि बने जगत अभिनन्दन हो।।
सब ऋद्धि समन्वित गणधर गुरु, हे ‘ऋषभसेन’ तुमको वंदन।
तुम प्रथम तीर्थकर के पहले, गणधर हम करते नित्य यजन।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभसेनगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीकुंभ’ गणीश्वर द्वादशगण, के प्रमुख नाथ के गुण गाते।
सब गुणरत्नों से भरित आप, नित आत्म सुधारस आस्वादें।।
सब विघ्न विनाशें भक्तों के, इसलिये भक्ति से हम पूजें।
गणधरगुरु से वंदित प्रभु की, पूजा कर भवदुख से छूटें।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंभगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्री दृढ़रथ’ गणधर ऋषभदेव के समवसरण के षट्पद हो।
भक्ती से निजपरमानंदामृत पीते आप तृप्तियुत हो।।
सम्पूर्ण शास्त्र के ज्ञाता हो, फिर भी जिनवर के दास बने।
हम पूजें ऋषभदेव जिनको, पूरे हों वांछित कार्य घने।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीदृढ़रथगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्री शतधनु’ गणधर सप्त ऋद्धि-धारी श्रुत वारिधि पारंगत।
निज शुद्ध बुद्ध परमात्मतत्त्व, ध्याते फिर भी प्रभु गुण में रत।।
उन प्रभु आदीश्वर के गुण को, मैं भी गाऊँ नित भक्ति करूँ।
जल आदिक अर्घ्य चढ़ा करके, निज सम्यग्दर्शन शुद्धि करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशतधनुगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीवृषभेश्वर के समवसरण में, कहे ‘देवशर्मा’ गणधर।
ये भक्तजनों के कष्ट हरें, इनको जो पूजें रुचि धरकर।।
इनसे वंदित जिन चरणकमल, उन प्रभु को अर्चूं श्रद्धा से।
श्रीऋषभदेव जिनराज शरण, जो पावें छूटें विपदा से।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीदेवशर्मागणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीदेवभाव’ गणधर स्वामी, मनपर्ययज्ञानी जगत्राता।
व्यवहार रतनत्रय के बल से, निश्चय रत्नत्रय को साधा।।
श्रीऋषभदेव सा गुरु पाया, निज ज्ञानज्योति से आलोकित।
उन प्रभु के चरणकमल पूजूँ, निज को पाऊँ निज से शोभित।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीदेवभावगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीनंदन’ गणधर गुरु को नित, वंदूँ आनन्दित होकर के।
वे ज्ञानानंद स्वभावी थे, प्रतिक्षण आत्मा को ध्याकर के।।
वे ऋषभदेव के शिष्य बने, उस भव से ही शिवधाम लिया।
मैं पूजूँ अर्घ्य चढ़ाकर के, ग्ाुरु के गुरु को शिर नमित किया।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीनन्दनगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीनंदन’ गणधर गुणधर, सम्पूर्ण परिग्रह के त्यागी।
निज को निज में निज के द्वारा, नित ध्याते निजगुण अनुरागी।।
श्रीऋषभदेव के निकट रहें, अविरत जिनभक्ती में रत थे।
मैं पूजूँ अर्घ्य चढ़ा करके, मेरे भव-भव के फंद कटें।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसोमदत्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीसूरदत्त’ गणधर स्वामी, संयतमुनि नग्न दिगम्बर थे।
अट्ठाइस मूलगुणों से युत, बहुविध उत्तर गुणधारी थे।।
ये ऋषभदेव के चरणकमल, में नित नमते उनको वंदूँ।
गणधर गुरु को तीर्थंकर को, पूजत ही पापअरी खंडूँ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसूरदत्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीऋषभदेव के सन्निध में, गणधर गुरु ‘वायूशर्मा’ थे।
सब कर्म धूलि को उड़ा-उड़ा, अगणित गुणयुत शुचिधर्मा थे।।
संयम बल से त्रयविध अवधी, पाकर निरवधि गुण रत्नाकर।
उनको उनके गुरु को पूजूँ, पा जाऊँ अनवधि सुखसागर।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवायुशर्मागणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीयशोबाहु’ गणधर गुणधर, निजगुण के यश को पैâलाया।
जिसमें धर्मामृत भरा हुआ, इस अतुल तीर्थ में नहलाया।।
भाक्तिकजन इसमें नहा नहा, निज पाप मलों को धोते थे।
उन तीर्थ तीर्थकर को यजते, सब वांछित पूरे होते थे।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीयशोबाहुगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘देवाग्नी’ गणधर ने तप बल, से सर्व ऋद्धियाँ पायी थीं।
ध्यानानल में सब कर्म जला, कर सर्वसिद्धियाँ पायी थीं।।
श्रीऋषभदेव के चरणकमल, के भ्रमर बने थे जग त्राता।
उन गुरु को भगवत् चरणों को, मैं पूजूँ मिले सर्व साता।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीदेवाग्निगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-अडिल्ल छंद-
बुद्धि ऋद्धि में अवधिज्ञान है ऋद्धि जो।
अणु से महास्कंध पर्यंते मूर्त को।।
जाने गणधर ‘अग्निदेव’ सब ऋद्धियुत।
उनके गुरु को भी मैं पूजूँ सिद्धिकृत।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं अग्निदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनुज लोक के भीतर चिंतित वस्तु को।
जाने मूर्तिक द्रव्य मनपर्यय ज्ञान वो।।
इन ऋद्धीयुत ‘अमितगुप्त’ गणनाथ को।
उनके गुरु तीर्थंकर प्रभु को नित जजों।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं अमितगुप्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकालोक प्रकाशे केवलज्ञान जो।
सब ऋद्धीयुत पाते जो इस ऋद्धि को।।
उन ‘मित्राग्नी’ गणधर को मैं नित जजूँ।
श्रीऋषभदेव को पूजूँ निज आतम भजूँ।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमित्राग्निगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शब्द संख्यातों अर्थ अनंतों से युते।
अनंत लिंगों साथ बीजपद जानते।।
बीजऋद्धियुत भी ‘हलभृत’ गणनाथ हैं।
उनके गुरु तीर्थंकर त्रिभुवन नाथ हैं।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीहलभृतगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शब्दरूप बीजों को मति से जो धरें।
मिश्रण बिन बुद्धी कोठे में जो भरें।।
गणधरदेव ‘महीधर’ जिनवर भक्त थे।
उनके गुरु तीर्थंकर प्रभु को हम जजें।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहीधरगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु उपदेश सुपाय एक पद को ग्रहें।
उसके ऊपर या पहले के पद लहें।।
उभय ग्रहें या त्रयविध पदानुसारिणी।
गुरु ‘महेन्द्र’ की जिनभक्ती भवहारिणी।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहेन्द्रगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रोत्रेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाहिरे।
अक्षर अनक्षरात्मक वच सुन उत्तरें।।
गुरु ‘वसुदेव’ संभिन्नश्रोतृ ऋद्धी धरें।
उनके गुरु तीर्थंकर के गुण उच्चरें।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवसुदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रसनेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य जो।
संख्यातों योजन नाना रस स्वाद को।।
जो जाने दूरास्वादन ऋद्धी धरें।
देव ‘वसुंधर’ जिनभक्ती से भव तरें।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवसुंधरगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्पर्शेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य भी।
संख्यातों योजन स्पर्श को जानहीं।
‘अचलगुरु’ दूरस्पर्श ऋद्धि आदिक सहित।
उनके गुरु ऋषभेश्वर हैं त्रिभुवन महित।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअचलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घ्राणेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य भी।
संख्यातों योजन सुगंध को जान हीं।।
‘मेरू’ गणधर दूरघ्राण ऋद्धी धरें।
उनके गुरु को पूजत हम समसुख भरें।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमेरूगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्णेन्द्रिय उत्कृष्ट विषय के बाहिरे।
संख्यातों योजन मनुष्य पशु अक्षरे।।
पृथक् पृथक् सुन लेय ‘मेरुधन’ गणधरा।
उनके गुरु को जजूँ सदा वे सुखकरा।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमेरूधनगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेत्रेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र से बाह्य जो।
चक्रवर्ति के नेत्रविषय से अधिक वो।।
दूरदर्शिता ऋद्धि ‘मेरुभूती’ धरें।
तीर्थंकर के चरणकमल में नति करें।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमेरुभूतिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-नरेन्द्र छंद-
रोहिणी प्रभृति महाविद्यायें, पाँच शतक मानी हैं।
लघु विद्या अंगुष्ठप्रसेना प्रभृति सप्तशत ही हैं।।
दशम पूर्व पढ़ने पर च्युत निंह दशपूर्वित्व कहाते।
गुरू ‘सर्वयश’ ऋषभेश्वर के गुणयश को नित गाते।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसर्वयशगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ग्यारह अंग चतुर्दश पूरब पढ़कर श्रुतकेवलि हों।
ऋद्धि चतुर्दशपूर्वि धरें नित ‘सर्वयज्ञ’ गणधर वो।।
ऋषभदेव के समवसरण में धर्मध्यान के ध्यानी।
उनको उनके गुरु को पूजूँ बनूँ आत्म श्रद्धानी।।२६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसर्वयज्ञगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभ्र भौम अंग स्वर व्यंजन लक्षण चिन्ह स्वपन हों।
आठ निमित्तों से सबके शुभ अशुभ बताते मुनि जो।।
वे अष्टांगनिमित्त ऋद्धिधर ‘सर्वगुप्त’ गणधर गुरु।
ऋषभदेव की भक्ती में रत नमूँ नमूँ मैं रुचिधर।।२७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसर्वगुप्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
औत्पत्तिक परिणामिक विनयिक कही कर्मजा बुद्धी।
प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि चउविधधर गणधर गुरु बनते भी।।
नाम ‘सर्वप्रिय’ ऋषभदेव के शिष्य सर्व जगत्राता।
जजूँ तीर्थकर चरणकमल को पाऊँ निज सुखसाता।।२८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसर्वप्रियगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु उपदेश बिना कर्मों के, उपशम से तप बल से।
जो प्रत्येक बुद्धि ऋद्धी है, ऋषियों के ही प्रगटे।।
‘सर्वदेव’ गणधर गुरुवर इस ऋद्धि सहित सुखकारी।
उनके गुरु ऋषभेश्वर को मैं, पूजूँ भवदुखहारी।।२९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसर्वदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब परमत को सुरपति को भी, जो कर सकें निरुत्तर।
इन वादित्वऋद्धियुत गणधर को वंदूँ अंजलिकर।।
‘सर्वविजय’ से वंदित जिनवर चरणकमल शिर नाऊँ।
गणधरगुरु को तीर्थंकर को जजत आत्मसुख पाऊँ।।३०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसर्वविजयगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अणू बराबर छिद्रों में भी, जो ऋषि घुस कर बैठें।
चक्रवर्ति का कटक बना दें अद्भुत विक्रिय करके।।
ऐसे अणिमा ऋद्धि विभूषित ‘विजयगुप्त’ गणधर को।
नमूँ इन्हों के गुरु तीर्थंकर जजूँ स्वात्मसुख झट हो।।३१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविजयगुप्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरु बराबर तनु कर सकते महिमाऋद्धि धरें जो।
विक्रिय ऋद्धी के बल से गुरु पर उपकार करें वो।।
‘विजयमित्र’ गणधर गुरु इन सब ऋद्धि समन्वित माने।
उनको उनके गुरु को पूजत कर्म कालिमा हाने।।३२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविजयमित्रगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लघिमा ऋद्धि सहित ऋषि वायू सम हल्का तनु कर सकते।
जन जन के उपकार हेतु ही, ऋद्धि प्रयोगें रुचि से।।
‘श्रीविजयिल’ गणधर गुरु ऐसे उनके चरण नमूँ मैं।
श्रीऋषभेश्वर को नित पूजूँ आतम सौख्य भरूँ मैं।।३३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविजयिलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अपराजित’ गणधर प्रभु जग में सदा विजयशाली थे।
अधिक भारयुत वङ्कासदृश तनु तप बल से धर सकते।।
गरिमा ऋद्धि सहित को वंदूँ तपमहिमा की गरिमा।
वंदूँ ऋषभदेव तीर्थंकर पाउँâ तप की महिमा।।३४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअपराजितगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भूमी पर बैठे ही बैठे, सूर्य चंद्र छू सकते।
अंगुलि से ही मेरुशिखर, छूकर मस्तक से नमते।।
प्राप्तिनाम विक्रिया सहित, ‘वसुमित्र’ गणाधिप वंदूँ।
तीर्थंकर श्रीआदिनाथ के, शिष्यों को अभिनंदूँ।।३५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवसुमित्रगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भू पर भी जलसम अवगाहे जल में भू सम चलते।
इस प्राकाम्यविक्रिया बल से अद्भुत महिमा धरते।।
‘विश्वसेन’ गणधर को वंदूँ नाना ऋद्धि सहित जो।
आदिनाथ के चरणकमल के भ्रमर भक्ति तत्पर वो।।३६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविश्वसेनगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-रोला छंद-
जग में प्रभुता वृद्धि यह ईशित्व कहावे।
‘साधुषेण’ के सिद्ध सब जन से यश पावें।।
उन गणधर से पूज्य ऋषभदेव तीर्थंकर।
जजूँ भक्ति से नित्य पाऊँ सौख्य निरन्तर।।३७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसाधुषेणगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जन वश में होय, ऋद्धि वशित्व कहावे।
‘सत्यदेव’ गणदेव, नाना ऋद्धि धरावें।।
इनसे पूजित पाद, ऋषभदेव भगवंता।
करूँ निरन्तर जाप, पाऊँ सौख्य अनंता।।३८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसत्यदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिसके बल से शैल, शिला आदि के मधि से।
वृक्ष आदि में छेद, किये बिना ही चलते।।
विक्रिय अप्रतिघात, ‘देवसत्य’ गुण धरते।
ऋषभदेव के पास, रहें द्विदश गण धरते।।३९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीदेवसत्यगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धी से साधु, हों अदृश्य निंह दिखते।
विक्रिय अंतर्धान, तप बल से ही उपजे।।
‘सत्यगुप्त’ गणनाथ, बहुविध ऋद्धी धारी।
उन गुरु आदिनाथ, जजूँ सर्वहितकारी।।४०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसत्यगुप्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकहि साथ अनेक-रूप बना सकते जो।
कामरूप यह ऋद्धि, तप बल से प्रगटे जो।।
‘सत्यमित्र’ गणनाथ, ऋषभदेव गुण गाते।
नमूँ नमाकर माथ, तीर्थंकर गुण गाके।।४१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसत्यमित्रगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धी से साधु, गगन गमन कर सकते।
धरें गगनगामित्व, ‘निर्मल’ मुनि तपबल से।।
इनके गुरु वृषभेश, उनको नित्य जजूँ मैं।
रोग, शोक, संक्लेश, सब दु:ख दूर करूँ मैं।।४२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीनिर्मलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जल में चलते जंतु-घात वहाँ निंह होवे।
जलचारण यह ऋद्धि, तपश्चरण से होवे।।
‘श्रीविनीत’ गणधार, नमूँ, नमूँ चित लाके।
ऋषभदेव को माथ, नाऊँ अर्घ्य चढ़ाके।।४३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविनीतगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चउ अंगुल भू उपरि, चलते अधर गगन में।
जंघाचारण ऋद्धि, धरते समवसरण में।।
‘संवर’ गणधर देव, उनके गुरु आदीश्वर।
जजत करूँ दु:ख छेव, पाऊँ सुख क्षेमंकर।।४४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंवरगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फल पत्ते अरु फूल, उन पर चरण धरें भी।
चारणकिरिया ऋद्धि, जीवघात निंह हो भी।।
‘मुनीगुप्त’ गणनाथ, वंदूँ व्याधि नशाऊँ।
नमूँ नमाकर माथ, ऋषभदेव गुण गाऊँ।।४५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमुनिगुप्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्निशिखा पर चलें, बाधा रंच न होवे।
धूएं पर भी चलें, पग स्खलित न होवे।।
‘मुनीदत्त’ गणनाथ, अग्निधूम चारणयुत।
आदीश्वर के शिष्य, नमूँ नमूँ मैं शिरनत।।४६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअग्निदत्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अप्कायिक वध टाल, मेघों पर चल सकते।
जलधारा पर चलें, चारणऋषि बन करके।।
‘मुनीयज्ञ’ गणदेव, ऋषभदेव को नमते।
हम पूजें कर सेव, नाम मंत्र जप जपके।।४७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमुनियज्ञगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मकड़ी के तंतु, पर हल्के पग धरते।
बाधा करें न रंच, चारण ऋद्धी धरते।।
‘मुनीदेव’ गणनाथ, नमूँ नमूँ नित शिर नत।
जजूँ तीर्थकर नाथ, पाऊँ जिनगुणसंपत्।।४८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमुनिदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-
जो सूर्य चंद्र ग्रह नखत तारका किरणों का अवलंबन लें।
बहुतेक योजनों गमन करें ज्योतिश्चारण क्रिय ऋद्धी लें।।
गुरु ‘गुप्तियज्ञ’ गणधर बनकर, संपूर्ण ऋद्धि के स्वामी थे।
श्री आदिनाथ के चरण नमें, जो त्रिभुवन अंतर्यामी थे।।४९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीगुप्तियज्ञगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धी से मुनि वायु पंक्ति, के आश्रय से नभ में चलते।
स्खलन रहित पग धर धरके, बहुते कोशों तक चल सकते।।
यह वायुचारणा क्रिया ऋद्धि, ‘श्रीमित्रयज्ञ’ गणधर धरते।
उनके गुरु ऋषभदेव को नित, पूजत ही रोग शोक नशते।।५०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमित्रयज्ञगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप ऋद्धी के हैं सात भेद, उनमें हि उग्र तप पहला है।
एक-एक उपवास अधिक, जीवन भर बढ़ता रहता है।।
गणदेव ‘स्वयंभू’ ने बहुविध, ऋद्धी से आत्मविकास किया।
श्री ऋषभदेव को ध्या ध्याकर, निज केवलज्ञान प्रकाश लिया।।५१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीस्वयंभूगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला आदिक उपवास करें, जब ऋद्धि दीप्तमय हो जाती।
आहार न हो बल तेज बढ़े, निंह होती उन्हें भूख व्याधी।।
यह इस ऋद्धी का ही प्रभाव, तनु में बल माँस रुधिर वृद्धी।
‘भगदेव’ गणीश्वर वृषभेश्वर, को पूजत मिलती सब सिद्धी।।५२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीभगदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धी से आहार ग्रहें, वह तपे लोह पर जल सदृश।
नीहार न हो मल मूत्र शुक्र, आदिक धातू निंह बने विविध।।
बस शक्ति बढ़े तप बढ़े सदा, ‘‘भगदत्त’’ गणीश्वर को प्रणमूँ।
श्री ऋषभदेव को नित्य जजूँ, भव भव के कर्म कलंक वमूँ।।५३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीभगदत्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अणिमादिक चारण आदिक, नाना ऋद्धि से युक्त रहें।
मंदरपंक्ती सिंह निष्क्रीड़ित, आदिक उत्तम उपवास गहें।।
वो चार ज्ञानधारी ऋषिवर, ही महातपो ऋद्धी धारें।
‘भगफल्गू’ गणधर के गुरुवर, श्री ऋषभदेव भव से तारें।।५४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीभगफल्गूगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनशन आदिक बारह विध के, तप उग्र उग्र जो करते हैं।
ज्वर आदिक से पीड़ित हो भी, आतापनादि तप धरते हैं।।
‘श्रीगुप्तफल्गु’ तप ऋद्धि सहित, गणधर गुरु विघ्नविनायक हैं।
उनके गुरु ऋषभदेव जिनवर, पूजत सुख संपतिदायक हैं।।५५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीगुप्तफल्गुगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि घोर पराक्रम ऋद्धी से, अतिशायी शक्ती पाते हैं।
त्रिभुवन संहार करण जलधी, शोषण में समरथ होते हैं।।
यद्यपि ये कार्य नहीं करते, जगबन्धू ‘मित्रफल्गु’ गणधर।
उनके गुरु ऋषभदेव जिनवर, मैं पूजूँ भवभय पातकहर।।५६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमित्रफल्गुगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अघोर यानी पूर्ण शांत, महव्रत समिती गुप्ती पालें।
वे व्रतमय ब्रह्मा में चरते, अघोर ब्रह्मचर्या पालें।।
इन ऋद्धिसहित ‘श्रीप्रजापति’ गणधर की भक्ती करने से।
वध रोग कलह दुर्भिक्ष वैर, नशते भगवन् की भक्ती से।।५७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीप्रजापतिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब द्वादशांग अंतर्मुहूर्त में, चिंतन करने में समरथ।
जो मनोबली ऋद्धी धारें, वे शुक्लध्यान में हों समरथ।।
‘श्रीसर्वसंग’ गणधर गुरुवर, इन ऋद्धि सहित भवि सुखदाता।
उनके गुरु ऋषभदेव जिनवर, को पूजत मिले सर्व साता।।५८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसर्वसंगगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुत द्वादशांग उच्चारण कर, पढ़ते निंह कंठ थके उनका।
वह वचनबली ऋद्धी प्रगटे, वे मेटें जग की सर्व व्यथा।।
‘श्रीवरुण’ गणी को नित प्रणमूँ उनके गुरु ऋषभदेव वंदूँ।
श्रुतज्ञान पूर्ण करने हेतू, गणधर जिनवर को नित्य जजूँ।।५९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवरुणगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन को भी अंगुलि ऊपर, जो उठा सकें वो कायबली।
नानाविध आसन कायक्लेश, करने से हो यह ऋद्धि भली।।
‘धनपालक’ गणधर को प्रणमूँ, सब ऋद्धि सिद्धि सुख के दाता।
उनके गुरु ऋषभदेव को नित, मैं पूजूँ मिले सौख्य साता।।६०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीधनपालगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पद्धड़ी छंद-
औषधि ऋद्धी के आठ भेद, आमर्शौषधि यह ऋद्धि एक।
‘मघवान’ गणी यह ऋद्धि धरें, इन गुरु को वंदत पाप हरें।।६१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमघवानगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो क्ष्वेलौषधि ऋद्धी धरते, वे सर्वरोग संकट हरते।
गुरु ‘तेजोराशी’ गणधर थे, उन गुरु ऋषभेश्वर को जजते।।६२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीतेजोराशिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु जल्लौषधि ऋद्धी धरंत, ‘महावीर’ नाम गणधर महंत।
उनके गुरु पूजूँ आदिनाथ, भवदधि डूबत को देयं हाथ।।६३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहावीरगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मलौषधी धरते महान्, गणईश ‘महारथ’ भाग्यवान्।
श्री ऋषभदेव के शिष्य मान्य, पूजत ही पावें स्वात्म साम्य।।६४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहारथगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषि विप्रुष औषधि ऋद्धि धार, सब के दु:ख दारिद्र करें छार।
उनके गुरु ऋषभेश्वर महान्, जो ‘विशालाक्ष’ गणधर प्रधान।।६५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविशालाक्षगणधरदेवाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनसे स्पर्शित नीर वायु, सब रोग हरे करते चिरायु।
सर्वोषधि धरते ‘महाबाल’, उनके गुरु पूजूँ जगत्पाल।।६६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहाबालगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे कटु या विष व्याप्त अन्न, बस वचन मात्र से निर्विषान्न।
मुखनिर्विष युत ‘शुचिसाल’ साधु, उनके गुरु को पूजूँ अबाध।।६७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशुचिसालगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो रोग विषादि समेत जीव, अवलोकन से हों स्वस्थ जीव।
दृष्टीनिर्विष ‘श्रीवङ्का’ साधु, उन गुरु को जजते स्वात्मस्वादु।।६८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवङ्कागणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आशीविष ऋद्धी जो धरंत, दुरआशिष से मरते तुरंत।
श्री ‘वङ्कासार’ न करें प्रयोग, उन गुरु को नमते मिटे शोक।।६९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवङ्कासारगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दृष्टीविषयुत गणि ‘चन्द्रचूल’, करुणासागर जग के नुकूल।
उनके गुरु ऋषभेश्वर जििंनद, मैं जजूँ बनूँ अतिशय अनिंद्य।।७०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीचंद्रचूलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर में आया रूखा अहार, पयवत् परिणमता स्वाद धार।
श्री ‘जयकुमार’ गणधर नमंत, उन गुरु को पूजत सुख अनंत।।७१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीजयकुमारगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर में आया रुक्षादि अन्न, तप से बन जाता मधुर अन्न।
‘महारस’ गणधर के गुरु जिनेश, मैं पूजूँ पाऊँ सुख हमेश।।७२।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहारसगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-स्रग्विणी छंद-
अमृतासावि विष वस्तु अमृत करें।
उन वचन दु:खहर कर्ण अमृत भरें।।
‘कच्छ’ गणधर उन्हीं के नमूँ पाद को।
शिष्य जिनके उन्हें भी जजूँ भाव सों।।७३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकच्छगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हस्ततल में रखा रुक्ष अन्नादि भी।
दिव्य वच भी अमृतसम करें तुष्टि ही।।
जो ‘महाकच्छ’ गणधर उन्हों के प्रभू।
मैं जजूँ भक्ति से पाऊँ आनन्द भू।।७४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहाकच्छगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नमि’ महासाधु गणधर बने नाथ के।
ऋद्धि अक्षीण भोजन मिली त्याग से।।
चक्रवर्ती कटक जीम लेवे भले।
ना घटे पाद अर्चूं सदा अर्घ्य ले।।७५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीनमिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भू चतुष्कोण हो चार ही धनुष भी।
देव नर भी असंख्ये वहाँ तिष्ठहीं।।
नाम अक्षीण आलय महाऋद्धि से।
नाथ के शिष्य ‘विनमी’ जजूँ भक्ति से।।७६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविनमिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-गीता छंद-
‘श्रीबल’ गणी ऋषभदेव के, सब ऋद्धियों के नाथ हैं।
सम्पूर्ण गुण रत्नों भरें फिर भी कुछ न कुछ उन पास है।।
जिनदेव के चरणाब्ज षट्पद आत्मसुख में मग्न हैं।
उनको उन्हों के नाथ को पूजत मिले सुखकंद है।।७७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीश्रीबलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अतिबल’ गणी ऋषभेश जिन के समवसृति में शोभते।
अठरह सहस शीलों, गुणों से आत्मसुख को पोषते।।
प्रभु भक्ति में लवलीन हो निज आत्म का चिंतन करें।
गणधर गणों से वंद्य जिनवर जजत भव भंजन करें।।७८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअतिबलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीभद्रबल’ चउज्ञानधारी ऋद्धियों से पूर्ण हैं।
उत्तर गुणों से राजते यमदु:ख करते चूर्ण हैं।।
ऋषभेश के पदपंकजों की नित्य करते वंदना।
गणधर गुरू को आदिप्रभु को पूजते दुख रंचना।।७९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीभद्रबलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नंदी’ गणाधिप नाथ की दिव्यध्वनी सुन मोदते।
द्वादश गणों को द्वादशांगी में सतत संबोधते।।
निज शुद्ध परमानंदमय ज्ञानाब्धि में अवगाहते।
फिर भी जिनेश्वर चरण वंदे हम उन्हें शिर नावते।।८०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीनंदिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर ‘महाभागी’ जिनेश्वर पादपंकज ध्यावते।
बहु पुण्य संपादन करें फिर पाप पुण्य नशावते।।
निज में सुपरमाल्हाद अमृत पान कर शिव पावते।
उनके गुरू वृषभेश को हम पूजते अति चाव से।।८१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहाभागिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीनंदिमित्र’ गणेश नित आदीश का वंदन करें।
चौरासि लक्षोत्तर गुणों से पूर्ण भव खण्डन करें।।
संपूर्ण ऋद्धि समेत फिर भी नग्नमुद्रा धारते।
उनको जजूँ जिन को नमूँ फिर तिरूँ भक्तीनाव से।।८२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीनंदिमित्रगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीकामदेव’ गणीश नित तीर्थेश की भक्ती करें।
निज भक्त को तारें भवोदधि से स्वयं गुण से तिरें।।
उनके चरण को वंद कर वृषभेश की पूजन करूँ।
निज साम्य अमृत को पिऊँ यमपाश का छेदन करूँ।।८३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकामदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनुपम’ गणीश्वर सर्व उपमारहित अनुपम गुण धरें।
संपूर्ण लोक अलोक में निज कीर्तिवल्ली विस्तरें।।
सब ऋद्धि सिद्धि समेत फिर भी आदिजिन के भक्त थे।
हम भी जजें गणधरगुरू जिनराज को अति भक्ति से।।८४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनुपमगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद—पूर्णार्घ्य-
श्री ऋषभदेव के चौरासी गणधर जिनमुद्राधारी थे।
चौरासि हजार महामुनि के स्वामी अनवधि गुणधारी थे।।
श्रीऋषभसेन आदिक गणपति श्रीऋषभदेव की भक्ति करें।
गणधरगुरु नमि तीर्थकर को पूजत निज आतम पुष्ट करें।।८५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभसेनादिअनुपमपर्यंतचतुरशीतिगणधरगुरुदेववंदित-
चरणाम्बुजाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय नम:।
(108 बार या ९ बार पुष्प या पीले तंदुल से जाप्य करें)
—त्रिभंगी छंद—
जय जय श्री गणधर, धर्मधुरंध्र, जिनवर दिव्यध्वनी धारें।
द्वादश अंगों में, अंग बाह्य में, गूँथे ग्रन्थ रचें सारे।।
गुरु नग्न दिगंबर, सर्व हितंकर, तीर्थंकर के शिष्य खरे।
मैं नमूँ भक्ति धर, ऋद्धि निधीश्वर, मुझ शिवपथ निर्विघ्न करें।।१।।
—स्रग्विणी छंद—
मैं नमूँ मैं नमूँ नाथ गणधार को।
शील संयम गुणों के सुभंडार को।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।२।।
ऋद्धियाँ सर्व तेरे पगों के तले।
सर्व ही सिद्धियाँ आप चरणों भले।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि के तारना।।३।।
धन्य हैं धन्य हैं धन्य हैं ऋद्धियाँ।
वंदते ही फलें ये सभी सिद्धियाँ।।
मैं नमूं मैं नमूं सर्व ऋद्धीधरा।
ऋद्धियों को नमूं मैं नमूं गणधरा।।४।।
बुद्धि ऋद्धी कही हैं अठारा विधा।
विक्रिया ऋद्धियाँ हैं सुग्यारा विधा।।
है क्रियाचारणा ऋद्धि नौ भेद में।
ऋद्धि तप सात विध दीप्त तप आदि में।।५।।
ऋद्धि बल तीन विध शक्तिवर्धन करें।
औषधी आठ विध स्वास्थ्य वर्धन करें।।
ऋद्धि रस षट्विधा क्षीर अमृत स्रवे।
ऋद्धि अक्षीण दो भेद अक्षय धरें।।६।।
आठ विध ये महा ऋद्धि चौंसठ विधा।
भेद संख्यात होते सु अंतर्गता।।
बुद्धि ऋद्धी जजें बुद्धि अतिशय धरें।
विक्रिया पूजते विक्रिया बहु करें।।७।।
चारणी ऋद्धि आकाशगामी करे।
पुष्प जल पर चलें जीव भी ना मरें।।
दीप्ततप आदि ऋद्धी धरें जो मुनी।
कांति आहार बिन भी रहे उन घनी।।८।।
तप्ततप से कभी भी न नीहार हों।
शक्ति ऐसी जगत् सौख्य करतार जो।।
क्षीरस्रावी मधुस्रावि अमृतस्रवी।
इन वचो भी बने क्षीर अमृतस्रवी।।९।।
औषधी ऋद्धि से रुग्ण नीरोग हों।
साधु तनवायु से विषरहित स्वस्थ हों।।
ऋद्धि अक्षीण से अन्न अक्षय करें।
पूजते साधु को पुण्य अक्षय भरें।।१०।।
बारहों अंग पूर्वों कि रचना करी।
आज तक भी वही सार१ में है भरी।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।११।।
गणधरों के बिना दिव्यध्वनि ना खिरे।
पद उन्हें जो प्रभू पास दीक्षा धरें।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।१२।।
गणधरों का सुमाहात्म्य मुनि गावते।
कीर्ति गाके कोई पार ना पावते।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।१३।।
धन्य मैं धन्य मैं धन्य मैं हो गया।
धन्य जीवन सफल आज मुझ हो गया।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।१४।।
आप गणइंद्र की भक्ति शोकापहा१।
आप की भक्ति ही सर्वसौख्यावहा२।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।१५।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
‘ज्ञानमति’ पूर्ण हो सुख असाधारणा।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।१६।।
—दोहा—
चौबीसों तीर्थेश के, गणधर गुण आधार।
नमूँ नमूँ उनके चरण, मिले स्वात्मनिधिसार।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरस्य वृषभसेनादिचतुरशीतिगणधरचरणेभ्य:
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
ऋषभदेव के समवसरण को, जो जन पूजें रुचि से।
मनवांछित फल को पा लेते, सर्व दुखों से छुटते।।
धर्मचक्र के स्वामी बनते, तीर्थंकर पद पाते।
केवल ‘ज्ञानमती’ किरणों से भविमन ध्वांत नशाते।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।